My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

Then the sound of winter and then poison in the breath

                                      फिर जाड़े की आहट और फिर सांसों में जहर

पंकज चतुर्वेदी



अभी तो महज सुबह शाम कुछ देर हलकी सी ठण्ड लगती है लेकी दिल्ली और उसके आसपास हवा का जहर होना शुरू हो गया है . अक्तूबर-23 के तीसरे हफ्ते आते-आते ही हवा की हालत पतली हो गी और  ग्रेप का दूसरा पायदान लागु करने की नौबत आ गई . हालाँकि यह कड़वा सच है  कि दिल्ली की हवा तो बरसात के दस दिन छोड़ कर सारे साल ही बेहद खतरनाक स्तर पर होती है, बस उन दिनों जाड़े के मौसम की तरह कालिख कुछ कम दिखती है, इसी लिए इसका सारा ठीकरा पंजाब-हरियाणा के खेतों में जलने वाले फसल-अवशेष अर्थात पराली पर फोड़ दिया जाता है . हकीकत यह है कि दिल्ली का दम  घोटने में सबसे बड़ी भूमिका ट्राफिक जाम और पूरे शहर में चल रहे निर्माण कार्यों से उड़ रही धूल की अधिक है . एक साल  सम-विषम का तमाशा हुआ, पिछले  साल  प्रदूषण सोख लेने वाले टावर  का हल्ला रहा . पराली को खेत में खत्म करने वाले  रसायन के विज्ञापन भी खूब छपे .  लेकिन जमीन पर कुछ बदला नहीं .



अभी आश्विन मास चल रहा है , धूप में दिन के समय तीखापन होता है,  लेकिन स्मोग के प्रकोप से समूचा हरियाणा – दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश बेहाल है . दिल्ली का एक्म्स हो या गाज़ियाबाद का सरकारी अस्पताल या फिर अम्बाला के नर्सिंग होम , हर जग सांस के मरीजों की संख्या रिकार्डतोड़ हो गई है . जान लें शरद पूर्णिमा का उजला चाँद शायद ही इस बार आकाश में दिख पाए क्योंकि लाख दावों के बाद भी हरियाणा-पंजाब में धान के खेतों को अगली फसल के लिए जल्दी से तैयार करने के लिए  अवशेष को जला देना शुरू हो चूका है .

दिल्ली में रविवार (22 अक्टूबर) को एयर क्वालिटी इंडेक्स 266 बना हुआ है जो कि खराब श्रेणी में आता है.  दिल्ली के कुछ इलाकों में हवा बहुत खराब श्रेणी में जा चुकी है, आनंद विहार में एक्यूआई 273, दिल्ली यूनिवर्सिटी के आसपास एक्यूआई 317 और नोएडा में 290 बना हुआ है. गाज़ियाबाद में यह आंकडा 300 के पार है . हरियाणा के किसी भी जिले में सांस लेने लायक शुद्ध हवा बची नहीं हैं .

सबसे खतरनाक है हवा में सूक्ष्म कणों (पीएम2.5) की मात्र बढना पी एम् 2.5 युक्त हवा में सांस लेने से हृदय रोग, अस्थमा और जन्म के समय कम वजन जैसी स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है।
इसके अलावा यदि आप पहले से ही कुछ बीमारियों जैस डायबिटीज, श्वसन रोग या हृदय की समस्याओं के शिकार रहे हैं तो वायु प्रदूषण के कारण हालात के और भी गंभीर रूप लेने का जोखिम हो सकता है।

 

विदित हो केंद्र सरकार हर साल पराली जलाने से रोकने के लिएय किसानों को मशीने खरीदने और नाने कार्य के लिए राज्यों को पैसा देती रही है . वर्ष  2018 से 2020-21 के दौरान पंजाब, हरियाणा, उप्र व दिल्ली को पराली समस्या से निबटने के लिए कुल 1726.67 करेाड़ रूपए जारी किए थे जिसका सर्वाािक हिस्सा पंजाब को 793.18 करोड दिया गया। इस साल भी  इस मद में 600 करोड़ का प्रावधान है और इसमें से 105 करोड़ पंजाब को और 90 करोड़ हरियाणा को जारी किये जा चुके हैं . विडंबना है कि  इन्हं राज्यों से सबसे अधिक पराली का धुआं  उठ रहा है . जाहिर है कि आर्थिक मदद , रासायनिक घोल , मशीनों से परली के निबटान जैसे प्रयोग जितने सरल और लुभावने लग रहे हैं, किसान को वे आकर्षित नहीं कर रहे या उनके लिए लाभकारी नहीं हैं . सरकार इसे कानून से दबाने की कोशिश कर रही है जबकि इसका निदान किसान की व्यहवारिक दिक्कतों को समझ आकर उसका माकूल हल निकालने में है .

इस बार शुरू के दिनों में बारिश कमजोर रही और फिर अगस्त में बाढ़ जैसे हालात बन गए . इसके चलते कई जगह धान की रोपाई देर से हुई  और इसी के चलते पंजाब और हरियाणा के कुछ हिस्सों में धान की कटाई में एक से दो सप्ताह की देरी हो रही  है. यह इशारा कर रहा है कि अगली फसल के लिए अपने खेत को तैयार करने के लिए किसान समय के विपरीत तेजी से भाग रहा है, वह मशीन से अवशेष के निबटान के तरीके में लगने वाले समय के लिए राजी नहीं और वह अवशेष को आग लगाने को ही सबसे  सरल तरीका मान रहा है .

किसान का पक्ष है कि पराली को मशीन  से निबटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। विदित हो हरियाणा-पंजाब में कानून है कि धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं की जा सकती है। इसके पीछे धारणा है कि भूजल का अपव्यय रोकने के लिए  मानसून आने से पहले धान ना बोया जाए क्योंकि धान की बुवाई के लिए खेत में पानी भरना होता है। चूंकि इसे तैयार होने में लगे 140 दिन , फिर उसे काटने के बाद गेंहू की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह फसल अवषेश का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान की फसल की रकवा कम नहीं होता, या फिर खेतों में बरसात का पानी सहेजने के कुंडं नहीं बनते और उस जल से धान की बुवाई 15 मई से करने की अनुमति नहीं मिलती ; पराली के संकट से निजात मिलेगा नहीं।

इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रापिकल मेट्रोलोजी, उत्कल यूनिवर्सिटी, नेशनल एटमोस्फियर रिसर्च लेब व सफर के वैज्ञानिकों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि यदि खरीफ की बुवाई एक महीने पहले कर ली जाए जो राजधानी को पराली के धुए से बचाया जा सकता है। अध्ययन कहता है कि यदि एक महीने पहले किसान पराली जलाते भी हैं तो हवाएं तेज चलने के कारण हवा-घुटन के हालता नहीं होतेव हवा के वेग में यह धुआं बह जाता है। यदि पराली का जलना अक्तूबर-नवंबर के स्थान पर सितंबर में हो तो स्मॉग बनेगा ही नहीं।

