My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 27 जनवरी 2021

Lal quila violence : can not deny failure of Delhi Police

 

लाल क़िले पर उपद्रव : दिल्ली पुलिस की असफलता

दिल्ली में जो हुआ, वह हर एक हिंदुस्तानी के लिए क्षोभ का मसला है।



26 जनवरी 2021 को देश की राजधानी में जो कुछ हुआ, यह असफलता तो दिल्ली पुलिस की ही है, जिसका दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा दुनिया के सामने हैं और हर भारतीय को इस पर गुस्सा भी है, शर्म भी है। लेकिन यह बहुत कडवा सच है कि मीडिया के माध्यम से जो कुछ सोरे संसार में पहुंचा वह एक सिक्के के दूसरे पहलु पर लगा एक छोटा सा बदनुमा दाग था। साठ दिन से कड़ाके की ठंड, घनघोर बरसात और कई अन्य विपदाओं के साथ खुले में बैठे वे किसान अपने सौ से अधिक साथी आंदोलन पर आहुत कर चुके लाखों किसानों की सारी मेहनत, संयम और तपस्या को कुछ लोगों ने मिट्टी में मिला दिया।


 

दिल्ली की सीमा पर कोई एक लाख ट्रेक्टर, जिनमें कोई बीस हजार महिलाएं व बच्चे भी सवार थे, सात घंटे तक निर्धारित रास्तों पर चक्कर लगाते रहे। उनका कई जगह पुष्प वर्षा से स्वागत हुआ, यह पूरी खबर समूचे मीडिया से ब्लेक आउट थी। इस पूरे घटनाक्रम के पीछे गहरी साजिश तो है ही और उसका खुलासा होना संभव होगा नहीं, लेकिन यह तय है कि यदि कुछ सौ लोग , गणतंत्र दिवस के दिन, संसद-इंडिया गेट से डेढ किलोमीटर दूर आ कर कई घंटों तक उत्पात कर सकते हैं,
तो सुरक्षा तंत्र के असहाय दिखने का सारा दोष दिल्ली पुलिस पर ही जाएगा।

खुद को दुनियाका ‘बेस्ट काप’ कहने वाली दिल्ली पुलिस के बीते कुछ साल बेहत असफलता और असहाय जैसे रहे हैं। जेएनयू से एक छात्र नजीब गायब हो जाता है और उसका पता नहीं लगता। जेएनयू में ही कुछ लोग टुकड़े-टुकड़े वाले नारे लगा कर भाग जाते हैं, उनका खुलासा नहीं होता। बीते दिसंबर को उस घटना के एक साल हो गए जिसमें कुछ बाहरी लोग हथियार ले कर जेएनयू में घुसे थे और होस्टल में रहने वालों को पीट कर चले गए थे। उस घटना के कई वीडियो सामने आए लेकिन अभी तक कोई गिरफ्तारी हुई नहीं।

यदि बीते साल के उत्तर-पूर्वी दिल्ली में घटित भयानक दंगों की दिल्ली पुलिस की कहानी, जो कि 17 हजार पेज की चार्ज शीट में कैद है, को पूरी तरह सच मान लें तो भी वह दिल्ली पुलिस का नाकामी की ही कहानी है। देश में अमेरिका के राष्ट्रपति आने वाले थे, गणतंत्र दिवस के रंग में राजधानी थी, राज्य के चुनावों की तैयारी चल रही थी, ऐसे में संसद से महज 12 किलोमीटर दूर पांच दिन तक दंगे हुए, लोग मारे जाते रहे व संपत्ति नष्ट होती रही। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल को खुद दंगाग्रस्त इलाकों की गलियों में जाना पड़ा, जाहिर है कि ऐसा सिस्टम के पूरी तरह फैल होने पर ही होता है।


चार्ज शीट के मुताबकि दिसंबर से साजिश चल रही थी, वह भी व्हाट्सएप समूह पर, पैसे का लेनदेन हो रहा था और दंगा भउ़क जाने तक खुफिया तंत्र को खबर ही नहीं मिली। सनद रहे उन दिनों दिल्ली में सीएए आंदोलन चल रहा था व हर तरह की सुरक्षा एजंसी अलर्ट पर थी।

असफलता तो दिल्ली पुलिस की ही है…

यहां जानना जरूरी है कि दिल्ली पुलिस में कोई 83 हजार जवान हैं। ये स्पेशल सेल, एटीएस, एंटी व्हीकल थेप्ट, क्राईम ब्रांच जैसे अलग-अलग हिस्सों में असीम निरंकुश अधिकारों के साथ काम करती है। वाहन-हथियार, मुखबिर नेटवर्क पर खर्च आदि सबकुछ सुविधांए, फोन टेप करने
से ले कर किसी के भी हर पल का ब्यौरा रखने के वैध-अवैध साफ्टवेयर व उपकरणों से सुसज्जित इस बल के खुफिया तंत्र का राजनीतिक रसूख भी तगड़ा है। चूंकि मामला देश की राजधानी का है तो दिल्ली पुलिस के खुफिया तंत्र के साथ-साथ आईबी, मिलेट्री इंटेलीजेंस, अर्धसुरक्षा बलों के खुफिया तंत्र व कई बाहरी देशों की एजेंसिया भी यहां काम करती हैं व एक दूसरे से सूचनांए साझा करती हैं।

किसान आंदोलन के सिंघु बार्डर, टीकरी सीमा और गाजीपुर पर हर समय दो हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी हर समय रहते हैं जबकि औसतन दो सौ से तीन सौ खुफिया फोर्स किसानों के बीच नारे लगाती, वहीं खाना खाती टिकी हुई है। 26 जनवरी को ट्रैक्टर मार्च निकले, उसका निर्णय लेने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को ही दिया और दिल्ली पुलिस ने उसकी अनुमति दी। जाहिर है कि टेªक्टर रैली का संचालन सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार ही था। यह बात खुले में थी कि किसानी आंदोलन के सभी धड़े आपस में कुछ ना कुछ असहमति रखते हैं।

लेकिन सभी इस बात से सहमत थे कि खालिस्तान समर्थक ‘सिख फार जस्टिस’ जैसे आर्गेनाइजेशन को मंच से दूर रखा जाएगा। जब दो महीने पहले पंजाब से दिल्ली आते समय अंबाला के करीब शंभु बार्डर पर पहली बार पुलिस से बैरिकेड तोडे गए थे, तब दीप सिद्धू का नाम सामने आया था। सन 1984 में पैदा यह पंजाबी फिल्म का अभिनेता, धर्मेद के परिवार के करीब रहा हे। इसकी एक फिल्म भी धर्मेंद्र के प्रोडक्शनसे थी और बीते लोकसभा चुनाव में गुरदासपुर में सन्नी देओल के प्रचार का जिम्मा इसके हाथों था। हालांकि शंभ्ं – बाडर पर हुए बवाल के बाद सनी देओल ने ट्वीट कर बता दिया था कि अब उनका दीप से कोई ताल्लुक नहीं है। उस घटना के बाद सभी किसानी संगतों ने दीप को अलग कर दिया था।यहां तक कि वह अपना अलग टैंट लगा कर बैठता था।

बीते साठ दिनों में कभी भी सिंघु बार्डर के मंच पर दीप सिद्धू या सिख फार जस्टिस के लोगों को मंच पर चढने नहीं मिला। दिल्ली पुलिस से सहमति मिलने के बाद प्रमुख किसानी धड़े अपनी रैली को आकर्षक बनाने, सुरक्षा वालेंटियर तैयार करने, जल्दी सुबह सभी का लंगर तैयार करने जैसे कार्यों में लगे थे और इसी का लाभ उठा कर 25 जनवरी की रात बारह बजे के बाद दीप व उसके लोगों ने खाली पड़े मंच पर कब्जा किया व भाषण दिए। इन लोगों ने निहंग सिखों के एक छोटे से धड़े को अपने साथ मिलाया।

जब 26 जनवरी की सुबह साढे आठ बजे ही टीकरी सीमा पर कुछ लोग पुलिस का पहरा तोड़ कर दिल्ली में घुसे थे और उसके बाद सिंघु सीमा पर भी कुछ सौ लोगों के पुलिस से टकराव हुए थे तभी पुलिस को ट्रैक्टर रैली के रास्तों को दुरुस्त करना था। दिल्ली पुलिस के मुताबिक 26 जनवरी
को उनके कुल पचास हजार जवान डयटी पर थे जिनमें से बीस हजार केवल रैली के रूट पर । इसके अलावा सीआरपीएफ की पचास कंपनियां, बीएसएफ की 25 और आईटीबीपी की 17 कंपनियां भी थीं। एक कंपनी में 75 जवान।

आम किसानों का जत्था तो दिल्ली की बाहरी सीमा पर अपने ट्रैक्टर ले कर डटा थ तभी गाजीपुर की तरह से बामुश्किल 20 और आउटर रिंग रोड़ से 50 टैक्टर केंद्रीय दिल्ली में घुसे। इन उपद्रवियों की संख्या होगी कोई 1500। यह बात सुरक्षा बलों को पता था कि किसानो के ट्रैक्टर सड़क रोकने के लिए इस्तेमाल कंक्रीट के बड़े टुकड़ों को पलक झपकते खिसका देते हैं तो ऐसे में नाजुक कही
जाने वाली लो फ्लेर बस, जिसकी कीमत चालीस लाख है, उसे रास्ते में लगाने की कोशिश बहुत हास्यास्पद लगी या यों कहं कि वह केवल मीडिया को शूटिंग का अवसर देने को थी। गणतंत्र दिवस की क्वीक रिसपांस टीम उस समय दिखी नीहं जब आईटीओ पर उत्पात काट कर उपद्रवी दो किलोमीटर दूर लाल किले में घुस गए।

