My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 21 मार्च 2020

home remedies can prevent big medical expenditure

आंगन की हरियाली बचा सकती है बीमार होने से
पारंपरिक ज्ञान बेहतर है महंगे चिकित्सा खर्च से
पंकज चतुर्वेदी

कुछ सौ रूपए व्यय कर मच्छर नियंत्रण से जिन बीमारियों को रोका जा सकता है , औसतन सालाना बीस लाख लोग इसकी चपेट में आ कर इसके इलाज पर अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई के अरबों रूपए लुटा रहे हैं । स्वास्थ्य के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में षर्मनाक है। यहां तक कि चिकित्सा सेवा के मामले में भारत के हालात श्रीलंका, भूटान व बांग्लादेष से भी बदतर हैं। अंतरराश्ट्रीय स्वास्थ्य पत्रिका ‘ लांसेट’ की ताजातरीन रिपोर्ट ‘ ग्लोबल बर्डन आफ डिसीज’ में बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हमारा देष दुनिया के कुल 195 देषों की सूची में  145वें स्थान पर है। रिपोर्ट कहती है कि भारत ने सन 1990 के बाद अस्पतालों की सेहत में सुधार तो किया है। उस साल भारत को 24.7 अंक मिले थे, जबकि 2016 में ये बढ़ कर 41.2 हो गए हैं। उधर यह वैज्ञानिक भी मान चुके हैं कि यदि आपके घर पर  कहीं एक तुलसी को पौधा लगा हो तो मच्छर दूर रहेंगे, जिसकी कीमत बामुश्किल  पंद्रह-बीस रूपए होती है। ठीक इसी तरह भोजन में नियमित हल्दी का इस्तेमाल शरी के कई विकारों को दूर रखता है।
धरती कभी आग का गोला था, पर्यावरण ने इसे रहने लायक बनाया और प्रकृति ने मुनष्यों सहित सारे जीवों, पेड़-पौधों का क्रमिक विकास किया। प्रकृति और जीव एक दूसरे के पूरक हैं। यजुर्वेद में एक श्लोक वर्णित है-
ओम् द्यौः शान्तिरन्तरिक्षँ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयेः शान्तिर्विष्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वँ शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।।
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
इस श्लोक में इंसान को प्राकृतिक पदार्थों में शांति अर्थात संतुलन बनाए रखने का उपदेश दिया गया है। श्लोक में पर्यावरण समस्या के प्रति मानव को सचेत आज से हजारों साल पहले से ही किया गया है। पृथ्वी, जल, औषधि, वनस्पति आदि में शांति का अर्थ है, इनमें संतुलन बने रहना। जब इनका संतुलन बिगड़ जाएगा, तभी इनमें विकार उत्पन्न हो जाएगा। और आज का समाज इस त्रासदी को भोग रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि आधुनिक खेेज व मशीनी सुविधाओं ने भले ही इंसान के जीवन को कुछ सरल बना दिया हो, लेकिनइस थोड़ी सी राहत ने उनके विकित्सा व्यय में जरूर बढ़ौतरी कर दी है।  शिक्षा के प्रसार के साथ ही आम लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता तो बढ़ी लेकिन विडंबना है कि समाज अपनी पारंपरिक ज्ञान के बनिस्पत ऐसी चिकित्सा प्रणाली की ओर ज्यादा आकर्षित हो गया, जिसका आधार मूलरूप से बाजारवाद है और इसके दूरगामी परिणाम एक नई बीमारी की ओर कदम बढ़ा देते हैं।