किसानों का एक बड़ा वर्ग पराली निबटान की मशीनों पर सरकार की सबसिडी योजना को धोखा मानते हैं . उनका कहना है कि पराली को नष्ट  करने की मशीन  बाजार में 75 हजार से एक लाख में उपलब्ध है, यदि सरकार से सबसिड़ी लो तो वह मशीन  डेढ से दो लाख की मिलती है। जाहिर है कि सबसिडी उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है। पंजाब और हरियाणा दोनों ही सरकारों ने पिछले कुछ सालों में पराली को जलाने से रोकने के लिए सीएचसी यानी कस्टम हाइरिंग केंद्र भी खोले हैं. आसान भाषा में सीएचसी मशीन बैंक है, जो किसानों को उचित दामों पर मशीनें किराए पर देती हैं।

किसान यहां से मशीन   इस लिए नहीं लेता क्योंकि उसका खर्चा इन मशीनों को किराए पर प्रति एकड़ 5,800 से 6,000 रूपए तक बढ़ जाता है। जब सरकार पराली जलाने पर 2,500 रुपए का जुर्माना लगाती है तो फिर किसान 6000 रूपए क्यों खर्च करेगा? यही नहीं इन मशीनों को चलाने के लिए कम से कम 70-75 हार्सपावर के ट्रैक्टर की जरूरत होती है, जिसकी कीमत लगभग 10 लाख रूपए है, उस पर भी डीजल का खर्च अलग से करना पड़ता है। जाहिर है कि किसान को पराली जला कर जुर्माना देना ज्यादा सस्ता व सरल लगता है। उधर कुछ किसानों का कहना है कि सरकार ने पिछले साल पराली न जलाने पर मुआवजा देने का वादा किया था लेकिन हम अब तक पैसों का इंतजार कर रहे हैं।

दुर्भाग्य है कि पराली जलाना रोकने की अभी तक जो भी योजनाएं बनीं, वे कागजों -विज्ञापनो पर तो लुभावनी हैं, लेकिन खेत में व्यावहारिक नहीं।  जरूरत है कि माईक्रो लेबल पर किसानों के साथ मिल कर  उनकी व्याहवारिक दिक्कतों को समझतें हुए इसके निराकरण के स्थानीय उपाय तलाशें , जिसमें दस दिन कम समय में तैयार होने वाली धान की नस्ल को प्रोत्साहित करना, धान के रकवे को कम करना , केवल  डार्क ज़ोन से बाहर के इलाकों में धान बुवाई की अनुमति आदि शामिल है .मशीने कभी भी पर्यावरण का विकल्प नहीं होतीं, इसके लिए स्वनियंत्रण ही एकमात्र निदान होता है।

 

 

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2023

After all, why should sewers become death holes?

                        आखिर मौतघर क्यों बनें  सीवर?

पंकज चतुर्वेदी



 सुप्रीम कौर्ट ने आदेश दिया है कि यदि  सीवर की सफाई के दौरान कोई श्रमिक मारे जाते हैं उनके परिवार को सरकारी अधिकारियों को 30 लाख रुपये मुआवजा देना होगा. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस अरविंद कुमार की बेंच ने साथ ही कहा कि सीवर की सफाई के दौरान स्थायी विकलांगता का शिकार होने वालों को न्यूनतम मुआवजे के रूप में 20 लाख रुपये का भुगतान किया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर सफाई करते हुए कोई कर्मचारी अन्य किसी विकलांगता से ग्रस्त होता है तो उसे 10 लाख रुपये का मुआवजा मिलेगा. इस आदेश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि सरकारें  यह सुनिश्चित करें  कि हाथ से मैला ढोने की प्रथा पूरी खत्म हो जाए.  हालंकि यह इस तरह का कोई पहला आदेश नहीं है लेकिन एक तरफ कम खर्च में श्रम का लोभ है तो दूसरी तरफ पेट भरने की मजबूरी  और तीसरी है  आम मजदूरों को सरकारी कानूनों की जानकारी न होना .


संसद के 2022 के  शीतकालीन सत्र के पहले सप्ताह में ही सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्य मंत्री रामदास अठावले ने बताया कि पिछले तीन सालों के दौरान सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय 233 लोगों की मौत हुई है। वैसे यह सरकारी आंकड़ा भयावह है कि गत बीस सालो में देश  में सीवर सफाई के दौरान 989 लोग जान गंवा चुके हैं । राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग  की रिपोर्ट कहती है कि सन 1993 से फरवरी -2022 तक देश  में सीवर सफाई के दौरान सर्वाधिक लोग  तमिलनाडु में 218 मारे गए। उसके बाद गुजरात में 153 और बहुत छोट से राज्य दिल्ली में 97 मौत दर्ज की गई। उप्र में 107, हरियाणा में 84 और कर्नाटक में 86 लोगों के लिए सीवर मौतघर बन गया।




ऐसी हर मौत का कारण सीवर की जहरीली गैस बताया जाता है । हर बार कहा जाता है कि यह लापरवाही का मामला है। पुलिस ठेकेदार के खिलाफ मामला दर्ज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। यही नहीं अब नागरिक भी अपने घर के सैप्टिक टैंक की सफाई के लिए अनियोजित क्षेत्र से मजदूरों को बुला लेते हैं और यदि उनके साथ कोई दुर्घटना होती है तो ना तो उनके आश्रितों को कोई मुआवजा मिलता है और ना ही कोताही करने वालों को कोई समझाईश । शायद यह पुलिस को भी नहीं मालूम है कि इस तरह सीवर सफाई का ठेका देना हाईकोर्ट के आदेश के विपरीत है। समाज के जिम्मेदार लोगों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि नरक-कुंड की सफाई के लिए बगैर तकनीकी ज्ञान व उपकरणों के निरीह मजदूरों को सीवर में उतारना अमानवीय है।



यह विडंबना है कि सरकार व सफाई कर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढ़ोन की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देता है। राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मुंबई हाईकोर्ट ने आठ  साल पहले सीवर की सफाई के लिए दिशा –निर्देश  जारी किए थे, जिनकी परवाह और जानकारी किसी को नहीं है। सरकार ने भी सन 2008 में एक अध्यादेश  ला कर गहरे में सफाई का काम करने वाले मजदूरों को सुरक्षा उपकरण प्रदान करने की अनिवार्यता की बात कही थी। नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लोगों की सुरक्षा-व्यवस्था के कई कानून हैं और मानव अधिकार आयोग के निर्देश  भी । लेकिन इनके पालन की जिम्मेदारी किसी की नहीं। कोर्ट के निर्देशों  के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजेंसी के पास सीवर लाईन के नक़्शे , उसकी गहराई से संबंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई का दैनिक रिकार्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की जांच, आवश्यक  सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लगे कर्मचारियों का नियमित ट्रेनिंग , सीवर में गिरने वाले कचरे की हर दिन जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं; जैसी आदर्श स्थिति कागजों से ऊपर कभी आ नहीं पाई . सुप्रीम कोर्ट का ताजा आदेश है तो ताकतवर लेकिन समस्या यह है कि अधिकांश मामलों में मजदूरों को काम अपर लगाने का कोई रिकार्ड ही नहीं होता . यह सिद्ध करना मुश्किल होता है कि अमुक व्यक्ति को अमुक ने इस काम के लिए बुलाया था या काम सौंपा था ।


