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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

Understand the reasons for the longest peasant movement in the world

 

गुस्सा अकेले पंजाब के किसान का ही नहीं है –

पंकज चतुर्वेदी

 


वैसे तो सारे देश में किसान अपनी मेहनत, लागत और उससे होने वाली आय को ले कर निराश हैं और किसान बिल ने उन्हें विरोध  करने का एक स्वर दे दिया है , लेकिन यह बात बार -बार हो रही है कि आखिर पंजाब में ही ज्यादा रोष क्यों  है ? यह जान लें कि कृषि बिल को ले कर  किसान का असल  दर्द तो यह है कि उसे अपना अस्तित्व ही खतरे में लग रहा है , शायद भारत खेती के मामले में अमेरिका का मॉडल अपनाना चाहता है जहां कुल आबादी का महज डेढ़ फीसदी लोग ही खेती करते हैं , उनके खेत अर्थात विशाल कम्पनी संचालित, मशीनों से बोने-काटने वाले, कर्मचारियों द्वारा प्रबंधित और बाज़ार को नियंत्रित करने वाले किसान, हां , उन्हें सरकार औसतन प्रति किसान सालाना 45 लाख डॉलर सब्सिडी देती है और हमारे यहा ? प्रति किसान सालाना बामुश्किल बीस हज़ार . असल में किसान बिल से अलग अलग किसानों की दिक्कते हैं और इस अवसर पर वे फूट कर बाहर आ रही हैं .



पंजाब में कोई ग्यारह लाख परिवार खेती-किसानी पर निर्भर हैं , इसके अलावा ,पंजाब की खेती के बदौलत बिहार से बुंदेलखंड तक के लाखों श्रमिकों के घर बरकत आती  है . भारत के सालाना गेहूं उत्पादन में पंजाब का योगदान 11.9 फीसद  और धान में 12.5 फीसद है.इस राज्य में किसान पर कर्ज भी बहुत अधिक है और बीते दस सालों में  लगभग साढ़े तीन सौ किसान ख़ुदकुशी कर चुके हैं . बीते साल अकेले पंजाब में अनाज की सरकारी खरीदी 52  सौ करोड रूपये की थी , जाहिर है कि मंडी, सरकारी खरीद और एम् एस पी पंजाब के किसान के लिए महत्वपूर्ण है . संकट अकेले अच्छी फसल के लिए पानी , बिजली का संकट और नकली बीज-खाद-दवा का खतरा ही नहीं है, बल्कि उत्पाद का सही दाम मिलना भी एक चुनौती है .



इसरो के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा जारी वैस्टलैंड एटलस-2019’  में उल्लेखित बंजर जमीन को खेती लायक बदलने की सरकारी गौरव गाथाओं के बीच यह दुखद तथ्य भी छुपा है कि हमारे देश में खेती के लिए जमीन साल-दर-साल कम हो रही है, जबकि आबादी बढ़ने से खाद्य की मांग बढ़ रही है और इस दिशा में देश की दुनिया के दीगर देशों पर निर्भरता  बढ़ती जा रही है।  जानना जरूरी है कि भारत के पास दुनिया की कुल धरती का 2.4 प्रतिशत है, जबकि विश्व की आबादी के 18 फीसदी हमारे बाशिंदे हैं।  भारत में खेती की जमीन प्रति व्यक्ति औसतन 0.12 हैक्टर रह गई है, जबकि विश्व में यह आंकड़ा 0.28 हैक्टर है।



सरकार भी मानती है कि पंजाब जैसे कृषि  प्रधान राज्य में देखते ही देखते 14 हजार हैक्टर अर्थात कुल जमीन का 0.33 प्रतिशत  पर खेती बंद हो गई। इस राज्य में जोत छोटी होती जा रही है और आज
72 फीसद जोत 5 एकड़ से कम है. पश्चिम बंगाल में 62 हजार हैक्टर खेत सूने हो गए तो केरल में 42 हजार हैक्टर से किसानों का मन उचट गया। देश  के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेश  का यह आंकड़ा अणु बम से ज्यादा खतरनाक है कि राज्य में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हैक्टर खेती की जमीन को उजाड़ा जा रहा है। मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांश  अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। यह भी सच है कि मनरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे है और  मजदूर ना मिलने से हैरान-परेशान किसान खेत को तिलांजली दे रहे हैं।

नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक देश में 14 करोड़ हैक्टर खेत हैं।  विभाग की ‘‘भारत में पारिवारिक स्वामित्व एवं स्वकर्षित जोत’’ संबंधित रिपोर्ट का आकलन बहेद डरवना है। सन 1992 में ग्रामीण परिवारों के पास 11.7 करोड़ हैक्टर भूमि थी जो 2013 तक आते-आते महज 9.2 करोड़ हैक्टर रह गई।  यदि यही गति रही तो तीन साल बाद अर्थात 2023 तक खेती की जमीन आठ करोड़ हैक्टर ही रह जाएगी।
आखिर खेत की जमीन कौन खा जाता है इसके मूल कारण तो खेती का अलाभकारी कार्य होना, उत्पाद की माकूल दाम ना मिलना, मेहनत की सुरक्षा आदि तो हैं ही, विकास ने सबसे ज्यादा खेतों की हरियाली का दमन किया है। पूरे देश में इस समय बन रहे या प्रस्तावित छह औद्योगिक कॉरीडोर के लिए कोई 20.14 करोड़ हैक्टर जमीन की बली चढ़ेगी, जाहिर है इसमें खेत भी होंगे।

यह सब सरकारी रिकार्ड में दर्ज है कि देश में कोई 14 .5 करोड़ किसान परिवार हैं इनमें से छियासी फीसदी छोटे या सीमान्त किसान हैं अर्थात जिनके पास दो हेक्टेयर से कम जमीन  हैं . इनमें से भी 68 प्रतिशत वे हैं जिनकी जोत का रकवा एक हेक्टेयर से भी कम है . देश में सबसे ज्यादा किसान उत्तर प्रदेश में हैं -2.38 करोड़ , फिर बिहार में 1.68 करोड़ , उसके बाद महाराष्ट्र में 1.52 और मध्य प्रदेश में कोई एक करोड़ . इन किसानों में आधे से अधिक 52.5 फीसदी कर्ज में दबे हैं , वह भी औसतन एक लाख या अधिक् के कर्ज में . दुर्भाग्य है कि हमारे देश में इस बात पर कोई संवेदना नहीं होती कि खेती पर निर्भर औसतन हर दिन 28 लोग आत्म ह्त्या करते हैं और इनमें सर्वाधिक महाराष्ट्र में हैं .

किसान को अपने अस्तित्व की फिकर है और यह बात इस आंकड़े से उजागर होती है कि जहां सन 2016 में 45 .14 करोड़ लोग खेती से अपना घर-बार चलाते थे , यह संख्या सन  2020 आते –आते  41.49 करोड़ रह गयी है . विडम्बना है कि यह संख्या हर साल घटती रही और भाग्य विधाता बेपरवाह रहे – सन 2017 में यह संख्या 44.05 हुई , सन 2018 में 43.33 , 2019  में खेती पर निर्भर 42.39 हो गये .

किसान भारत का स्वाभिमान है और देश  के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका शोषण अंतहीन है - नकली बीज व खाद की भी निरंकुश समस्या तो खेत सींचने के लिए बिजली का टोटा है, कृषि  मंडियां दलालों का अड्डा बनी है व गन्ना, आलू जैसी फसलों के वाजिब दाम मिलना या सही समय पर कीमत मिलना लगभग असंभव जैसा हो गया हे। जाहिर है कि ऐसी घिसी-पिटी व्यवस्था में नई पीढ़ी तो काम करने से रही, सो वह खेत छोड़ कर चाकरी करने पलायन कर रही है।
जब तक खेत उजड़गे, दिल्ली जैसे महानगरों की ओर ना तो लोगों का पलायन रूकेगा और ना ही अपराध रूकेंगे , ना ही जन सुविधाओं का मूलभूत ढ़ांचा लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप होगा। आज किसानों के प्रदर्शन  के कारण दिल्ली  व अन्य महानगर त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, कल जमीन से उखड़े ये बेरोजगार और हताष लोगों की भीड़ कदम-कदम पर महानगरों का रास्ता रोकेगी। यदि दिल से चाहते हो कि कभी किसान दिल्ली की ओर ना आए तो सरकार व समाज पर दवाब बनाएं कि दिल्ली या लखनऊ उसके खेत पर लालच से लार टपकाना बंद कर दें । किसान के श्रम का सही मुल्यांकन हो , किसान की मर्जी के बगैर कोई कानून –कायदे बनाए ना जाएँ .

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