कजली की बखरी
पंकज चतुर्वेदी
गली के कुत्ते अजब-गजब होते हैं, वे ना जाने कहां से अचानक आते हैं, किसी के घर के दरवाजे को अपना समझ लेते हैं । फिर उन्हें कोई प्यार करे या ना करे, उन्हें कोई खाना मिले या ना मिले, वे अपना काम करते रहते हैं। कोई झोला लिए कबाड़ा बीनने वाला निकले या फिर किसी दूसरी गली का जानवर आ जाए, वे उसे अपने इलाके से बाहर निकाल कर ही दम लेते हैं। उसका नाम ना जाने कैसे कजली पड़ गया, दिखने में भी कोई खास सुंदर नहीं, चितकबरा सा, धारियोना वाला ।
कालेानी में एक खाली जमीन का टुकड़ा था। उस पर चोहद्दी बनी हुई थी। भीतर रघु व उसकी पत्नी रहती थी। वहां मकान बनाने की ढेर सारी सामग्री भी रखी थी और कजली उसी पर बैठा रहता । दोनो मेहनत-मजदूरी करते, सारे दिन घर से बाहर रहते और कजली का डेरा उस दीवार के भीतर रहता। षाम को रघु घर लौटता तो उसे रोटी मिल जाती।
वैसे उस कालोनी में और भी कुत्ते थे - कालू, रोमियो, लाभू, पिद्दी, गोल्डी। ये सब एकसाथ गुट बना कर रहते। परंतु कजली का कोई दोस्त नहीं। जब मौका मिलता कालू-रोमियो का गिरोह कजली को पीटने भी आता तो वह कूद कर अपनी दीवार के पार रघु के मकान में आ जाता। रघु की घरवाली कहती-‘यह तो कजली की बखरी है। ’
एक दिन सुबह से कजली को उसकी बखरी से बाहर कर दिया गया, कुछ लोग आए और उन्होंने सबसे पहले रघु की झोपड़ी तोड़ दी। कजली गुर्राया, काटने दौड़, लेकिन रघु व उसकी घरवाली ने उसे पकड़ लिया, ‘‘ नहीं कजली, ऐसा नहीं करते। चलो भागो।’’
कजली समझ नहीं पा रहा था कि उसकी बखरी टूट रही है और उसका मालिक रघु उल्टे कजली को ही डांट रहा है। दिन होते-हाते बहुत से लोग वहां आ गए। उन्होंने चूने से सफेद लाईन डाली और खुदाई करने लगे। रघु और दूसरे काम करने वालों के लिए अलग से बखरी बन गईं। कजली को यह तो संतोश था कि रघु वहीं है लेकिन अब संकट था कि यदि कालू का गैंग मारने आया तो भाग कर कहां जाएगा।
उधर कालू-रोमियो भी देख रहे थे कि कजली का मकान छिन गया है। इन्होंने अपनी तरफ से युद्ध-विराम जैसा कर दिया। षाम तक कई ट्रक बालू-रेत आ गई और रेत के एक ऊंचे से ढेर पर कजली ने डरते-डरते अपना कब्जा कर लिया। अब कालू वगैरह भी इसी रेत में कूदते, एक दूसरे को पटकते, पंजे से धूल उड़ाते। बस अब कजली को पीटते नहीं। शायद , कजली के अधिकार क्षेत्र में उन्हें इतनी रेत में खेलने को जो मिल गया था। कुछ ही दिनो ंमें वहां तीन मंजीला इमारत का ढांचा बन गया। हर मंजिल पर चार फ्लेट। एब बार फिर रघु व उने साथ्यिों की झोपड़ियां टूटीं व अब वे लोग इन्हीं अधबने फ्लेट में पहुंच गए।
कजली भी अब तीसरी मंजिल की छत तक जाता, वहां से भौंकता। कालू-रोमियो गैंग को लगा कि अब कजली को घमंड आ गया है। वे एक बार फिर कजली को पीटने का मौका देखने लगे, लेकिन कजली भी खतरा देख कर तीसरी मंजिल के ऊपर वाले छज्जे पर भाग जाता। हालांकि उसकी आत्मा तो नीते रेत-बालू में बैठने में ही फंसी रहती। कजली को पिटता देख रघु वगैरह भी कालू के साथियों को भगा देते। कालू-रोमियो गैग की इच्छा होती कि रेत पर खेलें तो मजदूर कुत्तों के संभावित झगड़े के डर से उन्हें भगा देते।
निर्माण का काम कई दिनों से चल रहा था। अब काम कराने वाला ठेकेदार भी पहचान गया कि कजली यहीं का कुत्ता है। वह भी दिन में अपने खाने से उसके लिए कुछ ना कुछ निकाल देता। फिर पूरे भवन में भी कई अन्य काम करने वाले थे। कजली को भरपूर खाना मिल रहा था। उसकी चौकीदारी भी बढ़ती जा रही थी। एक रात तो कोई सीमेंट चुरा रहा था और कजली ने भौंक-भौंक कर सभी को जगा लिया। कजली की आवाज के साथ कालू-रोमियो गैग के कुत्ते भी पहुंच गए। रघु और उसे साथी भी आ गए। इस तरह कजली के लिए सभी का प्रेम बढ़ गया और कजली का दूसरे कुत्ता-समूह से टकराव भी कुछ कम हुआ। एकबार फिर वे सभी रेत-बालू में खेलने लगे।
देखते-देखते मकान पूरा हो गया। रंगाई-पुताई हो गई। रघु और दूसरे मजदूरों की बखरी फिर उजड़ गई। पता ही नहीं चला कि वे कहां गए। कजली कोई तीन साल से उनके पास था। कजली को उनकी याद भी आती, लेकिन किससे कहता? कैसे कहता? वह तो भला हो ठेकेदार का कि हर दिन कजली के लिए खाना ले आता।
फिर मकान में लोग भी रहने आ गए। बाहर से रेत भी उठ गई। एक बार फिर कजली बेघर हो गया। बस, कजली ने उस घर का दरवाजा नहीं छोड़ा,जहां उसकी आंख खुली थी। सबसे नीचे वाली मंजिल पर जो लोग रहने आए, उनका बेटा रमन कजली को देख रहा था। ठेकेदार ने बताया, ‘‘यह कजली है। यहीं रहता है। इसने एक बार चोर भी पकड़वाए थे।’’
रमन ने डरते-डरते कजली के सिर पर हाथ रखा और कजली ने भी अपनी आंखें मींच लीं व जमीन पर लेट गया। कजली को रमन ने ब्रेड खाने को दी और वह उनके आंगन में आ गया। लेकिन यह क्या?
