My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 28 दिसंबर 2014

millinioers god and thrusty followers

भूखे भक्तों के ‘कुबेर’ देवता 

                                                                पंकज चतुर्वेदी

भारत आज भी सोने की चिडि़या है, लेकिन उसका सोना व धन भगवान के पास बंधेज रखा है। असलियत में यदि भारत के ‘‘भगवान’’ अपना खजाना खोल दे ंतो चुटकी बजाते ही भुखमरी, कर्ज, बेरोजगारी, अशिक्षा जैसी समयाएं दूर हो जाएंगी। संसाधन जुटने लगेंगे।  याद करें महाराष्‍ट्र का मेलघाट इलाका बीते कई सालों से कुपेाषण के कारण शिशुओं की मौत की त्रासदी से जूझ रहा है। देष की 43 फीसदी आबदी के कुपोषणग्रस्त होना वास्तव में राष्‍ट्रीय शर्म की  बात है। भरपेट भोजन के लिए तरस रहे मेलघाट से कुछ ही किलोमीटर दूर है साईंबाबा का स्थान शिरडी जिसकी सालाना आय 210 करोड़ रूपए है। पिछले महीने लगातार पांच सरकारी छुट्टी के उपलक्ष में वहां भक्तों की ऐसी भीड़ आई थी कि पहले दस दिनों में ही चढौती की रकम 10 करोड़ के पार पहुंच गई। मंदिर के पास 32 करोड़ के तो सोना-चांदी के वो आभूषण हैं जो भक्तों ने वहां चढ़ाए हैं। प्रदेश के सबसे अमीर मंदिर की कुल संपत्ति 450 करोड़ से अधिक है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि जिस साईंबाबा को भक्त सोने-हीरे के मुकुठ व चांदी की पालकी में बैठाने पर तुले हैं, उन्होंने अपना पूरा जीवन एक जीर्ण-शीर्ण इमारत में टाट के टुकड़े के साथ व्यतीत किया था। इसी प्रदेश की राजधानी मुंबई का सिद्धीविनायक मंदिर भी वीआईपी धार्मिकस्थल है, जिसकी सालाना आय 46 करोड़ के पार है। मंदिर के पास 125 करोड़ के तो फिक्स डिपोजिट ही हैं। ये तो वे मंदिर हैं जो बीते दो दशकों के दौरान ज्यादा चर्चा में आए और इन्हें मध्यवर्ग के पसंदीदा तीर्थ कहा जाता है। देश के यदि प्राचीन मंदिरों की ओर देखें तो इतनी दौलत वहां अटी पड़ी है कि वह देश की दो पंचवर्षीय योजना में भी खर्च नहीं की जा सकती है।
http://dailynewsactivist.com/Details.aspx?id=248&boxid=56359794&eddate=12/29/2014

भारत में 10 लाख से ज्यादा मंदिर हैं, तिस पर कतिपय लोग यह कहते नहीं अघाते हैं कि विदेशी-मुसलमान हमलावरों ने भारत के मंदिरों को खूब लूटा व नष्‍ट किया। देश के सौ मंदिर ऐसे हैं जिनके सालाना चढ़ावे में इताना धन आता है कि वह भारत सरकार के सालाना बजट की कुल योजना व्यय के बराबर होता है। देश के दस मंदिरों की कुल संपत्ति देश के सबसे अधिक धनवान 500 लोगों की कुल संपदा के बराबर हैै।  मंदिरों का अभी तक उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार कुल सात अरब डालर का सोना यहां धर्म के नाम पर जुड़ा हुआ है। केरल के पद्मनाभ मंदिर के केवल एक तहखाने से पांच लाख करोड़ के हीरे, जवाहरात, आभूषण मिले हैं। त्रावनकोर रियासत के इस मंदिर की सुरक्षा में अब ब्लेक कैट कमांडो तैनात हैं, मामला अदालतों में चल रहा है। कहा जा रहा है कि यदि सभी तहखाने खोल दिए जाएं तो उसमें इतनी दौलत है कि शायद रिजर्व बैंक के पास भी इतनी मुद्रा-क्षमता नहीं होगी। उड़ीसा के बड़ा हिस्सा लगातार भुखमरी और अकाल का शिकार रहता है। कालाहांडी से बामुशिकिल 250 किलोमीटर दूर पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भी कई ऐसे कमरे हैं जिनमें छिपी संपदा अकूत है। पिछले साल वहां के एक कमरे को अनजाने में खोला गया तो उसमें कई टन चांदी की सिल्लियां निकली थीं। फिर आस्थाओं का वास्ता दे कर वहां के खजाने को उजागर होने से रोक दिया गया। केरल के त्रिशूर जिले के सबरीमाला पहाडि़यों के बीच स्थित कृश्ण भगवान के गुरूवायूर मंदिर की सालाना आय कई करोड़ हे। मंदिर के नाम से बैंक में 125 करोड़ के फिक्स डिपोजिट हैं। आंध्रप्रदेश के तिरूपति बालाजी को विष्व का सबसे अमीर मंदिर माना जाता है। इसके खजाने में आठ टन जेवर हैं। इसकी सालाना आय 650 करोड़ हे। बैंकों में मंदिर की ओर से 3000 किलो सोना और 1000 करोड़ के फिक्स जमा किए गए हैं। यहां औसतन हर रोज साठ हजार से एक लोख लोग आते हैं। अकेले पैसों की गिनती के लिए वहां 20 लोग काम करते हैं। यहां की संपत्ति भारत के कुल बजट का पचासवां हिस्सा है। यानी जितना पैसा देश के एक सौ बीस करोड़ लोगों के लिए मयस्सर है  उसके पचासवे हिस्से पर केवल एक किलोमीटर में फैले तिरूपति मंदिर का हक है। यहां यह बता दें कि कर्नाटक में येदुरप्पा की कुर्सी खाने वाले अवैध खनिज कांड के खलनायक रेड्डी बंधुओं ने पिछले ही साल यहां  16 किलो वजन का सोने का मुकुट चढ़या था, जिसकी कीमत उस समय पैंतालीस करोड़ आंकी गई थी। यह बानगी है कि इन मंदिरों का खजाना किस तरह की कमाई से भरा जाता है। 
तिरूपति के बाद सबसे अमीर मंदिरों में जम्मू के कटरा से उपर पहाड़ों पर स्थित वैष्‍णो देवी मंदिर का नाम आता है। यहां आने वाले श्रद्धांलुओं की संख्या तिरूपति के आसपास ही है।  यह मंदिर अपेक्षाकृत नया है, लेकिन इसकी आय सालाना पाचं सौ करोड़ को पार कर चुकी है।  ऐसा नहीं कि मंदिरों के धनवान होने में उनके पुरातन होने का केाई योगदान होता हे। दिल्ली के अक्षरधाम मदिर को ही लें, इसकी आय देखते ही देखते कई करोड़ सालाना हो गई हे। उज्जैन के महाकालेश्‍वर, गुजरात का द्वारिकाधीश व सोमनाथ मंदिर, मथुरा के द्वारिकाधीश व जन्मभूमि मंदिरों, बनारस के बाबा विश्‍वनाथ, गोहाटी की कामाख्या देवी जैसे कई ऐसे मंदिर हैं जहां की आय-व्यय पर सरकार का दखल बहुत कम है। ये धार्मिक स्थल घनघोर अव्यवस्थओं और नागरिक-सुविधाओं के नाम पर बेहद दीन-हीन हैं, लेकिन उनकी हर दिन की चढ़ौअत कई-कई गांवों के हजारों घरों का चूल्हा जलाने के बराबर है।
धन जुटाने में ‘‘जिंदा भगवान’’ भी पीछे नहीं हैं।  बीते साल ही पुट्टापर्थी के सत्य साईं बाबा के निधन के बाद खुलासा हुआ था कि अकेले उनके कमरे से ही 40 करोड़ नगद और 77 लाख के जेवरात मिले थे। सत्य सांई बाबा की विरासत कई हजार करोड़ की है। विदेशों से काला धन लाने के नाम पर आंदोलनरत बाबा रामदेव के पास कई हजार एकड़ जमीन है और उन्हाेंने महज दस सालों में 1100 करोड़ का साम्राज्य खड़ा कर लिया है। राधा स्वामी, व्यास की पूरे देश में सत्संग के नाम पर इतनी जमीन है कि उसकी कुल कीमत कई हजार करोड़ होगी। हाल ही में चर्चा में रहे हरियाणा के रामपाल की व्यापारिक साम्राज्य चौंकाने वाला है। महर्षि महेश योगी का वित्तीय-साम्राज्य की तो गणना ही नहीं हो सकी।
ऐसा नहीं है कि केवल हिंदु मत के भगवान ही संपत्ति जोड़ने मे ंयकीन रखते हैं, सिखों के गुरूद्वारे , विषेश रूप से अमृतसर का हरिमिंदर साहेब या स्वर्ण मंदिर, दिल्ली का बंगला सोहब व शीशगंज भी भक्तों की चढ़ौत से मालामाल रहते हैं। बोधगया के मंदिर में भी अकूत दौलत है। जैनियो ंके मंदिर तो वैभव का भंडार होते हैं।  देश की मस्जिदों की बीते साल में  अचानक सूरत बदलना भी गौरतलब है। वैसे अजमेर शरीफ, मुंबई की हाजी मलंग  व दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह पर अच्छी-खासी चढ़ौत आती है।
क्या कभी कोई यह कहने की हिम्मत जुटा पाएगा कि देष के सामने भगवान के कारण खडे हुए इतने बड़े संकट से जूझने के लिए मंदिरों में बंद अकूत खजानों के इस्तेमाल का रास्ता खोले ? क्या कभी र्काइे इन अरबपति मंदिरों को उनके सामाजिक सरोकारों का ध्यान दिलवा कर वहां आ रह कमाई को शिक्षा, स्वास्थय, भूख जैसे  कार्यों पर खर्च करने के लिए प्रेरित करेगा? यह सही है कि कुछ धार्मिक संस्थाएंव बाबा-बैरागी इस दिषा में कुछ ऐसे काम करते हैं, लेकिन उनका योगदान उनकी कमाई की तुलना में राई बराबर ही होता है। और क्या कभी कोई यह कर पाएगा कि मंदिरों व अन्य धार्मिक स्थलों पर चढ़ौत चढ़ाने वाले से यह सुनिश्चित करने को कहा जाएगा कि उसके द्वारा चढ़ाई गई रकम दो-नंबरे की आय का हिस्सा नहीं है?ें
पंकज चतुर्वेदी
यू जी -1 ए 3/186, राजेन्द्र नगर सेक्टर-2
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
संपर्क: 9891928376, 011- 26707758(आफिस),

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

homeless dying on the road in delhi

रहने को घर नहीं है,सारा जहां हमारा !