भूमिगत सीवरों ने भले ही शहरी जीवन में कुछ सहूलियतें दी हों, लेकिन इसकी सफाई करने वालों के जीवन में इस अंधेरे नाले में और भी अंधेरा कर दिया है । अनुमान है कि हर साल देश भर के सीवरों में औसतन एक हजार लोग दम घुटने से मरते हैं । जो दम घुटने से बच जाते हैं उनका जीवन सीवर की विषैली गंदगी के कारण नरक से भी बदतर हो जाता है । देश  में दो लाख से अधिक लोग जाम हो गए सीवरों को खोलने , मेनहोल में घुस कर वहां जमा हो गई गाद, पत्थर को हटाने के काम में लगे हैं । कई-कई महीनों से बंद पड़े इन गहरे नरक कुंडों में कार्बन मोनो आक्साईड, हाईड्रोजन सल्फाईड, मीथेन जैसी दमघोटू गैसें होती हैं

यह एक शर्मनाक पहलू है कि यह जानते हुए भी कि भीतर जानलेवा गैसें और रसायन हैं, एक इंसान दूसरे इंसान को बगैर किसी बचाव या सुरक्षा-साधनों के भीतर ढकेल देता है । सनद रहे कि महानगरों के सीवरों में  महज घरेलू निस्तार ही नहीं होता है, उसमें ढ़ेर सारे कारखानों की गंदगी भी होती है । और आज घर भी विभिन्न रसायनों के प्रयोग का स्थल बन चुके हैं । इस पानी में ग्रीस-चिकनाई, कई किस्म के क्लोराईड व सल्फेट, पारा, सीसा के यौगिक, अमोनिया गैस और ना जाने क्या-क्या होता है । सीवरेज के पानी के संपर्क में आने पर सफाईकर्मी  के षरीर पर छाले या घाव पड़ना आम बात है । नाईट्रेट और नाईट्राईड के कारण दमा और फैंफड़े के संक्रमण होने की प्रबल संभावना होती है । सीवर में मिलने वाले क्रोमियम से षरीर पर घाव होने, नाक की झिल्ली फटने और फैंफड़े का कैंसर होने के आसार होते हैं । भीतर का अधिक तापमान इन घातक प्रभावों को कई गुना बढ़ा देता है । यह वे स्वयं जानते हैं कि सीवर की सफाई करने वाला 10-12 साल से अधिक काम नहीं कर पाता है, क्योंकि उनका शरीर काम करने लायक ही नहीं रह जाता है । ऐसी बदबू ,गंदगी और रोजगार की अनिश्चितता में जीने वाले इन लोगों का शराब व अन्य नशों की गिरफ्त में आना लाजिमी ही है और नषे की यह लत उन्हें कई ग्रभीर बीमारियों का षिकर बना देती है । 

वैसे यह कानून है कि सीवर सफाई करने वालों को गैस -टेस्टर(जहरीली गैस की जांच का उपकरण), गंदी हवा को बाहर फैंकने के लिए ब्लोअर, टार्च, दस्ताने, चष्मा और कान को ढंकने का कैप, हैलमेट मुहैया करवाना आवष्यक है । मुंबई हाईकोर्ट का निर्देष था कि सीवर सफाई का काम ठेकेदारों के माध्यम से कतई नहीं करवाना चाहिए। सफाई का काम करने के बाद उन्हें पीने का स्वच्छ पानी, नहाने के लिए साबुन व पानी तथा स्थान उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है । काश कानून इतनी कड़ी से लागु हो कि मुआवजा दने की नौबत आये नहीं और सफाई कार्य से पहले ही जिम्मेदार एजेंसियां  सुरक्षा उपकरण और कानून के प्रति संवेदनशील हों .

 

 

बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

If ponds are saved, earthquakes will be less.

                            तालाब बचेंगे तो कम आयेंगे भूकम्प

पंकज चतुर्वेदी



04 अक्तूबर 2023 को लगभग सारे उत्तरी भारत के साथ दिल्ली एनसीआर  में कोई 15 सेकंड तक धरती  थरथराई . यह झटका रेक्टर स्केल पर पर  6.2 का था , जिसे अति गंभीर माना जाता है . राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र (एनसीएस) ने दिल्ली एनसीआर में भूकम्प के बीते 63 सालों के आंकड़ों के आकलन  में पाया है कि अतिक्रमण व अवैध कब्जों की भेंट चढ़ रहे जलाशयों के ऊपर इमारतें भले खड़ी हो गई हों, लेकिन उनके नीचे पानी अभी ही भूकंप के झटके लगते रहते हैं। एनसीएस के मुताबिक एक जनवरी 1960 से लेकर 31 मार्च 2023 के दरम्यान 63 साल में दिल्ली-एनसीआर में अधिकेंद्र वाले कुल 675 भूकंप आए हैं। लेकिन सन् 2000 तक 40 वर्षों में जहां केवल 73 भूकंप दर्ज किए गए, वहीं इसके बाद 22 वर्षों में 602 भूकंप रिकार्ड किए गए। साल 2020 में दिल्ली व उसके आसपास के दायरे में कुल 51 बार घरती थर्राई।

भारत के कुल् क्षेत्रफल का 54 फीसदी भूकंप संभावित क्षेत्र के रूप में चिन्हित है । दिल्ली को खतरे के लिए तय जोन चार में आंका है। अर्थात यहां भूकंप आने की संभावनांए गंभीर स्तर पर हैं। भूकंप संपत्ति और जन हानि के नजरिए से सबसे भयानक प्राकृतिक आपादा है, एक तो इसका सटीक पूर्वानुमान संभव नहीं, दूसरा इससे बचने के कोई सषक्त तरीके हैं नहीं। महज जागरूकता और अपने आसपास को इस तरह से सज्ज्ति करना कि कभी भी धरती हिल सकती है, बस यही है इसका निदान। हमारी धरती जिन सात टेक्टोनिक प्लेटों पर टिकी है, यदि इनमें कोई हलचल होती है तो धरती कांपती है।

एनसीएस के मुताबिक दिल्ली- एनसीआर में आने वाले भूकंप अरावली पर्वतमाला के नीचे बने छोटे-मोटे फाल्टों के कारण आते हैं, जो कभी-कभी ही सक्रिय होते हैं। यहां प्लेट टेक्टोनिक्स की प्रक्रिया भी बहुत धीमी है। शुरुआत में भूकम्प झटके बहुत सामान्य थे जिनकी तीव्रता 1.1 से 5.1 तक थी लेकिन जैसे जैसे इस समग्र महानगर में जल निधियां सूखना  शुरू हुई , सन  2000 के बाद भूकंप  की तीव्रता में तेजी आ रही है . खासकर यमुना के सूखने और उसकी कचार की जमीन पर निर्माण ने भूकम्प से नुकसान की सम्भावना को प्रबल आकर दिया है .  यमुना कई लाख साल पुराणी नदी है और धरती की भीतर भी  पैलियों चैनल अर्थात भीतरी जल मार्ग हैं और इन जल मार्गों के सूखने और नष्ट होने से धरती के धंसने और हिलने की सम्भावना में इजाफा हुआ हैं .