आज पूरे देश में अनुशासित , शांत और अपने हक के लिए आवाज उठाने वाले एक लाख ट्रेक्टर सवारों की कोई चर्चा नहीं है, मीडिया के लाड़ले वे चंद उत्पाती हैं, टेलीविजन स्क्रीन ने चरस बो दी और जो लोग दिल्ली का भूगोल जानते नहीं, जिन्हें यह नहीं पता कि उत्पात की जगह से एक लाख ट्रैक्टर वाली रैली की जगह चालीस किलोमीटर दूर है, वे भी अब किसानों को कोस रहे हैं।
यह उस समय हो रहा है जब तीन दिन पहले ही दिल्ली की एक अदालत ने मीडिया की रिर्पोटिंग करने के सलीके पर तल्ख टिप्पणी की थी।

दिल्ली में जो हुआ, वह हर एक हिंदुस्तानी के लिए क्षोभ का मसला है।

आज जरूरत है कि दिल्ली पुलिस भीड प्रबंधन या उपद्रव के दौरान असफल क्यों होती है या उसका खुफिया तंत्र इतना मोथरा क्यों है? इसकी निष्पक्ष जांच के लिए किसी रिटायर्ड जज व पूर्व आला अफसरों के नेतृत्व में जांच आयोग का गठन हो। यह आयोग यह भी पता लगाए कि पुलिस द्वार इस तरह की चुनौती से जूझने में राजनीतिक दखल का कितना असर होता है।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

E Waste :hazard to nature

 

प्रकृति के लिए खतरा है ई-कचरा


18 जनवरी को राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को देश में जहर की तरह फैल रहे ई-कचरे के निस्तारण का वैज्ञानिक प्रबंधन सुनिश्चित करने का निर्देश देते हुए कहा कि पर्यावरण से जुड़े अपराध किसी हमले की ही तरह गंभीर अपराध हैं और इन पर माकूल कार्यवाही करने में प्रशासन नाकाम रहता है। एनजीटी अध्यक्ष न्यायमूर्ति एके गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि ई-कचरा नियमों की क्रियान्वयन  के प्रति पूरा तंत्र लापरवाह हैं और इससे आम नागरिकों का जीवन संकट में हैं। यह बात दुखद है कि हरित न्यायालय की पीठ को यह कहना पड़ा है कि उच्च अधिकारियों को ई-कचरा निस्तारण के अवैध तरीकों से उपज रहे पर्यावरणीय संकट के कारण स्वास्थ्य पर होने वाले प्रतिकूल प्रभावों की पर्याप्त चिंता नहीं है।
यह मामला कोई चार साल से एनजीटी के समक्ष चल रहा है। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले में रामगंगा नदी के तट पर पड़े इलेक्ट्रॉनिक कचरे (ई-कचरा) में क्रोमियम और कैडमियम जैसे विषैले रसायन पाए जाने के बाद एनजीटी की ओर से गठित एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह जानकारी दी थी। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने चार जगहों-लालबाग, दशवनघाट, नवाबपुरा और बर्बवालां से ई-कचरे के नमूने जुटाए थे। ई-कचरा काले रंग के पाउडर के रूप में था। भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान ने इन सैंपल की जांच की। जांच रिपोर्ट में काले रंग के पाउडर में क्रोमियम, कैडमियम, तांबा, सीसा, निकल, मैंगनीज और जस्ता मौजूद होने के संकेत मिले।
आज देश में लगभग 18.5 लाख टन ई- कचरा हर साल निकल रहा है। इसमें मुंबई से सबसे ज्यादा एक लाख बीस हजार मीट्रिक टन, दिल्ली से 98 हजार मीट्रिक टन और बंगलूरू से 92 मीट्रिक टन कचरा है। दुर्भाग्य है कि इसमें से महज ढाई फीसदी कचरे का ही सही तरीके से निबटारा हो रहा है। बाकि कचरा अवैध तरीके से निबटने के लिए छोड़ दिया जाता है। यदि गैर सरकारी संगठन ‘टाक्सिक लिंक’ की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो दिल्ली में सीलमपुर, शास्त्री पार्क, तुर्कमान गेट, मंडोली, लोनी, सीमापुरी सहित कुल 15 ऐसे स्थान हैं  जहां सारे देश का ई-कचरा पहुंचता है और वहां इसका गैर-वैज्ञानिक व अवैध तरीके से निस्तारण होता है। इसके लिए बड़े स्तर पर तेजाब या अम्ल का इस्तेमाल होता है और उससे वायु प्रदूषण के साथ-साथ धरती के बंजर होने और विषैले तरल के कारण यमुना नदी के जल के जहरीले होने का प्रारंभ हो चुका है।
टीवी व पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर में लगी सीआरटी (केथोड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है। इस कचरे में लेड, मरक्युरी, केडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं। दरअसल ई-कचरे का निपटान आसान काम नहीं है, क्योंकि इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं। सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाइल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट, और न जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। कैडमियम से फेफड़े प्रभावित होते हैं, जबकि कैडमियम के धुएं और धूल के कारण फेफड़े व किडनी दोनों को गंभीर नुकसान पहुंचता है। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा सीसा और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। इनका अवशेष पर्यावरण के विनाश का कारण बनता है।
भारत में यह समस्या लगभग तीन दशक पुरानी है, लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी के चढ़ते सूरज के सामने इसे पहले गौण समझा गया, जब इस पर कानून आए तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी। आज देश के कुल ई कचरे का लगभग 97 फीसदी कचरे को अवैज्ञानिक तरीके से जला कर या तोड़ कर कीमती धातु निकाली जाती है व शेष को यूं ही कहीं फेंक दिया जाता है। इससे रिसने वाले रसायनों का एक अद्श्य लेकिन भयानक तथ्य यह है कि इस कचरे कि वजह से पूरी खाद्य श्रंखला बिगड़ रही है। ई -कचरे के आधे-अधूरे तरीके से निस्तारण से मिट्टी में खतरनाक रासायनिक तत्व मिल जाते हैं, जो पेड़-पौधों के अस्तित्व पर खतरा बन रहा है। इसके चलते पौधों में प्रकाश संशलेषण की प्रक्रिया ठीक से नहीं हो पाती है, जिसका सीधा असर वायुमंडल में आॅक्सीजन की मात्रा पर होता है। इतना ही नहीं-पारा, क्रोमियम, कैडमियम, सीसा, सिलिकॉन, निकेल, जिंक, मैंगनीज, कॉपर आदि भूजल पर भी असर डालते हैं।
अकेले भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लिए इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का इस्तेमाल भले ही अब अनिवार्य बन गया हो, लेकिन यह भी सच है कि इससे उपज रहे कचरे को सही तरीके से नष्ट (डिस्पोज) करने की तकनीक का घनघोर अभाव है। घरों और यहां तक कि बड़ी कंपनियों से निकलनेवाला ई-वेस्ट ज्यादातर कबाड़ी उठाते हैं। वे इसे या तो किसी लैंडफिल में डाल देते हैं या फिर कीमती मेटल निकालने के लिए इसे जला देते हैं, जो और भी नुकसानदेह है। इसमें से धातु निकालने के बाद बचा हुआ ऐसिड या तो जमीन में डाल दिया जाता है या फिर आम नालियों में बहा दिया जाता है। वैसे तो केंद्र सरकार ने सन 2012 में ई-कचरा(प्रबंधन एवं संचालन नियम) 2011 लागू किया है, लेकिन इसमें दिए गए दिशा-निर्देश का पालन होता दिखता नहीं है। मई-2015 में ही संसदीय समिति ने देश में ई-कचरे के चिंताजनक रफ्तार से बढ़ने की बात को रेखांकित करते हुए इस पर लगाम लगाने के लिए विधायी एवं प्रवर्तन तंत्र स्थापित करने की सिफारिश की थी।

ऐसा भी नहीं है कि ई-कचरा महज कचरा या आफत ही है। झारखंड के जमशेदपुर स्थित राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला के धातु निष्कर्ष्ण विभाग ने ई-कचरे में छुपे सोने को खोजने की सस्ती तकनीक खोज ली है। इसके माध्यम से एक टन ई-कचरे से 350 ग्राम सोना निकाला जा सकता है। जानकारी है की मोबाइल फोन पीसीबी बोर्ड की दूसरी तरफ कीबोर्ड के पास सोना लगा होता हैं। अभी यह भी समाचार है कि अगले ओलंपिक में विजेता खिलाड़ियों को मिलने वाले मैडल भी ई-कचरे से ही बनाए जा रहे हैं। जरूरत बस इस बात की है कि कूड़े को गंभीरता से लिया जाए, उसके निस्तारण की जिम्मेदारी उसी कंपनी को सौंपी जाए जिसने उसे बेच कर मुनाफा कमाया है और ऐसे कूड़े के लापरवाही से निस्तारण को गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा जाए।