हिंदू धर्म में परंपरा है कि देव को फूल अर्पित किए जाएं, प्रशाद में तुलसी को शामिल किया जाए। मंदिर जाएं, आरती करें और घंटे जैसे वाद्य यंत्र बजाएं। इस्लाम में भी पांच वक्त नमाज की अनिवार्यता है। एक बात जान लें तुलसी या फूल चढ़ाने से भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सारी कायनात, जिसमें फल-फूल भी हैं, को तो उसी परम पिता परमेश्वर ने बनया है। ठीक इसी तरह घंटा बजाने या या पांच वक्त नमाज से परवरदिगार या भगवान  को खुश नही ंकिया जा सकता। वे तो इंसान के अच्छे कर्म से ही खुश होते हैं। वास्तव में ये सभी परंपरएं हर उक इंसान को निरोग रखने और अपने पड़ोस-आंगन में ही प्राथमिक उपचार की परंपरा का हिस्सा रही हैं। भगवान कभी नही  अपेक्षा करता कि उनका भक्त किसी दूसरे की क्यारी से फूल या फल तोड़ कर उन्हें आस्था से चढ़ाए। वास्तव में यह परंपरा बनाई ही इसी लिए गई कि लोग प्रभु के बहाने अपने घर-आंगन-क्यारी में कुछ फूल व फल लगाएं।  हकीकत में घर में लगने वाले अधिकांश  फूल ना केवल परिवेश की वायु को शुद्ध रखने में भूमिका निभाते हैं, बल्कि वे छोटी-मोटी बीमारी की दवा भी होते हैं। तुलसी तो प्रत्येक चिकित्सा प्रणाली में कई रोगों को इलाज  ही नहीं, कई बीमारियों को अपने पास आने से भी रोकती हैं।  ठीक इसी तरह मंदिर में घंटा या ताली बजाना शरीर की पूरी एक वर्जिश होती है।  यह आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि ताली बजाने, हाथ उपर कर घंटा बजाने से समूचे शरीर की वर्जिश होती है। ठीक इसी तरह पांच वक्त नामज का अर्थ हुआ कि इंसान पांच बार अपने शरीर को साफ रखता है और नमाज की पूरी प्रक्रिया भी समूचे शरीर के हर अंग की संपूर्ण वर्जिश ही है।
तुलसी एक संपूर्ण चिकित्सालय
तुलसी का बॉटेनिकल नाम ऑसीमम सैक्टम है। यह पौधा तमाम रोगों के इलाज में कारगर है। आयुर्वेद विशेषज्ञों ने इसे धार्मिक परंपरा से जोड़ कर हर आंगन तक पहुंचा दिया। ऐलोपैथी, होमियोपैथी और यूनानी दवाओं में भी तुलसी का किसी न किसी रूप में प्रयोग किया जाता है।
आयुर्वेद, यूनानी व तमाम एलोपैथ के डॉक्टर तुलसी को आंगन में डॉक्टर का नाम देते हैं। आयुर्वेदाचार्य पं. आत्माराम दूबे बताते हैं कि आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथ चरक संहिता, सूश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय, भाव प्रकाश, वाणभट्ट संहिता आदि सभी ग्रंथों में तुलसी का महत्व बताते हुए इसे जीर्ण ज्वर, खांसी, प्रतिश्पात (जुकाम, नजला, सर्दी), ठंड आने वाली बुखार, मियादी बुखार जिसमें नियत काल के बाद बुखार आता है, का प्रमुख इलाज बताया गया है। ऋतु परिवर्तन के साथ जितने तरह की बीमारियां आती हैं, उनमें तुलसी के प्रयोग की सलाह दी जाती है। वायु व कफ जनित रोगों में यह प्रमाणिक रूप से कारगर है। विज्ञान जगत ने इसके एंटी बायोटिक गुणों की भी खोज की है, यानि यह जीवाणुओं को नष्ट भी करता है।   इसमें महक के लिए उत्तरदायी यूजीनॉल मिलता है। जहां पर्याप्त संख्या में तुलसी के पौधे हों, वहां मच्छर आदि नहीं आते। तुलसी में ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स, विटामिन सी आदि तत्व होते हैं। इसमें एंटी बैक्टीरियल, एंटी ऑक्सीडेंट, एंटी माइक्रोबियल, एंटी वायरस, एंटी फंगल आदि गुण होते हैं।