 विदित हो भारत आस्ट्रेलियन प्लेट पर टिका है और हमारे यहां अधिकतर भूकंप इस प्लेट के यूरेशियन प्लेट से टकराने के कारण उपजते हैं।  भूकंप के झटकों का कारण भूगर्भ से तनाव-उर्जा उत्सर्जन होता है। यह उर्जा अब भारतीय प्लेट के उत्तर दिशा में बढ़ने और फॉल्ट या कमजोर जोनों के जरिये यूरेशियन प्लेट के साथ इसके टकराने के चलते एकत्र हुई है। जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है। ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है ।

हालांकि कोई भूकंप कब, कहां और कितनी अधिक ऊर्जा (मैग्निीट्यूट) के साथ आ सकता है, इसकी अभी कोई सटीक तकनीकी विकसित हो नहीं पाई है , केवल किसी क्षेत्र की अति संवेदनशीलता को उसकी पूर्व भूकंपनीयता, तनाव बजट की गणना, सक्रिय फाल्टों की मैपिंग आदि से समझा जा सकता है। आज जरूरी है कि जिन इलकों में बार बार धरती डोल रही है वहां भू वैज्ञानिक अध्ययनों का पूरी तरह उपयोग करते हुए उपसतही संरचनाओं, ज्यामिति तथा फाल्टों एवं रिजों के विन्यास की जांच की जानी है। चूंकि नरम मृदाएं संरचना के बुनियादों को सहारा नहीं दे पातीं, भूकंप प्रवण क्षेत्रों में बेडरौक या सख्त मृदा की सहारा वाली संरचनाओं में कम नुकसान होता है। इस प्रकार, नरम मृदाओं की मोटाई के बारे में जानने के लिए  मृदा द्रवीकरण अध्ययन किए जाने की भी आवश्यकता है। सक्रिय फाल्टों को निरुपित किया जाना है और जीवनरेखा संरचनाओं या अन्य अवसंरचनाओं को नजदीक के सक्रिय फाल्टों से बचा कर रखे जाने और उन्हें भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) के मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुरूप निर्माण किए जाने की आवश्यकता है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की सवा तीन करोड़ लोगों की बसावट का चालीस फीसदी इलाका अनाधिकृत है तो 20 फीसदी के आसपास बहुत पुराने निर्माण। बाकी रिहाइशों  में से बमुश्किल पांच फ़ीसदी का निर्माण या उसके बाद यह सत्यापित किया जा सका कि यह भूकंपरोधी है। शेष  भारत  में भी आवासीय परिसरों के हालात कोई अलग नहीं है। एक तो लोग इस चेतावनी को गंभीरता से ले नहीं रहे कि उनका इलका भूकंप के आलोक में कितना संवेदनषील है, दूसरा उनका लोभ उनके घरों को संभावित मौत घर बना रहा है। बहुमंजिला मकान, छोटे से जमीन के टुकड़े पर एक के उपर एक डिब्बे जैसी संरचना, बगैर किसी इंजीनियर की सलाह के बने परिसर, छोटे से घर में ही संकरे स्थान पर रखे ढेर सारे उपकरण व फर्नीचर--- भूकंप के खतरे से बचने कीे चेतावनियों को नजरअंदाज करने की मजबूरी भी हैं और कोताही भी। वल्नेरेबिलिटी काउंसिल ऑफ इंडिया की बिल्डिंग मैटीरियल एंड टेक्नोलॉजी प्रमोशन काउंसिल द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में दावा किया गया था कि दिल्ली के 91.7 प्रतिशत मकानों की दीवारें पक्की ईंटों से जबकि कच्ची ईंटों से 3.7 प्रतिशत मकानों की दीवारें बनी हैं। एक्सपर्ट के अनुसार, कच्ची या पक्की ईंटों से बनी इमारतों में भूकंप के दौरान सबसे ज्यादा तबाही होती है।

राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एनजीआरआइ) , हैदराबाद के एक शोध से स्पष्ट हुआ है कि भूकंप का एक बड़ा कारण धरती की कोख से जल का अंधाधुंध दोहन करना भी है। भू-विज्ञानी के अनुसार भूजल को धरती के भीतर लोड यानि की एक भार के तौर पर उपस्थित होता है। इसी लोड के चलते फाल्ट लाइनों में भी संतुलन बना रहता है।

समझना जरूरी है कि देश के जिन भी इलाकों में यदा-कदा धरती काँपती रहती हैं , उन सभी शहर, जिलों  में पारेम्परिक जल-निधियों- जैसे तालाब, झील, बावड़ी, छोटी नदियों को पानीदार बनाए रखना जरूरी है । साथ ही आज जरूरत है कि शहरों  में आबादी का घनत्व कम किया जाए, जमीन पर मिट्टी की ताकत मापे बगैर कई मंजिला भवन खड़े करने और बेसमेंट बनाने  पर रोक लगाई जाए। भूजल के दोहन पर सख्ती हो, इसके साथ ही देष के भूकंप संभावित इलकों के सभी मकानों में  भूकंप रोधी रेट्रोफिटिंग करवाई जाए . सबसे बड़ी बात अपने पारम्परिक जल निधियों को सूखने से जरुर बचाया जाये .

 

शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

One Ram hundreds stage show RAMLILA

 रामलीला भारत की अस्मिता की पहचान है

एक राम कई लीलाएं

पंकज चतुर्वेदी 



यह केवल बुराई पर अच्छाई की सीख मात्र नहीं है, यह केवल महाबलिशाली रावण के पतन या राजा रामचंद्र द्वारा सीता मैया को ‘असुर बंधन’ से मुक्त करवाने की षौय गार्था तक सीमित नहीं है, इसे देखने वाले इसकी कहानी को, संवादों को पात्रों को संगीत को सालें से देखते आ रहे हैं, लेकिन ना तो एक और बार देखने-सुनने की प्यास समाप्त होती है और ना ही तड़क-भड़क वाले मल्टीमीडिया के युग में समाज से लुप्त हो रही लोक षैलियों में गायन या नृत्य का रसास्वदन करने की लालसा। भले ही कोविड के चलते बीते दो सालो ंसे रामलील मैदान सूने है। लेकिन आज भी भारत के लोक-मन में राम कथा को फिर से देखने की उत्कंठा जीवंत है। अंधेरा छाते ही राजधानी दिल्ली का लालकिला हो या बंबई में गिरगांव चैपाटी के पास का मैदान या फिर बुंदलखंड का छोटा सा गांव या दरभंगा बिहार, हर जगह अपनी जगह सुरिक्षित करने के लिए टाट-बोरे बिछाना, सही जगह पाने के लिए गाली-गलौज करना, षहर का बाजार जल्दी बंद हो कर रामलीला मैदान पर जुट जाना, समूचे देश में हजारो-हजार जगह यथावत है, निरापद है। कुछ जगह अभिनय, सजावट, पटकथा को समय की हवा भी लगी तो कई जगह आज भी सदियों पुरानी रामकथा वैसे ही बांची-अभिनित की जा रही है। कई व्यावसायिक नाट्य समूह बड़े-बड़े हाल ले कर वहां षो कर रहे हैं व पर्याप्त दर्शक उन्हें मिल रहे हैं वहीं घर-घर  में बसे दूरदर्शन पर रामानंद सागर के अलावा कई अन्य निर्माताओं द्वारा तैयार रामकथा, रामचरित जैसे कार्यक्रम प्रसारित होते रहते है।, लेकिन खुले मैदानों पर जाने वाले लेगा कम नहीं हो रहे है। शायद लोक- संवाद का यही सुख है, अपनों के साथ सामूहिक रूप से  रीति-नीति-ज्ञान-संगीत-नाट्य-लास्य का आनंद लेना । और इसी के चलते युग बदले, मान्यताएं बदली, समाज व सुविधाएं बदलीं लेकिन नहीं बदली तो रामलीला ।

