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शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

Shallow rivers can not bear normal mansoon

सिमटती नदियों में कैसे समायेगा सावन-भादौ

                                                                                                                                 पंकज चतुर्वेदी
सावन जो झमक कर बरसा तो जो देश एक-एक बूंद पानी के लिए तरस रहा था, घर-गांव- बस्ती में पानी से लबा-लब हो कर हाय-हाय करने लगा। सभी जानते हैं कि बरसात की ये बूंदे सारे साल के लिए यदि सहेज कर नहीं रखीं तो सूखे-अकाल की संभावना बनी रहती है। हर बूंद को सहेजने के लिए हमारे पास छोटी-बड़ी नदियों का जाल है। तपती धरती के लिए बारिश अकेले पानी की बूंदों से महज ठंडक ही नहीं ले कर आती  हैं, यह समृद्धि, संपन्नता की दस्तक भी होती है। लेकिन यह भी हमारे लिए चेतावनी है कि यदि बरसात वास्तव में औसत से छह फीसदी ज्यादा हो गई तो हमारी नदिया में इतनी जगह नहीं है कि वह उफान को सहेज पाए, नतीजतन बाढ और तबाही के मंजर उतने ही भयावह हो सकते हैं जितने कि पानी के लिए तडपते-परसते बुंदेलखंड या मराठवाड़ा के। सन 2015 की मद्रास में बाढ़ बानगी है कि किस तरह शहर  के बीच से बहने वाली नदियों को जब समाज ने उथला बनाया तो पानी उनके घरों में घुस गया था। दूर भारत की बात क्या की जाए, दिल्ली राजधानी में यमुना नदी टनों मलवा उड़ेल देने के कारण  उथली हो गई है। एनजीटी ने दिल्ली मेट्रो सहित कई महकमों को चेताया भी इसके बावजूद निर्माण से निकली मिट्टी व मलवे को यमुना नदी में खपाना आम बात हो गई है।

यह सर्वविदित है कि पूरे देश में कूड़ा बढ़ रहा है और कूड़े के खपाने के स्थान सिमट रहे हैं। विडंबना है कि चलती ट्रैन से पैन्ट्री के कूड़े से ले कर स्थानीय निकाय भी अपने कूड़ा वाहनों को अपने शहर-गांव की नदियों में ढकेलने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसका ही कुप्रभाव है कि नदियां मर रही हैं और उथली हो रही हैं। नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदुषण ।

धरती के तापमान में हो रही बढ़ौतरी के चलते मौसम में बदलाव  हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम।  मानसून के तीन महीनों में बामुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अंधाधंुध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियां नदियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं। बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4.7 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर होता है। वहीं कृष्णा , सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम वर्षा  वाला है सो इसमें जल बहाव 2.6 लख घनमीटर प्रति वर्गकिमी ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति में तो बहाव 0.6 लाख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कार्यों के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ हुई व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है।

नदियां अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टुकड़े व बहुत सा खनिज बहा कर लाती हैं। पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अंधाधंुध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों के इस्तेमाल आदि के चलते थेाडी सी बारिश में ही बहुत सा मलवा बह कर नदियों में गिर जाता है। परिणामस्वरूप नदियां उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं। यह भी खतरनाक है कि सरकार व समाज इंतजार करता है कि नदी सूखे व हम उसकी छोड़ी हुई जमीन पर कब्जा कर लें। इससे नदियांे के पाट संकरे हो रहे हैं उसके करीब बसावट बढ़ने से प्रदुषण  की मात्रा बढ़ रही है।
इस समय नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदुषण से है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रायायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिशत की ही खपत होती है, शेष  80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपशिष्ट  या मल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुश्मन है। भले ही हम कारखानों को दोषी यों की गंदगी का तीन चौथाई  हिस्सा घरेलू मल-जल ही है।
आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेडी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, मप्र की खान, उप्र की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं।

हालत यह है कि देश की 27 नदियां नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। वैसे गंगा हो या यमुना, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चिनाव, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरुणा हो या बेतवा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवणर्रेखा, सरयू हो या रामगंगा, गौला हो या सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी गंडक हो या गंडक, कमला हो या फिर सोन हो या भगीरथी या फिर इनकी सहायक, कमोेबेश सभी प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। दरअसल पिछले 50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चंूकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा।
अष्ट्रीय  पर्यावरण संस्थान, नागपुर की एक रपट बताती है कि गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी सहित देश की 14 प्रमुख नदियों में देश का 85 प्रतिशत पानी प्रवाहित होता है। ये नदियां इतनी बुरी तरह प्रदूशित हो चुकी हैं कि देश की 66 फीसदी बीमारियों का कारण इनका जहरीला जल है। इस कारण से हर साल 600 करोड़ रूपए के बराबर  सात करोड़ तीस लाख मानव दिवसों की हानि होती है।
दुर्भाग्य है कि विभिन्न कारणो से नदियों के उथला होने, उनकी जल-ग्रहण क्षमता कम होने और प्रदुषण बढ़ने से सामान्य बरसात का पानी भी उसमें समा नहीं रहा है और जो पानी जीवनदायी है, वह  आम लोगों के लिए त्रासदी बन रहा है। यही नहीं एक महीने बाद ही ये लेाग फिर पानी को तरसेंगें।

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