                                                             पंकज चतुर्वेदी

इन दिनों रात में हाड़-तोड़ ठंड पड़ रही है, जरा किसी रात दिल्ली की सड़कों पर चक्कर लगा कर देखें,- फुटपाथों और फ्लाई ओवरों की ओट में रात काटते हजारों लोग दिल्ली के खुशहाली के दावों की पोल खोलते दिखेंगे। षायद यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि देष की राजधानी दिल्ली में हर साल भूख, लाचारी, बीमारी से कोई तीन हजार ऐसे लोग गुमनामी की मौत मर जाते हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं होती है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने सभी राज्य सरकारों को तत्काल बेघरों को आसरा मुहैया करवाने के लिए कदम उठाने के आदेष दिए हैं। इससे तीन साल पहले 30 नवंबर 2011 को दिल्ली हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ए. के सीकरी और राजीव सहाय एडला की पीठ ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिया कि बेघर लोगों के लिए ‘नाईट-शेल्टर’ की कोई ठोस योजना तैयार कर अदालत में पेश की जाए। दोनों न्यायाधीशों ने यह निर्देश देते हुए यह भी लिखा था कि एक तरफ तो राज्य सरकार कहती है कि सरकारी रैनबसेरों में रहने को लोग नहीं आ रहे हैं, दूसरी ओर वे आए दिन देखते हैं कि लोग ठंड में रात बिताते रहे है। आज भी हालात जस के तस हैं। यह तस्वीर देश की राजधानी की है, जरा कल्पना करें सुदूर इलाकों में ये बेघर किस तरह ठंड के तीन महीने काटते होंगे।?
प्रजातंत्र लाईव 28 दिसंबर 14 http://www.readwhere.com/…/4048…/Prajatantra-Live/issue-223…

लोकतंत्र की प्राथमिकता में प्रत्येक नागरिक को ‘‘ रोटी-कपड़ा-मकान’’ मुहैया करवाने की बात होती रही है। जाहिर है कि मकान को इंसान की मूलभूत जरूरत में शुमार किया जाता है । लेकिन सरकार की नीतियां तो मूलभूत जरूरत ‘‘सिर पर छत’’ से कहीे दूर निकल चुकी हैं । आज मकान आवश्‍यकता से अधिक ‘रियल इस्टेट’’ का बाजार बन गया है और घर-जमीन जल्दी-जल्दी पैसा कमाने का जरिया । जमीन व उस पर मकान बनाने के खर्च किस तरह बढ़ रहे हैं, यह अलग जांच का मुद्दा है । लेकिन पिछले कुछ दिनों से राजधानी दिल्ली व कई अन्य नगरों में सांैदर्यीकरण के नाम पर लोगों को बेघरबार करने की जो मुहिम शुरू हुई हैं, वे भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा के विरूद्ध है । एक तरफ जमीन की कमी व आवास का टोटा है तो दूसरी ओर सुंदर पांच सितारा होटल बनाने के लिए सरकार व निजी क्षेत्र सभी तत्पर हैं । कुल मिला कर बेघरों की बढ़ती संख्या आने वाले दिनों में कहीं बड़ी समस्या का रूप ले सकती है । एक तरफ झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है, दूसरी ओर उन्हें शहर से दूर खदेड़ा जा रहा है। जबकि उनकी रोजी-रोटी इस महानगर में है। इसी का परिणाम है कि हर रोज हजारों लोग कई किलोमीटर दूर अपने आषियाने तक जाने के बनिस्पत फुंटपाथ पर सोना बेहतर समझते हैं।
ना तो वे भिखारी हैं और ना ही चोर-उचक्के । उनमें से कई अपनी हुनर के उस्ताद हैं । फिर भी समाज की निगाह में वे अविश्‍वसनीय और संदिग्ध हैं । कारण उनके सिर पर छत नहीं है । सरकारी कोठियों में चाकचैबंद सुरक्षा के बीच रहने वाले हमारे खद्दरधारियों को शायद ही जानकारी हो कि राजधानी दिल्ली में हजारों ऐसे लोग हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं है । यहां याद करें कि दिल्ली की एक -तिहाई से अधिक यानि 40 लाख के लगभग आबादी नरकनुमा झुग्गी बस्तियों में रहती है । इसके बावजूद ऐसे लोग भी बकाया रह गए हैं, जिन्हें झुग्गी भी मयस्सर नहीं है । ऐसे लोगों की सही-सही संख्या की जानकारी किसी भी सरकारी विभाग को नहीं है । जनसंख्या गणना के समय भी इन निराश्रितों को अलग से नहीं गिना गया या यों कहें कि उन्हें कहीं भी गिना ही नहीं गया । एक्षन एड आश्रय अधिकार अभियान नामक एक गैरसरकारी संगठन के मुताबिक दिल्ली की लगभग एक फीसदी यानी डेढ़ लाख आबादी खुले आसमान तले ठंड, गरमी, बरसात झेलती है। इनमें से 40 हजार ऐसे हैं जिन्हें तत्काल मकान की आवष्यकता है । इसके विपरीत सरकार द्वारा चलाए जा रहे 174 रैन बसेरों की बात करें तो उनकी क्षमता दो हजार भी नहीें है । विडंबना ही है कि सन 1985 से दिल्ली सरकार के बजट में हर साल 60 लाख रूपए का प्रावधान रैन बसेरों के लिए है और इस राशि का अधिकांश पैसा स्टाफ के वेतन, प्रशासन और रखरखाव में खर्च हो जाता है ।
जब लाखों लोगों के लिए झुग्गियों में जगह है तो ये क्यों आसमान तले सोते हैं ? यह सवाल करने वाले पुलिसवाले भी होते हैं । इस क्यों का जवाब होता है, पुरानी दिल्ली की पतली-संकरी गलियों में पुश्‍तों से थोक का व्यापार करने वाले कुशल व्यापारियों के पास । झुग्गी लेंगे तो कहीं दूर से आना होगा । फिर आने-जाने का खर्च बढ़ेगा, समय लगेगा और झुग्गी का किराया देना होगा सो अलग । राजधानी की सड़कों पर कई तरह के भारी ट्राफिक पर पाबंदी के बाद लाल किले के सामने फैले चांदनी चैाक से पहाड़ गंज तक के सीताराम बाजार और उससे आगे मुल्तानी ढ़ंाडा व चूना मंडी तक के थोक बाजार में सामान के आवागमन का जरिया मजदूरों के कंधे व रेहड़ी ही रह गए हैं । यह काम कभी देर रात होता है तो कभी अल्लसुबह । ऐसे में उन्हीं मजदूरों को काम मिलता है जो वहां तत्काल मिल जाएं । फिर यदि काम करने वाला दुकान का शटर बंद होने के बाद वहीं चबूतरे या फुटपाथ पर सोता हो तो बात ही क्या है ? मुफ्त का चैकीदार । अब सोने वाले को पैसा रखने की कोई सुरक्षित जगह तो है नहीे, यानि अपनी बचत भी सेठजी के पास  ही रखेगा । एक तो पूंजी जुट गई, साथ में मजदूर की जमानत भी हो गई ।
वेरानीक ड्यूपोंट के एक अन्य सर्वे से स्पष्‍ट होता है कि इन बेघरों में से 23.9 प्रतिशत लोग ठेला खींचते हैं व 19.8 की जीविका का साधन रिक्षा है । इसके अलावा ये रंगाई-पुताई, कैटरिंग, सामान की ढुलाई, कूड़ा बीनने, निर्माण कार्य में मजदूरी जैसे काम करते हैं । कुछ बेहतरीन सुनार, बढ़ई भी है । इनमें भिखारियों की संख्या 0.25 भी नहीं थी । ये सभी सुदूर राज्यों से काम की तलाष में यहां आए हुए है ।
दिल्ली में ऐसे लोगों के लिए 64 स्थाई रैन बसेरे बना रखे हैं,जबकि 46 प्रस्तावित हैं । इनमें से 10 को दिल्ली नगर निगम और षेश 15 को गैरसरकारी संस्थाएं संचालित कर रही हैं। पिछले साल भी कड़ाके की ठंड के दौरान अस्थाई रेनबसेरों को उजाड़ने का मामला हाई कोर्ट में गया था और ऐसे 84 केंद्रों को बंद करने पर अदालत ने रोक लगा दी थी। इसके बावजूद सरकार ने इनको संचालित करने वाले एनजीओ का अनुदान बदं कर दिया, यानी उन्हें बंद कर दिया । अब अदालत इस मसले पर भी सुनवाई कर रही है। इनमें से अधिकांष पुरानी दिल्ली इलाके में ही हैं । ठंड के दिनों में कुछ अस्थाई टैंट भी लगाए जाते हैं। सब कुछ मिला कर इनमें बामुष्किल दो हजार लोग आसरा पाते हैं। बांकी लोग पेट में घुटने मोड़ कर रात बिताने को मजबूर है।ं इसमें चादर-कंबल व शौचालय के इस्तेमाल का शुल्क शामिल है । सबसे दर्दनाक हालात एम्स व सफदरजंग अस्पताल के पास के हैं, वहां बीमार व उनके साथ आए तिमारदारों की संख्या हजारों में हे, जबकि एक रैनबसेरे की क्षमता बामुश्‍किल 80 है । लोग सारी रात भीगते दिखते हैं ओस व कोहरे में और नए बीमार अस्पताल की षरण में चले जाते हैं। मीना बाजार व जामा मस्जिद के रैन बसेरों में सात से आठ सौ लोगों के सोने की जगह है । फिलहाल जामा मस्जिद वाले रैन बसेरे को अवैध रूप से भारत में रह रहे बांग्लादेशियों की जेल के रूप में बदल दिया है । वहां की चादरों व कंबलों में जुएं व खटमल भरे हैं व शौचालय कितना गंदा रहता होगा, इस पर किसी को कोई आश्‍चर्य या दुख नहीं होता है ।
इन बेसहारा लेागों के नाम ना तो वोटर लिस्ट में हैं और ना ही इनके राशन कार्ड हैं, सो इनकी सुध लेने की परवाह किसी भी नेता को नहीं है । जाहिर है कि मजदूरी के भुगतान मे मालिक की धमक और शोषण को उन्हें चुपचाप नियति समझ कर सहना होता है । दिल्ली को आबाद रखने के लिए अपना खून-पसीना बहाने वाले इन लोगों में गंभीर रोग, संक्रमण, बच्चों का यौन शोषण आम बात है। आजादी के जश्‍न या गणतंत्र की वर्षगांठ मनाने के लिए हर साल ये लोग फुटपाथों से खदेड़े जाते हैं । यदि पुलिस पकड़ कर ले जाए तो इनमें से कई इसे अपना सौभाग्य मानते हैं । सनद रहे किसी भी संवेदनशील मौके पर पुलिस की सक्रियता का कागजी सबूत होता है, प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियां । लावारिस या संदिग्ध हालत में घूमना यानि धारा 109, अशांति की आशंका पर 107,116, 151 के तहत कार्यवाही करने को गुड वर्क माना जाता है । और ऐसे में इन बेघरों से अच्छा शिकार कौन हो सकता है । अंदाज है कि आजादी के समारोह को निर्विघन निबटाने के लिए हर बार कोई 400 बेघरों को अंदर कर दिया जाता है ।
जेल, जलालत और अस्थाई रैनबसेरे इस समस्या के प्रति लापरवाही या आंखे फेर लेने से अधिक नहीं है । मानसिक रूप से अस्वस्थ या घर से भागे बच्चों का सड़कों पर लावारिस सोना-घूमना गैरकानूनी के साथ-साथ समाज के लिए खतरनाक है । कुशल कारीगरों व मेहनतकशों का मजबूरी में फुटपाथों पर सोना देष के लिए शर्मनाक है । प्राकृतिक आपदाओं, और रोजगार की तलाश में दूरस्थ अंचलों से दिल्ली आने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विकास के नाम पर लोगों को उनकी पुश्‍तैनी जमीन से उजाड़ कर सड़क पर सोने को मजबूर करना मानवता के लिए धिक्कार है । आज आवश्‍यकता है ऐसी नीति की, जो लोकतंत्र में निहित मूलभूत आवष्यकताओं में से एक ‘मकान’ के लिए शहरी परिपेक्ष्य में सोच सके । रैनबसेरों के बनिस्पत हर एक को मकान की योजना ज्यादा कारगर होगी और इसके लिए जरूरी है कि हर एक बेघर का बाकायदा सर्वे हो कि कौन स्थाई तौर पर किसी स्थान पर बसने जा रहा है या फिर कुछ दिनों के लिए।

