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बुधवार, 25 मार्च 2020

Corona crisis : Do not forget Farmers

कोरोना के कारण  कहीं किसानों को ना भूल जाएं

पंकज चतुर्वेदी 

जनवाणी मेरठ 
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नोबल कोरोनो जैसी  वैश्विक  महामारी का असर भारत की अर्थ व्यवस्था, रोजगार और आम जनजीवन पर पड़ना ही है। लंबे समय तक बाजार बंदी की मार से बड़े उद्योगपति से ले कर दिहाड़ी मजदूर तक आने वाले दिनों की आशंका  से भयभीत हैं। इन सारी चिंताओं के बीच किसान के प्रति बेपरवाही बहुत दुखद है। वैसे भी हमारे यहां किसानी घाटे का सौदा है जिससे लगातार खेती छोड़ने वालों की संख्या बढ़ रही है, फिर इस बार रबी की पकी फसल पर अचानक बरसात और ओलावश्टि ने कहर बरपा दिया। अनुमान है कि इससे लगभग पैतीस फीसदी फसल को नुकसान हुआ। और इसके बाद कोरोना के चलते किसान की रही बची उम्मीदें भी धराशाही  हो गई हैं। आज भी ग्रामीण भारत की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृषि  है । विदित हो आजादी के तत्काल बाद देश  के सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिशत थी ,जबकि आज यह घट कर 13.7 प्रतिशत हो गई है। यहां गौर करने लायक बात यह है कि तब भी और आज भी खेती पर आश्रित लोगों की आबादी 60 फीसदी के आसपास ही है। यह अजब संयोग है कि कोरोना जैसी महामारी हो या मौसम का बदलता मिजाज, दोनो के मूल में जलवायु पविर्तन ही है, लेकिन कोरोना के लिए सभी जगह चिंता है, किसान को अपने हाल पर छोड़ दिया गया।
राष्ट्रीय सहारा 

इस साल रबी की फसल की बुवाई का रकबा कोई 571.84 लाख हैक्टेयर था जिसमें सबसे ज्यादा 297.02 लाख हैक्टेयर में गेहूं, 140.12 में दलहन, 13.90 लाख हैक्टैयर जमीन में धान की  फसल बोई गई थी।  चूंकि पछिली बार बरसात सामान्य हुई थी सो फसल को पर्याप्त सिंचाई भी मिली । किसान खुष था कि इस बार मार्च-अप्रैल में वह खेतों से सोना काट कर अपने सपनों को पूरा कर लेगा।  गेहूं के दाने सुनहरे हो  गए थे, चने भी गदराने लगे थे, सरसो और मटर लगभग पक गई थी और मार्च के षुरू में ही जम कर बरसात और ओले गिर गए। गैरजरूरी बेमोसम बरसात की भयावहता भारतीय मौसम विभाग द्वारा 16 मार्च को जारी आंकड़ों में देखी जा सकती है। एक मार्च से लेकर 16 मार्च तक देश के 683 जिलों में से 381 में भारी  बरसात दर्ज की गई । यूपी के 75 जिलों में से 74 में भारी बारिश हुई है तो झारखंड के 24, बिहार के 38, हरियाणा के 21, पश्चिम बंगाल के 16, मध्य प्रदेश के 21, राजस्थान के 24, गुजरात के 16, छत्तीसगढ़ के 25 , पंजाब के 20 और तेलंगाना के 14 जिलों में भारी बारिश हुई है। सनद रहे यही फसल में बीज बनने का समय का  दौर था।  अधिक से अधिक पदं्रह दिन में कटाई षुरू हो जानी थी।  तेज बरसात और ओलों केकारण पहले से ही तंदरूस्त फसल के बोझ से झूल रहे पौधे जमीन पर बिछ गए।  इससे एक तो दाना बिखर जाता है, फिर ओले की मार से अन्न मिट्टी में चला जाता है। फसल भीगने से उसमें लगने वाले कीड़े या अंतिम समय में दाना के पूर्ण आकार लेने की क्षति सो अलग।

कृषि मंत्रालय ने इस साल गेहूं की रिकॉर्ड पैदावार 10.62 करोड़ टन होने की अनुमान जताया था, लेकिन अब ये उत्पादन गिर सकता है। साल 2019 में देश में 10.36 करोड़ टन गेहूं पैदा हुआ था। गेहूं के साथ दूसरी जो फसल को भारी नुकसान पहुंचा है वो सरसों है। राजस्थान, हरियाणा से लेकर यूपी तक सरसों को काफी नुकसान पहुंचा है। कृषि मंत्रालय अपने रबी फसल के पूर्वानुमान में पहले ही 1.56 फीसदी उत्पादन कम होने की आशांका जाहिर की थी। अकेले उत्त प्रदेष में 255 करोड़ की फसल का नुकसान हुआ है।
मौसम की मार ही किसान के दर्द के लिए काफी थी लेकिन कौरोना के संकट से उसकी अगली फसल के भी लाले पड़ते दिख रहे हैं।  जिसने कटाई षुरू कर दी थी या जिसका माल खलिहान में था, दोनों को बरसात ने चोट मारी है। यातायात बंद होने से चैत काटने वाले मजदूरों का टोटा भी अब हो रहा है।  यदि फसल कट जाए तो थ्रेषर व अन्य मषीनों का आवागमन बंद है।  षहरों से मषीनों के लिए डीजल लाना भी ठप पड़ गया है। वैसे तो फसल बीमा एक बेमानी है। फिर भी मौजूदा संकट में पूरा प्रषासन कोरोनो में लगा है और बारिष-ओले से हुए नुकसान के आकलन, उसकी जानकारी  कलेक्टर तक भेजने और कलेक्टर द्वारा मुआवजा निर्धारण की पूरी प्रक्रिया आने वाले एक महीने में षुरू होती दिख नहीं रही है।  फसल बीमा योजना के तो दस महीने पुराने दावों का अभी तक भुगतान हुआ नहीं है। यही नहीं कई राज्यों में बैंक किसानों से 31मार्च से पहले पुराना उधार चुकाने के नोटिस जारी कर रहे हैं। जबकि   आने वाले कई दिनों तक किसान की फसल मंडी तक जाती दिख नहीं रही है।

छोटे किसान को कौरोनो की मार दूसरे तरीके से भी पड़ रही है। नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक देश में 14 करोड़ हैक्टर खेत हैं।  विभाग की ‘‘भारत में पारिवारिक स्वामित्व एवं स्वकर्षित जोत’’ संबंधित रिपोर्ट का आकलन बेहद डरावना है। सन 1992 में ग्रामीण परिवारों के पास 11.7 करोड़ हैक्टर भूमि थी जो 2013 तक आते-आते महज 9.2 करोड़ हैक्टर रह गई।  यदि यही गति रही तो तीन साल बाद अर्थात 2023 तक खेती की जमीन आठ करोड़ हैक्टर ही रह जाएगी। इसके मूल कारण तो खेती का अलाभकारी कार्य होना, उत्पाद की माकूल दाम ना मिलना है। इसी लिए हर किसन परिवार से कोई ना कोई षहरों में चौकीदार से ले कर क्लर्क या कारखाना मजदूर की नौकरी करने जा रहा है। कौरोना के संकट ने बीते एक महरीने के दौरान षहरों में काम बंदी की समस्या को उपजाया और भय-आषंका और अफवाहों से मजबूर लोग गांव की तरफ लौट गए। इस तरह छोटे किसान पर षहर से आए लोगों का बोझ भी बढ़ रहा है।। कौरोनो के कारण ,खाद्यान में आई महंगाई से ग्रामीण अंचल भी अछूते नहीं हैं। एक बात और असमय बरसात कोरोना  ने  सब्जी, फूल जैसी ‘‘नगदी फसलों’’ की भी कमर तोड़ दी है। षहर बंद है, पूजा स्थल बंद हैं और विवाह और अन्य  आयोजन भी ठप्प  हैं और ऐसे में फूल उगाने वाले को खेतों में ही अपने फूल सड़ाने पड़ रहे हैं। ठीक इसी तरह गांव से षहर को चलने वाली बसें, ट्रैन व स्थानीय परिवहन की पूरी तरह बंदी से फल-सब्जी का किसान अपने उत्पाद सड़क पर लावारिस फैंक रहा है।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देष के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी। उसे सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देष के चहुंमुखी विकास में वह महत्वपूर्ण अंग है।  सरकार व समाज रोज ही षेयर बाजार के उतार चढ़ाव पर आहें भर रहा है, सोनो-चांदी के दाम पर चिंतित हो रहा है लेकिन किसान के ममाले में संवेदनहीनता कही हमारे देष की खाद्य सुरक्षा के दावों पर भारी न पड़ जाए।  कोरोना की चिंता के साथ किसान की परवाह भी देा के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।


शनिवार, 21 मार्च 2020

home remedies can prevent big medical expenditure

आंगन की हरियाली बचा सकती है बीमार होने से
पारंपरिक ज्ञान बेहतर है महंगे चिकित्सा खर्च से
पंकज चतुर्वेदी