गुरुवार, 21 जनवरी 2021

Death of women due to witchcraft

 


            

             औरत को मारने के बहाने

                     पंकज चतुर्वेदी


यह घटना है आठ जनवरी 2021 की राजधानी रांची के कांके थाना के तहत  हुसीरपुर गांव की है - साठ साल की जैतून खातुन ने इस लिए जहर खा कर कर खुदकुषी कर ली क्योंकि उसके कुछ पड़ोसी उन्हें यह मान कर प्रताड़ित कर रहे थे कि मृतका डायन है व उसके जादू-टोने के चलते उनका दामाद बीमार हो गया। झारखंड में सन 2015 से अक्तूबर 2020 के बीच डायन करार दे कर प्रताड़ित करने के 46581 मामले पुलिस ने दर्ज किए और इस त्रासदी में 211 औरतों को निर्ममता से मार डाला गया। राज्य के गढवा जिले में तो कुल 1825 दिनों में टोनही-डायन के 1278 मुकदमे कायम हुए। एक बात और जान लें कि डायन कुरीति अकेले झारखंड तक सीमित नहीं है, यह बिहार, असम, मध्यप्रदेष सहित कोई आधा दर्जन राज्यों में ऐसे ही हर साल सैंकड़ों औरतों को बर्बर तरीके से मारा जा रहा है । 

देश  के आदिवासी अंचलों में जमीन हदबंदी कानूनों के लचरपन और पंचायती राजनीति के नाम पर शुरू हुईं जातीय दुश्मनियों  की परिणति महिलाओं की हत्या के रूप में हो रही है । कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य शासन ने एक जांच रिर्पोट तैयार की है जिसमें बताया गया है कि अंधविश्वास , अझान और अशिक्षा के कारण टोनही या डायन करार दे कर किस तरह निरीह महिलाओं की आदिकालीन लोमहर्षक ढ़ंग से हत्या कर दी जाती है । औरतों को ना केवल जिंदा जलाया जाता है, बल्कि उन्हें गांव में नंगा घुमाना, बाल काट देना, गांव से बाहर निकाल देना जैसे निर्मम कृत्य भी डायन या टोनही के नाम पर होते रहते हैं। इन शर्मनाक घटनाओं का सर्वाधिक अफसोसजनक पहलू यह है कि इन महिला प्रताडनाओं के पीछे ना सिर्फ महिला की प्रेरणा होती है,बल्कि वे इन कुकर्मों में बढ़-चढ़ कर पुरूषों का साथ भी देती हैं ।

आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ राज्य में बेगा, गुनियाओं और ओझाओं के झांसे में आ कर पिछले तीन वर्षों में तीन दर्जन से अधिक औरतों को मार डाला गया है । कोई एक दर्जन मामलों में आदमियों को भी ऐसी मौत झेलनी पड़ी है । मरने वालों में बूढ़े लोगों की संख्या ज्यादा है । किसी को जिंदा जलाया गया तो किसी को जीवित ही दफना दिया गया । किसी का सिर धड़ से अलग करा गया तो किसी की आंखें निकाल ली गईं । ये आंकड़े मात्र वही हैं जिनकी सूचना पुलिस तक पहुंची । खुद पुलिस भी मानती है कि दर्ज नहीं हो पाए मामलों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है । किसी गांव में कोई बीमारी फैले या मवेशी मारे जाएं या फिर किसी प्राकृतिक विपदा की मार हो, आदिवासी इलाकों में इसे ‘टोनही’ का असर मान लिया जाता है । भ्रांति है कि टोनही के बस में बुरी आत्माएं होती हैं, इसी के बूते पर वह गांवों में बुरा कर देती है । 

ग्रामीणों में ऐसी धारणाएं फैलाने का काम नीम-हकीम, बेगा या गुनिया करते हैं । छत्तीसगढ़ हो या निमाड़, या फिर झारखंड व ओडिषा ; सभी जगह आदिवासियों की अंधश्रद्धा इन झाड़-फूंक वालों में होती है । इन लोगों ने अफवाह उड़ा रखी है कि ‘टोनही’ आधी रात को निर्वस्त्र हो कर शम्सान जाती है और वहीं तंत्र-मंत्र के जरिए बुरी आत्माओं को अपना गुलाम बना लेती है । ये लोग केवल इषारा करते हैं जैसे कि- डायन के घर का दरवाजा पष्चिम को है याउसके दरवाजे साल का पेड़ है या कुआं है। फिर भीड़ सबसे कमजोर षिकार का अंदाजा लगाती है और टूट पड़ती है। 

मप्र के झाबुआ-निमाड़ अंचल में भी महिलाओं को इसी तरह मारा जाता है ; हां, नाम जरूर बदल जाता है - डाकन । गांव की किसी औरत के शरीर में ‘माता’ प्रविष्ठ हो जाती है । यही ‘माता’ किसी दूसरी ‘माता’ को डायन घोषित कर देती है । और फिर वही अमानवीय यंत्रणाएं शुरू हो जाती हैं । 


ठेठ आदिम परंपराओं में जी रहे आदिवासियों के  इस दृढ़ अंध विश्वास का फायदा इलाके के असरदार लोग बड़ी चालाकी से उठाते है । अपने विरोधी अथवा विधवा-बूढ़ी औरतों की जमीन हड़पने के लिए ये प्रपंच किए जाते हैं । थोड़े से पैसे या शराब के बदौलत गुनिया बिक जाता है और किसी भी महिला को टोनही घोषित कर देता है । अब जिस घर की औरत को ‘दुष्टात्मा’ बता दिया गया हो या निर्वस्त्र कर सरेआम घुमाया गया हो, उसे गांव छोड़ कर भागने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है । कई मौकों पर ऐसे परिवार की बहु-बेटियों के साथ गुनिया या असरदार लोग कुकृत्य करने से बाज नहीं आते हैं । यही नहीं अमानवीय संत्रास से बचने के लिए भी लोग ओझा को घूस देते हैं ।

मप्र शासन की जांच रपट में कई रोंगटे खड़े कर देने वाले हादसों का जिक्र है । लेकिन अब अधिकारी सांसत में हैं कि अनपढ़ आदिवासियों को इन कुप्रथाओं से बचाया कैसे जाए । एक तरफ आदिवासियों के लिए गुनिया-ओझा की बात पत्थर की लकीर होती है, तो दूसरी ओर इन भोले-भाले लोगों के वोटों के ठेकेदार ‘परंपराओं’ में सरकारी दखल पर भृकुटियां तान कर अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं । 

डायन प्रथा से निबटने के लिए बिहार में सन 199 में व झारखंड में 2001 में अलग से कानून भी बना। कानून अपराध होने के बाद  काम करता है लेकिन आज जरूरत तो लोगों की मिथ्या धारणाओं से ओतप्रोत जनजातीय लोगों में औरत के प्रति दोयम नज़रिए को बदलना है। 

  

पंकज चतुर्वेदी


गुरुवार, 14 जनवरी 2021

May be more reason of death of birds

 और कई भी कारण हैं पक्षियों की मौत के

                                                        पंकज चतुर्वेदी 


दिल्ली में संजय झील में जिन साढे तीन सौ से बत्तखों और जल मुर्गियों की चहलकदमी देखने लोग आते थे, शक हुआ कि उन पर वायरस का हमला है और पलक झपकते ही उनकी गर्दन मरोड़ कर मार डाला गया। बीते दस दिनों से देश में कहीं भी किसी पक्षी  के संक्रमित हाने पर शक होता है, आसपास के सभी पक्षी निर्ममता से मार दिए जाते हैं। इस बार पंक्षियों के मरने की शुरूआत कौओं से हुई- कौआ एक ऐसा पक्षी है जिसकी प्रतिरोध क्षमता सबसे सशक्त कहलाती है। कौए भी  मध्य प्रदेश के मालवा के मंदसौर-नीमच व उससे सटे राजस्थान के झालावाड़ जिले में मरे मिले। जान लें इन  इलाकों में प्रवासी पक्षी कम ही आते हैं। उसके बाद हिमाचल प्रदेश में पांग झील में प्रवासी पक्षी मारे गए और फिर केरल में पालतु मुर्गी व बतख। एक बात जानना जरूरी है कि हमारे यहां बीते कई सालों से इस मौसम में बर्ड-फ्लू का शोर होता है और अभी तक किसी इंसान के इससे मारे जाने की खबर मिली नहीं। हां, यह मुर्गी पालन में लगे लोगों के लिए भारी नुकसान होता है। 