यही कारण है कि तुलसी को अपने घर में लगाने और प्रशाद में इसी उपस्थिति की अनिवार्यता की बात धर्म में की जाती है। इसी बहाने आम लोग हर दिन अपने शरीर को बीमारियों से परे रख सकते हैं। यही नहीं अपने परिवेश में बहुत ही कम देखभाल से उग आने वाले पेड़ जैसे- अर्जुन, अशोक, गुड़हल नीम आदि अपने आपमें संपूर्ण अस्पताल होते हैं। कहा जाता था कि हर बस्ती के लिए जरूरी होता है कि वहां एक जल का साधन जैसे कुआं हो और साथ में नीम, पीपल  अथवा बड़ का पेड़ भी हो। यही नहीं घर में ही धनियां, लहसुन, पुदीना, नीबू अािद रसोई का सामान तो है ही कई बीमारियों का पुख्ता इलाज भी है।
हमारे पुरा-समाज ने यह परिकल्पना यही सोच के साथ की थी कि इन पेड़-पौधों केे कारण एक तो रोग बस्ती में फटके नहीं और आएं भी तो उनका इलाज अपने आसपास लगी हरियाली में ही मिल जाए। दुर्भाग्य है कि आज पारंपरिक चिकित्सा ज्ञान को अंधविश्वास करार दिया जा रहा है और साधारण सी बीमारी जैसे- बुखार, खांसी, जुकाम , पेट दर्द या खुजली अािद के लिए जांच व  दवा के एवज में अफरात कमाई की जाती है। हकीकत तो यह है कि हमारी जीवन शैली से हरियाली के दूर होने के चलते ही इसमें से कई बीमारियां हम तक आती हैं। आज नीम के काटाणुरोधी गुणों के कारण इसका इस्तेमाल कई दवाओं के साथ-साथ कीट नाशकों में भी हो रहा है। हालांकि यह बेहद संवेदनशील मसला है कि  अपने परिवेश की वनस्पति का चिकिस में इस्तेमाल क्सा हर कोई कर सकता है या फिर इसके जानकार की सलाह से ही ऐसा किया जाए।

भारत के आदिवासी: जिनका जड़ीबूटी ज्ञान है आधुनिक चिकित्सा से बेहतर
जिस आदिवासी समाज के जीवकोपार्जन , सामाजिक जीवन और अस्तित्व का आधार ही पेड़ हो, वह तो उसे हानि पहुंचाने से रहा। छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग आदिवासी परम्पराओं और मान्यताओं से सराबोर है। बस्तर में नीम, महुआ, बरगद, आम, पीपल, नींबू, अमरूद, कुल्लू, मुनगा, केला, ताड़ी, सल्फी, गुलरबेल एवं कुल 16 प्रकार के पेड़ों को आराध्य माना जाता है व इनकी विधि-विधान से पूजा की जाती है। इसके अलावा सौ प्रकार से ज्यादा वृक्ष, 28 प्रकार की लताएं, 47 प्रकार की झाडिय़ां, 9 प्रकार के बंास तथा फर्न को भी पूजा जाता है।
भले ही लोग भगवान की कसम खा कर खूब झूठ बोलें लेकिन जनजाति के लोग अपने आराध्य या कुल के पेड़ की कभी झूठी कसम नहीं खाते। आदिवासी समाज में गोत्रों के नाम, पेड़ पौधे व वन्य प्राणियों के आधार पर रखे गए हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि वनों के बीच रहने के चलते पेड़ों एवं वन्य प्राणियों से इनका गहरा जुडा़व रहा है। आदिवासी समाज में सबसे अधिक महत्व साज के वृक्ष का होता है, अपने आराध्य बूढ़ादेव की या साज के पत्तों की कसम खिलाई जाए तो वह झूठ बोल नहीं सकता है, भले ही सच बोचने पर उसकी जान ही चली जाए।
बीते कुछ दशकांे के दौरान प्रगति के नाम पर जो कुछ हुआ, उसने ना केवल आदिवासियों के पारंपिरक झान पर डाका डाला, बल्कि उनके चिकित्सीय-संसाधन पर भी बलात कब्जा कर लिया। इसी कारण उनका चिकित्सा ज्ञान भी अब ‘‘सभ्य’’ समाज द्वारा बाजार में बिकने वाली चीज बनता जा रहा है ।