कुछ सौ रूपए व्यय कर मच्छर नियंत्रण से जिन बीमारियों को रोका जा सकता है , औसतन सालाना बीस लाख लोग इसकी चपेट में आ कर इसके इलाज पर अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई के अरबों रूपए लुटा रहे हैं । स्वास्थ्य के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में षर्मनाक है। यहां तक कि चिकित्सा सेवा के मामले में भारत के हालात श्रीलंका, भूटान व बांग्लादेष से भी बदतर हैं। अंतरराश्ट्रीय स्वास्थ्य पत्रिका ‘ लांसेट’ की ताजातरीन रिपोर्ट ‘ ग्लोबल बर्डन आफ डिसीज’ में बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हमारा देष दुनिया के कुल 195 देषों की सूची में  145वें स्थान पर है। रिपोर्ट कहती है कि भारत ने सन 1990 के बाद अस्पतालों की सेहत में सुधार तो किया है। उस साल भारत को 24.7 अंक मिले थे, जबकि 2016 में ये बढ़ कर 41.2 हो गए हैं। उधर यह वैज्ञानिक भी मान चुके हैं कि यदि आपके घर पर  कहीं एक तुलसी को पौधा लगा हो तो मच्छर दूर रहेंगे, जिसकी कीमत बामुश्किल  पंद्रह-बीस रूपए होती है। ठीक इसी तरह भोजन में नियमित हल्दी का इस्तेमाल शरी के कई विकारों को दूर रखता है।
धरती कभी आग का गोला था, पर्यावरण ने इसे रहने लायक बनाया और प्रकृति ने मुनष्यों सहित सारे जीवों, पेड़-पौधों का क्रमिक विकास किया। प्रकृति और जीव एक दूसरे के पूरक हैं। यजुर्वेद में एक श्लोक वर्णित है-
ओम् द्यौः शान्तिरन्तरिक्षँ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयेः शान्तिर्विष्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वँ शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।।
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
इस श्लोक में इंसान को प्राकृतिक पदार्थों में शांति अर्थात संतुलन बनाए रखने का उपदेश दिया गया है। श्लोक में पर्यावरण समस्या के प्रति मानव को सचेत आज से हजारों साल पहले से ही किया गया है। पृथ्वी, जल, औषधि, वनस्पति आदि में शांति का अर्थ है, इनमें संतुलन बने रहना। जब इनका संतुलन बिगड़ जाएगा, तभी इनमें विकार उत्पन्न हो जाएगा। और आज का समाज इस त्रासदी को भोग रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि आधुनिक खेेज व मशीनी सुविधाओं ने भले ही इंसान के जीवन को कुछ सरल बना दिया हो, लेकिनइस थोड़ी सी राहत ने उनके विकित्सा व्यय में जरूर बढ़ौतरी कर दी है।  शिक्षा के प्रसार के साथ ही आम लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता तो बढ़ी लेकिन विडंबना है कि समाज अपनी पारंपरिक ज्ञान के बनिस्पत ऐसी चिकित्सा प्रणाली की ओर ज्यादा आकर्षित हो गया, जिसका आधार मूलरूप से बाजारवाद है और इसके दूरगामी परिणाम एक नई बीमारी की ओर कदम बढ़ा देते हैं।
हिंदू धर्म में परंपरा है कि देव को फूल अर्पित किए जाएं, प्रशाद में तुलसी को शामिल किया जाए। मंदिर जाएं, आरती करें और घंटे जैसे वाद्य यंत्र बजाएं। इस्लाम में भी पांच वक्त नमाज की अनिवार्यता है। एक बात जान लें तुलसी या फूल चढ़ाने से भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सारी कायनात, जिसमें फल-फूल भी हैं, को तो उसी परम पिता परमेश्वर ने बनया है। ठीक इसी तरह घंटा बजाने या या पांच वक्त नमाज से परवरदिगार या भगवान  को खुश नही ंकिया जा सकता। वे तो इंसान के अच्छे कर्म से ही खुश होते हैं। वास्तव में ये सभी परंपरएं हर उक इंसान को निरोग रखने और अपने पड़ोस-आंगन में ही प्राथमिक उपचार की परंपरा का हिस्सा रही हैं। भगवान कभी नही  अपेक्षा करता कि उनका भक्त किसी दूसरे की क्यारी से फूल या फल तोड़ कर उन्हें आस्था से चढ़ाए। वास्तव में यह परंपरा बनाई ही इसी लिए गई कि लोग प्रभु के बहाने अपने घर-आंगन-क्यारी में कुछ फूल व फल लगाएं।  हकीकत में घर में लगने वाले अधिकांश  फूल ना केवल परिवेश की वायु को शुद्ध रखने में भूमिका निभाते हैं, बल्कि वे छोटी-मोटी बीमारी की दवा भी होते हैं। तुलसी तो प्रत्येक चिकित्सा प्रणाली में कई रोगों को इलाज  ही नहीं, कई बीमारियों को अपने पास आने से भी रोकती हैं।  ठीक इसी तरह मंदिर में घंटा या ताली बजाना शरीर की पूरी एक वर्जिश होती है।  यह आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि ताली बजाने, हाथ उपर कर घंटा बजाने से समूचे शरीर की वर्जिश होती है। ठीक इसी तरह पांच वक्त नामज का अर्थ हुआ कि इंसान पांच बार अपने शरीर को साफ रखता है और नमाज की पूरी प्रक्रिया भी समूचे शरीर के हर अंग की संपूर्ण वर्जिश ही है।
तुलसी एक संपूर्ण चिकित्सालय
तुलसी का बॉटेनिकल नाम ऑसीमम सैक्टम है। यह पौधा तमाम रोगों के इलाज में कारगर है। आयुर्वेद विशेषज्ञों ने इसे धार्मिक परंपरा से जोड़ कर हर आंगन तक पहुंचा दिया। ऐलोपैथी, होमियोपैथी और यूनानी दवाओं में भी तुलसी का किसी न किसी रूप में प्रयोग किया जाता है।
आयुर्वेद, यूनानी व तमाम एलोपैथ के डॉक्टर तुलसी को आंगन में डॉक्टर का नाम देते हैं। आयुर्वेदाचार्य पं. आत्माराम दूबे बताते हैं कि आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथ चरक संहिता, सूश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय, भाव प्रकाश, वाणभट्ट संहिता आदि सभी ग्रंथों में तुलसी का महत्व बताते हुए इसे जीर्ण ज्वर, खांसी, प्रतिश्पात (जुकाम, नजला, सर्दी), ठंड आने वाली बुखार, मियादी बुखार जिसमें नियत काल के बाद बुखार आता है, का प्रमुख इलाज बताया गया है। ऋतु परिवर्तन के साथ जितने तरह की बीमारियां आती हैं, उनमें तुलसी के प्रयोग की सलाह दी जाती है। वायु व कफ जनित रोगों में यह प्रमाणिक रूप से कारगर है। विज्ञान जगत ने इसके एंटी बायोटिक गुणों की भी खोज की है, यानि यह जीवाणुओं को नष्ट भी करता है।   इसमें महक के लिए उत्तरदायी यूजीनॉल मिलता है। जहां पर्याप्त संख्या में तुलसी के पौधे हों, वहां मच्छर आदि नहीं आते। तुलसी में ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स, विटामिन सी आदि तत्व होते हैं। इसमें एंटी बैक्टीरियल, एंटी ऑक्सीडेंट, एंटी माइक्रोबियल, एंटी वायरस, एंटी फंगल आदि गुण होते हैं।
यही कारण है कि तुलसी को अपने घर में लगाने और प्रशाद में इसी उपस्थिति की अनिवार्यता की बात धर्म में की जाती है। इसी बहाने आम लोग हर दिन अपने शरीर को बीमारियों से परे रख सकते हैं। यही नहीं अपने परिवेश में बहुत ही कम देखभाल से उग आने वाले पेड़ जैसे- अर्जुन, अशोक, गुड़हल नीम आदि अपने आपमें संपूर्ण अस्पताल होते हैं। कहा जाता था कि हर बस्ती के लिए जरूरी होता है कि वहां एक जल का साधन जैसे कुआं हो और साथ में नीम, पीपल  अथवा बड़ का पेड़ भी हो। यही नहीं घर में ही धनियां, लहसुन, पुदीना, नीबू अािद रसोई का सामान तो है ही कई बीमारियों का पुख्ता इलाज भी है।
हमारे पुरा-समाज ने यह परिकल्पना यही सोच के साथ की थी कि इन पेड़-पौधों केे कारण एक तो रोग बस्ती में फटके नहीं और आएं भी तो उनका इलाज अपने आसपास लगी हरियाली में ही मिल जाए। दुर्भाग्य है कि आज पारंपरिक चिकित्सा ज्ञान को अंधविश्वास करार दिया जा रहा है और साधारण सी बीमारी जैसे- बुखार, खांसी, जुकाम , पेट दर्द या खुजली अािद के लिए जांच व  दवा के एवज में अफरात कमाई की जाती है। हकीकत तो यह है कि हमारी जीवन शैली से हरियाली के दूर होने के चलते ही इसमें से कई बीमारियां हम तक आती हैं। आज नीम के काटाणुरोधी गुणों के कारण इसका इस्तेमाल कई दवाओं के साथ-साथ कीट नाशकों में भी हो रहा है। हालांकि यह बेहद संवेदनशील मसला है कि  अपने परिवेश की वनस्पति का चिकिस में इस्तेमाल क्सा हर कोई कर सकता है या फिर इसके जानकार की सलाह से ही ऐसा किया जाए।