यह तो स्पष्ट है कि इसी मौसम में पक्षियों  के मरने की वजह हजारो किलोमीटर दूर से जीवन की उम्मीद के साथ आने वाले वे पक्षी होते हैं जिनकी पिछली कई पुष्तें, सदियों इस मौसम में यहां आती थीं। चूंकि ये तो सदियों से आते रहे हैं व उनके साथ नभचरों के मौत का सिलसिला कुछ ही दशकों का है तो जाहिर है कि असली वजह उनके प्राकृतिक पर्यावास में लगातार हो रही छेड़छाड़ व बहुत कुछ जलवायूु परिवर्तन का असर भी है। यह सभी जानते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र और उत्तरी ध्रुव में जब तापमान षून्य से चालीस डिगरी तक नीचे जाने लगता है तो वहां के पक्षी भारत की ओर आ जाते हैं ऐसा हजारों साल से हो रहा है, ये पक्षी किस तरह रास्ता  पहचानते हैं, किस तरह हजारों किलोमीटर उड़ कर आते हैं, किस तरह ठीक उसी जगह आते हैं, जहां उनके दादा-परदादा आते थे, विज्ञान के लिए भी अनसुलझी पहेली की तरह है। इन पक्षियों के यहां आने का मुख्य उद्देश्य भोजन की तलाश, तथा गर्मी और सर्दी से बचना होता है। यह संभव है कि उनके इस लंबे सफर में पंखों के साथ कुछ जीवाणु आते हों, लेकिन कोरोना संकट ने बता दिया है कि किस तरह घने जंगलों के जीवों के इंसानी बस्ती के लगातार करीब आने के चलते  जानवरों में मिलने वाले  वायरस इंसान के शरीर को प्रभावित करने के मुताबिक खुद को ढाल लेते हैं। अभी तो इन पक्षियों के वायरस दूसरे पक्षियों के डीएनए पर हमला करने लायक ताकतवर बने हैं और इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि इनकी ताकत इंसान को नुकसान पहुचाने लायक भी हो जाए। ऐसे में इस बारे में सतर्कता तो रखनी ही होगी।


 विदित हो मरने वाले पक्ष्यिों की पहले गर्दन लटकने लगी, उनके पंख बेदम हो गए, वे न तो चल पा रहे थे और न ही उड़ पा रहे थे। शरीर शिथिल हुआ और प्राण निकल गए। फिलहाल तो इसे ‘बर्ड-फ्लू ’ कहा जा रहा है लेकिन संभावना है कि जब वहां के पानी व मिट्टी के नमूने की गहन जांच होगी तब असली बीमारी पता चलेगी क्योंकि इस तरह के लक्षण ‘‘एवियन बॉटुलिज़्म ’’ नामक बीमारी के होते है। यह बीमारी क्लोस्ट्रिडियम बॉट्यूलिज्म नाम के बैक्टीरिया की वजह से फैलती है। एवियन बॉटुलिज़्म को 1900 के दशक के बाद से जंगली पक्षियों में मृत्यु दर का एक प्रमुख कारण माना गया है। यह बीमारी आमतौर पर मांसाहारी पक्षियों को ही होती है। इसके वैक्टेरिया से ग्रस्त मछली खाने या इस बीमारी का शिकार हो कर मारे गए पक्षियों का मांस खाने से इसका विस्तार होता है। 

संभावना यह भी है कि पानी व हवा में क्षारीयता बढ़ने से तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करने वाली बीमारी ‘हाईपर न्यूट्रिनिया’ से कुछ पक्षी, खासकर प्रवासी पक्षी मारे गए हों। इस बीमारी में पक्षी को भूख नहीं लगती है और इसकी कमजोरी से उनके प्राण निकल जाते हैं। पक्षी के मरते ही जैसे ही उसकी प्रतिरोध क्ष्षमता शून्य हुई, उसके पंख व अन्य स्थानों पर छुपे बैठे कई किस्म के वायरस सक्रिय हो जाते हैं व दूसरे पक्षी इसकी चपेट में आते हैं। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि दूषित पानी से मरी मछलियों को दूर देश से थके-भूखे आए पक्षियों ने खा लिया हो व उससे एवियन बॉटुलिज़्म के बीज पड़ गए हों। यह सभी जानते हैं कि एवियन बॉटुलिज़्म का प्रकोप तभी होता है जब विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक कारक समवर्ती रूप से होते हैं। इसमें आम तौर पर गर्म पानी के तापमान, एनोक्सिक (ऑक्सीजन से वंचित) की स्थिति और पौधों, शैवाल या अन्य जलचरों के प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण आदि प्रमुख हैं।  यह सर्वविदित है कि धरती का तापमान बढ़ना और जलवायु चक्र में बदलाव से भारत बुरी तरह जूझा रहा है। ‘भारत में पक्षियों की स्थिति-2020’ रिपोर्ट के नतीजे बता चुके हैं कि पक्षियों की लगातार घटती संख्या ,नभचरों के लिए ही नहीं धरती पर रहने वाले इंसानों के लिए भी खतरे की घंटी हैं। बीते 25 सालों के दौरान हमारी पक्षी विविधता पर बड़ा हमला हुआ है, कई प्रजाति लुप्त हो गई तो बहुत की संख्या नगण्य पर आ गईं। पक्षियों पर मंडरा रहा यह खतरा शिकार से कही ज्यादा विकास की नई अवधारणा के कारण उपजा है।

अधिक फसल के लालच में खेतों में डाले गए कीटनाषक, विकास के नाम पर उजाड़े गए उनके पारंपरिक पर्यावास, नैसर्गिक परिवेष  की कमी से उनकी प्रजनन क्षमता पर असर; ऐसे ही कई कारण है जिनकेचलते हमारे गली-आंगन में पंक्षियों की चहचहाहट कम होती जा रही है। ऐसे में पक्षियों में व्यापक संक्रामक हमले बेहद चिंताजनक हैं।

पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील पक्षी उनके प्राकृतिक पर्यावास में अत्यधिक मानव दखल, प्रदूषण, भोजन के अभाव से भी परेशान है। सनद रहे हमारे यहां साल-दर-साल प्रवासी पक्षियों  की संख्या घटती जा रही है। प्रकृति संतुलन और जीवन-चक्र में प्रवासी पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनका इस तरह से मारा जाना असल में अनिष्टकारी है।  अब पक्ष्यिों को रोका या टोका तो जा नहीं सकता, हमें ही अपने पर्यावास, पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनो को नैसर्गिक रूप में अक्षुण्ण रखने पर गंभीर होना होगा। 



 



मंगलवार, 12 जनवरी 2021

wild fire in valley of flower

 फूलों की घाटी में बांस के अंगारे, एक चिंगारी इस सुंदर स्थान के लिए बन जाती है काल 



पूर्वोत्तर ही नहीं, पूरे देश के सबसे खूबसूरत ट्रेकिंग इलाके और जैव विविधता की दृष्टि से समृद्ध और संवेदनशील दजुकू घाटी में 29 दिसंबर, 2020 से जो शोले भड़कने शुरू हुए, अभी भी शांत नहीं हो पा रहे हैं। 11 जनवरी, 2021 को जब आपदा प्रबंधन टीम ने यह सूचित किया कि अब कोई नई आग नहीं लग रही है, तब तक इस जंगल का 10 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जलकर राख हो चुका था। यह स्थान नगालैंड व मणिपुर की सीमा के करीब है। दस दिन बाद भी आग पूरी तरह शांत नहीं हुई है। यह सुरम्य घाटी दुनिया भर में केवल एकमात्र स्थान पर पाई जाने वाली दजुकू-लिली के फल के साथ अपने प्राकृतिक वातावरण, मौसमी फूलों और वनस्पतियों व जीवों के लिए जानी जाती है। गत दो दशकों के दौरान यहां यह दसवीं बड़ी आग है।


अप्रैल से सितंबर तक के मौसम में इस घाटी को ‘फूलों की घाटी’ कहा जाता है। वहीं पूरे साल यहां की घाटी व पहाड़ पर बौने बांस का साम्राज्य होता है। विदित हो बांस की यह प्रजाति पूर्वी हिमालय और उत्तर-पूर्वी भारत की दजुकू घाटी और आसपास की पहाड़ियों पर पाई जाती है। यह जंगल पूरी तरह से बौने बांस से ढके हैं, जो दूर से खुली घास के मैदान की तरह दिखाई देते हैं। प्रकृति  की यह अनमोल छटा ही यहां की बर्बादी का बड़ा कारण है। बांस का जंगल इतना घना है कि कई जगह एक मीटर में सौ से पांच सौ पौधे। इस मौसम में हवा चलने से ये आपस में टकराते हैं, जिससे उपजी एक चिंगारी इस सुंदर स्थान के लिए काल बन जाती है। दजुकू घाटी और आसपास की पहाड़ियों के प्राचीन जंगलों को जंगल की आग से बड़े पैमाने पर खतरा है। यहां की अनूठी जैव विविधता जड़मूल से नष्ट हो रही है और घने जंगल के जानवर आग के ताप व धुएं से परेशान होकर जब बाहर आते हैं, तो उनका टकराव या तो इंसान से होता है या फिर हैवान रूपी शिकारी से। 