छत्तीसगढ़ अंचल के आदिवासी इलाके में बस्तर-अबुझमाड़ के बाशिंदों के जीवन के गूढ़ रहस्य आज भी अनबूझ पहेली हैं । अभी कुछ साल पहले तक बस्तर के 95 वर्षीय चमरू राम कैसी भी टूटी हड्डी को 10 दिन में जोड़ दिया करते थे । पूरी तरह अनपढ़ इस आदिवासी के पास हड्डियां जुड़वाने के लिए सुदूर महानगरों के सम्पन्न लोगों का तांता-सा लगा रहता था । चमरू राम कई अन्य  जड़ी-बूटियों के भी जानकार थे और मरीज की नब्ज का हाल जानने के लिए पपीते के पेड़ के तने से बना स्टेथिस्कोप प्रयोग में लाते थे। उनके बाद वह पारंपरिक ज्ञान अगली पीढी तक जा नहीं पाया।  डोंगरगांव के कुम्हारपारा व अर्जुनी के गड़रिया दंपत्ति बबासीर का शर्तिया इलाज करते हैं । ये लोग अपनी दवा बिही (अमरूद) की छाल से तैयार करते हैं, लेकिन उसका फार्मूला किसी को नहीं बताते हैं । इसी प्रकार बघेरा के दाऊ रामचंद्र देशमुख की प्रसिध्दि का कारण इनकी लकवा की अचूक दवाई है । यहां जानना जरूरी है कि ये सभी ‘‘डॉक्टर’’ अपने मरीजों से किसी भी तरह से कोई फीस नहीं लेते हैं । बस्तर के जंगलों में ‘‘संधानपर्णी’’ नामक एक ऐसी बूटी पाई गई है, जिससे कैसा भी ताजा घाव 24 घंटे मेें भर जाता है । ग्रामीयों का दावा है कि यही वह बूटी है, जिसके लिए हनुमान पर्वत उठा कर ले गए थे और लक्ष्मण स्वस्थ हुए थे । अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली के रिटयर्ड डाक्टर जगन्नाथ शर्मा ने इस जड़ी-बूटी की पुष्टि भी की ।



इन आदिवासियों द्वारा सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रयुक्त औषधि वनस्पतियों में से अधिकांश का उपयोग अब आयुर्वेदिक व अंग्रेजी दवाईयों के निर्माण में होने लगा है । ‘‘मुस्कानी भाजी’’ याणी मंडूकपर्णी का उपयोग मन की प्रसन्नता हेतु बतौर दवा के होता है । ‘‘पथरिया भाजी’’ के नाम से जंगलों में मिलने वाली पुनर्नवा झाड़ी को पथरी का इलाज माना जाता है । हठजोड (अस्थि संहारक) को हड्डी जाड़ने में, धन बेहेर (अमलतास) को पाचन, अटकपारी (पाठल) को सिर दर्द, जीयापोता को पुत्र प्राप्ति, ऐठी-मुरी (मरोंड़ फली) को पेट दर्द, बेमुची (बागची) को त्वचा रोगों के इलाज में प्रयोग करना आदिवासी भलीभांति जानते हैं । अशोक के वृक्ष से बनी दवाओं को स्त्री-रोग में ठीक माना जाता है तो सांप-चढ़ी से सर्प विष उतार दिया जाता है । आदिवासी लोग परिवार नियोजन के लिए गुड़हल का प्रयोग करते हैं तो सहजन को रक्तचाप में । आज ये सभी बूटियां आधुनिक चिकित्सा तंत्र का अहम हिस्सा बन गई हैं । तेज बुखार आने पर कपुरनि (दुध मंगरी) की जड़ गले में बांध दी जाती है तो डायरिया, मलेरिया का इलाज क्रमशः गोरख मुंडी व पारही कन्दा नामक जंगली झाड़ियों में छिपा है । मुई-कीसम का प्रयोग बच्चों के फोड़े-फुंसी में होता है ।