भारत के आदिवासी: जिनका जड़ीबूटी ज्ञान है आधुनिक चिकित्सा से बेहतर
जिस आदिवासी समाज के जीवकोपार्जन , सामाजिक जीवन और अस्तित्व का आधार ही पेड़ हो, वह तो उसे हानि पहुंचाने से रहा। छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग आदिवासी परम्पराओं और मान्यताओं से सराबोर है। बस्तर में नीम, महुआ, बरगद, आम, पीपल, नींबू, अमरूद, कुल्लू, मुनगा, केला, ताड़ी, सल्फी, गुलरबेल एवं कुल 16 प्रकार के पेड़ों को आराध्य माना जाता है व इनकी विधि-विधान से पूजा की जाती है। इसके अलावा सौ प्रकार से ज्यादा वृक्ष, 28 प्रकार की लताएं, 47 प्रकार की झाडिय़ां, 9 प्रकार के बंास तथा फर्न को भी पूजा जाता है।
भले ही लोग भगवान की कसम खा कर खूब झूठ बोलें लेकिन जनजाति के लोग अपने आराध्य या कुल के पेड़ की कभी झूठी कसम नहीं खाते। आदिवासी समाज में गोत्रों के नाम, पेड़ पौधे व वन्य प्राणियों के आधार पर रखे गए हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि वनों के बीच रहने के चलते पेड़ों एवं वन्य प्राणियों से इनका गहरा जुडा़व रहा है। आदिवासी समाज में सबसे अधिक महत्व साज के वृक्ष का होता है, अपने आराध्य बूढ़ादेव की या साज के पत्तों की कसम खिलाई जाए तो वह झूठ बोल नहीं सकता है, भले ही सच बोचने पर उसकी जान ही चली जाए।
बीते कुछ दशकांे के दौरान प्रगति के नाम पर जो कुछ हुआ, उसने ना केवल आदिवासियों के पारंपिरक झान पर डाका डाला, बल्कि उनके चिकित्सीय-संसाधन पर भी बलात कब्जा कर लिया। इसी कारण उनका चिकित्सा ज्ञान भी अब ‘‘सभ्य’’ समाज द्वारा बाजार में बिकने वाली चीज बनता जा रहा है ।
छत्तीसगढ़ अंचल के आदिवासी इलाके में बस्तर-अबुझमाड़ के बाशिंदों के जीवन के गूढ़ रहस्य आज भी अनबूझ पहेली हैं । अभी कुछ साल पहले तक बस्तर के 95 वर्षीय चमरू राम कैसी भी टूटी हड्डी को 10 दिन में जोड़ दिया करते थे । पूरी तरह अनपढ़ इस आदिवासी के पास हड्डियां जुड़वाने के लिए सुदूर महानगरों के सम्पन्न लोगों का तांता-सा लगा रहता था । चमरू राम कई अन्य  जड़ी-बूटियों के भी जानकार थे और मरीज की नब्ज का हाल जानने के लिए पपीते के पेड़ के तने से बना स्टेथिस्कोप प्रयोग में लाते थे। उनके बाद वह पारंपरिक ज्ञान अगली पीढी तक जा नहीं पाया।  डोंगरगांव के कुम्हारपारा व अर्जुनी के गड़रिया दंपत्ति बबासीर का शर्तिया इलाज करते हैं । ये लोग अपनी दवा बिही (अमरूद) की छाल से तैयार करते हैं, लेकिन उसका फार्मूला किसी को नहीं बताते हैं । इसी प्रकार बघेरा के दाऊ रामचंद्र देशमुख की प्रसिध्दि का कारण इनकी लकवा की अचूक दवाई है । यहां जानना जरूरी है कि ये सभी ‘‘डॉक्टर’’ अपने मरीजों से किसी भी तरह से कोई फीस नहीं लेते हैं । बस्तर के जंगलों में ‘‘संधानपर्णी’’ नामक एक ऐसी बूटी पाई गई है, जिससे कैसा भी ताजा घाव 24 घंटे मेें भर जाता है । ग्रामीयों का दावा है कि यही वह बूटी है, जिसके लिए हनुमान पर्वत उठा कर ले गए थे और लक्ष्मण स्वस्थ हुए थे । अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली के रिटयर्ड डाक्टर जगन्नाथ शर्मा ने इस जड़ी-बूटी की पुष्टि भी की ।



इन आदिवासियों द्वारा सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रयुक्त औषधि वनस्पतियों में से अधिकांश का उपयोग अब आयुर्वेदिक व अंग्रेजी दवाईयों के निर्माण में होने लगा है । ‘‘मुस्कानी भाजी’’ याणी मंडूकपर्णी का उपयोग मन की प्रसन्नता हेतु बतौर दवा के होता है । ‘‘पथरिया भाजी’’ के नाम से जंगलों में मिलने वाली पुनर्नवा झाड़ी को पथरी का इलाज माना जाता है । हठजोड (अस्थि संहारक) को हड्डी जाड़ने में, धन बेहेर (अमलतास) को पाचन, अटकपारी (पाठल) को सिर दर्द, जीयापोता को पुत्र प्राप्ति, ऐठी-मुरी (मरोंड़ फली) को पेट दर्द, बेमुची (बागची) को त्वचा रोगों के इलाज में प्रयोग करना आदिवासी भलीभांति जानते हैं । अशोक के वृक्ष से बनी दवाओं को स्त्री-रोग में ठीक माना जाता है तो सांप-चढ़ी से सर्प विष उतार दिया जाता है । आदिवासी लोग परिवार नियोजन के लिए गुड़हल का प्रयोग करते हैं तो सहजन को रक्तचाप में । आज ये सभी बूटियां आधुनिक चिकित्सा तंत्र का अहम हिस्सा बन गई हैं । तेज बुखार आने पर कपुरनि (दुध मंगरी) की जड़ गले में बांध दी जाती है तो डायरिया, मलेरिया का इलाज क्रमशः गोरख मुंडी व पारही कन्दा नामक जंगली झाड़ियों में छिपा है । मुई-कीसम का प्रयोग बच्चों के फोड़े-फुंसी में होता है ।
बस्तर अंचल में पाए जाने वाले मोहलेन की विशेषता है कि उससे निर्मित ‘‘पोटम’’ (प्याले) में दस साल तक चावल खराब नहीं होता है, ना ही उसमें कीड़े घुन लगते हैं । जनजातियों में आदमी के अस्वस्थ होने पर इलाज करने के दो तरीके होते हैं । पहला है- बईघ यानी वैद्य की जड़ी-बूटियां और दूसरा है-मती या ओझा या बैगा जो भूत-प्रेत झाड़ता है । बईघ अपनी जड़ी-बूटियां खुद जंगलों से गोपनीय ढंग से चुनता है । बागर, सरगूजा जिले के घने वन, अमरकंटक, धमतरी, गरियाबंद, आदि के अरण्यों में अदभुत जड़ी-बूटियों का अकूत भंडार है । महानदी, शिवनाथ, खारून नदियों के किनारे-किनारे घृतकुमारी, शंखपुष्पी, ब्राहपी, हरण, पर्णी, गोरख मुंडी आदि 300 से अधिक जड़ी बूटियां नैसर्गिक वातावरण में स्वतः उगती रहती हैं ।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन आदिवासियों को बाहरी दुनिया की तथाकथित आधुनिकता से अवगत कराने, जनजातियों की जीवन-शैली पर शोध करने और ना जाने किन-किन बहानों से बाहरी लोग उनके बीच में पहुंचे । इन समाज सेवकों के अति उतसाह व अतिरंजित प्रशासन या विकास ने उनके परंपरागत सामाजिक और सांस्कृतिक आवरण को छेड़ने की भी कोशिश की । गौरतलब है कि इन बाहरी पढ़े-लिखे लोगों ने आदिवासियों को भषणों के अलावा कुछ नहीं दिया । बदले में उनके निः स्वार्थ गुरों (जैसे जड़ी बूटियों के प्रयोग) का व्यावसायिक इस्तेमाल शुरू कर में ‘‘चिलाटी’’ नामक पेड़ मिलता है । इसकी छाल कतिपय बाहरी लोग आदिवासियों से मात्र दो रूपए किलों में खरीदते है । बाद में इसके ट्रक भर के आंध्रप्रदेश भेज दिये जाते हैं और इसका कई सौ गुना अधिक दाम वसूला जाता है । सनद रहे चिलाटी की छाल का उपयोग नशीली दवाओं के निर्माण में होता है । लेकिन यह त्रासदी है कि छाल निकालने के बाद चिलाटी का पेड़ सूख रहे हैं, क्योंकि उन फर ड्रग-माफिया की नजर है । ये माफिया भोले-भोले आदिवासियों को इस घृणित कार्य में मोहरा बागर हुए हैं । यही नहीं अब इन जंगलों में जड़ी-बूटियां उखाड़ने का काम चोरी छिपे युुध्द स्तर पर होने लगा है । इससे यहां के हजारों वर्ष पुराने जंगलों का प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा  रहो है । साथ ही वनवासियों के अपने दैनिक उपयोग के लिए इन जड़ी बूटियों का अभाव होता जा रहा है ।
जिस विशिष्ठ संस्कृति और जीवन शैली के चलते जनजातिय समाज के लोग हजारों वषों से सरलता व शांति से जीवन पीते आ रहे हैं, उसे समकालीन समाज की तमाम बुराईयां ग्रस रही हैं । आदिवासियों के विकास के नाम पर उन पर अपने विचार या निर्णय थोपना, देश की सामाजिक संरचना के लिए खतरे की घंटी ही है । जनजातिय जड़ी बूटियों को जानने की बाहरी समाज की मंशा निश्चित ही स्वार्थपूर्ण है, और इससे जंगल के स्वशासन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ेगा । अतीत गवाह है कि जब-जब वनपुत्रों पर बजारू संस्कृति थेापने का प्रयास किया गया, तब-तब वंश हिंसात्मक प्रतिरोध और अलगाववादी स्वर मुखर हुए है । आदिवासियों की चिकित्सा पध्दति, सभ्य (?) समाज की कसैली नजरों से बची प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का दम तोड़ता अवशेष है । इसके संरक्षण के लिए मात्र यही काफी होगा कि समाज और सरकार उनमें अपनी रूचि दिखाना छोड़ दे ।

बुधवार, 18 मार्च 2020

COVID-19 OR CORONA VIRUS IS MAJOR THREAT TO INDIAN SOCIETY AND ECONOMY

 कोविड-19 से सतर्क रहना जरूरी है

पंकज चतुर्वेदी 
बिजली के मीटर बनाने वाली नोएडा की एक कंपनी  कोई बीस दिन पहले ही इस लिए बंद हो गई । चूंकि मीटर के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से ‘डिजीटल डिसप्ले’ की चीन से ही सप्लाई होती थी और जो पूरी तरह बंद हो गई  सा कारखाने में तालाबंदी हो गई। ‘रोज कुंआ खोद कर पानी पीने वाले’ इस कंपनी के मजदूर जो अधिकांश बंुदेलखंड जैसे इलाकों से हैं , अब धीरे-धीरे अपने गांव- कस्बों में लौट रहे हैं। गाजियाबाद जिले की साढे सात सो से अधिक लघु व मध्यम औद्योगिक इकाईयों के कोरोना वायरस के चलते बंद होने से हजारों लोगों के घरों पर चूल्हा जलने पर संकट खड़ा हो गया है। पूरे देश में दवाई, टीवी, मोबाईल व अन्य इलेक्ट्रानिक उत्पाद के कई हजार ऐसे कल-कारखाने बंद होने के कगार पर हैं जिनका उत्पादन-आधार ही चीन से आने वाला सामामन है। बाजार का हल तो सामने है। यह तो उस समय है जब कौरोना वायरस के कुप्रभाव का दूसरा चरण अभी प्रारंभ हुआ है।  जैसी संभावना है कि आने वाले कुछ दिनों में कौरोना वायरस का संक्रमण तीसरे चरण में भयावह रूप से आम लोगांे पर हमला कर सकता है।