दिल्ली का ही हिस्सा हो गए टीएचए यानि ट्रांस हिंडन की अधिकांश कालेनियां अभी 40 साल पहले बसीं, अधिकांश वाशिंदे देश के अलग-अलग हिस्सों से रोजी रोटी की तलाश में दिल्ली आए मध्य आय वर्ग के लोग हैं। इंदिरापुरम कई फिल्मों की षुटिंग का पसंसीदा स्थल, शिप्रा मॉल से घिरी हुई गगनचुंबी अट्टालिकाओं की कालोनी है और यहां धरोहर समाज द्वारा मंचित की जाती रामलीला के संवाद गढवाली में होते हैं। हिमलय की गोद से उजड़ कर दिल्ली की देहरी पर आ गए इन उत्तरांचलियां की रामलीला के सभी कलाकार वहीं रहते हैं, दिन में नौकरी करते हैं फिर घर आ कर दो घंटे रिहर्सल और उसके बाद मंचन। उधर सूर्यनगर की रामलीला का आज भी संस्कृत में होना और इस देवभाषा  को अधिकांश लोगों द्वारा  ना समझ में आने के बावजूद हजारों लोगों को वहां श्रद्धापूर्ण बैठे रहना बानगी है कि राम की गाथा देश की संस्कृति के कण-कण में किस तरह सची-बसी है। कहीं पर यह रामलीला अपनी बिछुड़ी परंपरा को बचाने का प्रयास है तो कई जगह आज जहरीले बनाए जा रहे दौर में गंगा-जमुनी मेलजोल की मिसाल। उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले के बढ़नी विकास खंड के अंतर्गत औदही कलां गांव एक छोटा सा गांव है लेकिन यहां की रामलीला कम से कम दो सौ साल पुरानी है और प्रारंभ  से ही साझा संस्कृति की  मिसाल है। रामलीला में हिंदूओ के साथ ही मुस्लिम समुदाय के लोग भी कंधे से कंधा मिलाकर मंचन और प्रबंधन करते हैं।

पश्चिमी उप्र की सबसे पुरानी रामलीलाओं में से एक सुल्लामल रामलीला,गाजियाबाद का प्रारंभ सन 1900 में हुआ था। इसके लिए स्वयं सुल्लामल ने एक पदबंध रामकथा लिखी थी और प्रारंभ में वे अपने आठ शिशरें के साथ उसी पुस्तिका से रामलीला खेलते थे। उस रामायण की पूजा की जाती थी। फिर उस पुस्तक की प्रति पता नहीं कैसे नश्ट हो गई, उसके बाद से तुलसीदासकृत रामचरितमानस के आधार पर मंचन होने लगा। सुल्लामल के परपोते विनोद गर्ग आज भी रामलीला से सक्रियता से जुड़े है।। यहां हर दिन 20 हजार लोग आते हैं। फिरोजाबाद जिले के खैरिया गांव की रामलीला में राम का अभिनय करने वाले षमसाद अली  मंच पर जाने से पहले इस्लामिक रीति अनुसार ‘वजु’ करते हैं। राजस्थान के सूरतगढ़ में बुधवार रात अनूठी रामलीला का मंचन हुआ. संस्कृत श्लोकों और हिंदी के दोहों के स्थान पर यहां ठेठ मारवाड़ी में संवाद हुए. राजा दशरथ से लेकर श्रवण कुमार तक सभी किरदार पूरी तरह से मायड़ भाषा में रचे-बसे नजर आए. दरअसल, राजस्थानी भाषा में रामलीला का मंचन कर सूरतगढ़ के श्रीबालाजी रामलीला संस्थान की ओर से यह प्रयास राजस्थानी को फिर से नई ऊर्जा देने का था. उल्लेखनीय है कि दशकों के संघर्ष के बावजूद राजस्थानी भाषा को अब तक मान्यता नहीं मिल पाई है. लेकिन मारवाड़ी भाषाप्रेमी नए-नए प्रयोग करके भाषा आंदोलन को मजबूती देने का प्रयास कर रहे हैं। जोधपुर के मां्रगरियाओं की रामलीला में जाति-धर्म का भेद दिखता ही नहीं है। असल में लोक-परंपराओं को किसी कानून में बांधना या किसी दायरम में समेटना असंभव है। लोक के गीत-संगीत-कला, समय के साथ स्वयं अपना रास्ता बनाते हैं। अब राजस्थान के बारां जिले पाटुडा गाव को ही लें, वहां पूरे देश की तरह षारदये नवरात्रि यानि यही सितंबर-अक्तूबर वाली में रामलीला होती थी। अचानक इलाके के बड़े-बुर्जुगों को खयाल आया कि इस समय रामलीला करना तो रावण की मौत का जश्न मनाना है जबकि रामजी का जन्म तो चैत्र नवरात्रि के बाद आता है। तब से वहां रामलीला चैत्र में होने लगी। यह गांव काली सिंध नदी के किनारे, कोटा से कोई 70 किलोमीटर दूर है। यहां की रामलीला पूरी तरह संगीतमय है जिसमें सिंध, गुजराती, षेखावटी और ब्रज के लोकसंगीत का रंग होता है। 

बनारस के रामनगर की रामलीला को देश ही नहीं दुनिया में अपने तरह का विलक्षण नाट्य मंचन कहा जाता है। वाराणसी के कोई 20 किमी दूर रामनगर में साल 1783 में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने की थी । यहां रामलीला का मंचन 31 दिन तक चलता है। यहां पर बनाये गये स्टेज देखने योग्य होते हैं। रामनगर की रामलीला की खास बात यह है कि इसके प्रधान पात्र एक ही परिवार के होते हैं। उनके परिवार के सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी रामलीला अपनी भूमिका आदा करते आ रहे हैं। यहां आज भी ना तो चमचमाती रोशनी वाले लट्टू होते हैं ना ही ध्वनिविस्तारक यंत्र ,कोई सजा-धजा मंच या दमक वाली पोशाक भी नहीं ं। केवल पेट्रोमेक्स या मशला की रोशनी, खुला मंच और दूर-दूर तक फैले ण्क दर्जन कच्चे-पक्के मंच व झोपड़े । इनमें से कोई अयोध्या तो कोई लंका ता कोई अशेक वाटिका हो जाता है। परंपरा के अनुसार हर दिन काशी नरेश गजराज पर सवार हो कर आते हैं और उसी के बाद रामलीला प्रारंभ होती है। इस मंचन का आधार रामचरित मानस है, सो सभी दर्शक भी अपने साथ पाटी पर रख कर रामचरितमानस लाते हैं व साथ-साथ पाठ करते हैं। 

