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शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

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 ‘एक देश-एक चुनाव’ के साथ ही जरूरी हैं चुनाव सुधार 

पंकज चतुर्वेदी




यह विडंबना है कि हमारे देश में लगभग हर साल चुनाव होते रहते हैं, आचार संहिता लागू हो जाती है, राजनेता  व जिम्मेदार लोग अपना काम-ध्ंाधा छोड़ कर चुनाव प्रचार में लग जाते हैं। इससे ना केवल  सरकारी व्यय बढ़ता है, बल्कि प्रशासनिक मशीनरी, राजनीतिक तंत्र भी अपने मूल उद्देश्य से लंबे समय तक विमुख रहता है। लेकिन यदि चुनाव साथ ही करवाने हैं तो अन्य चुनाव सुधार भी साथ ही लागू करना अनिवार्य है। इसमें सबसे प्राथमिक है मतदाता का बेहतर प्रशिक्षण । 

यह अब आम हो गया है कि चुनाव में जनता के मुद्दे नदारद है रहते हैं। सांसद का चुनाव लड़ने वाले नाली साफ करवाने या बगीचा या सड़क बनवाने के वायदे करते दिखते हैं।  असल में ये काम तो स्थानीय निकाय के पार्शद या सरपंच के होते हैं। न तो उम्मीदवार और न ही जनता समझ पा रही है कि हमें सरपंच के साथ-साथ सांसद की जरूरत क्यों है। और सांसद का असली काम क्या है। सांसद  और विधायक के काम क्या हैं ? उन्हें हम चुन कर किस काम से भेजते हैं, वे जिस सदन में बैठते हैं वहां वे क्या काम करते हैं ? पंचायत से ले कर संसद तक के चुनाव प्रचार में गाय, जिन्ना, पाकिस्तान और उससे आगे निजी आरोप-गालीगलौज की जो भरमार हो चुकी है उससे साफ हो गया कि सियासत का जन सरोकार से कोई वास्ता रह नहीं गया है।  यह केवल राजनेतओं का दोष नहीं है, जन प्रतिनिधि कोई दूसरे ग्रह से नही आता, वह भी हमारे समाज का हिस्सा होता है और हम जैसे होते हैं उसी भावना के प्रतिनिधि को चुनते हैं।  एक देश-’एक चुनाव के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो यही है। 

हालांकि हमारे देश में कोई चार बार एकसाथ चुनाव हुए हैं। लेकिन राज्यों में अलग से चुनाव होने का असल कारण आयाराम-गयाराम की राजनीति रहा। दलबदल विरोधी कानून आज के हालात में अप्रासंगिक है। कोई कभी भी दल बदल कर नए दल से चुनाव लड़ कर तस्वीर बदल देता हे। कई जगह तो दल बदल विरोधी नियमों को सदन के अध्यक्ष ही धता बताते रहते हैं। इसका मूल तो दलों के चुनाव के प्रचार अभियान साबित हो जाता  कि लाख पाबंदी के बावजूद चुनाव ना केवल महंगे हो रहे हैं, बल्कि सियासी दल जिस तरह एक दूसरे पर षुचिता के उलाहने देते दिखेे, खुद को पाक-साफ व दूसरे को चोर साबित करते रहे हैंें, असल में समूचे कुंए में ही भांग घुली हुई हैं। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई हैं और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं। वास्तव में यह लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र था, यह चरम बिंदू है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है। जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिषा में काम नहीं करना चाहता है। 

आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रूचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना - ये कुछ ऐसी बुराईयां हैं जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और इस बार ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं। कहीं पर हजारों मतदाताओं के नाम गायब हैं तो नगालैंड में एक राजनेता कैमरे के सामने 11 वोट डाल लेता है। गाजियाबाद में रहने वाले पुर्व मुख्य चुनाव आयुक्त या कर्नाटक निर्वान आयोग के ब्रंाड एंबेसेडर राहुल द्रविड का नाम ही मतदाता सूची में नहीं होता और किसी भी जिम्मेदार पर कड़ी कार्यवाही होती नहीं। कई बार निर्वाचन आयोग असहाय सा दिखा और फिर आयोग ने ही अपने खर्चे इतने बढ़ा लिए हैं कि वह आम आदमी के विकास के लिए जरूरी बजट पर डाका डालता प्रतीत होता है।

जाति, गौत्र, धर्म के नाम पर या षराब, साड़ी के लालच में या फिर बाहुबल से धमका कर मतदान को अपने पक्ष में करने की जुगाड़ अब नई बात नहीं। चुनाव लड़ाने के लिए अब जनता की नहीं,  प्रबंधन एजेंसियों की जरूरत होती है । बड़े-बड़े रणनीतिकार  मतदाता सूची का विष्लेशण कर तय करे लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां एक वोट या पांच लाख वोट से जीते दोनेां तरह के सांसदों के समान अधिकार होते हैं। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल किसी वर्ग विशेष के। केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर सांसदों का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा।

यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लेमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। ऐसे में सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की पीढ़ी बढ़ती जा रही है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीषाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा 

सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुष भी स्थाई व मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में कम से कम दो प्रतिषत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम ‘दिल्ली में घोडा़ मंडी’’ की रोक का सषक्त जरिया बन सकता है। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की षर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याषी लोकतंत्र का मजाक ना बना पाएं। 



एक बात और हमें पाकिस्तान से सीख लेना चाहिए कि चुनाव से पहले सरकार भ्ंाग हो और किसी वरिश्ठ न्यायाधीष को कार्यवाहक सरकार का जिम्मा दे दी जाए। इससे चुनाव में सरकारी मषीनरी के इस्तेमाल की कुरीति से बचा जा सकता हे। आज प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री सरकारी जहाज व सुविधा पर प्रचार करते हैं, कई जगह चुनाव निष्पक्षता से करवाने की ड्यूटी में लगे अफसरों को प्रभाचित करने की खबरें भी आती हैं। 

पंकज चतुर्वेदी ,

साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376







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