पंकज चतुर्वेदी
स्वतंत्र टिप्पणीकार
 

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हाथी के दांत --

द सी एक्‍सप्रेस, आगरा 28 दिसंबर 14 http://theseaexpress.com/epapermain.aspx


                                                                    पंकज चतुर्वेदी
पारदर्शी, निश्पक्ष, सर्वसुलभ और ना जानें ऐसे ही भारी-भरकम जुमलों के साथ सरकारी महकमों के कंप्यूटरीकरण पर बीते कई सालों में करोड़ों रूपए खर्च किए गए। केंद्र क्या, राज्य सरकारों ने भी अपनी-अपनी वेबसाईटें बना ली हैं और उस पर बाकायदा विभाग के प्रमुख के ईमेल दिए जा रहे हैं- कोई समस्या हो, परेशानी हो, संपर्क करो। मशीनें इंसान द्वारा संचालित होती हैं और वे उसके प्रवृति को बदल नहीं सकती हैं। ऐसे ही कुछ अनुभव मैेंने किए, जिनसे पता चलता है कि कंप्यूटरीकरण का मुख्य उद्देश्‍य महज अपने बजट को खर्चना होता है, जन-सरोकार से उसका कोई वास्ता ही नहीं है।
इन दिनेां उ.प्र. के कई महकमों की वेबसाईट को ही लें, उसमें कई अधिकारियों के नाम पुराने वाले ही चल रहे हैं। इस साईट पर दर्ज किसी भी ईमेल का कभी कोई जवाब नहीं आता है।
कुछ साल पहले गाजियाबाद में एक ऐसे एसएसपी आए थे, जोकि अपना ब्लाग बना कर जनता से जुड़ने जैसे खूब पब्लिसिटी पा चुके थे। साहिबाबाद थाना इलाके में सरेआम मोबाईल स्नेचिंग करने वाले बदमाशो को एक युवक ने पकड़ा और पुलिस चैाकी ले गया। वहां उस युवक का मोबाईल पुलिस वालों ने रख लिया और बाद में बदमाश को भी छोड़ दिया। इस बाबत मैंने टैक्नोक्रेट एसएसपी और तब के डीजीपी को ईमेल किए। कुछ दिन तक उत्साह रहा कि मैंने लंका जीत ली, पर बाद में बताया गया कि चाहे एसएसपी हो या लखनऊ में बैठे डीजीपी, उनकी सरकारी  ईमेल आईडी को कभी कोई देखता ही नहीं है। यही नहीं एसएसपी साहब के ब्लाग पर भी उसे लिखा-हिंदी व अंग्रेजी दोनों में, पर लगा कि वह ब्लाग तो उन्होंने अपनी उपलब्ध्यिों का गान करने के लिए बनाया था, ना कि दूसरों की दिक्कतें सुनने के लिए।
मेरे आवासीय इलाके में पीएनजी के लिए खुदाई की गई और गहरे गड्ढे एक महीने तक ऐसे ही पड़े रहे। कुछ बच्चे व मवेशी उसमें गिरे भी। वहां लगे बोर्ड पर दर्ज हेल्प लाईन नंबर पर फोन करने पर भी जब किसी ने नहीं सुना तो आईजीएल की वेबसाइर्दट पर जा कर ‘‘हेल्प मी’’ कालम पर एक ईमेल छोड़ दिया। कई दिन बीत गए-नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा, आखिरकार खुद का मजदूर लगा कर आसपास के गडढे भरवाए। साफ लगा कि ये गडढे व्यवस्था के हैं, जिन्हे कोई ईमेल नहीं भर सकता । ठीक ऐसे ही मेरे ईमेल पर लगातार विदेशी लाटरी , ईनाम जीतने जैसे मेल आ रहे थे। मेंने उन्हें सीबीआई की वेबसाईट पर ‘‘संपर्क’’ वाले पते पर अग्रेशित कर दिया। मैं उम्मीद करता रहा कि कम से कम एक धन्यवाद का जवाब तो आएगा ही, लेकिन मेरी उम्मीदों पर सरकारी तंत्र की ढर्राषाही भारी रही।
इसी तरह सरकारी सफेद हाथी एयर इंडिया की विभागीय साईट पर सीधे टिकट ना बुक होने और किसी एजेंट के माध्यम से टिकट लेने पर तत्काल मिल जाने की शिकायत विभाग के मंत्री से ले कर नीचे तक ईमेल के जरिए करने का नतीजा भी षून्य ही रहा।
उत्तरप्रदेश के परिवहन विभाग ने अपनी एक बेहतरीन वेबसाईट बना रखी है, जिसमें कई फार्म डाउनलोड करने की सुविधा है, ड्रायविंग लाईसेंस से ले कर  बस परमिट पाने के कायदे दर्ज है।। साथ ही प्रत्येक जिले के परिवहन अधिकारी/सहायक परिवहन अधिकारियों के विभागीय ईमेल की सूची भी दी गई है। हाल ही में मुझे अपना ड्रायविंग लाईसेंस का नवीनीकरण करवाना था। एक आदर्श नागरिक की तरह मैंने गाजियाबाद के दोनों ईमेल पर अपना निवेदन तथा मुझे क्या साथ ले कर आना होग, कब आना होग, जानने का निवेदन भेजा। पूरा एक सप्ताह इंतजार किया, कोई जवाब नहीं आया। मेल वापिस नहीं आया, जाहिर है कि अपेक्षित मेलबाक्स में गया भी। मैंने फोन करने का प्रयास किया, जान कर आश्‍चर्य होगा कि विभाग के सभी नंबरों पर फैक्स टोन आती थी। आखिरकार दफ्तर गया और पता चला कि वहां ईमेल या फोन का कोई काम नहीं है, सभी जगह दलाल हैं जोकि आपका कोई भी काम ईमेल से भी तेज गति से करवा देते हैं, बस हाथ में महात्मा गांधी होना चाहिए।
वैसे तो कई ऐसे असफल प्रयोग मेरे पास हैं, लेकिन सबसे दुखद अनुभव सीबीएसई से हुआ। सेंट्रल बोर्ड आफ स्कूल एजुकेशन;, जोकि सभी बच्चों को ज्ञानवान, अनुषासित और आदर्ष नागरिक बनाने के लिए कृतसंकल्पित होने का भरोसा अपनी वेबसाईट पर देता है। हुआ यूं कि इकलौती बच्चियों को कक्षा 11-12वीं के लिए सीबीएसई की ओर से वजीफा देने बाबत एक अखबार में आलेख छपा था। साथ मे ंयह भी कि विस्तृत जानकारी के लिए सीबीएसई की वेबसाईट देखें। मैं वेबसाईट को अपने बुद्धि और विवेक के अनुसार भरपूर तलाशा, लेकिन कहीं कुछ मिला नहीं। आखिरकार मैंने महकमे की जनसंपर्क अधिकारी का ईमेल पता वेबसाईट से ही लिया और मेल भेज दिया। दो महीना बीत गया, अभी तक तो उसका कोई जवाब आया नहीं है, लगता है कि आएगा भी नहीं।
ऐसा नहीं कि सभी विभाग के यही हाल हैं- दिल्ली पुलिस को भेजे जाने वाले प्रत्येक मेल का सही जवाब मिलता है और कार्यवाही भी होती है। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के व्हाट्सएप् पर संदेश देते ही कुछ घंटों में जवाब आता है व कार्यवाही भी होती है। इससे साफ है कि महकमा भले ही कितना व्यस्त, भ्रष्‍ट या लापरवाह हो, चाहे तो ईमेल के जवाब दे सकता है।  सरकार महकमे सही कर्मचारी ना होने, ठीक ट्रैनिंग ना होने, समय की कमी का रोना रोते रहते हैं, यदि ऐसा है तो वेबसाईट बनाने व उसके मेंटेनेंस पर हर साल लाखों रूपए खर्च करने से पहले खुद के प्रशिक्षण की बात क्यों नहीं उठाई जाती है ? असल बात तो यह है कि इस संवादहीनता का असली कारण लापरवाही, पारदर्शिता से बचने की आदत और शासक-भाव है। इससे उबरने का अभी कोई साफ्टवेयर बना ही नहीं है।



शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

Primary education and local languages

रूम टू रीड की पञिका का यह अंक प्राथमिक शिक्षा में भाषा बोली के सवाल पर बेहद तथ्‍यात्‍मक और विचारणीय आलेख प्रस्‍तुत करता है, सभी आलेख जरूर पढें, यदि आप चाहते हैं कि पञिका का पीडीएफ आपको भेजूंु तो अपना ईमेल भेज दें, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ये सभी आलेख आपकी शिक्षा के सवालों से जुडी विचार श्रंखला को विस्‍तार देंगे
भाषा बोली के चौथे अंक में एक लेख मेरा भी है जिसका जेपीजी लगा रहा हूं, इसे विस्‍तार से पढने के लिए इस लिंक http://issuu.com/kartiksahu/docs/bhasha_boli_issue_4 या मेरे ब्‍लाग को देख सकते हैं pankajbooks.blogspot.com





मैं क्यों पढूं इस स्कूल की भाषा में ?