कोविड-19 का पहला चरण तो उन देशों में बीमारी का हमला होता है जहां कौरोना वायरस ने अपना घर बना लिया हो, दूसरे चरण में संक्रमित देशों से विभिन्न देशों को जाने वाले पर्यटकों का वायरस की चपेट में आना और तीसरे चरण के तहत बाहर से आए लोगों के साथ आए संक्रमण का स्थानीय लोगों में प्रसार होना की खतरनाक अवस्था होती है। हमारे लिए चेतावनी है कि देश में सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र है और वहां जो लोग भी इस वायरस के शिकार हैं वे छोटे कस्बों तक मिले हैं। यह सर्वविविदत है कि भारत में चिकित्सा सेवाएं बहुत कमजोर हैं, लोगों में वैज्ञानिकता के बनिस्पत आस्था या अंधविश्वास का ज्यादा जोर होता है और शिक्षा व जागरूकता की कमी है।  उधर दिल्ली जैसे शहर जो आबादी से लबालब हैं, सार्वजनिक परिवहन व अन्य स्थान भीड़ से तरबतर हैं, कौरोना जैसे  वायरस के फैलने के लिए माकूल परिवेश देते हैं।  कोविड़ के कारण समूचे चिकित्सा तंत्र पर दवाब तो होगा ही, इसको रोकने, संक्रमित व्यक्ति के इलाज पर होने वाले व्यय का भार भी सरकार व समाज पर पड़ना है। यह हमारे सामने हैं कि हमारे देश में महज आशंका के कारण ही सैनेटाईजर या मास्क की कालाबाजारी और नकली उत्पादन होने लगा। यदि संक्रमण का प्रभाव तीव्र होने की दशा में यदि ‘लॉक डाउन’ की स्थिति एक सप्ताह की ही बन गई तो भोजन, पानी, दवाई जैसी मूलभूत वस्तुओं के लिए आम लोगों में मारामारी होगी। अभी तो देश में संक्रमित लोगों कीं सख्या डेढ सौ भी नहीं है और दिल्ली के अस्पतालों में अफरातफरी जैसा माहौल है। भले ही आप या अपके परिवेश में इस वायरस का सीधा असर ना हो लेकिन इसकी संभावना या देश मंे कहीं भी प्रसार मंदी, बेराजगारी, गरीबी, जरूरी चीजों की कमी, अफरातफरी जैसी त्रासदियों को लंबे समय के लिए साथ ले कर आएगा।

हमारी तरफ कोविड- 19 का खतरा किस तरह बढ़ रहा है इसे जानने के लिए इसके प्रसार की प्रक्रिया को समझना जरूरी है । इस बीमारी का मूल कारक ‘एसएआरएस कोव-2’ नामक वायरस है। इसके अलावा भी छह अन्य किस्म के कौरोना वायरस होते हैं जिनके कारण आम सर्दी-जुकाम और एसईआरसी अर्थात सीवियर एक्यूट रेसपायरीटी सिंड्रोम और एमईआरसी अर्थात मिडिल ईस्ट रेसपायरीटी सिंड्रोम जैसी बीमारियां होती हैं। इन दिनों दुनिया में कोहराम मचाने वाला वायरस तेलीय वसे का आणविक कण हैं जिसकी सतह पर ‘‘मुकुट अर्थात क्राऊन’’ की तरह कांटे निकले होते हैं और तभी यह कौरोना कहलाता है। माना जता है कि इसका मूल चमगादड़ हैं। चूंकि यह तेलीय कण है तभी साबुन या अल्कोहल आधारित घोल के संपर्क में आते ही निष्क्रिय हो जाता है। यह वायरस किसी संक्रमित व्यक्ति से किसी स्वस्थय व्यक्ति के नाक, मुंह या आंखें के जरिये प्रवेश करता है। संक्रमित छींक या खांसी के साथ निकली बूंदों में यह एक मीटर तक मार करता है। कपड़े-त्वचा आदि चिपक जाने के बाद पर यह लंबे समय तक जीवित रहता है।  स्वस्थ्य इंसान के शरीर में घुसते ही यह एसीई-2 प्रोटिन बनाने वाली कोशिकाओं पर चिपक जाता है। इसी तेलीय संरचना कोशिकाओं की झिलली को कमजोर करती हैं। इसी प्रक्रिया में शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है व संक्रमित व्यक्ति को बुखार आने लगता है। प्रत्येक संक्रमित कोशिका पलक झपकते ही सैंकड़ो-हजारों में गुणित होने लगती हैं। इससे पैदा अनुवाशिकी पदार्थ ‘‘आरएनए’’ संक्रमण को फैंफडों तक ले जाता है। इस तरह बीमार व्यक्ति की छींक या खांसी से निकली बूंदें परमाणु बम की तरह अपनी जद में आए लोगों को अपनी चपेट में ले लेती हैं। सबसे चिंताजनक यह है कि शरीर के भीतर संक्रमण फैलने की गति इतनी  तेज होती है कि अधिकांश मामलों में जब तक डाक्टर इसे समझता है, मरीज के फैंफडों में वायरस अपना पूरा कुप्रभाव दिखा चुका होता है।
भारत में इसके कुछ मरीज ठीक भी हुए हैं, वे केवल इस लिए ठीक हुए कि उन्हें संक्रमण  फैलने से पहले ही पहचान लिया गया और उनका इलाज हो गया। यह भी बात सच है कि अभी इसके जांच की सुविधांए सीमित हैं और सरकारी अस्पताल तक ही हैं।
ऐसे में अल्प शिक्षित, कम जागरूक, मजबूरी में भीड़ भरे सार्वजनिक स्थलों पर रहने वाले जब तक आम बुखार या सर्दी-जुकाम को समझें तक तब इसके गंभीर रूप लेने की संभावना अधिक है।  फिर ऐसा व्यक् िसमाज में किन-किन लोगों के संपर्क में आया, इसका पता लगना कठिन होगा।
इस समय तो जहां तक संभव हो, सार्वजनिक स्थानों पर जाने से परहेज करना, बार-बार हाथ धोना, गैरजरूरी अपनी आंख-नाक को हाथ लगाने से बचना जरूरी है।  साथ ही इस बात के लिए भी तैयार रहना होगा कि इसका सामाजिक-आर्थिक असर लंबे समय तक आम लोगों को प्रभावित करेगा।



शनिवार, 14 मार्च 2020

why Nehru has to be remembered today too

आज का दौर और पंडित नेहरु

पंडित नेहरु वे भारतीय नेता थे जो आज़ादी की लडाई के दौरान और उसके बाद अपनी मृत्यु तक सत्ता में भी साम्प्रदायिकता , अंध विश्वास से लड़ते रहे- पार्टी के भीतर भी और बाहर भी . एक तरफ जिन्ना की सांप्रदायिक राजनीती थी तो उसके जवाब में कांग्रेस का बड़ा वर्ग हिन्दू राजनीति का पक्षधर था, . पंडित नेहरु हर कदम पर धार्मिकता, धर्म अन्धता और साम्प्रदायिकता के भेद को परिभाषित करते रहे , जान लें आज भी नेहरु कि मृत्यु के ५५ साल बाद संघ परिवार केवल नेहरु का गाली बकता है और दूसरी तरफ जमायत जैसे सांप्रदायिक संगठन सी ए ए/ एन आर सी आन्दोलन स्थल पर अम्बेडकर व् गांधी की चित्र तो लगाते हैं लेकिन नेहरु का नहीं . नेहरु के बारे में झूठी कहानियां गढ़ना , उनके फर्जी चित्र बनाना , उनके बारे में अ श्लील किस्से इलेक्रनिक माध्यम पर भेजना -- तनिक सोचें कि अपनी मृत्यु के पचपन साल बाद भी आखिर उनसे किसे खतरा है ? जो इस तरह की अभद्र हरकतों की साजिश होती है ?? असल में उन्हें नेहरु के विचार, नीति या मूल्यों से खतरा है जो कि सांप्रदायिक उभार से सत्ता पाने की जुगत में आड़े आता हैं .

इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए कि साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित हुए देश में " सांप्रदायिक सद्भाव" की अवधारणा और सभी को साथ ले कर चलने की नीति और तरीके की खोज पंडित नेहरु ने ही की थी और उसी के सिद्धांत के चलते , उनकी सामाजिक उत्थान की अर्थ निति के कारण सांप्रदायिक लेकिन छद्म सांस्कृतिक संगठनो के गोद में पलते रहे राजनितिक दल चार सीट भी नहीं पाते थे .
मेरा नेहरु को पसंद करने का सबसे बड़ा कारण है कि वे राजनेता थे , लेकिन राजनीती में आदर्शवाद में उनकी गहन आस्था थी , उनकी दृष्टि दूरगामी थी और उनकी नीतियाँ वैश्विक . वे वेहद संयमित, संतुलित और आदर्श राष्ट्रवाद के पालनकर्ता थे , उनके लिए राष्ट्रीयता देश के लिए भावुकता से भरे सम्बन्ध थे, वे दयानंद, विवेकानन्द या अरविन्द के राष्ट्रवाद सम्बन्धी "धार्मिक राष्ट्रीयता" से परिपूर्ण दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे . तभी संघ परिवार राष्ट्रीयता के नाम पर इन नेताओं की फोटो टांगता है , हालांकि देश के लिए उनके योगदान पर वे कुछ आपदाओं के समय नेकर पहने सामन ढ़ोने के कुछ फोटो के अलावा कुछ पेश कर नहीं पाते हैं , नेहरु का राष्ट्रवाद विशुद्ध भारतीय था , जबकि उनके सामने राष्ट्रवाद को हिन्दू धर्म से जोड़ने वाले चुनौती थे .
नेहरु का स्पष्ट कहना था कि भारत धर्म निरपेक्ष राज्य है न कि धर्म-हीन . सभी धर्म को आदर करना , सभी को उनकी पूजा पद्धति के लिए समान अवसर देना राज्य का कर्तव्य है .वे धर्म के वैज्ञानिक और स्वच्छ दृष्टिकोण के समर्थक थे, जबकि उनके सामने तब भी गाय-गंगा- गोबर को महज नारों या अंध-आस्था के लिए दुरूपयोग करने वाले खड़े थे .