बस्तर अंचल में पाए जाने वाले मोहलेन की विशेषता है कि उससे निर्मित ‘‘पोटम’’ (प्याले) में दस साल तक चावल खराब नहीं होता है, ना ही उसमें कीड़े घुन लगते हैं । जनजातियों में आदमी के अस्वस्थ होने पर इलाज करने के दो तरीके होते हैं । पहला है- बईघ यानी वैद्य की जड़ी-बूटियां और दूसरा है-मती या ओझा या बैगा जो भूत-प्रेत झाड़ता है । बईघ अपनी जड़ी-बूटियां खुद जंगलों से गोपनीय ढंग से चुनता है । बागर, सरगूजा जिले के घने वन, अमरकंटक, धमतरी, गरियाबंद, आदि के अरण्यों में अदभुत जड़ी-बूटियों का अकूत भंडार है । महानदी, शिवनाथ, खारून नदियों के किनारे-किनारे घृतकुमारी, शंखपुष्पी, ब्राहपी, हरण, पर्णी, गोरख मुंडी आदि 300 से अधिक जड़ी बूटियां नैसर्गिक वातावरण में स्वतः उगती रहती हैं ।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन आदिवासियों को बाहरी दुनिया की तथाकथित आधुनिकता से अवगत कराने, जनजातियों की जीवन-शैली पर शोध करने और ना जाने किन-किन बहानों से बाहरी लोग उनके बीच में पहुंचे । इन समाज सेवकों के अति उतसाह व अतिरंजित प्रशासन या विकास ने उनके परंपरागत सामाजिक और सांस्कृतिक आवरण को छेड़ने की भी कोशिश की । गौरतलब है कि इन बाहरी पढ़े-लिखे लोगों ने आदिवासियों को भषणों के अलावा कुछ नहीं दिया । बदले में उनके निः स्वार्थ गुरों (जैसे जड़ी बूटियों के प्रयोग) का व्यावसायिक इस्तेमाल शुरू कर में ‘‘चिलाटी’’ नामक पेड़ मिलता है । इसकी छाल कतिपय बाहरी लोग आदिवासियों से मात्र दो रूपए किलों में खरीदते है । बाद में इसके ट्रक भर के आंध्रप्रदेश भेज दिये जाते हैं और इसका कई सौ गुना अधिक दाम वसूला जाता है । सनद रहे चिलाटी की छाल का उपयोग नशीली दवाओं के निर्माण में होता है । लेकिन यह त्रासदी है कि छाल निकालने के बाद चिलाटी का पेड़ सूख रहे हैं, क्योंकि उन फर ड्रग-माफिया की नजर है । ये माफिया भोले-भोले आदिवासियों को इस घृणित कार्य में मोहरा बागर हुए हैं । यही नहीं अब इन जंगलों में जड़ी-बूटियां उखाड़ने का काम चोरी छिपे युुध्द स्तर पर होने लगा है । इससे यहां के हजारों वर्ष पुराने जंगलों का प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा  रहो है । साथ ही वनवासियों के अपने दैनिक उपयोग के लिए इन जड़ी बूटियों का अभाव होता जा रहा है ।
जिस विशिष्ठ संस्कृति और जीवन शैली के चलते जनजातिय समाज के लोग हजारों वषों से सरलता व शांति से जीवन पीते आ रहे हैं, उसे समकालीन समाज की तमाम बुराईयां ग्रस रही हैं । आदिवासियों के विकास के नाम पर उन पर अपने विचार या निर्णय थोपना, देश की सामाजिक संरचना के लिए खतरे की घंटी ही है । जनजातिय जड़ी बूटियों को जानने की बाहरी समाज की मंशा निश्चित ही स्वार्थपूर्ण है, और इससे जंगल के स्वशासन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ेगा । अतीत गवाह है कि जब-जब वनपुत्रों पर बजारू संस्कृति थेापने का प्रयास किया गया, तब-तब वंश हिंसात्मक प्रतिरोध और अलगाववादी स्वर मुखर हुए है । आदिवासियों की चिकित्सा पध्दति, सभ्य (?) समाज की कसैली नजरों से बची प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का दम तोड़ता अवशेष है । इसके संरक्षण के लिए मात्र यही काफी होगा कि समाज और सरकार उनमें अपनी रूचि दिखाना छोड़ दे ।

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