                                                                पंकज चतुर्वेदी
 0 बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर में आंध््रा प्रदेश से सटे सुकमा जिले में देारला जनजाति की बड़ी संख्या है। उनकी बोली हैं दोरली। बोली के मामले में बड़ा विचित्र है बस्तर, वहां द्रविड परिवार की बोलिसां भी है, आर्य कुल की भी और मुंडारी भी। उनके बीच इतना विभेद है कि एक इलाके का गोंडी बोलने वाला दूसरे इलाके की गोंडी को भी समझने में दिक्क्त महसूस करता है। दोरली बोलने वाले बहुत कम हुआ करते थे, पिछली जनगणना में शायद  बीस हजार । फिर खून खराबे का दौर चला, पुलिस व नक्सली दोनेा तरफ से पिसने वाले आदिवासी पलायन कर आंध्रप्रदेश के वारंगल जिले में चले गए। जब वे लौटे तो उनके बच्चों की दोरली में तेलुगू का घालमेल हो चुका था। एक तो बड़ी मुष्किल से दोरली बोलने वाला शिक्षक मिला था और जब उसने देखा कि उसके बच्चों की दोरली भी अपभ्रंष हो गई है तो उसकी चिंता असीम हो गई कि अब पढाई कैसे आगे बढ़ाई जाए। यह चिंता कोटां गांव के कट्टम सीताराम की।
0 मान लिया कि वह बेहद विषम इलाका है, बोलियों का संजाल है वहां लेकिन लखनऊ महानगर की सीमा से सटे फैजाबदा मार्ग पर स्थित चिन्हट के एक माध्यमिक स्कूल की कक्षा आठ की एक घटना राज्य में शिक्षण व्यवस्था की दयनीय हालत की बानगी है । स्कूल श्‍ाुरू होने के कई महीने बाद विज्ञान की किताब के पहले पाठ पर चर्चा हो रही थी । पाठ था पौघों के जीवन का । दूसरे या तीसरे पृष्‍ठ पर लिखा था कि पौध्ेा श्‍वसन क्रिया करते हैं । बच्चों से पूछा कि क्या वे भी श्‍वसन करते हैं तो कोई बच्चा यह कहने को तैयार नहीं हुआ कि वे भी श्‍वसन करते है। । यानि जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है उसे व्यावहारिक धरातल पर समझाने के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं, महज तोता रटन को ही शिक्षा मान लिया जा रहा है ।
0 वह बामुश्‍किल तीन साल की बच्ची होगी, पापा की गोदी में जब कार से उतरी तो चहक रही थी। जैसे ही बस्ता उसके कंधे पर गया तो वह सुबकने लगी, रंग बिरंगे पुते, दरवाजे तक पहुंची तो दहाड़ें मारने लगी। वह स्कूल क्या है, खेल-घर है, वहां खिलौने हैं, ढूले हैं, खरगोष व कबूतर हैं, कठपुतलियां हैं। फिर भी बच्ची वहां जाना नहीं चाहती। अब पापा को तो आफिस की देर हो रही है , सो उन्होंने मचलती बच्ची केा चैाकीदार को सौंपा और रूदन को अनदेखा कर  फुर्र हो गए।  मान लिया कि वह बच्ची बहुत छोटी है, उसे मम्मी-पापा की याद आती होगी व उसके माता-पिता नौकरी करते होंगे सो दिन में बच्ची को व्यस्त रखने के लिए उस प्ले स्कूल में दाखिला करवा दिया होगा। लेकिन यह भी सच है कि आम बच्चे के लिए स्कूल एक जबरदस्ती, अनमने मन से जाने वाली जगह और वहां होने वाली गतिविधियों उसकी मन मर्जी की होती नहीं हैं। कई बार तो स्कूल की पढ़ाई पूरा कर लेने तक बच्चे को समझ ही नहीं आता है कि वह अभी 12-14 साल करता क्या रहा है। उसका आकलन तो साल में एक बार कागज के एक टुकड़े पर कुछ अंक या ग्रेड के तौर पर होता है और वह अपनी पहचान, काबिलियत उस अंक सूची के बाहर तलाशने को छटपटाता रहता है।
ऊपर उल्लेखित तीनों हालात बताते हैं कि बच्चे के लिए स्कूल व शिक्षा कितनी  गूढ़ पहेली होता है। उसे मां-बाप की आज्ञा का पालन करना है, उसे स्कूल में टीचर की बात मानना है, उसे सवाल पूछने का हक नहीं है, सो वह अनमने मन से वह सबकुछ पढ़ता जाता है जो उसे कतई नहीं सुहाता। वह ना तो उसकी अपनी जुबान में है, ना ही परिवेश में और ना ही व्याहवारिकता में ।
11वीं पंचवर्षीय योजना में लक्ष्य रखा गया था कि  भारत में आठवीं कक्षा तक जाते -जाते स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों के 50 प्रतिषत को 20 प्रतिषत तक नीचे ले आया जाए, लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। आज भी  कोई 40 प्रतिशत बच्चे आठ से आगे के दर्जे का स्कूल नहीं देख पाते हैं। हां, यह तय है कि ऊपर स्कूल ना जाने के लिए मचल रही जिस बच्ची का जिक्र किया गया है , उस सामाजिक-आर्थिक हालात के बच्चे आमतौर पर कक्षा आठ के बाद के ड्राप आउट की श्रेणी में नहीं आते हैं। सरकारी दस्तावेज कहते हैं कि स्कूल की पढ़ाई बीच में छोड़ने वालों में अधिकांश गरीब, उपेक्षित जाति व समाज के और बच्चियां होती हैं। कई नजीर हैं कि बहुत से उपेक्षित या अछूत जैसी त्रासदी भोग रही जाति के लोगों ने आज से कई दशक पहले  स्कूल भी पढ़ा और गरीबी के बावजूद कालेज भी और उससे आगे भी। असल में वे लोग छोटी उम्र में ही जान गए थे कि शिक्षा नौकरी दिलवाने की कुंजी नहीं, बल्कि बदलाव व जागरूकता का माध्यम है। लेकिन ऐसे लोग विरले ही होते हैं और औसत बच्चों के लिए आज भी स्कूल कुछ ऐसी गतिविधि है जो उनकी अपेक्षा के अनुरूप या मन के मुताबिक नहीं है। उसको वहां पढाई जा रही पुस्तकों में वह कुछ ऐसा नहीं पाता जो उसके मौजूदा जीवन में काम आए।
जब बच्चा चाहता है कि वह गाय को करीब से जा कर देखे, तब स्कूल में वह खिडकी बंद कर दी जाती है जिससे बाहर झांक कर वह गाय को साक्षात देखता है। उसे गाय काले बोर्ड पर सफेद लकीरों व शब्दों में पढ़ाई जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी गाय ना तो दूध देती है और ना ही सींग हिला कर अपनी रक्षा करने का मंत्र सिखाती है। जो रामायण की कहानी बच्चे को कई साल में समझ नहीं आती, वह उसे एक रावण दहन के कार्यक्रम में शामिल होने या रामलीला देखने पर रट जाती है।  ठेठ गंाव के बच्चों को पढाया जाता है कि ‘अ’ ‘अनार’ का, ना तो उनके इलाके में अनार होता है और ना ही उनहोंने उसे देखा होता है, और ना ही उनके परिवार की हैसियत अनार को खरीदने की होती है। सारा गांव जिसे गन्ना कहता है।, उसे ईख के तौर पर पढ़ाया जाता है। यह स्कूल में घुसते ही बच्चे को दिए जाने वाले अव्यावहारिक ज्ञान की बानगी है। असल में रंग-आकृति- अंक-शब्द की दुनिया में बच्चे का प्रवेष ही बेहद नीरस और अनमना सा होता है। और मन और सीखने के बीच की खाई साल दर साल बढती जाती हे। इस बीच उसे डाक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, पायलट जैसी डिगरियां रटा दी जाती हैं और दिमाग में ठोक ठोक कर भर दिया जाता है कि यदि पढ़-लिख कर वह यह सब नहीं बना तो उसकी पढ़ाई बेकार है। विडंबना है कि यही मानसिकता, कस्बाई व शहरी बच्चों को घर से भागने, नशा, झूठ बोलने की ओर प्रेरित करती है, जबकि गांव के बच्चे स्कूल छोड़ कर कोई काम करना श्रेयस्कर समझते हैं। असल में पूरी स्कूली व्यवस्था ब्लेक बोर्ड व एक तरफ से सवाल और दूसरी तरफ से जवाब के बीच प्रश्‍न के तौर पर बच्चों को विचलित करती रहती है। स्कूल, शिक्षक व कक्षा उसके लिए यातना घर की तरह होते हैं। परिवार में भी उसे डराया जाता है कि बदमाशी मत करो, वरना स्कूल भेज देंगे। बात मान लो, वरना टीचर से कह देंगे।  कहीं भी बच्चे के मन में स्कूल जाने की उत्कंठा नहीं रह जाती है और वह शिक्षक को एक भयावह स्वप्न की तरह याद करता है।
बच्चे अपने परिवेश को नहीं पहचानते- अपने आसपास मिलने वाले पेड़, पौधे, पक्षी-जानवर, मिट्टी, कंकड़, सबकुछ से अनभिज्ञ यह बाल-वर्ग किस तरह देश-समाज को अपना समझ सकता है? समय आ गया है कि कक्षा व पाठ्यक्रम को पुस्तको व कमरों से बाहर निकाल कर प्रकृति व समाज की मदद से पढ़ा-समझा जाए। थामस अल्वा एडीसन या मेडम क्यूरी के साथ-साथ सफाई करने वाले, पंचर जोड़ने वाले, खेत में काम करने वाले को भी पाठ में शामिल किया जाए। जब स्‍कूल से भाग जाने को आतुर बच्चा यह देखेगा कि उसकी किताब में वह पाठ भी है जो उसके पिताजी करते हैं तो उसे यह सबकुछ अपना सा लगेगा। 
मध्यमवर्गीय परिवारों के प्री नर्सरी हो या गांव का सरकारी स्कूल,  पांच साल की आयु तक हर तरह की पुस्तक, होमवर्क, परीक्षा से मुक्त रखा जाए। कभी सोचा है कि तीन साल के बच्चे को जब बताया जाता है कि अमुक क्लास में अव्वल आया व अमुक फिसड्डी रहा तो उसके दिल व दिमाग में अजीब किस्म की डर, अहंकार या षिक्षा से पलायन की प्रवृति विकसित होती है जो ताजिंदगी उसके साथ-साथ चलती है। तभी शिक्षा व्यवस्था में सफल से ज्यादा असफल लोगों की संख्या बढती जा रही है। हालांकि परीक्षा में उत्तीर्ण करने की अनिवार्यता ने भी शिक्षा के स्तर को लेकर सवाल खड़े कर दिए है। दिल्ली में ही कई सरकारी स्कूल के शिक्षक बच्चों की परीक्षा काॅपी में उलटे हाथ से खुद लिखते है। और सीधे हाथ से नंबर देते हैं। एक क्लास में 100 से ज्यादा बच्चे, बैठने-पानी-शौचालय की व्यवस्था ना होना और टीचर के पास पठन-पाठन के अलावा बहुत से काम होना, जैसे कई कारण हैं जिससे बच्चा स्कूल में कुछ अपना सा महसूस नहीं नहीं करता है, वह वहां उबासी लेता है और यही सोचता हता है कि उसे यहां भेजा क्यों गया है। जैसे ही अवसर मिलता है वह बस्ता, किताब, कक्षा से दूर भाग जाता है।
मैंने कक्षा आठ से 11वीं तक की पढ़ाई मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के जावरा कस्बे में के सरकारी स्कूल में की, छोटा सा कस्बा, लेकिन एकमात्र स्कूल, लेकिन भव्य। वहां हर बच्चे को हिंदी, अंग्रेजी के अलावा एक भाषा हर साल पढना जरूरी होता था- मैने वहां एक साल मराठी पढ़ी तो एक साल बांग्ला और एक साल गुजराती। भाषाओं का सालाना इम्तेहान भी होता था, लेकिन उसके नंबर  परिणाम में नहीं जुड़ते थे। आज भी जब मैं देश के किसी भी हिस्से के बच्चे से बातचीत करता हूं तो वह इस बात से प्रसन्न हो जाता है कि मैं उसकी बोली-भाषा के कुछ शब्द समझता हूं, बोलता हूं और पढ़ भी लेता हूं। यकीन मानिए इससे उस समाज में अपने प्रति विश्‍वास जगाने की सहज कुंजी मेरे पास होती है। शायद आजादी के बाद स्कूली शिक्षा के लिए बने त्रिभाषा फार्मूले की आत्मा भी यही थी कि एक स्थानीय, एक राज्य की और एक देश की बोली सीखी जाए।  दखिणी राज्यों में यह नीति बड़ी ईमानदारी से निभाई भी गई, लेकिन हिंदभाषी राजयों ने इसमें बेईमानी की और देश की भाषा की जगह संस्कृत को डाल दिया। और तीसरी भाषा में अंग्रेजी को। अब बच्चे के साथ दिक्कतों का दौर यहीं से शुरू हुआ- घर पर वह सुनता है मालवी, निमाडी, राजस्थानी , बुंदेली, या भीली, गोंडी, धुरबी। स्कूल में गया तो किताबें खड़ी हिंदी में और उसे तभी से बता दिया गया कि यदि असल में पढ़ाई कर नौकरी पाना है तो उसके लिए अंग्रेजी ही एकमात्र जरिया है - ‘आधी छोड़ पूरी को जाए, आधी मिले ना पूरी पाए’’। बच्चा इसी दुरूह स्थिति में बचपना बिता देता है कि उसके ‘पहले अध्यापक’ मां-पिता को सही कहूं या स्कूल की पुस्तकों की भाशा को जो उसे ‘सभ्य‘ बनाने का वायदा करती है या फिर  जिंदगी काटने के लिए जरूरी अंग्रेजी को अपनाऊं।
स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है , अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं हे।  भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और माञभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्‍य बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है।  अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में ‘स‘ का उच्चारण ‘ह‘ होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्य पुस्तक पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता ‘गलत‘ उच्चारण करते हैं।  बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चैाथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता हे तो उसके पास बेइंतिहां शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।
स्थानीय बोलियों में प्राथमिक शिक्षा का बसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि बच्चा अपने कुल-परिवार की बोली में जो ज्ञान सीखता है, उसमें उसे अपने मां-बाप की भावनाओं का आस्वाद महसूस होता है। वह भले ही स्कूल जाने वाले या अक्षर ज्ञान वाली पहली पीढ़ी हो, लेकिन उसे पाठ से उसके मां-बाप बिल्कुल अनभिज्ञ नहीं होते। जब बच्चा खुद को अभिव्यक्त करना, भाषा का संप्रेषण सीख ले तो उसे खड़ी बोली या राज्य की बोली में पारंगत किया जाए, फिर साथ में करीबी इलाके की एक भाषा और। अंग्रेेजी को पढ़ाना कक्षा छह से पहले करना ही नहीं चाहिए। इस तरह बच्चे अपनी शिक्षा में कुछ अपनापन महसूस करेंगे। हां, पूरी प्रक्रिया में दिक्कत भी हैं, हो सकता है कि दंडामी गोंडी वाले इलाके में दंडामी गोंडी बोलने वाला शिक्षक तलाशना मुश्‍किल हो, परंतु जब एकबार यह बोली भी रोजगार पाने का जरिया बनती दिखेगी तो लोग जरूर इसमें पढ़ाई करना पसंद करेंगे। इसी तरह स्थानीय आशा कार्यकर्ता, पंचायत सचिव  जैसे पद भी स्थानीय बोली के जानकारों को ही देने की रीति से सरकार के साथ लोगों में संवाद बढ़ेगा व उन बोलियों में पढ़ाई करने वाले भी हिचकिचांएगे नहीं।
आए रोज अखबारों में छपता रहता है कि यूनेस्को बार-बार चेता रही हे कि भारत में बोली-भाषाएं गुम हो रही है और इनमें भी सबसे बड़ा संकट आदिवासी बोलियों पर है। अंग्रेजीदां-शहरी युवा या तो इस से बेपरवाह रहते हैं या यह सवाल करने से भी नहीं चूकते कि हम क्या करेंगे इन ‘गंवार-बोलियों’ को बचा कर। यह जान लेना जरूरी है कि ‘‘गूगल बाबा‘‘ या पुस्तकों में इतना ज्ञान, सूचना, संस्कृति, साहित्‍य उपलब्ध नहीं है जितना कि हमारे पारंपरिक  मूल निवासियों के पास है। उनका ज्ञान निहायत मौखिक है और वह भीली, गोंडी, धुरबी, दोरली, आओ, मिससिंग, खासी, जैसी छोटी-छोटी बोलियों में ही है। उस ज्ञान को जिंदा रखने के लिए उन बोलियों को भी जीवंत रखना जरूरी है और देश की विविधता, लारेक जीवन, ज्ञान, गीत, संगीत, हस्त कला, समाज को आने वाली पीढि़यों तक अपने मूल स्वरूप में पहुंचाने के लिए बोलियों को जिंदा रखना भी जरूरी है। यदि हम चाहते हैं कि स्थानीय समाज स्कूल में हंसते-खेलते आए, उसे वहां अन्यमनस्कता ना लगे तो उसकी अपनी बोली में भाषा का प्रारंभिक पाठ अनिवार्य होगा।

