My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 21 दिसंबर 2020

companies-should-also-take-responsibility-for-poisonous-waste

जहरीले कचरे की जिम्मेदारी भी लें कंपनियां




भारत में हर साल कोई 4.4 खरब लीटर पानी को प्लास्टिक की बोतलों में पैक कर बेचा जाता है। यह बाजार 7,040 करोड़ रुपये सालाना का है। जमीन के गर्भ से या फिर बहती धारा से प्रकृति के आशीर्वाद स्वरूप निःशुल्क मिले पानी को कुछ मशीनों से गुजार कर बाजार में लागत के 160 गुणा ज्यादा भाव से बेच कर मुनाफे का पहाड़ खड़ा करने वाली ये कंपनियां हर साल देश में पांच लाख टन प्लास्टिक बोतलों का अंबार भी जोड़ती हैं। शीतल पेय का व्यापार तो इससे भी आगे है और उससे उपजा प्लास्टिक कूड़ा भी यूं ही इधर-उधर पड़ा रहता है। चूंकि ये बोतलें ऐसे किस्म की प्लास्टिक से बनती हैं, जिनका पुनर्चक्रण हो नहीं सकता, सो कबाड़ी इन्हें लेते नहीं हैं। या तो यह प्लास्टिक टूट-फूट कर धरती को बंजर बनाता है या फिर इसे एकत्र कर ईंट-भट्ठे या ऐसी ही बड़ी भट्ठियों में झोंक दिया जाता है, जिससे निकलने वाला धुआं दूर-दूर तक लोगों का दम घोंटता है। ठीक यही हाल हर दिन लाखों की संख्या में बिकने वाली कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों, दूध की थैलियों, चिप्स आदि के पैकेट का है। यह बानगी है कि देश के जल-जंगल-जमीन को संकट में डालने वाले उत्पादों को मुनाफा कमाने की तो छूट है, लेकिन उनके उत्पाद से उपजे जहरीले कचरे के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है।


असल में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के चलते नैसर्गिकता में आए बदलाव का मूल कारण हमारा प्रकृति पर निर्भरता से दूर होना है। विडंबना है कि कुछ संगठन व व्यापारी यह कहते नहीं अघाते कि प्लास्टिक के आने से पेड़ बच गए। हकीकत यह है कि पेड़ से मिलने वाले उत्पाद, चाहे वे रस्सी हों या जूट या कपड़ा, या कागज, इस्तेमाल के बाद प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाते थे। पेड़ का दोहन करें, तो उसे फिर से उगा कर उसकी पूर्ति की जा सकती है, लेकिन एक बार प्लास्टिक धरती पर किसी भी स्वरूप में आ गया, तो उसका नष्ट होना असंभव है और वह समूचे पर्यावरणीय-तंत्र को ही हानि पहुंचाता है। यह मसला अकेले पानी की बोतलों का ही नहीं है, खाने-पीने की वस्तुओं से लेकर हर तरह के सामान की पैकिंग में प्लास्टिक या थर्मोकॉल का इस्तेमाल बेधड़क हो रहा है, लेकिन कोई भी निर्माता यह जिम्मेदारी नहीं लेता कि इस्तेमाल होने वाली वस्तु के बाद उससे निकलने वाले इस जानलेवा कचरे का उचित निष्पादन कौन करेगा। 


मोबाइल फोन, कंप्यूटर व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की कंपनियों का मुनाफा असल उत्पादन लागत का कई सौ गुणा होता है, लेकिन करोड़ों रुपये विज्ञापनों पर खर्च करने वाली ये कंपनियां इनसे उपजने वाले ई-कचरे की जिम्मेदारी लेने को राजी नहीं होतीं। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों से भी उपज रहा है। इनसे निकलने वाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देती हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैं, जो जल, जमीन, वायु, इंसान और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उससे उबरना लगभग नामुमकिन है। इस कबाड़ को भगवान भरोसे प्रकृति को नष्ट करने के लिए छोड़ दिया जाता है। यही नहीं, ऐसे नए उपकरण खरीदने के दौरान पैकिंग व सामान की सुरक्षा के नाम पर कई किलो थर्मोकोल व पॉलिथीन का इस्तेमाल होता है, जिन्हें उपभोक्ता कूड़े में ही फेंकता है।

क्या यह अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए कि इस तरह के पैकेजिंग मटेरियल कंपनी खुद तत्काल उपभोक्ता से वापस ले लें? यह तो किसी छिपा नहीं है कि विभिन्न सरकारों द्वारा पर्यावरण बचाने के लिए करों से उनका खजाना जरूर भरा हो, कभी पर्यावरण संरक्षण के ठोस कदम तो उठे नहीं। भारत जैसे विशाल और दिन-दोगुनी, रात चौगुनी प्रगति कर रहे उपभोक्तावादी देश में अब यह अनिवार्य होना चाहिए कि प्रत्येक सामान के उत्पादक या निर्यातक उसके उत्पाद की पैकेजिंग या कंडम होने से उपजे कबाड़ या प्रदूषण के निष्पादन की तकनीक और जिम्मेदारी स्वयं ले। यह तो कतई नैतिक व न्यायोचित नहीं है कि कंपनियां चॉकलेट-बिस्कुट, मोबाइल फोन, पानी-शीतल पेय इत्यादि बेच कर जम कर मुनाफा कमाएं और उनकी वजह से होने वाले प्रदूषण से समाज व सरकार जूझें।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...