तालाबों के प्रति कोताही क्यों ?
पंकज चतुर्वेदी
सन 2016 के खेतों में पांच लाख तालाब बनाने की बात हो या फिर उप्र में योगी सरकार के पहले सौ दिनों में तालाब विकास प्राधिकरण का संकल्प या फिर राजस्थान में कई सालों पुराना झील विकास प्राधिकरण या फिर मप्र में सरोवर हमारी धरोहर या जल अभिषेक जैसे नारों के साथ तालाब-झील सहेजने की योजनाएं, हर ाबर लगता है कि अब देश के नीति निर्धारकों को समझ आ गया है कि बारिश की हर बूंद को सहेजने के पारंपरिक उपाय ज्यादा कारगर हैं। तभी जब गर्मी शुरू होते ही देश में पानी की मारा-मार, खेतों के लिए नाकाफी पानी और पाताल में जाते भूजल के आंकड़े उछलने लगते हैं तो समझ आता है कि असल में तालाब को सहजेने की प्रबल इच्छा शक्ति में या तो सरकार का पारंपरिक ज्ञान का सहारा न लेना आड़े आ रहा है या फिर तालाबों की बेषकीमती जमीन को धन कमाने का जरिया समझने वाले ज्यादा ताकतवर हैं। यह अब सभी के सामने हैं किसिंचाई की बड़ी परियोजनाएं व्यय, समय और नुकसान की तुलना में छोटी व स्थानीय सिंचाई इकाई ज्यादा कारगर है। इसके बावजूद तालाबों को सहेजने का जज्बा कहीं नजर नहीं आता।
पूरे भारत के हर एक भौगोलिक क्षेत्रों में वैदिक काल से लेकर आज-अभी तक शासन और समाज ने अपनी जरूरतों के मुताबिक जल संरचनाओं और जल प्रणालियों को विकसित किया। इनमें सबसे ज्यादा तालाब या झील या उन पर आधारित योजनाएं ही हैं। रेगिस्तान हो या बंदेलखंड जहां भी पानी मिलना दूभर हुआ तालाबों को सागर की उपमा दे दी गई। ऋग्वेद में सिंचित खेती, कुओं और गहराई से पानी खींचने वाली प्रणालियों का उल्लेख मिलता है। हडप्पा एवं मोहनजोदडो (ईसा से 3000 से 1500 साल पूर्व) में जलापूर्ति और मल निकासी की बेहतरीन प्रणालियों के अवषेष मिले हैं। कौटिल्य के अर्थषास्त्र में भी जल संरचनाओं के बारे में अनेक विवरण उपलब्ध हैं। इन विवरणों से पता चलता है कि तालाबों का निर्माण राज्य की जमीन पर होता था। स्थानीय लोग तालाब निर्माण की सामग्री जुटाते थे। असहयोग और तालाब की पाल को नुकसान पहुँचाने वालों पर राजा द्वारा जुर्माना लगाया जाता था। तत्कालीन नरेष चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा यह व्यवस्था ईसा से 321-297 साल पहले लागू की गई थी। बरसात के पानी को संचित करने के लिये तटबन्ध, जलाषय और तालाबों का निर्माण आम था। सूखे इलाकों में कुये और बावड़ियों के बनाने का रिवाज था। मेगस्थनीज ने भी अपने यात्रा विवरणों में उत्तर भारत में पानी का वितरण करने वाली जलसुरंगों का जिक्र किया है। बुंदेलखंड में लाख उपेक्ष के बावजूद नौ सौ से बारहवी सदी के चंदेलकालीन तालाब अभी भी वर्षा को समेट रहे हैं।
यदि तालाबों को ध्यान दें तो यह महज कहीं खोदा गया विषाल गढ्ढा या फिर ऐसी प्राकृतिक संरचना मात्र नहीं थे जहां जल जा हो जाता था। पानी को एकत्र करने के लिए इलाके की जलवायु, न्यूनतम बरसात का आकलन, मिट्टी का परीक्षण, भूजल की स्थिति, सदानीरा , उसके बाद निर्माण सामग्री का चयन, गहराई का गणित जैसी कई बातों का ध्यान रखा जाता है। यह कड़वा सच है कि अंग्रेजीदां इंजीनियरिंग की पढ़ाई ने युवा को सूचनओं से तो लाद दिया लेकिन देषद ज्ञान उसकी पाठ्य पुस्तकों में कभी रहा नहीं। तभी जब सरकारी इंजीनियर को तालाब सहेजने का कहा जाता है तो वह उस पर स्टील की सैलिंग लगाने, उसके किनारे बगीचा व जल कुंभी मारने को मषीन या गहरा खेदने से अधिक काम कर नहीं पाता। पुरानी संरचनाएं बानगी हैं कि उस काल में भी उन्नत जल-विज्ञान और कुशल जलविज्ञानी मौजूद थे। कई बार लगता है कि जल संरचनाओं के निर्माणकर्ताओं के हाथों में अविष्वसनीय कौषल तथा प्राचीन वास्तुविदों की प्रस्तुति में देष की मिट्टी और जलवायु की बेहतरीन समझ की सोंधी गंध मौजूद थी।