प्रयाग यानि इलाहबाद में तो कई-कई रामलीलाएं एक साथ होती है, सभी का अपना इतिहास है। लेकिन वहां की रामलीला मंचन पर टेलीविजन की रामलीलाओं का प्रभाव सर्वाधिक हुआ और अब वे चुटिले संवाद, चमकीले सेट और चटकीले अस्त्र-शस्त्र का दिखावा बढ़ गया है। इलाहाबाद में रामलीला षुरू होने से एक दिन पहले कर्ण -अश्व  की आकर्षक शोभायात्रा निकाली जाती है । इसमें पचास से ज्यादा बैंड पार्टियां , डांस करते कालाकार और  बिजली से सज्ज्ति झांकियां लोगों को रामलीला षुरू होने की सूचना देती हैं। भगवान राम का दूत कहे जाने वाले कर्णघोड़े की लोग रास्ते भर आरती और पूर्जा अर्चना करते हैं। यह परंपरा इलाहाबाद में बहुत पुरानी रही है। ऐसा भी माना जाता है कि कर्ण घोड़े के कारण ही भगवान राम की लीला लोगों तक पहुंची और उसी के स्वरूप आज दुनिया भर में रामलीला का मंचन किया जाता है। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक 19वीं सदी की षुरूआत में प्रयोग में चार स्थानों पर रामलीला मंचन होता था। एक अंग्रेज अफसर फैनी पार्क्स ने अपने संस्मरण में सन 1829 में फौजियों द्वारा चेथम लाइन्स में संचालित व अभिनीति रामलीला का उल्लेख किया है। मुगल बादशाह अकबर ने भगवत गोसाईं को कमोरिन नाथ महादेव के पास की भूमि रामलीला के लिए दान में दी थी जिस पर वर्षों रामलीला होती रहीं थी । पथरचट्टी यानि बेनीराम की रामलीला की षुरूआत सन 1799 में कही जाती है जिसे अंग्रेज षासक खुल कर मदद करते थे।  इन दिनों इलाहबाद व उसके आसपास 100 से यादा स्थनों पर रामलीला हो रही है , कहीं रावण इलेक्ट्रानिक चैहरे से आवाज निकालता, आंखे दिखाता है तो कहीं हनुमान को लिफ्ट से ऊपर उठा कर हवा में उड़ाया जात है। करोड़ों का बजट, फिर भी भीड़ जुटाने को नर्तकियों का सहारा। 

राजाराम की जन्म स्थली अयोध्या  की रामलीला बेहद विशिश्ठ है, इसमें कत्थक नृत्य में पारंगत कलाकार एकल व सामूहिक नृत्य व पारंपरिक ताल, ध्ुन, टप्पों के आधार पर संपूर्ण रामलीला को एक विशाल मंच पर प्रस्तुत करते हैं। रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास से जुड़े एक अन्य स्थान चित्रकूट में रामलीला का मंचन फरवरी के अंतिम सप्ताह में सिर्फ पांच दिनों के लिए ही होता है। यहां गीत-संगीत- अभिनय को और सशक्त बनाने के लिए समय के साथ आए तकनीकी उपकरणों का खुल कर इस्तेमाल हेता है। हर पांचवे साल में वहां किसी नई षैली व प्रस्तुति का मंचन दिखने लगता है। 

जब देश-दुनिया की रामलीलाओं का विमर्श हो तो गढ़वाल व कुमायूं की रामभक्ति के रंग को याद करना अनिवार्य है। अभी कुछ दशक पहले तक वहां सड़कें थी नहीं, बिजली व संचार के साधन भी नहीं, ऐसे में लोगों के आपस में मेल-जोल, मनोरंजन और अपनी कला-प्रतिभा के प्रदर्शन का सबसे प्रामाणिक मंच रामलीलाएं ही थी। यहां की रामलीला की खासियत है, संवादों में छंद और रागनियों का प्रयांग। इनमें चौपाई , दोहा, गजल, राधेश्याम, लावणी, सोरठा, बहरेतबील जैसी विधाओं के वैविध्य का प्रयोग होता है। कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर में हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व. देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में क्रमशः 1880, 1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारम्भ हुआ। मध्यप्रदेश में होशंगाबाद, जबलपुर, इंदौर, छतरपुर में रामलीलाओं का इतिहास सौ साल से ज्यादा पुराना है। इन सभी में स्थानीय बोलियों - बुंदेली, मालवी आदि का पुट स्पश्ट दिखता है। गढवाल और बुंदेलखंड की रामलीलओं में पारसी थियेटर ाक प्रभाव काफी देखा जाता है। 




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सात समंदर पार भी जय सिया-राम 

वैसे तो भारतीय समुदाय जहां-जहां भी रोजगार-व्यापार के लिए गया, रामचरित मानस को अपने साथ ले गया, लेकिन एशिया के कई देशों, जैसे - मलेशिया, इंडोनेशिया, नेपाल, थाईलैंड आदि में उनकी अपनी परंपराओं के अनुसार सदियों से रामलीला मंचन होता रहा है। फिजी, मारीशस सूरीनम कनाड़ा, दक्षिण अफ्रीका और अब अमेरिका में भी रमलीला मंचन हो रहे हैं। इंडोनेशिया और मलेशिया में मुखौटा रामलीला का प्रचलन है।

दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते है जिससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। जावा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने उपर्युक्त अवसर पर नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया बर्मा के राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदर्शन होने का उल्लेख लगा। माइकेल साइमंस ने सन 1795 में किया है। 

कंपूचिया में रामलीला का अभिनय ल्खोनखोल के माध्यम के होता है। ‘ल्खोन’ यानि इंडोनेशाई भाशा में नाटक और कंपूचिया की भाषा खमेर में खोल का अर्थ बंदर होता है। कंपूचिया के राजभवन में रामायण के प्रमुख प्रसंगों का अभिनय होता था।

विविधता और अनुठेपन के कारण षेडो ड्रामा के जरिये जावा तथा मलेशिया के वेयांग और थाईलैंड के नंग का विशिष्ट स्थान है। जापानी भाषा में वेयांग का अर्थ छाया है। इसके अंतर्गत सफ़ेद पर्दे पर रोशनी डाली जाती है और बीच में चमड़े की विशाल पुतलियों को कौशलता साथ नचाते हुए उसकी छाया से राम कथा को देखा जाता है। 



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अनुमान है कि सबसे पुरानी रामकथा महर्शि वाल्मिकी ने लिखी थी और उसका काल ईसा से  नौ से सात हजार साल पूर्व का है। फिलहाल जितनी रामलीलाएं उपलब्ध हैं उनमें से अधिकांश का उपलब्ध इतिहासस अधिक से अधिक पांच सौ साल का है। यह बात सही है कि गोस्वामी तुलसीदास ने आम लेगों की बोली-भाशा में चौपाई के माध्यम से रामायण का जो स्वरूप दिया उससे रामकथा घर-घर तक पहुंची और उसी के चलते अधिकांश रामलीलाओं का मूलभूत दस्तावेज रामचरितमानस ही है। 

वर्तमान भारती की भौगोलिक सीमाओं से परे जावा के सम्राट ‘वलितुंग’ के 907 ई के एक शिलालेख में रामकथा के  मंचन का उल्लेख है । थाईलैंड के राजा ‘ब्रह्मत्रयी’ के राजभवन की नियमावली में रामलीला का उल्लेख है जिसकी तिथि 1458 ई है। पुरातन भारतीय के कुछ विद्वान भरत मुनि के नाटय षास्त्र के साथ ही रामकथा मंचन का इतिहास होने का दावा करते हैं। ‘नाट्यशास्त्र’ के  छह हजार श्लोकों में ‘अवस्थानुकृति’ नाट्यम की चर्चा की है। इस शास्त्र का आरंभ समुद्र मंथन की लीला से होता है। समुद्र मंथन का संबंध भगवान विष्णु से है। विष्णु को सृष्टि का पालन करने वाला देव माना जाता है। श्रीराम और श्रीकृष्ण भी विष्णु के ही अवतार माने जाते हैं। इसलिए जब भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक हो गया तो कुल गुरु वसिष्ठ जी ने कहा कि भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार श्रीराम आपकी लीलाओं के मंचन और दर्शन से समाज में आशावादिता जगेगी और बुराई का अंत होगा। इस प्रकार रामलीला प्रारंभ हुई।