नेहरु मन-वचन- कर्म से लोकतान्त्रिक थे ,उनका लोकतंत्र केवल राजनितिक नहीं था, सामजिक और आर्थिक क्षेत्र को भी उन्होंने लोकतंत्र की परिधि में पिरोया था , नेहरु जानते थे कि देश का ब्रितानी राज में स्सबसे ज्यादा नुक्सान सांप्रदायिक और जातीय विद्वेष के कारण उपजे संघर्षों के कारण हुआ और उसी के कारण कई बार आज़ादी हाथ में आने से चूक गयी . वे साफ़ कहते थे कि देश के लोगों के बीच एकता और सौहार्द को खोने का अर्थ-- देश को खोना है --
आज दिल्ली में संसद से पन्द्रह किलोमीटर दूर तीन दिन तक सांप्रदायिक दंगे होते हैं पचपन लोग मारे जाते हैं और सरकार में बैठे लोगों को न तो इसमें तन्त्र की असफलता दिख रही है और न ही ग्लानी है , कुछ हज़ार मुकदमे दर्ज करने या कई सौ गिरफ्तारी से अपनी जिम्मेदारियों से उऋण होने का भाव न तो लोकतंत्रात्मक है और न ही सांप्रदायिक सद्भाव.

पंडित नेहरु की खासियत थी -- नफरत विहीन व्यक्तित्व. वे न तो अपने विरोधी नेता से विद्वेष रखते थे और न ही पत्रकारों से, शंकर वारा उन पर व्यंग करने अले कार्टून बनाने का किस्सा तो सभी को पता ही है , उन्होंने श्यामा प्रसाद मुकर्जी को भी अपने पहले मंत्री मंडल में लेना पसंद किया , संसद में उनके क भी भाषण में किसी विपक्षी दल के प्रति निजी हमले का एक भी लफ्ज़ नहीं अहा , हालांकि चीन ने उनकी इसी आदत पर घाटा भी दिया उर कुछ कम्युनिस्टों ने भी.
आज नेहरु की सोच की जरूरत है -- जो ईतिहास की देश के सकारात्मक विकास में वैज्ञानिक व्याख्या कर सके, जो भाषा-, बयान और कृत्य में लोगों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव को स्थापित कर सके, राजनीति में शुचिता, विद्वेश रहित माहौल पर भरोसा बना सके , सत्ता लुटने की प्रवृति से उबार सके .
जाहिर है कुछ लोगों को लगेगा कि आज तो जयंती है न पुन्य तिथि -- फिर नेहरु को क्यों याद किया जा रहा है ? कांग्रेस तो नेहरु को कभी का तिलांजली दे चुकी है .
तो जनाब - देश के सामने जब लोकतंत्र के प्रति अविश्वास का माहौल हो, जब साम्प्रदायिकता को एक आम अपराध की तरह गिना जा रहा हो, जब तंत्र के कुछ अंग संविधान मूल्यों के विपरीत काम कर रहे हों, जब लोकतंत्र के मूल तत्व - प्रतिरोध को कुचलने के इए राजतन्त्र अनैतिक तरीके अपना रहा हो -- तब उस आत्मा को याद रखना जरुरी है इसने आधुनिक भारत की मजबूत नीव रखी थी --- जनाब नया भवन तो बनाया जा सकता है लेकिन कुछ लोग असंख्य तल्ले वाली ईमारत की नीव ही खोदना चाहते हैं , तब नीव डालने वाले को याद करना ही होगा , ताकि ईमारत बची रहे .

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शुक्रवार, 13 मार्च 2020

decreasing number of bird is negative sign for nature

पृथ्वी के अस्तित्व पर चेतावनी है पंक्षियों का कम होना

पंकज चतुर्वेदी 

‘भारत में पक्षियों की स्थिति-2020’ रिपोर्ट के नतीजे नभचरों के लिए ही नहीं धरती पर रहने वाले इंसानों के लिए भी खतरे की घंटी हैं। बीते 25 सालों के दौरान हमारी पक्षी विविधता पर बड़ा हमला हुआ है, कई प्रजाति लुप्त हो गई तो बहुत की संख्या नगण्य पर आ गईं। पक्षियों पर मंडरा रहा यह खतरा शिकार से कही ज्यादा विकास की नई अवधारणा के कारण उपजा है। अधिक फसल के लालच में खेतों में डाले गए कीटनाशक, विकास के नाम पर उजाड़े गए उनके पारंपरिक पर्यावास, नैसर्गिक परिवेष  की कमी से उनकी प्रजनन क्षमता पर असर; ऐसे ही कई कारण है जिनकेचलते हमारे गली-आंगन में पंक्षियों की चहचहाहट कम होती जा रही है।
कोई 15500 पक्षी वैज्ञानिकों व प्रकृति प्रेमियों द्वारा लगभग एक करोड़ आकलन के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में भारत में पाए जाने वाली पक्षियों की 1333 प्रजातयों में से 867 का आकलन कर ‘ईबर्ड’ डिजिटल प्लेटफार्म पर दर्ज किया गया है। इनमें 101 प्रजति के पक्षियों को संरक्षण की बेहद आवष्यकता, 319 को सामान्य चिंता की श्रेणी में पाया गया। 442 ऐसी भी प्रजाति हैं जिनके बारे में फिलहाल चिंता की जरूरत नहीं।  रिपोर्ट कहती है कि हैं 52 फीसदी पक्षियों की संख्या लंबे समय से घट रही है, जिससे उनके विलुप्त होने की आशंका पैदा हो गई है। 52प्रतिशत में ऐसे पक्षियों की संख्या 22 फीसदी है जिनकी संख्या काफी तेजी से कम हो रही है। शेष 48 प्रतिशत में पांच प्रतिशत पक्षियों की संख्या बढ़ी है, जबकि 43प्रतिशत की संख्या लगभग स्थिर है।

जंगल में रहने वाले पक्षी जैसे कि  कठफोडवा, सुग्गा या तोता, मैना, सातभाई की कई प्रजातियां, चिपका आदि की संख्या घटने के पीछे तेजी से घने जंगलों में कमी आने से जोड़ा जा रहा है। खेतों में पाए जाने वाले बटेर, लवा  का कम होना जाहिर हैकि फसल के जहरीले होने के कारण है। समुद्र तट पर पाए जाने वाले प्लोवर या चिखली,कर्ल, पानी में मिलने वाले गंगा चील बतख की संख्या बहुत गति से कम हो रही है। इसका मुख्य कारण समुद्र व तटीय क्षेत्रों में प्रदूषण व अत्याधिक औद्योगिक व परिवहन गतिविधि का होना है। घने जंगलों के  मषहूर पूर्वोत्तर राज्यों में पक्षियों पर संकट बहुत चौंकाने वाला है। यहां 66 पक्षी-बिरादरी लगभग समाप्त होने के कगार पर हैं। इनमें 23 अरूणाचल प्रदेष में, 22 असम, सात मणिपुर, तीन मेघालय, चार मिजोरम , पांच नगालैंड और दो बिरादरी के पक्षी त्रिपुरा में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड  या गोडावण को तो अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने इसे संकटग्रस्त पक्षियों की सूची में शामिल किया है। वर्ष 2011 में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क क्षेत्रों में इनकी संख्या 250 थी जो 2018 तक 150 रह गयी। भारत में इंडियन बस्टर्ड की बड़ी संख्या राजस्थान में मिलती है। चूंकि यह शुष्क  क्षेत्र का पक्षी है सो जैसे-जैसे रेगिस्तानी इलाकों में सिंचाई का विस्तार हुआ, इसका इलाका सिमटता गया।फिर इनके प्राकृतिक पर्यावासों पर सड़क, कारखाने, बंजर को हरियाली में बदलने के  सरकारी प्रयोग शुरू  हुए, नतीजा हुआ कि इस पक्षी को अंडे देने को भी जगह नहीं बची। फिर इसका शिकार तो हुआ ही। यही नहीं जंगल में हाई टेंशन  बिजी लाईन में फंस कर भी ये मारे गए। कॉर्बेट फाउंडेशन ने ऐसे कई मामलों का दस्तावेजीकरण किया जहां बस्टर्ड निवास और उनके प्रवासी मार्गों में बिजली की लाइनें बनाई गई हैं। भारी वजन और घूमने के लिए सीमित क्षेत्र होने के कारण बस्टर्ड को इन विद्युत लाइनों से बचने में परेशानी होती है और अक्सर वे बिजली का शिकार हो जाते हैं। यह केवल एक बानगी है। इसी तरह अंडमान टली या कलहंस या चंबल नदी के पानी में चतुराई से षिकार करने वाला हिमालयी पक्षी इंडियन स्कीमर, या फिर नारकोंडम का धनेष; ये सभी पक्षी समाज में फैली भ्रांतियों और अंधविष्वास के चलते षिकारियों के हाथ मारे जा रहे हैं। पालघाट के घने जंगलों में हरसंभव ऊंचाई पर रहने के लिए मषहूर नीलगिरी ब्लू रोबिन या षोलाकिली  पक्षी की संख्या जिस तेजी से घट रही है, उससे स्पश्ट है कि अगले दषक में यह केवल कितबों में दर्ज रह जाएगा। इसका मुख्य कारण पर्यटन, खनन व अन्य कारणों से पहाड़ों पर इंसान की गतिविधियों में इजाफा होना है।