इस जंगल में जब सबसे भयानक आग वर्ष 2006 में लगी थी, तो कोई 70 वर्ग किलोमीटर के इलाके में राख ही राख थी। यहां तक की जाज्फू पहाड़ी का खूबसूरत जंगल भी चपेट में आ गया था। उसके बाद जनवरी-2011, फरवरी-2012,  मार्च-2017 में भी जंगल में आग लगी। नवंबर -2018 में भी जंगल सुलगे थे। इस बार की आग मणिपुर के सेनापति जिले में भी फैल गई है और राज्य की सबसे ऊंची पर्वतीय चोटी ‘माउंड इसो’ का बहुत कुछ भस्म हो गया है। बीते दस दिनों से नगालैंड पुलिस, वन विभाग, एनडीआरएफ और एसडीआरएफ के साथ-साथ दक्षिणी अंगामी यूथ एसोसिएशन के सदस्य आग बुझाने में लगे है। भारतीय वायु सेना के एमआइ-15वी हेलीकाप्टर एक बार में 3,500 लीटर पानी लेकर छिड़काव कर रहे है। वहीं लगातार तेज हवा चलने से आग बेकाबू तो हो ही रही है, राहत कार्य भी प्रभावित हो रहा है। इस समय विभिन्न संस्थाओं के दो हजार लोग आग को फैलने से रोकने में लगे है। हालांकि नगा समाज इस आग को साजिश मान रहा है। कोरोना के चलते दक्षिणी अंगामी यूथ एसोसिएशन के सदस्यों ने इस घाटी में आम लोगों के आवागमन को गत वर्ष मार्च से ही बंद किया हुआ है। नवंबर, 2018 में मणिपुर और नगालैंड सरकार के बीच हुए एक समझौते के मुताबिक, इस घाटी में प्रवेश के दो ही रास्ते खुले हैं- एक मणिपुर से, दूसरा उनके अपने राज्य से। कोरोना के समय यहां किसी का भी प्रवेश पूरी तरह रोक दिया गया था, जो अब भी जारी है।


नगा लोगों को शक है कि आग जानबूझ कर लगाई गई है व उसके पीछे दूसरे राज्य की प्रतिद्वंद्वी जनजातियां हैं। फिलहाल तो राज्य सरकार की चिंता आग के विस्तार को रोकना है। लेकिन साल दर साल जिस तरह यहां आग लग रही है, वह अकेले उत्तर-पूर्व ही नहीं, भारत देश व हिमालय क्षेत्र के अन्य देशों के लिए बड़ा खतरा है। हालांकि भारत में तमिलनाडु से लेकर थाईलैंड तक तेजी से बढ़ते बांस और उसमें आग की घटनाओं पर नियंत्रण के लिए कई शोध हुए हैं व तकनीक भी उपलब्ध है। विडंबना है कि हमारे ये शोध पत्रिकाओं से आगे नहीं आ पाते। जंगलों की जैव विविधता पर मंडराते खतरे से उपजे कोरोना और उसके बाद पक्षियों की रहस्यमय मौत से हम सबक नहीं ले रहे और प्रकृति की अनमोल भेंट इतने प्यारे जंगलों को सहेजने के स्थायी उपाय नहीं कर पा रहे हैं।


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शनिवार, 9 जनवरी 2021

Delhi can be topples due to earth quick

 कहीं दिल्ली की धरती डोल गई तो

पंकज चतुर्वेदी 


साल 2020 में दिल्ली व उसके आसपास के दायरे में कुल 51 बार घरती थर्राई। दिसंबर में तो दस दिन के भीतर दो बार  प्रकृति ने सबको झकझोर दिया। इस साल आए भूकंपो ंमें से तीन तो ‘पीली श्रेणी’ अर्थात रिक्टर पैमाने पर चार अंक से अधिक के थे। अभी 17 दिसंबर का भूकंप 4.2 का था और इसका केंद्र दिल्ली से बहुत करीब रेवाड़ी था। तीन जुलाई को आया 4.7 ताकत के भूकंप का केंद्र अलवर और 29 मई के 4.5 वाले जलजले का केंद्र रोहतक था। नेषनल सेंटर फार सिस्मोलोजी ने दिल्ली को खतरे के लिए तय जोन चार में आंका है। अर्थात यहां भूकंप आने की संभावनांए गंभीर स्तर पर हैं। यह सच है कि  धरती कब डोलेगी, इसका आकलन करना अभी बहुत मुष्किल है, लेकिन यह भी कड़वा सच है कि  भूकंप के संभावित नुकसान के कई  कारणों को ना केवल समाज ने खुद उपजाया है, बल्कि उसके प्रति अभी भी बेपरवाही है। 

भूकंप संपत्ति और जन हानि के नजरिए से सबसे भयानक प्राकृतिक आपादा है, एक तो इसका सटीक पूर्वानुमान संभव नहीं, दूसरा इससे बचने के कोई सषक्त तरीके हैं नहीं। महज जागरूकता और अपने आसपास को इस तरह से सज्ज्ति करना कि कभी भी धरती हिल सकती है, बस यही है इसका निदान। हमारी धरती जिन सात टेक्टोनिक प्लेटों पर टिकी है, यदि इनमें कोई हलचल होती है तो धरती कांपती है। .भारत आस्ट्रेलियन प्लेट पर टिका है और हमारे यहां अधिकतर भूकंप इस प्लेट के यूरेशियन प्लेट से टकराने के कारण उपजते हैं।  

कोई 1482 वर्ग किलोमीटर में फैली राजधानी दिल्ली की आबादी सवा दो करोड़ के करीब है और दिल्ली की किसी भी भूगर्भीय गतिविधि से गाजियाबाद, नोएडा, गुरूग्राम फरीदाबाद आदि को अलग किया नहीं जा सकता। यह सवा तीन करोड़ लोगों की बसावट का चालीस फीसदी इलाका अनाधिकृत है तो 20 फीसदी के आसपास बहुत पुराने निर्माण। बाकी रिहाईषों में से बामुष्किल पांच प्रतिषत का निर्माण या उसके बाद यह सत्यापित किया जा सका कि यह भूकंपरोधी है। बहुमंजिला मकान, छोटे से जमीन के टुकड़े पर एक के उपर एक डिब्बे जैसी संरचना, बगैर किसी इंजीनियर की सलाह के बने परिसर, छोटे से घर में ही संकरे स्थान पर रखे ढेर सारे उपकरण व फर्नीचर--- भूकंप के खतरे से बचने की चेतावनियों को नजरअंदाज करने की मजबूरी भी हैं और कोताही भी। सबसे बड़ी बात महानगर की हर दिन बढ़ती आबादी की इस भयानक खतरे की प्रति गैर जागरूकता ।

दिल्ली एनसीआर में  भूकंप के झटकों का कारण भूगर्भ से तनाव-उर्जा उत्सर्जन होता है। यह उर्जा अब भारतीय प्लेट के उत्तर दिशा में बढ़ने और फॉल्ट या कमजोर जोनों के जरिये यूरेशियन प्लेट के साथ इसके टकराने के चलते एकत्र हुई है। वाडिया इंस्टीट्यूट के मुताबिक दिल्ली एनसीआर में कई सारे कमजोर जोन और फॉल्ट हैंः दिल्ली-हरिद्वार रिज, महेंद्रगढ़-देहरादून उपसतही फॉल्ट, मुरादाबाद फॉल्ट, सोहना फॉल्ट, ग्रेट बाउंड्री फॉल्ट, दिल्ली-सरगोधा रिज, यमुना नदी लीनियामेंट आदि। जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है। ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है । 

सन 2016 में भारत सरकार के नेषनल सेंटर फार सिस्मोलोजी ने कोई 450 स्थानों पर गहन षोध कर भूकंप की संभावना के सूक्ष्म अध्ययन पर एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें इलाके की मिट्टी, भूजल, पत्थर की संरचना आदि के आधार पर दिल्ली पर मंडरा रहे भूकंप के खतरे को विस्तार से समझाया गया था। ‘ए रिपोर्ट आन सेस्मिक हजार्ड : माइक्रो जोनेषन आफ एनसीटी दिल्ली’’ षीर्शक की इस रिपोर्ट ने  स्पश्ट कर दिया था कि दिल्ली एक तरह दुनिया के सबसे युवा पहाड़, जहां लगातार भूगर्भीय हलचलें चलती हैं, हिमाचल के बहुत करीब है तो दूसरा यह अरावली पर्वतमाला के अंतिम सिरे पर है।  दिल्ली की सबसे बड़ी चिंता इसकी बसावट का आधे से ज्यादा हिस्सा यमुना के बाढ़ क्षेत्र में बसा होना है। खासकर गांधीनगर से ले कर ओखला तक बसी आबदी तो यमुना के दलदल पर ही बसी है और यह पूरा सघन आबादी वाला बहुमंजिल इमारतों का क्षेत्र है।  यह जानना जरूरी है कि भूकंप की संभावना और उसके नुकसान का सबसे बड़ा आकलन इलाके के मिट्टी की प्रकृति से होता है। ठीक यही हाल गाजियाबाद और नाएडा की नई गगनचुबी इमारत वाली बस्तियों का है जो कि हिंडन या यमुना नदी के  बाढ़ क्षेत्र में बसा दी गई हैं। जान लें कोई भी नदी अपना रास्ता दो सौ साल नहीं भूलती, आज नदी का रस्ता बदलने से खाली हुई जमीन पर यदि पक्का निर्माण कर लिया तो दो सदी में कभी भी नदी अपनी जमीन वापिस मांग सकती है। इसका मूल कारण है कि भले ही सीमेंट पोत कर धरती का उपरी कायाकल्प कर लें, उसकी भीतरी परत, उसके भीतर की भूगर्भीय संरचना बदलती नहीं। 

राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एनजीआरआइ) , हैदराबाद के एक शोध से स्पश्ट हुआ है कि भूकंप का एक बड़ा कारण धरती की कोख से जल का अंधाधुंध दोहन करना भी है। भू-विज्ञानी के अनुसार भूजल को धरती के भीतर लोड यानि की एक भार के तौर पर उपस्थित होता है। इसी लोड के चलते फाल्ट लाइनों में भी संतुलन बना रहता है। बाहरी दिल्ली में वे इलाके भूकंप की दृश्टि से अधिक संवेदनषील माने गए है जहां  भूजल पाताल में चला गया है। एनजीआरआइ के मुख्य विज्ञानी डॉ. विनीत के. गहलोत की मानें तो, “दिल्ली-एनसीआर में हाल ही में आए भूकंपों पर अध्ययन अभी भी चल रहा है. जिसमें प्राथमिक तौर पर गिरता भू-जल ही जिम्मेदार है। हालांकि इसके अन्य कारणों का भी अध्ययन किया जा रहा है।


 



सरकारी रिकार्ड के मुताबिक दिल्ली-एनसीआर के फॉल्ट में सन् 1700 से अब तक चार बार 6 या इससे अधिक तीव्रता के भूकंप आ चुके हैं। 27 अगस्त 1960 में 6 की तीव्रता का भूकंप आया था जिसका केंद्र फरीदाबाद था। वहीं, सन् 1803 में 6.8 तीव्रता का भूकंप आया था जिसका केंद्र मथुरा था। यदि अब राजधानी में 6.5 तीव्रता का भूकंप आता है तो तबाही की कल्पना भी नहीं की जा सकती। 

आज जरूरत है कि दिल्ली में  आबादी का घनत्व कम किया जाए, जमीन पर मिट्टी की ताकत मापे बगैर कई मंजिला भवन खड़े करने और बेसमेंट बनाने  पर रोक लगाई जाए। भूजल के दोहन पर सख्ती हो, इसके साथ ही राजधानी में 42 लाख से अधिक भवनों का भूकंप रोधी रेट्रोफिटिंग करवाई जाए। सन 2012 में डीडीए में इसकी योजना भी बनी थी, रेट्रोफिटिंग के लिए ही एक अलग डिविजन बनाने की बात थी, लेकिन इसके बाद यह काम फाइलों में दब गया।


शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

bEfore election reforms election-literacy is must

 ‘एक देश-एक चुनाव’ के साथ ही जरूरी हैं चुनाव सुधार 

पंकज चतुर्वेदी




यह विडंबना है कि हमारे देश में लगभग हर साल चुनाव होते रहते हैं, आचार संहिता लागू हो जाती है, राजनेता  व जिम्मेदार लोग अपना काम-ध्ंाधा छोड़ कर चुनाव प्रचार में लग जाते हैं। इससे ना केवल  सरकारी व्यय बढ़ता है, बल्कि प्रशासनिक मशीनरी, राजनीतिक तंत्र भी अपने मूल उद्देश्य से लंबे समय तक विमुख रहता है। लेकिन यदि चुनाव साथ ही करवाने हैं तो अन्य चुनाव सुधार भी साथ ही लागू करना अनिवार्य है। इसमें सबसे प्राथमिक है मतदाता का बेहतर प्रशिक्षण । 

यह अब आम हो गया है कि चुनाव में जनता के मुद्दे नदारद है रहते हैं। सांसद का चुनाव लड़ने वाले नाली साफ करवाने या बगीचा या सड़क बनवाने के वायदे करते दिखते हैं।  असल में ये काम तो स्थानीय निकाय के पार्शद या सरपंच के होते हैं। न तो उम्मीदवार और न ही जनता समझ पा रही है कि हमें सरपंच के साथ-साथ सांसद की जरूरत क्यों है। और सांसद का असली काम क्या है। सांसद  और विधायक के काम क्या हैं ? उन्हें हम चुन कर किस काम से भेजते हैं, वे जिस सदन में बैठते हैं वहां वे क्या काम करते हैं ? पंचायत से ले कर संसद तक के चुनाव प्रचार में गाय, जिन्ना, पाकिस्तान और उससे आगे निजी आरोप-गालीगलौज की जो भरमार हो चुकी है उससे साफ हो गया कि सियासत का जन सरोकार से कोई वास्ता रह नहीं गया है।  यह केवल राजनेतओं का दोष नहीं है, जन प्रतिनिधि कोई दूसरे ग्रह से नही आता, वह भी हमारे समाज का हिस्सा होता है और हम जैसे होते हैं उसी भावना के प्रतिनिधि को चुनते हैं।  एक देश-’एक चुनाव के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो यही है। 

हालांकि हमारे देश में कोई चार बार एकसाथ चुनाव हुए हैं। लेकिन राज्यों में अलग से चुनाव होने का असल कारण आयाराम-गयाराम की राजनीति रहा। दलबदल विरोधी कानून आज के हालात में अप्रासंगिक है। कोई कभी भी दल बदल कर नए दल से चुनाव लड़ कर तस्वीर बदल देता हे। कई जगह तो दल बदल विरोधी नियमों को सदन के अध्यक्ष ही धता बताते रहते हैं। इसका मूल तो दलों के चुनाव के प्रचार अभियान साबित हो जाता  कि लाख पाबंदी के बावजूद चुनाव ना केवल महंगे हो रहे हैं, बल्कि सियासी दल जिस तरह एक दूसरे पर षुचिता के उलाहने देते दिखेे, खुद को पाक-साफ व दूसरे को चोर साबित करते रहे हैंें, असल में समूचे कुंए में ही भांग घुली हुई हैं। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई हैं और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं। वास्तव में यह लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र था, यह चरम बिंदू है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है। जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिषा में काम नहीं करना चाहता है। 

आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रूचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना - ये कुछ ऐसी बुराईयां हैं जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और इस बार ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं। कहीं पर हजारों मतदाताओं के नाम गायब हैं तो नगालैंड में एक राजनेता कैमरे के सामने 11 वोट डाल लेता है। गाजियाबाद में रहने वाले पुर्व मुख्य चुनाव आयुक्त या कर्नाटक निर्वान आयोग के ब्रंाड एंबेसेडर राहुल द्रविड का नाम ही मतदाता सूची में नहीं होता और किसी भी जिम्मेदार पर कड़ी कार्यवाही होती नहीं। कई बार निर्वाचन आयोग असहाय सा दिखा और फिर आयोग ने ही अपने खर्चे इतने बढ़ा लिए हैं कि वह आम आदमी के विकास के लिए जरूरी बजट पर डाका डालता प्रतीत होता है।

जाति, गौत्र, धर्म के नाम पर या षराब, साड़ी के लालच में या फिर बाहुबल से धमका कर मतदान को अपने पक्ष में करने की जुगाड़ अब नई बात नहीं। चुनाव लड़ाने के लिए अब जनता की नहीं,  प्रबंधन एजेंसियों की जरूरत होती है । बड़े-बड़े रणनीतिकार  मतदाता सूची का विष्लेशण कर तय करे लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां एक वोट या पांच लाख वोट से जीते दोनेां तरह के सांसदों के समान अधिकार होते हैं। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल किसी वर्ग विशेष के। केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर सांसदों का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा।

यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लेमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। ऐसे में सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की पीढ़ी बढ़ती जा रही है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीषाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा 

सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुष भी स्थाई व मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में कम से कम दो प्रतिषत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम ‘दिल्ली में घोडा़ मंडी’’ की रोक का सषक्त जरिया बन सकता है। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की षर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याषी लोकतंत्र का मजाक ना बना पाएं। 



एक बात और हमें पाकिस्तान से सीख लेना चाहिए कि चुनाव से पहले सरकार भ्ंाग हो और किसी वरिश्ठ न्यायाधीष को कार्यवाहक सरकार का जिम्मा दे दी जाए। इससे चुनाव में सरकारी मषीनरी के इस्तेमाल की कुरीति से बचा जा सकता हे। आज प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री सरकारी जहाज व सुविधा पर प्रचार करते हैं, कई जगह चुनाव निष्पक्षता से करवाने की ड्यूटी में लगे अफसरों को प्रभाचित करने की खबरें भी आती हैं। 

पंकज चतुर्वेदी ,

साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376







शनिवार, 2 जनवरी 2021

Traditional water tanks are only solution of water crisis

 तालाबों के प्रति कोताही क्यों ?