बरेली में 25 नवंबर 1890  को जन्मे पं.राधेश्याम रामायणी ने ‘राधेश्याम रामायण’ की रचना कर रामलीलाओं को नया जीवन दे दिया था। कम पढ़े-लिखे, रिहर्सल के लिए कम समय निकाल पाने वाले कलाकारों के लिए रोधश्यामी बहुत उपयोगी रही। आज की रामलीलाओं में लगभग 60 प्रतिशत संवाद उसी रामायण से आते हैं।

कुछ रामकथा विशेषज्ञ कहते हैं मेघा भगत नामक एक संत तुलसीदास से बहुत पहले वाल्मिकी रामयण आधरित रामलीला का मंचन करते थे। देश के दक्षिण व पूर्वोत्तर में कथाएं भी बदल जाती है, संवाद, मेकअप भी लेकिन नहीं बदलती है तो दर्शकों की संख्या। 


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दिल्ली की रामलीला यनि राजनीति का मैदान 

दिल्ली में रामलीलाएं बेहद भव्य, तड़क-भड़क वाली, व्यापारिक गतिविधियों का क्षेत्र और उससे भी अध्कि अपने सियासती रसूख का मुजाहिरा करने का जरिया होती है। आज दिल्ली में कोई 1100 जगहों पर रामलीला होती हैं और उनमें से राम की असली आराधना केवल उन्ही कालोनियों की छोटी-मझोली रामलीलाओं में षेश है जिनका संचालन स्थानीय समाज अपनी हैसियत से करता है । दिल्ली में रामलीला के प्रारंभ को ले कर बड़ी रोचक कथा है। । कहा जाता है कि उन दिनों गोस्वामी तुलसीदास लालकिले के पीछे कलकतिया गेट के पास गुड़ वालों की धर्मशाला में रहा करते थे। किसी ने बादशाह के कान भर दिए कि एक दुबला-पतला जनेऊधारी ब्राहण प्रत्येक सुबह यमुना के तट पर कोई तांत्रिक क्रिया करता है। अकबर ने गोस्वामी जी को सिपाहियों से पकड़वा लिया। कुछ ही देर में लाल किले में बंदर ही बंद छा गए । पूरी सेना लगा दी लेकिन बंदर किला छोड़ने को राजी नहीं। जैसे ही तुलसीदास जी को रिहा किया गया, वानर गायब हो गए। तभी से उसी धर्मशाला में तुलसीदासजी ने रामलीला षुरू की। बीच में रामलीला बंद हुई और बहादुर षाह जफर ने उसे फिर षुरू करवाया । तभी से 180 साल से ज्यादा बीत गए रामलीला अनवरत जारी है। वही रामलीला आज भी रामलीला मैदान में होती है और उसमें हर दल के नेता अपने सबसे बड़े नेता को बुलाने की खींच-तान किया करते है।। यहां की रामलीला शाम छह बजे से शुरू होती है जो रात 10-11 बजे तक चलती है।

पश्चिमी दिल्ली के जनकपुरी में गत 15 साल से आधुनिक तकनीक के जरिये मात्र तीन घंटे में पूरी रामकथा दर्शाने का प्रयोग बेहद सफल रहा है। इन दिनों दिल्ली में श्रीरामलीला समिति, श्री धार्मिक रामलीला समिति, नवश्री धार्मिक रामलीला समिति, लव-कुश रामलीला समिति, श्री सनातन धर्म लीला समिति, दंगल मैदान आदि समितियों की बड़ी चर्चा होती है। इनमें से कई रामलीलओं में भीड़ जुटाने के लिए फिल्मी सितारे बुलाए जाते हैं और जितना बड़ा सितारा आता है, परिसर में लगे स्टॉल का किराया उतना ही बढ़ जाता है। 

दिल्ली के लालकिला के प्रांगण में होने वाली लवकुश  रामलीला भी एक बड़ी राजनीतिक लीला का स्थल है। यह सबसे चर्चित रामलीला है। लव कुश रामलीला कमेटी का गठन 1979 में किया गया था। यहां फिल्मी सितारे सबसे ज्यादा अते है। यह रोज शाम सात बजे से शुरू होती है। दिल्ली की तीसरी सबसे चर्चित और ऐतिहासिक रामलीला लालकिला के पास सुभाष मैदान में आयोजित की जाती है। 1923 से शुरू हुई इस रामलीला में बड़े बडे़ नेताओं को बुलाने के लिए चर्चित है। यहां पर प्रधानमंत्री जैसे बड़े नेता भी आते रहते हैं। यहां की रामलीला मंचन के लिहाज से भी खास होती है। यहां उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद और बरेली से मशहूर कलाकार बुलाए जाते हैं। यहां पर आपको चांदनी चौक के बने स्वादिष्ट व्यंजनों का भी लुत्फ उठाया जा सकता है। शाम सात बजे से शुरू होने वाली यहां की रामलीला भी 10- 11 बजे तक चलती है। यहां पर दशहरा को विशाल रावण का दहन किया जाता है।

इंडिया गेट के पास कॉपरनिकस मार्ग पर स्थित श्रीराम भारतीय कलाकेंद्र में सन 1957 से हर साल यहां पर भव्य रामलीला के दर्शक सभ्रांत, कलाप्रेमी, विदेशी मेहमान होते है। चूंकि यहां प्रतिदिन का टिकट 100 से पांच सौ तक होता है सो यहां आम आदमी आता नहीं है, लेकिन यहां के कलाकार लोक व शास्त्रीय नृत्य में पारंगत अंतरराष्ट्रीय स्तर के कलाकार होते हैं। यह आयोजन दीपावली से पहले धनतेरस तक कोई महीने चलता है और हर दिन शो  खचाखच  होता है। 


बुधवार, 4 अक्तूबर 2023

Smart city turn in river during mansoon

 डूबती स्मार्ट सिटी 

पंकज चतुर्वेदी 





जून -2015 में केंद्र सरकार के लोकलुभावने प्रोजेक्ट देश में 100 “स्मार्ट सिटी “ विकसित करने की समय सीमा अब जून – 24 तक बढ़ा दी गई है लेकिन 74 हज़ार करोड़ खर्च के बाद भी परियोजना की अंतिम  बरसात ने बता दिया कि इन शहरों को थोड़ी ही बरसात से डूबने से बचने की कोई संभावना नहीं है . इस बार दिल्ली डूबी, समुद्र के किनारे बसा पणजी भी बरसात में दरिया बन गया. लखनऊ के पोश इलाकों में नाव चलने की नौबत आ गई . शिमला जैसे शहर  भूस्खलन और बरसात में बिखर गये . भोपाल तो कई बार तालाब बना . रांची के भी हालत खराब रहे . हालंकि स्मार्ट सिटी परियोजना में दर्ज था कि वहां के नदी-तालाब को पुनर्जीवित किया जायेगा लेकिन कहीं भी ऐसा होता दिखा नहीं . हाल ही में महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी नागपुर में जो तबाही आई, उसने बता दिया अपनी ही जल निधियों को सहेज न पाने के कारण यहाँ हाहाकार मचा . सड़कों पर नाव चल रही थीं. चार लोगन की मौत हो गई . कोई दस हज़ार घरों को पानी ने जबर्दस्त नुकसान पहुँचाया . हालात बिगड़े तो सेना की दो टुकड़ियों को उतारना पड़ा .  