यह समझाना जरूरी है कि यानि यह तय है कि तालाब महज एक गड्ढा नहीं है, जिसमें बारिष का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें। तालाब कहां खुदेगा, इसको परखने के लिए वहां की मिट्टी, जमीन पर जल आगमन व निगमन की व्यवस्था, स्थानीय पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है। वरना यह भी देखा गया है ग्रेनाईट संरचना वाले इलाकों में कुएं या तालाब खुदे, रात में पानी भी आया और कुछ ही घंटों में किसी भूगर्भ की झिर से कहीं बह गया। दूसरा , यदि बगैर सोचे -समझे पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोद तो धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, फिर दल-दल बनाएगा और फिर उससे ना केवल जमीन नष्ट होगी, बल्कि आसपास की जमीन के प्राकृतिक लवण भी पानी के साथ बह जाएंगे। यदि नमी, दलदल, लवण बहने का सिलसिला महज पंद्रह साल भी जारी रहा तो उस तालाब के आसपास लाइलाज बंजर बनना वैज्ञानिक तथ्य है।
हाल की अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट हों या फिर 1944 की बंगाल दुर्भिक्ष के बाद गठित आयोग का दस्तावेज, सभी में साफ जताया गया है कि भारत जैसे देश में सिंचाई के लिए तालाब ही मजबूत जरिया हैं।खासकर जब हमारे सामने जलवायु परिवर्तन के खतरे मुंह बाए खड़े हैं, अन्न में पौश्टिकता की कमी, रासायनिक खाद-दवा के अतिरेक से जहर होती फसल , बढ़ती आबादी का पेट भरने की चुनौती, फसलों में विविधता का अभाव और प्राकृतिक आपदाओं की त्वरित मार, सहित कई एक चुनौतियां खेती के सामने हों, तो तालाब ही एकमात्र सहारा बचता है।
नए तालाब जरूर बनें, लेकिन आखिर पुराने तालाबों का जिंदा करने से क्यां बचा जा रहा है? सरकारी रिकार्ड कहता है कि मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। सन 2000-01 में जब देष के तालाब, पोखरों की गणना हुई तो पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं।
यदि सरकार तालाबों के संरक्षण के प्रति गंभीर है तो गत पांच दशकों के दौरान तालाब या उसके जल ग्रहण क्षेत्र में हुए अतिक्रमण हटाने, तालाबों के जल आगमन क्षेत्र में बाधा खड़े करने पर कड़ी कार्यवाही करने , नए तालाबों के निर्माण के लिए आदि-ज्ञान हेतु समाज से स्थानीय योजनाएं तैयार करवना जरूरी है। और यह तभी संभव है जब देष में न्यायीक अधिकार संपन्न तालाब विकास प्राधिकरण का गठन ईमानदारी से किया जाए। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-माफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबंदी ने देश को तालाब विहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
काश नदी-जोड जैसी किसी एक योजना का समूचे व्यय के बराबर राशि एक बार एक साल विशेष अभियान चला कर पूरे देश के पारंपरिक तालबों की गाद हटाने, अतिक्रमण मुक्त बनाने और उसके पानी की आवक-जावक के रास्ते को निरापद बनाने में खर्च कर दिया जाए तो भले ही कितनी भी कम बारिष हो, ना तो देष का कोई कंठ सूखा रहेगा और ना ही जमीन की नमी मारी जाएगी।
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