पंकज चतुर्वेदी



सन 2016 के  खेतों में पांच लाख तालाब बनाने की बात हो या फिर उप्र में योगी सरकार के पहले सौ दिनों में तालाब विकास प्राधिकरण का संकल्प या फिर राजस्थान में कई सालों पुराना झील विकास प्राधिकरण या फिर मप्र में सरोवर हमारी धरोहर या जल अभिषेक  जैसे नारों के साथ तालाब-झील सहेजने की योजनाएं, हर ाबर लगता है कि अब देश  के नीति निर्धारकों को समझ आ गया है कि बारिश  की हर बूंद को सहेजने के पारंपरिक उपाय ज्यादा कारगर हैं। तभी  जब गर्मी शुरू  होते ही देश  में पानी की मारा-मार, खेतों के लिए नाकाफी पानी और पाताल में जाते भूजल के आंकड़े उछलने लगते हैं तो समझ आता है कि असल में तालाब को सहजेने की प्रबल इच्छा शक्ति  में या तो सरकार का पारंपरिक ज्ञान का सहारा न लेना आड़े आ रहा है या फिर तालाबों की बेषकीमती जमीन को धन कमाने का जरिया समझने वाले ज्यादा ताकतवर हैं। यह अब सभी के सामने हैं किसिंचाई की बड़ी परियोजनाएं व्यय, समय और नुकसान की तुलना में छोटी व स्थानीय सिंचाई इकाई ज्यादा कारगर है। इसके बावजूद तालाबों को सहेजने का जज्बा कहीं नजर नहीं आता। 

पूरे भारत के हर एक भौगोलिक क्षेत्रों में वैदिक काल से लेकर आज-अभी तक शासन और समाज ने अपनी जरूरतों के मुताबिक जल संरचनाओं और जल प्रणालियों को विकसित किया। इनमें सबसे ज्यादा तालाब या झील या उन पर आधारित योजनाएं ही हैं। रेगिस्तान हो या बंदेलखंड जहां भी पानी मिलना दूभर हुआ तालाबों को सागर की उपमा दे दी गई।  ऋग्वेद में सिंचित खेती, कुओं और गहराई से पानी खींचने वाली प्रणालियों का उल्लेख मिलता है। हडप्पा एवं मोहनजोदडो (ईसा से 3000 से 1500 साल पूर्व) में जलापूर्ति और मल निकासी की बेहतरीन प्रणालियों के अवषेष मिले हैं। कौटिल्य के अर्थषास्त्र में भी जल संरचनाओं के बारे में अनेक विवरण उपलब्ध हैं। इन विवरणों से पता चलता है कि तालाबों का निर्माण राज्य की जमीन पर होता था। स्थानीय लोग तालाब निर्माण की सामग्री जुटाते थे। असहयोग और तालाब की पाल को नुकसान पहुँचाने वालों पर राजा द्वारा जुर्माना लगाया जाता था। तत्कालीन नरेष चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा यह व्यवस्था ईसा से 321-297 साल पहले लागू की गई थी। बरसात के पानी को संचित करने के लिये तटबन्ध, जलाषय और तालाबों का निर्माण आम था। सूखे इलाकों में कुये और बावड़ियों के बनाने का रिवाज था। मेगस्थनीज ने भी अपने यात्रा विवरणों में उत्तर भारत में पानी का वितरण करने वाली जलसुरंगों का जिक्र किया है।  बुंदेलखंड में लाख उपेक्ष के बावजूद नौ सौ से बारहवी सदी के चंदेलकालीन तालाब अभी भी वर्षा  को समेट रहे हैं।  



यदि तालाबों को ध्यान दें तो यह महज कहीं खोदा गया विषाल गढ्ढा या फिर ऐसी प्राकृतिक संरचना मात्र नहीं थे जहां जल जा हो जाता था। पानी को एकत्र करने के लिए इलाके की जलवायु, न्यूनतम  बरसात का आकलन, मिट्टी का परीक्षण, भूजल की स्थिति, सदानीरा , उसके बाद निर्माण सामग्री का चयन, गहराई का गणित जैसी कई बातों का ध्यान रखा जाता है। यह कड़वा सच है कि अंग्रेजीदां इंजीनियरिंग की पढ़ाई ने युवा को सूचनओं से तो लाद दिया लेकिन देषद ज्ञान उसकी पाठ्य पुस्तकों में कभी रहा नहीं। तभी जब सरकारी इंजीनियर को तालाब सहेजने का कहा जाता है तो वह उस पर स्टील की सैलिंग लगाने, उसके किनारे बगीचा व जल कुंभी मारने को मषीन या गहरा खेदने से अधिक काम कर नहीं पाता। पुरानी संरचनाएं बानगी हैं कि उस काल में भी उन्नत जल-विज्ञान और कुशल जलविज्ञानी मौजूद थे। कई बार लगता है कि जल संरचनाओं के निर्माणकर्ताओं के हाथों में अविष्वसनीय कौषल तथा प्राचीन वास्तुविदों की प्रस्तुति में देष की मिट्टी और जलवायु की बेहतरीन समझ की सोंधी गंध मौजूद थी।



यह समझाना जरूरी है कि यानि यह तय है कि तालाब महज एक गड्ढा नहीं है, जिसमें बारिष का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें। तालाब कहां खुदेगा, इसको परखने के लिए वहां की मिट्टी, जमीन पर जल आगमन व निगमन की व्यवस्था, स्थानीय पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है। वरना यह भी देखा गया है ग्रेनाईट संरचना वाले इलाकों में कुएं या तालाब खुदे, रात में पानी भी आया और कुछ ही घंटों में किसी भूगर्भ की झिर से कहीं बह गया। दूसरा , यदि बगैर सोचे -समझे पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोद तो  धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, फिर दल-दल बनाएगा और फिर उससे ना केवल जमीन नष्ट  होगी, बल्कि आसपास की जमीन के प्राकृतिक लवण भी पानी के साथ बह जाएंगे। यदि नमी, दलदल, लवण बहने का सिलसिला महज पंद्रह साल भी जारी रहा तो उस तालाब के आसपास लाइलाज बंजर बनना वैज्ञानिक तथ्य है। 

हाल की अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट  हों या फिर 1944 की बंगाल दुर्भिक्ष के बाद गठित आयोग का दस्तावेज, सभी में साफ जताया गया है कि भारत जैसे देश  में  सिंचाई के लिए तालाब ही मजबूत जरिया हैं।खासकर जब हमारे सामने जलवायु परिवर्तन के खतरे मुंह बाए खड़े हैं, अन्न में पौश्टिकता की कमी, रासायनिक खाद-दवा के अतिरेक से जहर होती फसल , बढ़ती आबादी  का पेट भरने की चुनौती, फसलों में विविधता का अभाव और प्राकृतिक आपदाओं की त्वरित मार, सहित कई एक चुनौतियां खेती के सामने हों, तो तालाब ही एकमात्र सहारा बचता है। 

नए तालाब जरूर बनें, लेकिन आखिर पुराने तालाबों का जिंदा करने से क्यां बचा जा रहा है? सरकारी रिकार्ड कहता है कि मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। सन 2000-01 में जब देष के तालाब, पोखरों की गणना हुई तो पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। 

यदि सरकार तालाबों के संरक्षण के प्रति गंभीर है तो गत पांच दशकों के दौरान तालाब या उसके जल ग्रहण क्षेत्र में हुए अतिक्रमण हटाने, तालाबों के जल आगमन क्षेत्र में बाधा खड़े करने पर कड़ी कार्यवाही करने , नए तालाबों के निर्माण के लिए आदि-ज्ञान हेतु समाज से स्थानीय योजनाएं तैयार करवना जरूरी है। और यह तभी संभव है जब देष में  न्यायीक अधिकार संपन्न तालाब विकास प्राधिकरण का गठन ईमानदारी से किया जाए। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-माफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबंदी ने देश को तालाब विहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। 

काश  नदी-जोड जैसी किसी एक योजना का समूचे व्यय के बराबर राशि  एक बार एक साल विशेष  अभियान चला कर पूरे देश  के पारंपरिक तालबों की गाद हटाने, अतिक्रमण मुक्त बनाने और उसके पानी की आवक-जावक  के रास्ते को निरापद बनाने में खर्च कर दिया जाए तो भले ही कितनी भी कम बारिष हो, ना तो देष का कोई कंठ सूखा रहेगा और ना ही जमीन की नमी मारी जाएगी। 


शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

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 कजली की बखरी

                                                                                                                                    पंकज चतुर्वेदी 





गली के कुत्ते अजब-गजब होते हैं, वे ना जाने कहां से अचानक आते हैं, किसी के घर के दरवाजे को अपना समझ लेते हैं । फिर उन्हें कोई प्यार करे या ना करे, उन्हें कोई खाना मिले या ना मिले, वे अपना काम करते रहते हैं। कोई झोला लिए कबाड़ा बीनने वाला निकले या फिर किसी दूसरी गली का जानवर आ जाए, वे उसे अपने इलाके से बाहर निकाल कर ही दम लेते हैं। उसका नाम ना जाने कैसे कजली पड़ गया, दिखने में भी कोई खास सुंदर नहीं, चितकबरा सा, धारियोना वाला । 

कालेानी में एक खाली जमीन का टुकड़ा था। उस पर चोहद्दी बनी हुई थी। भीतर रघु व उसकी पत्नी रहती थी। वहां मकान बनाने की ढेर सारी सामग्री भी रखी थी और कजली उसी पर बैठा रहता । दोनो मेहनत-मजदूरी करते, सारे दिन घर से बाहर रहते और कजली का डेरा उस दीवार के भीतर रहता। षाम को रघु घर लौटता तो उसे रोटी मिल जाती।

वैसे उस कालोनी में और भी कुत्ते थे - कालू, रोमियो, लाभू, पिद्दी, गोल्डी। ये सब एकसाथ गुट बना कर रहते। परंतु कजली का कोई दोस्त नहीं। जब मौका मिलता कालू-रोमियो का गिरोह कजली को पीटने भी आता तो वह कूद कर अपनी दीवार के पार रघु के मकान में आ जाता। रघु की घरवाली कहती-‘यह तो कजली की बखरी है। ’