विदा होती बरसात ने नागपुर की समरत सिटी की जो पोल खोली, असल में यह एक बानगी है , बस शहर का नाम और वहां की जल निधियों के नाम बदलते जाएँ- कोताही, बर्बादी की से मिलेगी . पता नहीं बल खा कर  चलने वाली नदियों को देख कर सर्प को नाग कहने लगे या सर्प की गति के कारण जल निधि को नाग कहा गया . हिमाचल से ले कर देश के लगभग सभी हिस्सों में पहाड़ से तेज गति से  आने वाली पतली जल धाराओं को नाग कहा  जाता है . नागपुर शहर की नींव वर्ष 1703 में देवगढ़ के गोंड राजा "बख्त बुलंद शाह" ने  रखी थी। बख्त बुलंद शाह के उत्तराधिकारी चंद सुल्तान ने नाग नदी के किनारे अपने शहर के चारों ओर तीन मील लंबी दीवार का निर्माण कराया था.  1743 में, यह राघोजी राव भोंसले साम्राज्य की राजधानी बन गया. वैसे कहते  हैं कि नागपुर का पुराना नाम फनीपुर था और यह भी नाम नाग या सर्प का ही है . यहाँ के शासक जानते थे कि यह छोटी सी नदी है , इस लिए नाग नदी के जल तन्त्र में कई तालाब बनाये गए ताकि बरसात की हर बूँद सारे साल के लिए जोड़ कर रखी जा सके . यहाँ की सघन जल निधियों  के कारण यहाँ का मौसम सुहाना  होता था , तभी इसे राज्य की शीतकालीन राजधानी बनाया गया . बीते तीन दशकों में यहाँ ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन बढ़ा, औद्योगीकरण भी हुआ  और इसका खामियाजा भुगता नाग नदी के जल तन्त्र ने . जम कर अतिक्रमण हुए  और तालाबों को मैदान बना दिया गया . नाग नदी और उसकी सहयोगी पीली नदी, चमार नाले आदि को कूड़ा धोने का मार्ग बना दिया गया . 

अभी एक साल पहले  नाग नदी के पुनर्जीवन  की परियोजना का उदघाटन स्वयम प्रधानमन्त्री जी की उपस्थिति में हुआ . प्रदूषण मुक्ति और अतिक्रमण के जाल को हटाकर नाग नदी को पुनर्जीवित करने के लिए साल 2021  में परियोजना को मंजूरी दी गई थी। भाजपा शासित नागपुर मनपा ने इस परियोजना पर 2117 करोड़ रुपए खर्च किए। शहर में जलप्लावन के बाद नागपुर के लोग अब पूछ रहे हैं कि आखिर यह पैसा कहां गया?यही नहीं जून -14 में नागपुर को  स्मार्ट सिटी बनाने का जो काम शुरू हुआ और जिस  पर अभी तक कोई एक हज़ार करोड़  रूपये खर्च हो चुके हैं , दरिया बना शहर सवाल कर रहा है है कि क्या ऐसा ही होता है स्मार्ट सिटी में बरसात का मौसम ? यह तो किसी से छुपा नहीं हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रकोप से सारा देश ग्रसित है इस तरह की अचानक और तीव्र बरसात के लिए हर कसबे-शशर को तैयार रहना होगा . फिर नागपुर में शहर और नदी के विकास में इस संभावना पर क्यों ध्यान नहीं दिया गया ? 

नागपुर के डूबने को समझने के लिए नाग नदी के स्वरुप और उसके जल-तन्त्र को समझना होगा . भोंसले शासन काल में नाग नदी नागपुर शहर की दक्षिणी सीमा निर्धारित करती थी . पूर्वी सीमा में नवाबपुरा और जुनी मंगलवारी और उत्तरी दिशा में हंसापुरी, लेंडी तालाब . शहर का विस्तार नाइक तालाब तक था. सक्करदरा तालाब शहर की विशाल जल निधि था जिससे लोगों की प्यास बुझती थी.  अमरावती मार्ग पर वादी क्षेत्र में लावा पहाड़ियों से  नाग नदी का उदगम हुआ . इसके मार्ग में इससे पीली और पौरा  नदी मिलती और बिछडती रहती हैं . इन नदियों की हर बूंद का कोई दस तालाबों से पानी का आदान-प्रदान होते रहता था . ये तालाब थे – गोरेवाड़ा झील , फुटाला झील , अम्बाझरी , सोनेगाँव , गांधीसागर तालाब , पुलिस लाइन्स तालाब , लेंडी तालाब , नायक तालाब , मंगलवारी तालाब , पांढराबोडी तालाब, सक्करदरा तालाब , बाराद्वारी झील आदि . नाग नदी की यात्रा पीली नाद से मिलन के स्थान पवान्गांव तक कोई 16 .8  किमी की है . इस प्रकार नागपुर शहर के जल-तंत्र में तीन नदियाँ और 14 झील हुआ करते थे . इसके अलावा  854  सार्वजानिक कुएं भी यहाँ के जल तन्त्र का हिस्सा थे . 

यदि नागपुर की जल कुंडली बांचें तो न तो यहाँ कभी जल संकट होना चाहिए  था और न ही जल भराव . यह जिला प्रशासन ने एक आर टी आई में स्वीकार किया है कि 15 साल में शहर में दो तालाबों - संजय नगर व डोब तालाब का अस्तित्व समाप्त हो गया है। अब शहर में केवल 11 तालाब बचे हैं। इसमें भोसलेकालीन के 4 तालाब भी शामिल हैं। नाइक और लेंडी तालाब अब छोटी सी पोखर रह गये हैं और पांढराबोडी तालाब अब नाम का रह गया है . चूँकि ये सभी तालाब नदियों से जुड़े थे और अतिक्रमण और बेपरवाह विकास ने इस पारम्परिक ज्ञान को ध्यान नहीं रखा . तभी  नागपुर डूबने का साल कारण अम्बाझरी और गोरेवाडा तालाब से पानी बाहर आना तथा नाग व् पीली नदी का उफान जाना कहा  जा रहा है . जरा बारीकी से देखें , आप जिस शहर में रहते हैं, वहां की भी खानी ठीक यही है . 

इस बार की बाढ़ अकेले नागपुर ही नहीं देश के सभी स्मार्ट –सिटी के लिए गंभीर चेतावनी है , अभी भी  समय है कि नागपुर की नाग - पीली – पोहरा नदी की तरह अन्य शहरों की  छोटी नदियों या फिर उनके नैसर्गिक मार्गों और उनके साथ झीलों के आगम-मिलन  के  पूरा-तकनीक को पहचाने , वहां से अतिक्रमण और स्थाई निर्माण हटायें और जल प्रवाह अविरल बहने दें , साथ ही शहर के बीच स्थित जल निधियों में कूड़ा-गंदगी डालने पर पूरी तरह रोक लगायें वर्ना स्मार्ट सिटी की सड़कें या सजावट कोई काम नहीं आएगी और वहां के अस्तित्व पर बड़ा संकट सामने खड़ा होगा  . 


Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...