‘‘छी, यह गंदा कुत्ता कैसे भीतर आ गए? रमन बाहर करो इसे।’’ मम्मी इतनी जोर से चिल्लाईं कि कजली खुद घर से बाहर हो गया। मम्मी इस बात पर राजी थीं कि कजली को खाना मिलेगा, लेकिन घर के भीतर नहीं आएगा।
दीवाली की शाम सभी जगह धूम-धड़ाके के पटाखे चल रहे थे और कजली डर के मारे इधर-उधर भाग रहा था। रमन की मम्मी को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने उसे घर के भीतर कर लिया। उसके बाद कजली को छूट थी कि वह कभी भी भीतर आए, बाहर जाए। बांकी उसने अपनी ड्ूटी तो संभाल ही ली थीं। वह कूरियर वालों को घर के बाहर फटकने नहीं देता।
कालोनी में नई सड़क बनने का काम षुरू हो गया। गिट्टी-पत्थर पड़ गए। रोड़-रोलर से उन्हें समतल किया गया। जगह-जगह बालू और लाल मुरम के ढेर लगा दिए गए। कजली और कालू गिरोह देानेां के लिए यह मौज-मस्ती का समय था। रेत-बालू के इतने बड़े-बड़े ढेर, खूब गुलाटी मारो, एक दूसरे को पटको, पीठ खुजलाओ।
हल्ला हो गया कि कोरोना वायरस के कारण पूरा देष बंद रहेगा। कोई काम-धंधा नहीं चलेगा। बाजार बंद- बस-ट्रेन बंद। लोगों का सड़क पर निकलना बंद। इस सड़क से सुबह से दिन तक पचास से ज्यादा तो स्कूल की बसें निकलती थीं। बहुत सारी पिकअप वेन भी। लेकिन लाॅक डाउन ऐसा हुआ कि सब तरफ सन्नाटा।
अब ना तो सड़क पर कोई आ जा रहा था और ना ही सड़क काक मा चल रहा था। कजली के जीवन के ये शायद सबसे शान दार दिन थे। शान से रेत पर बैठा रहता। रमन भले ही बुलाए, घर के भीतर जाने को राजी ही नहीं होता। बस खानाा खाया और रेत पर कब्जा जमा लिया। दिन की तीखी गरमी में जरूर चुपके से रमन के आंगन में टपकते नल के नीेच बैठ जाता। जैसे सी धूप ढलती, रेत का ढेर उसका ठिकाना होता।
पहले-पहल रमन की मम्मी ने भी उसे खूब बुलाया, लेकिन उसे रेत से ज्यादा अच्छा कुछ नहीं लगता। उसने माल लिया था कि अब उसे किसी बखरी की जरूरत नहीं। रेत से ज्यादा सुख कहां मिलेगा। ? यहीं उसकी बखरी हुई। भले ही उसको रेत में बैठने का सुख था, लेकिन ऐसा नहीं कि कजली अपनी ड्यूटी भूल गया हो।
उस तरफ कालू को कोई बीमारी हुई और वह मर गया। इससे उनका गुट थोड़ा कमजोर हो गया। फिर उनके हिस्से में भी रेत-बालू के कई टिब्बर आए थे तो कजली से भिड़ने का कोई कारण उन्हें समझ नहीं आ रहा था। कजली अपनी रेत में मस्त था और रोमियो-पिद्दी इधर।
पांच महीने की नीम शान्ति के बाद अनलाॅक शुरू हो गया। एक दिन सुबह से जेसीबी मशीन, डपंर, रोड़ रोलर गड़गड़ाने लगे। इतने दिनों की शांति के बाद इस तरह का शोर कजली को दीवाली के धमाके की याद दिला रहा था। उसने पूंछ दबाई और चुपके से रमन के घर में घुस गया। मम्मी ने पहले गुस्से में फिर आश्चर्य से देखा- आखिर आज इसे क्या हुआ है?
शा म तक रेत के ढेर सड़क पर बिछ गए थे। कजली का ‘स्वर्ग’ बिखर गया था। षाम को उसने खाना भी नहीं खाया। रमन की ओर डबडबाई आंखों से देखता रहा। जैसे पूछ रहा हो - ‘‘मेरी रेत की बखरी क्यों उजाड़ दी?’’
0 बखरी -बुंदेलखंड में बखरी का अर्थ होता है मकान, घर, झोपड़ी, हवेली--
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