एक दिन सुबह से कजली को उसकी बखरी से बाहर कर दिया गया, कुछ लोग आए और उन्होंने सबसे पहले रघु की झोपड़ी तोड़ दी। कजली गुर्राया, काटने दौड़,  लेकिन रघु व उसकी घरवाली ने उसे पकड़ लिया, ‘‘ नहीं कजली, ऐसा नहीं करते। चलो भागो।’’ 

कजली समझ नहीं पा रहा था कि उसकी बखरी टूट रही है और उसका मालिक रघु उल्टे कजली को ही डांट  रहा है।  दिन होते-हाते बहुत से लोग वहां आ गए। उन्होंने चूने से सफेद लाईन डाली और खुदाई करने लगे। रघु और दूसरे काम करने वालों के लिए अलग से बखरी बन गईं।  कजली को यह तो संतोश था कि रघु वहीं है लेकिन अब संकट था कि यदि कालू का गैंग मारने आया तो भाग कर कहां जाएगा। 

उधर कालू-रोमियो भी देख रहे थे कि कजली का मकान छिन गया है। इन्होंने अपनी तरफ से युद्ध-विराम जैसा कर दिया। षाम तक कई ट्रक बालू-रेत आ गई और रेत के एक ऊंचे से ढेर पर कजली ने डरते-डरते अपना कब्जा कर लिया। अब कालू वगैरह भी इसी रेत में कूदते, एक दूसरे को पटकते, पंजे से धूल उड़ाते। बस अब कजली को पीटते नहीं। शायद , कजली के अधिकार क्षेत्र में उन्हें इतनी रेत में खेलने को जो मिल गया था। कुछ ही दिनो ंमें वहां तीन मंजीला इमारत का ढांचा बन गया। हर मंजिल पर चार फ्लेट। एब बार फिर रघु व उने साथ्यिों की झोपड़ियां टूटीं व अब वे लोग इन्हीं अधबने फ्लेट में पहुंच गए। 

कजली भी अब तीसरी मंजिल की छत तक जाता, वहां से भौंकता। कालू-रोमियो गैंग को लगा कि अब कजली को घमंड आ गया है। वे एक बार फिर कजली को पीटने का मौका देखने लगे, लेकिन कजली भी खतरा देख कर तीसरी मंजिल के ऊपर वाले छज्जे पर भाग जाता। हालांकि उसकी आत्मा तो नीते रेत-बालू में बैठने में ही फंसी रहती। कजली को पिटता देख रघु वगैरह भी कालू के साथियों को भगा देते। कालू-रोमियो गैग की इच्छा होती कि रेत पर खेलें तो मजदूर कुत्तों के संभावित झगड़े के डर से उन्हें भगा देते।

 निर्माण का काम कई दिनों से चल रहा था। अब काम कराने वाला ठेकेदार भी पहचान गया कि कजली यहीं का कुत्ता है। वह भी दिन में अपने खाने से उसके लिए कुछ ना कुछ निकाल देता। फिर पूरे भवन में भी कई अन्य काम करने वाले थे। कजली को भरपूर खाना मिल रहा था। उसकी चौकीदारी भी बढ़ती जा रही थी। एक रात तो कोई सीमेंट चुरा रहा था और कजली ने भौंक-भौंक कर सभी को जगा लिया। कजली की आवाज के साथ कालू-रोमियो गैग के कुत्ते भी पहुंच गए। रघु और उसे साथी भी आ गए। इस तरह कजली के लिए सभी का प्रेम बढ़ गया और कजली का दूसरे कुत्ता-समूह से टकराव भी कुछ कम हुआ। एकबार फिर वे सभी रेत-बालू में खेलने लगे। 

देखते-देखते मकान पूरा हो गया। रंगाई-पुताई हो गई। रघु और दूसरे मजदूरों की बखरी फिर उजड़ गई। पता ही नहीं चला कि वे कहां गए। कजली कोई तीन साल से उनके पास था। कजली को उनकी याद भी आती, लेकिन किससे कहता? कैसे कहता? वह तो भला हो ठेकेदार का कि हर दिन कजली के लिए खाना ले आता। 

फिर मकान में लोग भी रहने आ गए। बाहर से रेत भी उठ गई। एक बार फिर कजली बेघर हो गया। बस, कजली ने उस घर का दरवाजा नहीं छोड़ा,जहां उसकी आंख खुली थी। सबसे नीचे वाली मंजिल पर जो लोग रहने आए, उनका बेटा रमन कजली को देख रहा था। ठेकेदार ने बताया, ‘‘यह कजली है। यहीं रहता है। इसने एक बार चोर भी पकड़वाए थे।’’

रमन ने डरते-डरते कजली के सिर पर हाथ रखा और कजली ने भी अपनी आंखें मींच लीं व जमीन पर लेट गया।  कजली को रमन ने ब्रेड खाने को दी और वह उनके आंगन में आ गया। लेकिन यह क्या? 

‘‘छी, यह गंदा कुत्ता कैसे भीतर आ गए? रमन बाहर करो इसे।’’ मम्मी इतनी जोर से चिल्लाईं कि कजली खुद घर से बाहर हो गया। मम्मी इस बात पर राजी थीं कि कजली को खाना मिलेगा, लेकिन घर के भीतर नहीं आएगा। 

दीवाली की शाम सभी जगह धूम-धड़ाके के पटाखे चल रहे थे और कजली डर के मारे इधर-उधर भाग रहा था। रमन की मम्मी को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने उसे घर के भीतर कर लिया। उसके बाद कजली को छूट थी कि वह कभी भी भीतर आए, बाहर जाए। बांकी उसने अपनी ड्ूटी तो संभाल ही ली थीं। वह कूरियर वालों को घर के बाहर फटकने नहीं देता। 

कालोनी में नई सड़क बनने का काम षुरू हो गया। गिट्टी-पत्थर पड़ गए। रोड़-रोलर से उन्हें समतल किया गया। जगह-जगह बालू और लाल मुरम के ढेर लगा दिए गए। कजली और कालू गिरोह देानेां के लिए यह मौज-मस्ती का समय था। रेत-बालू के इतने बड़े-बड़े ढेर, खूब गुलाटी मारो, एक दूसरे को पटको, पीठ खुजलाओ। 

हल्ला हो गया कि कोरोना वायरस के कारण पूरा देष बंद रहेगा। कोई काम-धंधा नहीं चलेगा। बाजार बंद- बस-ट्रेन बंद। लोगों का सड़क पर निकलना बंद।  इस सड़क से सुबह से दिन तक पचास से ज्यादा तो स्कूल की बसें निकलती थीं। बहुत सारी पिकअप वेन भी। लेकिन लाॅक डाउन ऐसा हुआ कि सब तरफ सन्नाटा। 

अब ना तो सड़क पर कोई आ जा रहा था और ना ही सड़क काक मा चल रहा था। कजली के जीवन के ये शायद सबसे शान दार दिन थे। शान से रेत पर बैठा रहता। रमन भले ही बुलाए, घर के भीतर जाने को राजी ही नहीं होता। बस खानाा खाया और रेत पर कब्जा जमा लिया। दिन की तीखी गरमी में जरूर चुपके से रमन के आंगन में टपकते नल के नीेच बैठ जाता। जैसे सी धूप ढलती, रेत का ढेर उसका ठिकाना होता। 

पहले-पहल रमन की मम्मी ने भी उसे खूब बुलाया, लेकिन उसे रेत से ज्यादा अच्छा कुछ नहीं लगता। उसने माल लिया था कि अब उसे किसी बखरी की जरूरत नहीं। रेत से ज्यादा सुख कहां मिलेगा। ? यहीं उसकी बखरी हुई। भले ही उसको रेत में बैठने का सुख था, लेकिन ऐसा नहीं कि कजली अपनी ड्यूटी भूल गया हो। 

उस तरफ कालू को कोई बीमारी हुई और वह मर गया। इससे उनका गुट थोड़ा कमजोर हो गया। फिर उनके हिस्से में भी रेत-बालू के कई टिब्बर आए थे तो कजली से भिड़ने का कोई कारण उन्हें समझ नहीं आ रहा था।  कजली अपनी रेत में मस्त था और रोमियो-पिद्दी इधर। 

पांच महीने की नीम शान्ति  के बाद अनलाॅक शुरू  हो गया। एक दिन सुबह से जेसीबी मशीन, डपंर, रोड़ रोलर गड़गड़ाने लगे। इतने दिनों की शांति  के बाद इस तरह का शोर  कजली को दीवाली के धमाके की याद दिला रहा था। उसने पूंछ दबाई और चुपके से रमन के घर में घुस गया। मम्मी ने पहले गुस्से में फिर आश्चर्य  से देखा- आखिर आज इसे क्या हुआ है? 

शा म तक रेत के ढेर सड़क पर बिछ गए थे। कजली का ‘स्वर्ग’ बिखर गया था। षाम को उसने खाना भी नहीं खाया। रमन की ओर डबडबाई आंखों से देखता रहा। जैसे पूछ रहा हो - ‘‘मेरी रेत की बखरी क्यों उजाड़ दी?’’

0 बखरी -बुंदेलखंड में बखरी का अर्थ होता है मकान, घर, झोपड़ी, हवेली--


Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...