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

Illegal Migrant are main cause of Asam Violance

चुनावी रंजिश और वादाखिलाफी के चलते सुलगता है असम

राष्‍ट्रीय सहारा 25 दिसंबर 14http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx
                                                                     पंकज चतुर्वेदी
अभी सितंबर 2012 के नरसंहार के दर्द व डर से लोग उबर नहीं पाए थे कि असम का बोडो बाहुल्य इलाका एक बार फिर रक्तपात से दहल गया।  हिंसा का मूल भले ही एक आतंकवादी घटना हो , लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नरसंहार के पीछे, जल्दी ही होने वाले बीटीडीए यानि बोडो टेरीटोरियल डेवलपमेंट अथरिटी चुनाव में बोडो उम्मीदवार की  हार का अंदेशा, इलाके में बोडाे जनजाति की संख्या कम होने और कोई 30 साल पहले अशांत राज्य की आग शांत करने के लिए हुए समझौते के क्रियान्वयन में बेईमानी जैसे कारक भी है। केंद्र व राज्य सरकार का वादा-खिलाफी का जो रवैया रहा है, उससे तो यही लगता है कि भड़कती अंगारों पर यदि राख जम जाए तो उन्हें शांत नहीं माना जा सकता। असम की असली समस्या घुसपैठियों की बढ़ती संख्या है, असल में यह असम ही नहीं पूरे देश्‍ा की समस्या है। यदि इसे अब और छूट दी गई तो आने वाले दो दशकों में असम भी कश्‍मीर की तरह देश के लिए नासूर बना जाएगा। असम में वनोपज, तेल जैसे बेशकीमती भंडार भी हैं। यहां किसी भी तरह की अशांति पूरे पूर्वोत्तर के लिए बेहद खतरनाक है।
राज एक्‍सप्रेस, भोपाल 25.12.14http://epaper.rajexpress.in/epapermain.aspx

बोडो अलगाववादियों को अलग-थलग करने के लिए कुछ साल पहले सरकार ने बीटीडीए यानि बोडो टेरीटोरियल डेवलपमेंट अथरिटी का गठन किया गया था, जिसमें कोकराझार, बाक्सा, उदालगुडी और चिरांग जिले शामिल हैं असल में यह इलाका बीते कई सालों से बोडो लोगों की आबादी घटने से सुलग रहा है। यहां घुसपैठिये बढ रहे हैं। कोकराझार लोकसभा सीट पर इस बार एक गैर बोडो व पूर्व उल्फा कमांडर हीरा सारानिया जीत गया। कहा जाता है कि इलाके के मुसलमानों और गैर बोडो आदिवासियों ने  सारानिया को वोट कर दिया, जबकि बोडो वोट तीन हिस्सों में बंट गया था। याद हो लोकसभा चुनाव के ठीक बाद दो मई को ही कई गांवों में आगजनी, एके-47 से गोलीबारी , लूट-खसोट हो गई थी । उस समय भी आरेाप एनडीबीएफ(संगकिपित गुट) पर ही लगा था जिस पर इस बार के नरसंहार का भी शक है । यहां यह जानना जरूरी है कि असम के आंचलिक क्षेत्रों में मुसलमान सदियों से हैं और अभी तीन दशक पहले तक जोरहाट जैसे जिलों में हर धर्म की बच्चियां मदरसों में जा कर ही अपनी प्राथमिक शिक्षा लेती थीं। यहां के मुसलमान दो तरह के हैं - असमियाभाषी मुसलमान और बांग्लाभाषी मुसलमान। कहा जाता है कि बांग्लाभाषी मुसलमान अवैध घुसपैठिए हैं।
सनद रहे बोडो समुदाय वाले इलाकों में सन 1996 में बोडो व अन्य आदिवासियों के बीच झगड़ा हुआ था, उसके बाद पहली बार गत दिनों कथित बोडो आतंकवादियों के हाथों  अन्य आदिवासी मारे गए हैं। असम के मूल निवासियों की बीते कई दशकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वहां से वापिस भेजा जाए। इस मांग को ले कर आल असम स्टुडंेट यूनियन(आसू) की अगुवाई में सन 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था, जिसमें सत्याग्रह, बहिष्कार, धरना और गिरफ्तारियां दी गई थीं। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्यवाही के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया।  चुनाव के बाद जम कर हिंसा शुरू हो गई।  इस हिंसा का अंत केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार जनवरी-1966 से मार्च- 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि सन 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापिस अपने देश जाना होगा। इसके बाद आसू की सरकार भी बनीं। लेकिन इस समझौते को पूरे 28 साल बीत गए हैं और विदेशियों- बांग्लादेशी व म्यांमार से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं ये विदेशी बाकायदा अपनी भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं।
यह एक विडंबना है कि बांग्लादेश को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसी का फायदा उठा कर बांग्लादेश के लोग बेखौफ यहां आ रहे हैं, बस रहे हैं और अपराध भी कर रहे हैं। हमारा कानून इतना लचर है कि अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेशी घोषित कर देती है, लेकिन बांग्लादेश की सरकार यह कह कर उसे वापिस लेने से इंकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं हैं। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से पुरानी समस्या है।  सन 1901 से 1941 के बीच भारत(संयुक्त) की आबादी में बृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिषत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसदी दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेशी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, सिबसागर जिलो में म्यांमार व अन्य देशों से लोगों की भीड़ आना शुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी 30 सालों में असम में केवल सिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां असम मूल के लोगों की बहुसंख्यक आबादी होगी। स्थानीय बोडो लोगों को करीबी अरूणाचल प्रदेष से आकर बस रहे आदिवासियों व नेपालियों की बढ़ती आबादी से भी अल्पसंख्यक होने का खतरा बना हुआ है। इलाके की आबादी का जातिय गणित साफ है कि बीटीडीए यानि बोडो टेरीटोरियल डेवलपमेंट अथरिटी के जल्द ही होने वाले चुनाव में किसी भी बोडो का जीतना मुश्‍िकिल है। इस संस्था के करोड़ो रूप्ए के बजट पर सभी की निगाह होती है, जिसमें  शांति प्रक्रिया से खुद को अलग रखे हुए एनडीबीएफ(संगकिपित गुट) भी है।
असम में विदेषियों के शरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है - 1971 की लड़ाई या बांग्लादेश बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 से 1971 के बीच 37 लाख सत्तावन हजार बांग्लादेशी , जिनमें अधिकांश मुसलमान हैं, अवैध रूप से अंसम में घुसे व यहीं बस गए। सन 70 के आसपास अवैध शरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के 33 मुस्लिम विधायाकें ने देवकांत बरूआ की अगुवाई में मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। शुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत सी है, जिस पर ख्ेाती नहीं होती है और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देश का भला कर रहे हैं। लेकिन आज हालात इतने बदतर है कि कांजीरंगा नेशनल पार्क को छूती कई सौ किलोमीटर के नेषनल हाईवे पर दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। सनद रहे इस साल के अभी तक के नौ महीनों में कांजीरंगा में चालीस एक सींग वाले गैंडे मारे जा चुके हैं और वन महकमा दबी जुबान से मानता है कि इस अपराण के मूल में यही घुसपैठिये हैं।
इन अवांछित बांशिंदों के कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि कुछ साल पहले राज्य के तत्कालीन राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी ले.ज. एस.के. सिन्हा ने राष्‍ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेशियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसे तलाशना व फिर वापिस भेजने के लायक हमारे पास मशीनरी नहीं है।
उल्फा से हथियार डलवा कर तो सरकार ने भले ही कुछ तात्कालीक शांति ला दी थी, लेकिन जब-जब राज्य के मूल बाशिंदों को बिजली, पानी व अन्य मूलभूत जरूरतों की कमी खटकेगी, उन्हें महसूस होगा कि उनकी सुविधाओं पर डाका डालने वाले देश के अवैध नागरिक हैं, आंदोलन फिर होंगे, हिंसा फिर होगी; आखिर यह एक संस्कृति-सभ्यता के अस्तित्व का मामला जो है। हां यह बात है कि उनको भडकाने वाले दीगर सियासतदां होते हैं, कुछ स्वार्थी तत्व और आईएसआई भी।
सरकार में बैठे लोगों को भी यह विचारना होगा कि किसी समझौते को लागू करने में 30 साल का समय कम नहीं होता है और यह वादा-खिलाफी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं। एक बात और , दिल्ली या राश्ट्रीय मीडिया के लिए असम की इस तरह की खबरें गैरजरूरी सी प्रतीत होती है- वहां होने वाली हिंसा की खबरें जरूर यदा-कदा सुर्खियों में रहती हैं, लेकिन हिंसा के क्या कारण हैं उसे जानने के लिए कभी कोई हकीकत को कुरेदने का प्रयास नहीं करता है। अभी दो साल पहले ही बोडो व बाहरी मुसलमानों के बीच संघर्ष में कई सौ लोग मारे गए थे। असल में वह दंगा या गत दिनों का नरसंहार पुलिस डायरी का अपराध मात्र नहीं है, वह संस्कृतियों के टकराव का विद्रूप चैहरा था और उसके कारकों को सरकार नजरअंदाज कर रही है।
यही कारण है कि एकबारगी दवाब बना कर सरकार कुछ संगठनों को हिंसा त्यागने पर मजबूर करती है तो वादाखिलाफी से त्रस्त कोई  दूसरे युवा हथियार उठा लेते हैं। लब्बोलुवाब यह है कि यदि वहां स्थाई षांति चाहिए तो घुसपैठियों की समस्या का सटीक व त्वरित हल खोजना जरूरी है।

पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद-201005
संपर्क 9891928376

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

SAVE THE LAKES AND PONDS

जरूरत है तालाबों को बचाने के लिए एक सशक्त निकाय की

                                                                  पंकज चतुर्वेदी
इस बार बारिश बहुत कम हुई, देश के अधिकांश शहरी इलाकों के लोगों की चिंता की लकीरें इस लिए भी गहरी हैं कि यहां रहने वाली सोलह करोड से ज्यादा आबादी के आधे से ज्यादा हिस्सा पानी के लिए भूजल पर निर्भर है। बारिश हुई नहीं, रिचार्ज हुआ नहीं, अब सारा साल कैसे कटेगा। तभी यहां के कुछ जागरूक लोगों ने पूरे देष के तालाबों को संरक्षित करने की एक मुहिम शुरू की है। विडंबना यह है कि तालाब को सरकार भाशा में ‘‘जल संसाधन‘‘ माना नहींे जाता है और तालाब अलग-अलग महकमोे में बंटे हुए हैं। तालाब ना केवल सीधे पानी का जरिया हैं बल्कि भूजल रिर्चाज, धरती के गरम होने पर शीतलीकरण तथा पर्यावरण जगत के एकीकृत संरक्षण स्थल भी हैं। इसके बावजूद पारंपरिक तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है।
डेली न्‍यूज एक्‍टीविस्‍ट, उप्र 24 दिसंबर 14 http://dailynewsactivist.com/epapermain.aspx

असलियत तो यह है कि अब तो देष के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन यहां जेठ ही रहता है। सरकार संसद में बता चुकी है कि देष की 11 फीसदी आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है। वहीं जिन इलाकों की जनता जुलाई-अगस्त में अतिवृशष्‍टि के लिए हाय-हाय करती दिखती है, सितंबर आते-आते उनके नल सूख जाते हैं। बारिश से सड़क व नदियां उफनती हैं और पानी देखते ही देखते गायब हो जाता है। इस पानी को सहेजने के लिए पारंपरिक स्त्रोत ताल-तलैया को तो सड़क, बाजार, कालोनी के कंक्रंीट जंगल खा गए । दूसरी तरफ यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्त्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था।
समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्त्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है - तालाब, कुंए, बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढि़यों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी ओर काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। यही नहीं सरकार का भी कोई एक महकमा मुकम्मल नहीं है जो सिमटते तालाबों के दर्द का इलाज कर सके। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव से सूख रहे है।। कहीं तालाबों को जानबूझ कर गैरजरूरी मान कर समेटा जा रहा है तो कही उसके संसाधनों पर किसी एक ताकतवर का कब्जा है। ऐसे कई मसले हैं जो अलग-अलग विभागों, मंत्रालयों, मदों में बंट कर उलझे हुए हैं। देश के इतने बड़े प्राकृतिक संसाधन, जिसकी कीमत खरबों-खरब रूप्ए हैं के संरक्षण के लिए एक स्वतंत्र, ताकतवर प्राधिकरण महति है।
तालाब केवल इस लिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जल स्त्रोत हैं, तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। सन 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिर्पाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई । आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना ; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे । मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा , कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे  । शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है ।
वैसे तो मुल्क के हर गांव-कस्बे- क्षेत्र के तालाब अपने समृद्ध अतीत और आधुनिकता की आंधी में बर्बादी की एक जैसी कहानी कहते हैं। जब पूरा देश पानी के लिए त्राहि-त्राहि करता है, सरकारी आंकड़ो के शेर दहाड़ते हैं तब उजाड़ पड़े तालाब एक उम्मीद की किरण की तरह होते हैं। इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीटयूट फार द सेडिएरीडट्रापिक्स के विशेषज्ञ बोन एप्पन और श्री सुब्बाराव का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है । उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए ‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’ का गठन किया जाना चाहिए । पूर्व कृषि आयुक्त बी. आर. भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिमि है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है ।
एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राज्य में 39 हजार होने की बात अंग्रेजों का रेवेन्यू रिकार्ड दर्षाता है। दुखद है कि अब हमारी तालाब-संपदा अस्सी हजार पर सिमट गई है। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अंगरेजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्तर ही कर दिया। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज बीस लाख करोड़ से कम नहीं होगा। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों  की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोध्दार ( आर आर आर ) के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक  स्तर पर  बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। गाँव ,ब्लाक, जिला व राय स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीति सलाहकार समिति का  गठन किया जाना था। सेन्ट्रल वाटर कमीशन और  सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने का  जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मंत्रालय कर रहा है। बस खटका वही है कि तालाब का काम करने वाले दीगर महकमें तालाब तो तैयार कर रहे हैं, लेकिन तालाब को तालाब के लिए नहीं। मछली वाले को मछली चाहिए तो सिंचाई वाले को खेत तक पानी। जबकि तालाब प्र्यावरण, जल, मिट्टी, जीवकोपार्जन की एक एकीकृत व्यवस्था है और इसे अलग-अलग आंकना ही बड़ी भूल है। एक प्राधिकरण ही इस काम को सही तरीके से संभाल सकता है।
असल में तालाबों पर कब्जा करना इसलिए सरल है कि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं - राजस्व, विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन ...शायद और भी बहुत कुछ हों। कहने की जरूरत नहीं है कि तालाबों को हड़पने की प्रक्रिया में स्थानीय असरदार लोगों और सरकारी  कर्मचारी की भूमिका होती ही है। अभी तालाबों के कुछ मामले राष्‍ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं और चूंकि तालाबों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उसी विभाग के पास होता हे, जिसकी मिली-भगत से उस की दुर्गति होती है, सो हर जगह लीपापोती होती रहती हैं। आज जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रूप्ए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो, जो सबसे पहले देशभर की जल-निधियों का सवे।ं करवा कर उसका मालिकाना हक राज्य के माध्यम से अपने पास रखे, यानी तालाबों का राश्ट्रीयकरण हो,। फिर तालाबों के संरक्षण, मरम्मत की व्यापक योजना बनाई जाए। यहां उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड के टीकमगढ जिले में  बराना के चंदेलकालीन तालाब को 35 किलोमीटर लंबी नहर के माध्यम से जामनी नदी से जोड़ा जा रहा है। इससे 18 गांव लाभान्वित होंगे। अब इस इलाके में केन-बेतवा नदी को जोड़ने की कई अरब की योजना लागू करने पर सरकार उतारू है, जबकि उसके बीस फीसदी व्यय पर छोटी, मौसमी नदियों को तालाबों से जोड़ने, तालाबों की मरम्मत और सहेजने का काम आसानी से हो सकता है। इस तरह की लघु योजनाएं तभी संभव है जब न्यायिक, राजस्व अधिकार प्राप्त तालाब प्राधिकरण पूरे देश के तालाबों को संरक्षित करने की जिम्मेदारी ले।



सोमवार, 22 दिसंबर 2014

how to reduce garbage ?


अकेले साफ करने से कम नहीं होगा कूड़ा

                                                                                                                         पंकज चतुर्वेदी

दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण २३ दिसंबर १४ http://epaper.jagran.com/epaper/23-dec-2014-262-delhi-edition-national.html
इन दिनों प्रधानमंत्री से लेकर अफसरान तक ने झाड़ू थाम ली है- कूड़ा साफ करने के लिए। आम लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक बनाने के लिए यह अच्छा कदम है, लेकिन हमें यह भी विचार करना होगा कि आखिर कूड़ा कम कैसे हो, क्योंकि कूड़ा घर-मुहल्ले से निकाल बाहर करना समस्या का निदान नहीं है, असल समस्या तो उसके बाद शु रू होती है कि कूड़े का निबटान कैसे हो। षायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा जब हमारे देश  में किसी ना किसी कस्बे-श हर में कूड़े को ले कर आम लोगों का आक्रोश  या फिर अपने घर-मुहल्ले के करीब कचरे का डंपिंग ग्राउंड ना बनने देने के आंदोलन ना होते हों। लोगों की बढ़ती आय व जीवन-स्तर ने कूड़े को बढ़ाया है और अब कूड़ा सरकार व समाज दोनेंा के लिए चिंता का विशय बनता जा रहा है। भले ही हम कूड़े को अपने पास फटकने नहीं देना चाहते हों, लेकिन विडंबना है कि यह कूड़ा हमारी गलतियों या बदलती आदतों के कारण ही दिन-दुगना, रात-चैगुना बढ़ रहा है। वह कूड़ा जिसे नष्ट  करना संभव नहीं है, जिसमें प्लास्टिक शा मिल है ; अणु बम से भी ज्यादा खतरनाक है और वह आने वाली कई पीढि़यों के लिए संकट है।
दिनांक 18 दिसंबर 2014 को दिल्ली हाई कोर्ट चेतावनी दे चुका है कि यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो दिल्ली जल्दी ही ठोस कचरे के ढेर में तब्दील हो जाएगी। दिल्ली में अभी तक कोई दो करोड मीट्रिक टन कचरा जमा हो चुका है और हर दिनआठ हजार मीट्रिक टन कूड़ा पैदा हो रहा है। इसके निस्तारण के लिए कहीं जमीन भी नहीं बची है। मौजूदा लेंडफिल साईट डेढ सौ फुट से ऊंची हो गई हैं और उन पर अब अधिक कचरा नहीं डाला जा सकता। षायद यही हाल देष के हर छोटे बडे षहर-कस्बों के हैं। कई जगह लापरवाही व चालाकी से जल संसाधनों, जैसे समुद्र, तालाब, नहर, नदी, जोहड़ में कुड़ा डाल कर लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री मान रहे हैं, यह जाने बगैर कि वह कितबने बड़े खतरे को न्यौता दे रहे हैं। नेशनल इनवायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर के मुताबिक देष में हर साल 44 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है।  हमारे देश  में औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा हर दिन निकलात है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्ठा होता है, जबकि 22 फीसदी कूड़ा-कबाड़ा,  घरेलू गंदगी होती है। कचरे का निबटान पूरे देष के लिए समस्या बनता जा रहा है। दिल्ली की नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक दूसरे राज्यों में कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाश  रही है। जरा सोचें कि इतने कचरे को एकत्र करना, फिर उसे दूर तक ढो कर ले जाना कितना महंगा व जटिल काम है।  यह सरकार भी मानती है कि देष के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिषत का ईमानदारी से निबटान हो पाता है।  राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है।  कागज, प्लास्टिक, धातु  जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाईकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है।
असल में कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला फाउंटेन पेन होता था, उसके बाद ऐसे बाल-पेन आए, जिनकी केवल रिफील बदलती थी। आज बाजार मे ंऐसे पेनों को बोलबाला है जो खतम होने पर फेंक दिए जाते हैं।  देष की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। जरा सोचें कि तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में बमुश्किल  एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह शेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पहले पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले ‘यूज एंड थ्रो’ वाले रेजर ही  बाजार में मिलते हैं। अभी कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन ले कर डेयरी जाते थे। आज दूध तो ठीक ही है पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। अनुमान है कि पूरे देश  में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फैंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, घर में होने वाली पार्टी में डिस्पोजेबल बरतनों का प्रचलन, बाजार से सामन लाते समय पोलीथीन की थैलियां लेना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग ;ऐसे ही ना जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। घरों में सफाई  और खुशबू के नाम पर बढ़ रहे साबुन व अन्य रसायनों के चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है। सरकारी कार्यालयों में एक-एक कागज की कई-कई प्रतियां बनाना, एक ही प्रस्ताव को कई-कई टेबल से गुजारना, जैसे कई कार्य हैं जिससे कागज, कंप्ूयटर के प्रिंिटग कार्टेज् आदि का वययव बढता है। इसको कम करने की योजना बनाना जरूरी है।
सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाईल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट, और ना जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा लेड और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता हे। शेष  हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांश  सामग्री गलती-’सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब हो कर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने  और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने  का काम करती है। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाईलो ंसे भी उपज रहा है।  भले ही अदालतें समय-समय पर फटकार लगाती रही हों, लेकिन अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े का सुरक्षत निबटान दिल्ली, मुंबई व अन्य महानगरों से ले कर छोटे कस्बों तक संदिग्ध व लापरवाहीपूर्ण रहा है।
राजधानी दिल्ली में कचरे का निबटान अब हाथ से बाहर निकलती समस्या बनता जा रहा है। अभी हर रोज आठ हजार मीट्रिक टन कचरा उगलने वाला महानगर 2021 तक 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उपजाएगा। दिल्ली के अपने कूड़-ढलाव पूरी तरह भर गए हैं और आसपास 100 किलोमीटर दूर तक कोई नहीं चाहता कि उनके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। कहने को दिल्ली में दो साल पहले पोलीथीन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी प्रतिदिन 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक का ही है। इलेक्ट्रानिक और मेडिकल कचरा तो यहां के जमीन और जल को जहर बना रहा है।
कूड़ा अब नए तरह की आफत बन रहा है, सरकार उसके निबटान के लिए तकनीकी व अन्य पयास भी कर रही है। लेकिन असल में कोशिश  तो कचरे को कम करने की होना चाहिए। प्लास्टिक का कम से कम इस्तेमाल, पुराने कंप्यूटर व मोबाईल के आयात पर रोक तथा बेकार उपकरणों को निबटाने के लिए उनके विभिन्न अवयवों को अलग करने की व्यवस्था करना, होगा। सामानों की मरम्मत करने वाले हाथों को तकनीकी रूप से सषक्त बनाने व उन्हें मदद करने से उपकरणों को कंडम कर फैंकने की प्रवृति पर रोक लग सकती है। बिजली के घरेलू उपकरणो से ले कर वाहनों के नकली व घटिया पाटर््स की बिक्री पर कड़ाई भी कचरे को रोकने में मददगार होगी। स्तरीय उपकरण ज्यादा चलते हैं व उसके कबाड हाने के गति कम होती है । सबसे बड़ी बात उच्च होती जीवन-शे ली में कचरा-नियंत्रण और उसका निबटान की शिक्षा स्कूली स्तर पर अनिवार्य बनाना जरूरी है। कचरे को कम करना, उसके निबटान का प्रबंधन आदि के लिए दीर्घकालीन योजना और शिक्षा उतना ही जरूरी है, जितना बिजली, पानी और स्वास्थ्य के बारे में सोचना।


पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेषनल बुक ट्रस्ट इंडिया
 नेहरू भवन, वसंत कुंज इंस्टीट्यूषनल एरिया फेज-2
 वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070
 संपर्क- 9891928376

Children needs books not gun security

सुरक्षा नहीं किताबें चाहिए बच्चों को

                                                                                                                           पंकज चतुर्वेदी
हिन्दुस्तान २३ दिसंबर १४ 
पेशा वर के फौजी स्कूल में कुछ राक्षसों द्वारा जो कुछ किया गया, उस पर गुस्सा लाजिमी है, अपने पड़ोसी के दर्द में साथ खड़ा होना भी जरूरी है, हमले से सबक लेना व एहतिहात बरतना ही चाहिए, लेकिन जिस तरह से कुछ लोगों ने इसको ले कर बच्चों के मन में खैफ पैदा किया, वह निहायत गैरजिम्मेदाराना है। बहुत से अखबार और मीडिया चैनल बाकायदा मुहिम चलाए है कि अमुक स्कूल में सुरक्षा के साधन नहीं है, कहीं पर बंदूकधारी गार्ड को दिखा कर सुरक्षा को पुख्ता कहा जा रहा है। माता-पिता इस वाकिये के बाद अपने बच्चों को ज्यादा प्यार जता कर दुआ कर रहे हैं कि ऐसा हमारे यहां ना हो। भावनात्मक स्तर पर यह भले ही स्वाभाविक लगे, लेकिन दूरगामी सोच और बाल मनोविज्ञान की दृश्टि से सोचें तो हम बच्चे को बस्ता, होमवर्क, बेहतर परिवहन, परीक्षा में अव्वल अने, खेल के लिए समय ना मिलने, अपने मन का ना कर पाने, दोस्त के साथ वक्त ना बिता देने जैसे अनगिनत दवाबों के बीच एक ऐसा अनजाना भय दे रहे हैं जो शायद उसके साथ ताजिंदगी रहे।  यह जान लें कि जो षिक्षा या किताबे या सीख, बच्चों को आने वाली चुनौतियों से जूझने और विशम परिस्थितियों का डट कर मुकाबला करने के लायक नहीं बनाती हैं, वह रद्दी से ज्यादा नहीं हैं।
Jnasandesh Times Lucknow 2-2-15
http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Lucknow/Lucknow/02-02-2015&spgmPic=7
आज जिन परिवारों की आय बेहद सीमित भी है, वे अपना पेट काट कर बच्चें को बेहतर स्कूल में भेज रहे हैं। वहीं देष में लाखों स्कूल ऐसे हैं जहां, षिक्षक, कमरे, ब्लेक बोर्ड, शोचालय, आवागमन के साधन, बिजली, लायब्रेरी, बैठने की टाटपट्टी व फर्नीचर और तो और मास्टरजी को बैठने को कुर्सी नहीं हैं। निजी स्कूलों का बमुश्किल  20 फीसदी ही बच्चों को बेहतर माहौल दे पा रहा है। बच्चे पुस्तकों, अपी जिज्ञासा के सटीक जवाब, स्कूल व पाठ्य पुस्तकों की घुटन के छटपटाते हैं। ऐसे में हम माहौल बना रहे हैं कि स्कूल में बंदूक वाला या तगड़ा सा सुरक्षा गार्ड कयों नहीं है। भारत के स्कूलों में बंगलौर जैसे बड़े षहर में छोटी बच्चियों के साथ दुश्कर्म स्कूल के भीतर, स्कूल के स्टाफ द्वारा ही हो जाता है। क्या यह पेशावर की तालीबानी हरकत से कम घिनौना कृत्य है? स्कूल में बच्चे अपने ही शिक्षक द्वारा की गई निर्मम पिटाई से  जिंदगीभर के लिए अपाहिज हो जाते हैं, ट्यूषन या ऐसे ही निजी स्वार्थ के चलते बच्चों से स्कूल में भेदभाव होता है, तो क्या ऐसे असमानता , अत्याचार के हल दरवाजे पर खड़ा बंदूक वाला या पुलिसवाला तलाष सकता है??
आज जरूरत है कि बच्चों को ऐसी तालीम व किताबें मिलें जो उन्हें वक्त आने पर रास्ता भटकने से बचा सकें। जरा विचार करें कि हमारे ही देश  के कई पढ़े-लिखें युवाओं को नाम आतंकवादी घटनाओं में आ रहा है और हम केवल उन पर आपराधिक मुकदमें, जेल में डाल कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान रहे हैं । हकीकत में तो समय यह विचार करने का है कि आखिर हमारी तालीम में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि हमारे मुल्क में ही पैदा हुआ युवा किसी विदेषी के हाथों की कठपुतली बनकर अपने ही देश  के खिलाफ काम करने लगा। हमारी किताबें भले ही तकनीकी तौर पर युवाओं को अंतरराश्ट्री स्तर का बना रही हों, लेकिन हमारे लफ्ज यह नहीं बता पा रहे हैं कि जब कोई धर्म, आस्था, संस्कार केनाम पर भड़काए तो क्या करना चाहिए। आज स्कूलों में भी डंडा या बंदूक की नहीं, अपितु ऐसी सीख की जरूरत है कि जब ये बच्चे बड़े हो तो उन्हें कोई तालीबान या आईएस बरगला ना पाए।
संवेदना, श्रद्धांजलि, घटनाओं के  प्रति जागरूकता एक बच्चें के व्यक्तित्व निर्माण के बड़े कदम हैं, लेकिन इनके माध्यम से उसे भयभीत करना, कमजोर करना और तात्त्कालिक  कदम उठाना एक बेहतर भविश्य का रास्ता तो नहीं हो सकता। यदि वास्तव में हम चाहते हैं कि भविश्य में पेषावर जैसी घटनाएं ना हों तो हमारी शि क्षा, व्यवस्था, सरकार व समाज को यह आष्वस्त करना होगा कि भविश्य में कोई तालीबान बनेगा नहीं नहीं क्योंकि उसके बचपन में स्कूल, पुस्तकें, ज्ञान, स्नेह, खेल, सकारात्मकता का इतना भंडार होगा कि वह पथभ्रश्ट हो ही नहीं सकता। भय हर समय भागने की ओर प्रषस्त करता है और भगदड़ हर समय असामयिक घटनाओं का कारक होती है। विशम हालात में एक दूसरे की मदद करना, साथ खड़ा होना, डट कर मुकाबला करना हमारी सीख का हिस्सा होना चाहिए, नाकि आंसू, लाचारी, किसी देष या धर्म या जाति के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए मोमबत्ती, भाशण या षोक सभाएं।

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

For Educational eqaulity Nationalised the school education

फिर क्यों ना हो शिक्षा का राष्‍ट्रीयकरण ?


                                                                  पंकज चतुर्वेदी

दिल्ली-एनसीआर में नर्सरी स्कूलों में एडमिशन को ले कर बवाल हो रहा है। कहीं फार्म की मनमानी कीमतों को ले कर असंतुष्‍िटि है तो कोई सरकार द्वारा तय मानदंडों का पालन ना होने से रूष्‍ट। हालत इतने बदतर हैं कि तीन साल के बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाने के लिए कई महीनों से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमें चल रहे हैं और ना तो पालक और ना ही स्कूल इससे संतुष्‍ट हैं।  नर्सरी का दाखिला आईआईटी की फीस से भी महंगा हो गया है। कुल मिला कर देखें तो देष में स्कूली शिक्षा पर सरकार और समाज अफरात खर्च कर रहे हैं और कोई भी संतुष्‍ट नहीं है। देश मंे आज भी प्राईमरी स्तर के 75 फीसदी स्कूल सरकारी हैं और वहां पढ़ाई की गुणवत्ता इतनी कमजोर है कि 45 फीसदी से ज्यादा बच्चे कक्षा पांच के आगे पढ़ने के लायक नहीं होते हैं।
प्रजातंत्र लाईव 21 दिसंबर 2014 http://www.readwhere.com/read/400092/Prajatantra-Live/issue-216#page/9/1  