भारत के लिए गंभीर विचार की विशय यह भी है कि साल दर साल ठंड के दिनों में आने वाले प्रवासी पक्षी कम हो रहे हैं। यह सभी जानते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र और उत्तरी ध्रुव में जब तापमान शून्य  से चालीस डिगरी तक नीचे जाने लगता है तो वहां के पक्षी मेहमान बन कर भारत की ओर आ जाते हैं । ऐसा हजारों साल से हो रहा है, ये पक्षी किस तरह रास्ता  पहचानते हैं, किस तरह हजारों किलोमीटर उड़ कर आते हैं, किस तरह ठीक उसी जगह आते हैं, जहां उनके दादा-परदादा आते थे, विज्ञान के लिए भी अनसुलझी पहेली की तरह है। इन पक्षियों के यहां आने का मुख्य उद्देश्य भोजन की तलाश, तथा गर्मी और सर्दी से बचना होता है। यही नहीं इनमें से कई के प्रजनन का स्थल भी भारत है। नियमित भारत आने वाले पक्षियों में साइबेरिया से पिनटेल डक, शोवलर, डक, कॉमनटील, डेल चिक, मेलर्ड, पेचर्ड, गारगेनी टेल तो उत्तर-पूर्व और मध्य एशिया से पोचर्ड, ह्विस्लिंग डक, कॉमन सैंड पाइपर के साथ-साथ फ्लेमिंगो की संख्या साल-दर साल कम होती जा रही है। काजीरंगा, भरतपुर और सांभर झील में इस बार कई प्रजातियां दिखी ही नहीं। इसका मुख्य कारण शहर-कस्बे के तालाबों  में गंदगी, मछली जैसे भोजन की कमी  है। इस साल राजस्थान की सांभर झील में पच्चीस हजार से ज्यादा पक्षियों के मारे जाने की घटना से सरकार को सबक लेना होगा कि मेहमान पक्ष्यिों केलिए किसी तरह की व्यवस्था की जाए।
सबसे बड़ी चिंता की बात है कि इंसान के साथ उसके घर-आंगन में रहने वाले पक्षियों की संख्या घट रही है। गौरेया के गायब होने की चिंता तो आमतौर पर सुनाई देती है लेकिन हकीकत यह है कि गौरैया की संख्या कम नहीं हुई है, वह स्थिर है लेकिन बड़े षहरों से उसने अपना डेरा उठा दिया है। कारण- महानगरों में बेशुमार  कीटनाशकों  के इस्तेमाल से उसका पसंदीदा भोजन छोटे कीड़े-मकोड़े कम हो गए। साथ ही उसके घोसले के लिए माकूल स्थान महानगरों के ंकंक्रीट का जंगल खा गया। ठीक ऐसा ही कौए और गिद्ध के साथ हुआ है। जब तक पंक्षी हैं तब तक यह धरती इंसानों के रहने को मुफीद है- यह धर्म भी है, दर्शन  भी और विज्ञान भी। यदि धरती  को बचाना है तो पक्षिों के लिए अनिवार्य भोजन, नमी, धरती, जंगल, पर्यावास की चिंता समाज और सरकार दोनों को करनी होगी।

गुरुवार, 12 मार्च 2020

sand mining spoiling rivers

नदियों का काल बनता रेत खनन



उत्तर और मध्य भारत की अधिकांश नदियों का उथला होते जाना और थोड़ी सी बरसात में उफन जाना, तटों के कटाव के कारण बाढ़ आना और नदियों में जीव-जंतु कम होने के कारण पानी में ऑक्सीजन की मात्र कम होने से पानी में बदबू आना, ऐसे ही कई कारण हैं जो मनमाने रेत उत्खनन से जल निधियों के अस्तित्व पर संकट की तरह मंडरा रहे हैं। आज हालात यह है कि कई नदियों में ना तो जल प्रवाह बच रहा है और ना ही रेत।
सभी जानते हैं कि देश की बड़ी नदियों को विशालता देने का कार्य उनकी सहायक छोटी नदियां ही करती हैं। बीते एक-डेढ़ दशक में देश में कोई तीन हजार छोटी नदियां लुप्त हो गईं। इसका असल कारण ऐसी मौसमी छोटी नदियों से बेतहाशा रेत को निकालना था, जिसके चलते उनका अपने उद्गम व बड़ी नदियों से मिलन का रास्ता बंद हो गया। देखते ही देखते वहां से पानी रूठ गया। खासकर नर्मदा नदी को सबसे ज्यादा नुकसान उनकी सहायक नदियों के रेत के कारण समाप्त होने से हुआ है। इसका ही असर है कि बड़ी नदियों में जल प्रवाह की मात्र साल दर साल कम हो रही है।
नदियों का रेत निर्माण कार्य के अनुकूल : देश की जीडीपी को गति देने के लिए सीमेंट और लोहे की खपत बढ़ाना नीतिगत निर्णय है। अधिक से अधिक लोगों को पक्के मकान देना और नए स्कूल-अस्पताल का निर्माण होना भी आज की जरूरत है, लेकिन इसके लिए रेत उगाहना अपने आप में ऐसी पर्यावरणीय त्रसदी का जनक है जिसकी क्षति-पूर्ति संभव नहीं है।

देश में वैसे तो रेत की कोई कमी नहीं है, विशाल समुद्री तट है और कई हजार वर्ग किलोमीटर में फैला रेगिस्तान भी, लेकिन समुद्री रेत लवणीय होती है, जबकि रेगिस्तान की बालू बेहद गोल व चिकनी, लिहाजा इनका इस्तेमाल निर्माण में नहीं होता। प्रवाहित नदियों की भीतरी सतह में रेत की मौजूदगी असल में उसके प्रवाह को नियंत्रित करने का अवरोधक, जल को शुद्ध रखने का छन्ना और नदी में कीचड़ रोकने की दीवार भी होती है। तटों तक रेत का विस्तार नदी को सांस लेने का अंग होता है। नदी केवल एक बहता जल का माध्यम नहीं होती, बल्कि उसका अपना एक पारिस्थितिकी तंत्र होता है जिसके तहत उसमें पलने वाले जीव, उसके तट के सूक्ष्म बैक्टीरिया सहित कई तत्व शामिल होते हैं और उनके बीच सामंजस्य का कार्य रेत का होता है। नदियों की कोख को अवैध और अवैज्ञानिक तरीके से खोदने के चलते यह पूरा तंत्र अस्त-व्यस्त हो रहा है। तभी अब नदियों में रेत भी नहीं आ पा रही है, पानी तो है ही नहीं। रेत के लालची नदी के साथ-साथ उससे सटे इलाकों को भी खोदने से बाज नहीं आते।
..तो खत्म हो जाएगी रेत : छत्तीसगढ़ के लिए की गई चेतावनी अब सरकारी दस्तावेजों में भी दर्ज है। कुछ साल पहले रायपुर के आसपास रेत की 60 खदानें थी, प्रशासन ने उनकी संख्या घटा कर दस कर दी। ऐसे में यहां उत्पादन कम है और खपत अधिक है। रायपुर में विकास के कारण आए दिन रेत की मांग बढ़ती जा रही है। ऐसे में विशेषज्ञों की चेतावनी है कि समय रहते यदि चेता नहीं गया तो रायपुर से लगी शिवनाथ, खारुन और महानदी में आगामी कुछ वर्षो में रेत खत्म हो जाएगी।
कानून तो कहता है कि ना तो नदी को तीन मीटर से ज्यादा गहरा खोदो और ना ही उसके जल के प्रवाह को अवरुद्ध करो, लेकिन लालच के लिए कोई भी इनकी परवाह नहीं करता। रेत नदी के पानी को साफ रखने के साथ ही अपने करीबी इलाकों के भूजल को भी सहेजता है। कई बार एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट निर्देश दे चुके हैं। पिछले साल तो आंध्र प्रदेश सरकार को रेत का अवैध उत्खनन ना रोक पाने के कारण 100 करोड़ रुपये का जुर्माना भी लगा दिया गया था। इसके बावजूद मध्य प्रदेश की सरकार ने एनजीटी के निर्देशों की अवहेलना करते हुए रेत खनन की नीति बना दी। एनजीटी ने कहा था कि रेत ढोने वाले वाहनों पर जीपीएस अवश्य लगा हो, ताकि उन्हें ट्रैक किया जा सके, लेकिन आज भी पूरे प्रदेश में खेती कार्य के लिए स्वीकृत ट्रैक्टरों से रेत ढोई जा रही है। स्वीकृत गहराई से दोगुनी-तिगुनी गहराई तक पहुंच कर रेत खनन किया जाता है। जिन चिन्हित क्षेत्रों के लिए रेत खनन पट्टा होता है उनसे बाहर जाकर भी खनन होता है। बीच नदी में आधुनिक मशीनों के जरिये खनन आज आम बात है। यह भी दुखद है कि पूरे देश में जब कभी नदी से उत्खनन पर कड़ाई होती है तो सरकारें पत्थरों को पीस कर रेत बनाने की मंजूरी दे देती हैं, इससे पहाड़ तो नष्ट होते ही हैं, आसपास की हवा में भी धूल कण कोहराम मचाते हैं।
आज जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में जिला स्तर पर व्यापक अध्ययन किया जाए कि प्रत्येक छोटी-बड़ी नदी में सालाना रेत आगम की क्षमता कितनी है और इसमें से कितनी को बगैर किसी नुकसान के उत्खनित किया जा सकता है। फिर उसी अनुसार निर्माण कार्य की नीति बनाई जाए। उसी के अनुरूप राज्य सरकारें उस जिले में रेत के ठेके दें। इंजीनियरों को रेत के विकल्प खोजने पर भी काम करना चाहिए। आज यह भी जरूरी है कि मशीनों से रेत निकालने, नदी के किस हिस्से में रेत खनन पर पूरी तरह पांबदी हो, परिवहन में किस तरह के मार्ग का इस्तेमाल हो, ऐसे मुद्दों पर व्यापक अध्ययन होना चाहिए। साथ ही नदी तट के बाशिंदों को रेत-उत्खनन के कुप्रभावों के प्रति संवेदनशील बनाने का प्रयास भी होना चाहिए।
प्रकृति ने हमें नदी दी थी जल के लिए, लेकिन समाज ने उसे रेत उगाहने का जरिया बना लिया और उसके लिए नदी का रास्ता बदलने से भी परहेज नहीं किया

सोमवार, 9 मार्च 2020

Festival of relief at Iadgaah

दर्द के ‘ईद’ गाह में राहत का पर्व

पंकज चतुर्वेदी
‘‘ क्या तुम लोगों का नाम मोबाईल में रजिस्टर्ड हो गया ? नहीं हुआ तो जान लेना आज शाम से यहां नहीं रह पाओगे।’’ लोगों को दर्द व जुल्म के मंजर को सुनते हुए भीगती आंखों और शून्य हो रहे दिमाग ने तारतम्य को भंग कर दिया। सिर उठा कर देखा - दुबली, सांवली सी वह लड़की, देख कर अंदाज लगाया जा सकता है कि वह किसी ‘व्यावसायिक’ एनजीओ की तरफ से नौकरी बजा रही है। ‘ सुबह तो लोग नहाने आपे जले घर से कुछ तलाशने चले जाते हैं, थोड़ी देर में आओ तो ठीक रहेगा।’ सिर में 35 टांके खा चुके एक इलेक्ट्रिशयन ने निवेदन किया। ‘‘सुबह साढ़े पांच बजे की घर से निकली हूं। इतनी दूर है एक तो यह कैंप । तो क्या देर रात घर पहुंचूं? मुझे नहीं पता नाम नहीं मिला मेबाईल में तो रात में यहां ठहरने को नहीं मिलेगा। ’’ निरीह आंखें याद कर रही हैं कि नाम लिखा है कि नहीं और रात में निकाल दिया तो कहां जाएंगे। तब तक एनजीओ मेडम आगे बढ़ जाती हैं।

दिल्ली की पहचान बन गए सिग्नेचर बिज्र से नेशनल हाई नो पर कोई तीन किलोमीटर चलने पर यमुना विहार के पहले एक संकरी सी सड़क भीतर जाती है- ब्रिज विहार रोड़। इस पर ही आगे चल कर भागीरथी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट वगैरह हैं। लेकिन यहां वह शिव विहार, बाबू नगर आदि हैं जहां अभी दस दिन पहले मानवीयता ने दम तोड़ दिया था। लाशें, घायल लोग, एक कपड़े में जान बचा कर भागे लोग- कोई रिक्शा चलाता है तो कोई मजदूरी या किसी छोटे कारखाने मे नौकरी। अब सभी बेघर और लावारिस हैं। दंगा ग्रस्त रहे इलाके के पहले ही मुस्तफाबाद है। बेहद ंसंकरी गलियों के बीच घनी मुस्लिम बस्ती वाला मुहल्ला। शायद 20 या उससे अधिक गलियां हैं। जिनमें मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के शानादार मकान, दुकान और छोटे-मोटे कारखाने हैं।

नाला पार करते ही पहली संकरी सी गली में है ईदगाह।
अरबी में ईद का अर्थ होेता है- खुशी या पर्व। लेकिन दिल्ली के मुस्तफाबाद का ईदगाह इस समय दर्द का गाह बना हुआ है । अकेले गम ही नहीं है यहां- समाज सेवा वालों का चरागाह भी है। कोई अंदाज नहीं लगा सकता कि इतनी पतली गली में भीतर जा कर इतना बड़ा मैदान होगा। यह ईदगाह मैदान मजबूत बड़े से दरवाजे से घिरा हुआ है और उसके भीतर हैं कई सौ वे लोग जो राजधानी के रूतबे, पच्चासी हजार संख्या और दुनिया के बेहतरीन कही जाने वाली दिल्ली पुलिस की मौजूदगी के बावजूद अपने ही घरों में महफूज ना रह सके। दरवाजे पर सीमा सुरक्षा बल के जवान तैनात हैं। कुछ वालेंटियर हैं, वक्फ बोर्ड से जुड़े लोग भी। बाहर तमाशबीनों , मददगारों की भीड़ बनी ही रहती है।
भीतर जाने के समय लिखे हुए हैं, रिश्तेदार कब मिल सकते हैं और एनजीओ कब आ सकते हैं। मुख्य सड़क से गली में घुसते ही एक दुकान है, जहो एनजीओ व अन्य समाज सेवा करने के इच्छुक लोगों के पास बनते हे।ं बगैर पास के भीतर नहीं जा सकते। इस दुकान के सामने लगातार आने वाली बड़ी-बड़ी गाडिरूों व टैक्सियो ंसे अंदाज हो जता है कि कई लोग यहां सेवा करना चाहते हैं।


ईदगाह के भीतर एक छोटे से गेट से घुसते ही बायें हाथ पर एक पंजीकरण जैसा स्टॉल है, उसके बाद मेडिकल का। यहां सरकारी मेडिकल सुविधा दिखती नही- कोई अधिवक्ता संघ और उसके बाद एक ईसाई मिशनीरी का मेडिकल कैंप है। उसके बाद दिल्ली पुलिस है- लेागो की जान-माल की शिकायतें केवल प्राप्त करने के लिए- इन पर मुकदमा हेागा कि नहीं, यह निर्धारण उस शिकायत के थाने जाने के बाद ही तय होता है। पुलिस के ठीक पास में कोई 10 गुणा-दस फुट का एक घेरा है जिसे बच्चों के मनोरजंन कंेद्र का नाम दिया गया है। वहां कुछ खिलौन आदि है। लेकिन बच्चे नहीं। उसके ठीक बाहर एक एनजीओ नुमा लड़की किताबों के ढेर के साथ खड़ी है। अधिकांश किताबें हिंदी बारह खड़ी की है और किसी ‘‘कमल’8 के निशान वाले प्रकाशक की। बच्चे वहां से किताब ले रहे हैं।
यहीं से शुरू हो जाता है मर्दांे के लिए फोल्डिंग पलंग का दौर। निराश, चोटों के साथ, अपने आने वाले दिनों की आशंकओं में डुबे लोग। अंबिका विहार का वह इंसान मजदूरी करता था। 25 तारीख की रात में उनके यहां नफरत की चिंगारी पहुंची। वह बताता है- ‘‘भीड़ में मेरे आस पस के ही लोग थे जो बता रहे थे कि मुसलमान के मकान कौन से हैं। लेकिन मेरे पड़ोसी पंडितजी ने ही हमें छत से अपने घर में उतारा और चौबीस घंटे रखा। जब मिलेटरी(शायद बीएसएफ के लिए कह रहे थे) आई तब उन्होंने हमें उनके हाथ सौंपा।’’ किसी दुकान पर इलेक्ट्रिीशयन का काम करने वाले ने बताया कि वह तो टेंपो से घर के लिए उतरा था, एक भीड़ मिली, नाम पूछा और पिटाई कर दी। फल बेचने वाले साठ साल के बुर्जुग की तो ठेली भी गई और पिटाई भी हुई। हर चारपाई की अलग कहानियां है लेकिन मसला एक ही है - नफरत, प्रशासन की असफलता, लाचारी।

कैंप के सामने की तरफ आरतों के लिए जगह है। जहां हर एक को जाने की अनुमति नहीं। बोतल पैक पान के डिस्पेंसर लगे हैं और बह भी रहे हैं। कुछ कार्टन-खाके हैं जिनमें दंगा पीड़ितों के प्रति दया जताने के लिए लोगों ने अपने घर मे बेकार पडे़ कपड़े भर कर भेजे हैं। खासकर औरतें उनमें कुछ अपने नाप का, हैयित का तलाशती हैं लेकिन बहुत ही कम को कुछ हाथ लगता है। राहत कैप के हर ब्लाक के बाहर कूुड़े का ढेर है और वहां घूम रहे वालेंटियर अपना मुंह मास्ॅक के ढंके हैं। तभी एक सज्जन आ कर टोकते हैं - यहां फोटो या वीडिया ना बनाएं, कल किसी ने वीडियो बनाया और सोशल मीडिया पर गलत तरीके से डाल दिया। वहीं सामने बरखा दत्त लोगों से बातचीत रिकार्ड करती दिखती हैं।
जेल की तरह बंद इस राहत शिविर में शैाचालय की व्यवस्था नहीं है। भीतर व बाहर कुछ प्लास्टिक के शौचालय खरीद कर टिकाई गए हैं लेकिन उनमें ताले ही पड़े हैं। संकरी गली में सचल शौचालय लगाए गए हैं, लोगों की संख्या को देखते हुए उनकी संख्या कम है और नियमित सफाई ना होने के कारण उनके इस्तेमाल करने के बनिस्पत परिचित लोगो के घर गुसल को चले जाते हैं। राहत कार्य के नाम पर खरीदी में कोई कोताही नहीं है, विभिन्न संस्थाओं द्वारा जमा सामग्री पर अपनी मुहर लगा कर वितरित करने का ख्ेाल भी यहां है। हकीकत में ईदगार राहत शिविर दिल्ली सरकार का है औ सबसे अधिक लोग इसमें है सा मशहूर भी हो गया। तभी हर एनजीओ यहां आ कर अपना बैनर चमका रहा है। हकीकत तो यह है कि मौजपुरए गोकलपुरीए कर्दमपुरीए चांदबागए कबीरनगर व विजय पार्क से ले कर घोंडा, खजूरी तक दंगे के निशान मौजूद हैं। जिनका सबकुछ लुट गया, उनकी बड़ी संख्या पलायन कर गई है, कई पीड़ित लोगों के घरों में आसरा लिए हैं। ईदगाह से आगे चल कर ऐसे लोगों की खबर लेने की परवाह बुहत कम लोगों को है। दंगा पीड़तों की दिक्कतें अनंत हैं- अपने घर को संभालना, अपने पुराने घर लाटने की हिम्मत और भरोसा जुटाना, पुलिए द्वारा दर्ज कर लिए गए दो हजार से ज्यादा मुकदमों में अपना नाम आने से बचानां, अपने रोजगार की व्यवस्था देखना।


मुस्तफाबाद में दंगे नहीं हुए क्योंकि यहां एक तो लोग संपन्न हैं और दूसरे अधिकांश आबादी एक ही समुदाय की है। इसके बावजूद असुरक्षा का भाव ऐसा है कि हर गली के शुरू होने वालीे जगह पर लोहे के दरवाजे लगाए जा रहे हैं। इन मेहफूज दरवाजों के भीतर फिलहाल जो सैंकड़ेा लोग आसरा पाए हैं, उनके फिर से सामान्य जीवन शुरू किए बगैर ऐसी सुरक्षा व्यवस्था बेमानी है और उसके लिए भरोसे की बहाली के मजबूत दरवाजों की ज्यादा जरूरत है।

गुरुवार, 5 मार्च 2020

Riots throwing back Indian economy

दंगे देश की अर्थ व्यवस्था को पीछे ढकेलते हैंे 

पंकज चतुर्वेदी 

यह किसी से छिपा नहीं है कि देश कुछ दिनों से कमजोर उत्पादन, बेरोजगारी, आशंकित अर्थव्यवस्था के चलते चिंतित है। डालर की तुलना में रूपए का अवमूल्यन, महंगाई से आम लोग प्रभावित हैं। उधर कौरोना वायरस के कारण चीन से प्रतिबंधित हुए व्यापार के कारण देश के कारखानों में काम ठप्प है और इसका सीधा असर बाजार  पर है। ऐसे में देश की राजधानी दिल्ली के 12 किलोमीटर दायरे में सांप्रदायिक दंगे भड़कना, आम लोगों में विश्वास के क्षरण  के साथ-साथ आने वाले कई सालों के लिए समाज के गरीब तबके केा और गरीब बना देगा। यह सभी जानते हैं कि जिस देश की राजधानी में इस तरह चार दिन तक सड़कों पर कानून की जगह उपद्रवियों का राज हो, वहां कोई भी विदेशी कंपनी निवेश करने को तैयार होगी नहीं। जब निवेश नहीं होगा तो न हमारी अर्थ व्यवस्था  में सुधार होगा और ना ही लोगों को रोजगार मिलेगा।
जिस व्यापार, धंधे, प्रापर्टी, मानव संसाधन और सबसे बड़ी बात भरोसे का निर्माण करने में इंसान व मुल्क को दशकों लगते हैं, उसे बर्बाद करने में पल लगता है । महज कोई क्षणिक आक्रोश, विद्वेश या साजिश की आग में समूची मानवता और रिश्ते झुलस जाते हैं और पीछे रह जाती हैं संदेह, बदले और सियासती दांव पेंच की इबारतें। विश्व में न्याय, आपसी प्रेम और समानता के प्रतीक माने जाने वाले संविधान की रक्षा के लिए  चल रहा आंदोलन दिल्ली में अचानक खूनी संघर्ष में बदल गया। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि दंगे  जिन इलाकों में भड़के वे एशिया का सबसे बड़ा रेडिमेड कपड़े के मार्केट कहलाने वाले गांधी नगर के लिए कपड़े तैयार करने वालों का इलाका है, देशभर में आटो पार्ट की सप्लाई करने वाली छोटी-बड़ी ईकाइयों का स्थल है , प्लास्टिक से बनने वाले सामान के सैंकड़ो  कारखानों का कंेद्र हैं। एक अनुमान है कि दंगाग्रस्त इलाकों में कोई आठ हजार इकाईयां नश्ट हो गइग् जिनमें लगभग 50 हजार लोगों को सीधा रोजगार मिला था।

इस इलाके में दिल्ली को समर्थ परिवहन देने वाले बैटरी रिक्शा, आटो रिक्शा चालक और कारखानों से माल ढो कर दुकानों या ट्रांसपोर्ट तक पहुंचाने वाले हजारों मालवाहकों के  निवास हैं।  कुछ ही देर में ये कारखाने, उनके उत्पाद के छोटे-मोटे गोदाम, सवारी या माल के सैंकड़ों वाहन राख हो गए हैं। कई सौ घर भी फूंक डाले गए हैं। कई सौ करोड़ का जो नुकसान हुआ, वह किसी व्यक्ति का नहीं, देश की अर्थ व्यवस्था को इतनी गहरी चेट है जिससे उबरना संभव नही ंहोगा और यह त्रासदी कई हजार लोगों को एक झटके में ‘‘बीपीएल या गरीबी रेखा से नीचे’’  ला कर खड़ा कर रही है। जान लें , इससे न तो किसी धर्म को हानि होती है और न ही लाभ लेकिन देश जरूर कई साल पीछे खिसक जाता है।  हिंसा की खबरों का विपरीत प्रभाव पर्यटन पर भी पड़ा है। सनद रहे  दिल्ली में विदेशी पर्यटकों के आगमन का यह लगभग आखिरी हफ्त है। गरमी पड़ने पर बाहरी पर्यटक कम ही आते हैं। पर्यटकों के अपने टूर निरस्त करने से होटल, टैक्सी सहित कई व्यवसाय को भयंकर घाटा उठाना पड़ रहा है। हर बार की तरह इन दंगों का भी अपना अर्थशास्त्र है। 

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत में हिंदू और मुसलमान गत् 1200 वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। डेढ़ सदी से अधिक समय तक तो पूरे देश पर मुगल यानी मुसलमान शासक रहे। इस बात को समझना जरूरी है कि 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों को यह पता चल गया था कि इस मुल्क में हिंदू और मुसलमानों के आपसी ताल्लुक बहुत गहरे हैं और इन दोनों के साथ रहते उनका सत्ता में बना रहना मुश्किल है। एक साजिश के तहत 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमानों को सताया गया, अकेले दिल्ली में ही 27 हजार मुसलमानों का कत्लेआम हुआ। अंग्रेज हुक्मरान ने दिखाया कि हिंदू उनके करीब है।। लेकिन जब 1870 के बद हिंदुओं ने विद्रोह के स्वर मुखर किए तो अंग्रेज मुसलमानों को गले लगाने लगे। यही फूट डालो और राज करो की नीति इतिहास लेखन, अफवाह फैलाने में काम आती रही
यह तथ्य भी गौरतलब है कि 1200 साल की सहयात्रा में दंगों का अतीत तो पुराना है नहीं। कहा जाता है कि अहमदाबाद में सन् 1714, 1715, 1716 और 1750 में हिंदू मुसलमानों के बीच झगड़े हुए थे। उसके बाद 1923-26 के बीच कुछ जगहों पर मामूली तनाव हुए । सन् 1931 में कानपुर का दंगा भयानक था, जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी की जान चली गई थी। दंगें क्यों होते हैं? इस विषय पर प्रो. विपिन चंद्रा, असगर अली इंजीनियर से ले कर सरकार द्वारा बैठाए गए 100 से ज्यादा जांच आयोगों की रिपोर्ट तक साक्षी है कि झगड़े ना तो हिंदुत्व के थे ना ही सुन्नत के। कहीं जमीनों पर कब्जे की गाथा है तो कहीं वोट बैंक तो कहीं नाजायज संबंध तो कहीं गैरकानूनी धंधे।
 गणेश शंकर विद्यार्थी की जान लेने वाले सन् 1931 में कानपुर में हुए दंगों के बाद कांग्रेस ने छह सदस्यों का एक जांच दल गठित किया था। सन् 1933 में जब इस जांच दल की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी थी तो तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी। उस रिपोर्ट में बताया गया था कि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद सदियों से ये दोनों समाज दुर्लभ सांस्कृतिक संयोग प्रस्तुत करते आए हैं। उस रिपोर्ट में दोनों संप्रदायों के बीच तनाव को जड़ से समाप्त करने के उपायों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था -धार्मिक-शैक्षिक, राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक। उस समय तो अंग्रेजी सरकार ने अपनी कुर्सी हिलती देख इस रिपोर्ट पर पाबंदी लगाई थी। आज कतिपय राजनेता अपनी सियासती दांवपेंच को साधने के लिए उस प्रासंगिक रिपोर्ट को भुला चुके हैं। मुंबई दंगों की श्रीकृश्ण आयोग की रपट का जिन्न तो कोई भी सरकार बोतल से बाहर नहीं लाना चाहती।
आम गरीब ना तो स्थाई नौकरियों में है ना ही औद्योगिक घरानों में, हां हस्तकला में उनका दबदबा जरूर है। लेकिन विडंबना है कि यह हुनरमंद अधिकांश जगह मजदूर ही हैं। यदि देश में दंगों को देखें तो पाएंगे कि प्रत्येक फसाद गरीबों के मुंह का निवाला छीनने वाला रहा है। भागलपुर में बुनकर, भिवंडी में पावरलूम, जबलपुर में बीडी, मुरादाबाद में पीतल, अलीगढ़ में ताले, मेरठ में हथकरघा..., जहां कहीं दंगे हुए मजदूरों के घर जलें, उनमे कुटीर उद्योग चौपट हुए। एस. गोपाल की पुस्तक ‘‘द एनोटोमी ऑफ द कन्फ्रंटेशन’’ में अमिया बागची का लेखन इस कटु सत्य को उजागर करता है कि सांप्रदायिक दंगे मुसलमानों की एक बड़ी तादाद को उन मामूली धंधों से भी उजाड़ रहे हैं जो उनके जीवनयापन का एकमात्रा सहारा है। (प्रिडेटरी कर्मशलाईजेशन एंड कम्यूनिज्म इन इंडिया)।
दंगे मानवता के नाम पर कलंक हैं। धर्म, भाषा, मान्यताओं, रंग जैसी विषमताओं के साथ मत-विभाजन होना स्वाभाविक है। लेकिन जब सरकार व पुलिस में बैठा एक वर्ग खुद सांप्रदायिक हो जाता है तो उसकी सीधी मार निरपराध, गरीब और अशिक्षित वर्ग पर पड़ती है। एक बारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुंचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देश के विकास, विश्वास और व्यवसाय को होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दंगों के असली कारण, साजिश को सामने लाया जाए तथा मैदान में लड़ने वालों की जगह उन लेागों को कानून का कड़ा पाठ पढ़ाया जाए जो घर में बैठ कर अपने निजी स्वार्थ के चलते लोगों को भड़काते हैं व देश के विकास को पटरी से नीचे लुढकाते हैं। दुखद यह भी है कि दिल्ली में दंगों के दौरान कोई भी राजनीतिक दल खुल कर षंाति की अपील या प्रयास के साथ सामने नहींे आया। प्रशासन या सत्ता पर आरोप लगाने वाले तो बहुत सामने आते हैं, लेकिन जब लोगों को संभालने की जरूरत होती है तब सभी दल घरों में दुबक कर खुद को एक संप्रदाय का बना लेते हैं।


Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...