राजधानी से सटे गाजियाबाद के कई नामचीन स्कूलों में बढ़ी फीस का झंझट अब थाना-पुलिस कोतवाली तक पहुंच गया है। स्कूल वाले बच्चों को प्रताडि़त कर रहे हैं तो अभिभावक पुलिस के पास गुहार लगा रहे हैं। स्कूल हाईकोर्ट की शरण में है तो पालक नेताओं की। इस मारामारी में आम निम्न-मध्यमवर्गीय आदमी की बुद्धि जाम सी हो गई है। माहौल ऐसा हो गया है कि बच्चों के मन में स्कूल या शिक्षक के प्रति कोई श्रद्धा नहीं रह गई है। वहीं स्कूल वालों की बच्चों के प्रति ना तो संवेदना रह गई है और ना ही सहानुभूति। ऐसा अविष्वास का का माहौल बन गया है जो बच्चे का जिंदगीभर साथ नहीं छोड़ेगा। शिक्षा का व्यापारीकरण कितना खतरनाक होगा, इसका अभी किसी को अंदाजा नहीं है। लेकिन मौजूदा पीढ़ी जब संवेदनहीन हो कर अपने ज्ञान को महज पैसा बनाने की मशीन बना कर इस्तेमाल करना शुरू करेगी, तब समाज और सरकार को इस भूल का एहसास होगा। साफ जाहिर होता है कि शिक्षा व्यवस्था अराजकता और अंधेरगर्दी के ऐस गलियारे में खड़ी है जहां से एक अच्छा नागरिक बनने की उम्मीद करना बेमानी ही होगा। ऐसे में एक ही विकल्प पेश है- सभी को एक समान स्कूली शिक्षा।
कहा जाता है कि उन दिनों ज्ञानार्जन का अधिकार केवल उच्च वर्ग के लोगों के पास हुआ करता था। इस ‘तथाकथित’ मनुवाद को कोसने का इन दिनों कुछ फैशन-सा चला है, या यों कहें कि इसे सियासत की सहज राह कहा जा रहा हैं। लेकिन आज की खुले बाजार वाली मुक्त अर्थव्यवस्था से जिस नये ‘मनीवाद’ का जन्म हो रहा है, उस पर चहुं ओर चुप्पी है। लक्ष्मी साथ है तो सरस्वती के द्वार आपके लिए खुले हैं, अन्यथा सरकार और समाज दोनों की नजर में आपका अस्तित्व शून्य है। इस नये ‘मनुवाद’, जो मूल रूप से ‘मनी वाद’ है, का सर्वाधिक शिकार प्राथमिक शिक्षा ही रही हैं। यह सर्वविदित है कि प्राथमिक शिक्षा किसी बच्चे के भविष्‍य की बुनियाद है। हमारे देश में प्राथमिक स्तर पर ही शिक्षा लोगों का स्तर तय कर रही है। एक तरफ कंप्यूटर, ए.सी., खिलौनो से सज्जित स्कूल हैं तो दूसरी ओर ब्लेक बोर्ड, शौचालय जैसी मूलभूत जरूरत को तरसते बच्चे।
दिल्ली हो या भोपाल या फिर रांची या नागपुर, ं दो-ढाई साल के बच्चों का प्री-स्कूल प्रवेश चुनाव लड़ने के बराबर कठिन माना जाता हैं। यदि जुगाड़ लगा कर कोई मध्यम वर्ग का बच्चा इन बड़े स्कूलों में पहुंच भी जाए तो वहां के ढंकोसले-चोंचले झेलना उसके बूते के बाहर होता है। ठीक यही हालात देश के अन्य महानगरों का भी है। बच्चे के जन्मदिन पर स्कूल के सभी बच्चों में कुछ वितरित करना या ‘ट्रीट’ देना, सालाना जलसों के लिए स्पेशल ड्रेस बनवाना, साल भर में एक-दो पिकनिक या टूर ये ऐसे व्यय हैं, जिन पर हजारों का खर्च यूं ही हो जाता है। फिर स्कूल की किताबें, वर्दी, जूते, वो भी स्कूल द्वारा तयशुदा दुकानों से खरीदने पर स्कूल संचालकों के वारे-न्यारे होते रहते हैं।
कोई 16 साल पहले केंद्र सरकार के कर्मचारियों के पांचवे वेतन आयोग के समय दिल्ली सरकार ने फीस बढ़ोतरी के मुद्दे पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय से अवकाश प्राप्त सचिव जे.वी. राघवन की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक कमेटी गठित की थी। इस समिति ने दिल्ली स्कूल एक्ट 1973 में संशोधन की सिफारिश की थी। समिति का सुझाव था कि पब्लिक स्कूलों को बगैर लाभ-हानि के संचालित किया जाना चाहिए। कमेटी ने पाया था कि कई स्कूल प्रबंधन, छात्रों से उगाही फीस का इस्तेमाल अपने दूसरे व्यवसायों में कर रहे हैं। वीराराघवन कमेटी ने ऐसे स्कूलों के प्रबंधन के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की अनुशंसा भी की थीं। कमेटी ने सुझाव दिया था कि छात्रों से वसूले धन का इस्तेमाल केवल छात्रों और शिक्षकों की बेहतरी पर ही किया जाए। उसके बाद पांच साल पहले छठवें वेतन आयोग के बाद भी सरकार ने बंसल कमेटी गठित की, जिसकी सिफारियों पूर्ववत वीराराघवन कमेटी की ही तरह थीं। ये रिपोर्ट बानगी हैं कि स्कूली-शिक्षा अब एक नियोजित ध्ंाधा बन चुका है। बड़े पूंजीपति, औद्योगिक घराने, माफिया, राजनेता अपने धन को काला-गोरा करने के लिए स्कूल खोल रहे हैं। वहां किताबों, वर्दी की खरीद, मौज-मस्ती की पिकनिक या हाॅबी क्लास, सभी मुनाफे का व्यापार बन चुका है। इसके बावजूद इन अनियमितताओं की अनदेखी केवल इसी लिए है क्योंकि स्कूल-माफिया में नेताओं की सीधी साझेदारी है। तिस पर सरकार शिक्षा को मूलभूत अधिकर देने के प्रस्ताव सदन में पारित कर चुकी है।
घूम-फिर कर बात एक बार फिर विद्यालयों के दुकानीकरण पर आ जाती है। शिक्षा का सरकारी सिस्टम जैसे जाम हो गया है। निर्धारित पाठ्यक्रम की पुस्तकें मांग के अनुसार उपलब्ध कराने में एनसीईआरटी सरीखी सरकारी संस्थाएं बुरी तरह फेल रही हैं । जबकि प्राइवेट या पब्लिक स्कूल अपनी मनमानी किताबें छपवा कर कोर्स में लगा रहे हैं। यह पूरा धंधा इतना मुनाफे वाला बन गया है कि अब छोटे-छोटे गांवों में भी पब्लिक या कानवेंट स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं। कच्ची झोपडि़यों, गंदगी के बीच, बगैर माकूल बैठक व्यवस्था के कुछ बेरोजगार एक बोर्ड लटका कर प्राइमरी स्कूल खोल लेते हैं। इन ग्रामीण स्कूलों के छात्र पहले तो वे लोग होते हैं, जिनका पालक पैसे वाले होते हैं और अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना हेठी समझते हैं। फिर कुछ ऐसी अभिभावक, जो खुद तो अनपढ़ होते हैं लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की महत्वाकांक्षा पाले होते हैं, अपना पेट काट कर ऐसे पब्लिक स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने लगते हैं। कुल मिला कर दोष जर्जर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के सिर पर जाता है। जो आम आदमी का विश्वास पूरी तरह खो चुकी है। अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए पालक मजबूरीवश इन शिक्षा की दुकानों पर खुद लुटने को पहुंच जाते हैं। लोग भूल चुके हैं कि दसवीं पंचवर्शीय योजना के समापन तक यानी सन 2007 तक शत-प्रतशित बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का सपना बुना गया था जिसे ध्वंस्त हुए पांच साल बीत चुके हैं।
वैसे स्कूलरूपी दुकानों का रोग कोई दो दशक पहले महानगरों से ही शुरु हुआ था, जो अब शहरों, कस्बों से संक्रमित होता हुआ अब दूरस्थ गांवों तक पहुंच गया है। समाजवाद की अवधारणा पर सीधा कुठाराघात करने वाली यह शिक्षा प्रणाली शुरुआत से ही उच्च और निम्न वर्ग तैयार कर रही है, जिसमें समर्थ लोग और समर्थ होते हैं, जबकि विपन्न लोगों का गर्त में जाना जारी रहता हैं। विश्व बैंक की एक रपट कहती है कि भारत में छह से 10 साल के कोई तीन करोड़ बीस लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत में शिक्षा को ले कर बच्चों-बच्चों में खासा भेदभाव है। लडकों-लड़कियों, गरीब-अमीर और जातिगत आधार पर बच्चों के लिए पढ़ाई के मायने अलग-अलग हैं। रपट के अनुसार 10 वर्ष तक के सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए 13 लाख स्कूली कमरे बनवाने होंगे और 740 हजार नये शिक्षकों की जरूरत होगी।  सरकार के पास खूब बजट है और उसे निगलने वाले कागजी शेर भी। लेकिन मूल समस्या स्कूली शिक्षा में असमानता की है।
प्राथमिक स्तर की शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन ‘देश के भविष्य’ की नैतिक शिक्षा का पहला आदर्श शिक्षक जब तीन हजार पर दस्तखत कर बामुश्किल डेढ़-दो सौ रुपये का भुगतान पा रहा हो तो उससे किस स्तर के ज्ञान की उम्मीद की जा सकती है। जब पहली कक्षा के ऐसे बच्चे को, जिसे अक्षर ज्ञान भी बामुश्किल है, उसे कंप्यूटर की ट्रेनिंग दी जाने लगे, महज इसलिए कि पालकों से इस नाम पर अधिक फीस घसीटी जा सकती है, तो किस तरह तकनीकी शिक्षा प्रसार की बात सोची जा सकती है? प्राइवेट स्कूलों की आय की जांच, फीस पर सरकारी नियंत्रण, पाठ्यक्रम, पुस्तकों आदि का एकरूपीकरण, सरकारी स्कूलों को सुविधा संपन्न बनाना, आला सरकारी अफसरों और जनप्रतिनिधियों के बच्चों की सरकारी स्कूलों में शिक्षा की अनिवार्यता, निजी संस्था के शिक्षकों के सुरक्षित वेतन की सुनिश्चित व्यवस्था सरीखे सुझाव समय-समय पर आते रहे और लाल बस्तों में बंध कर गुम होते रहे हैं।
अतुल्य भारत के सपने को साकार करने की प्राथमिक जरूरत स्तरीय प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य पाने के केवल एकमात्र तरीका है- स्कूली शिक्षा का राष्‍ट्रीयकरण। अपने दो या तीन वर्ग किलोमीटर के दायरे में आने वाले स्कूल में प्रवेश पाना सभी बच्चों का हक हो, सभी स्कूलों की सुविधाएं, पुस्तकें, फीस एकसमान हो, मिड डे मील सभी को एक जैसा मिले अैार कक्षा आठ तक के सभी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम मातृ-भाषा होे। फिर ना तो भगवा या लाल किताबों का विवाद होगा और ना ही मदरसों की दुर्दशा पर चिंता। यह सब करने में खर्चा भी अधिक नहीं है, बस जरूरत होगी तो इच्छा शक्ति की। जो अभिभावक नामचीन निजी स्कूलों में अपने बच्चों के एडमीशन के लिए लाखों रूपए डोनेशन देते हैं वे यदि इस पैसा का एक अंश अपने घर के पास के सरकारी स्कूल में लगाएंगे, जहां उनका बच्चा पढ़ता है तो स्कूल स्तर पर विषमता की खाई आसानी से पाटी जा सकेगी।
9891928376


शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

Education and youth policy can divert youth from terrorism

जब कभी आतंकवाद का सवाल आता है हम बंदूकें, सुरक्षा को आंकने लेगते हैं, असल में हमें अपनी शिक्षा व युवा नीति को ही इस तरह बनाना होगा कि कोई युवा राह ना भटक पाए, हमारी पुस्‍तकों में कहीं कमी है कि उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त किसी युवा को घटिया से धर्म गुरू भडका कर अपने रंग में रंग लेता है, इस वषिय पर मेरा लेख आज जयपुर के 'डेली न्‍यूज' में है, इसका लिंक है http://dailynewsnetwork.epapr.in/399…/Daily-news/20-12-2014…
यह ज्‍यादा ही संपादित है इसका पूरा हिस्‍सा मेरे ब्‍लाग पर पढ सकते हैं pankajbooks.blogspot.com

आतंकवाद और चैाराहे पर खड़े युवाओं के सवाल

                                     ...पंकज चतुर्वेदी

जब कहीं कोई बम धमाका होता है तो कोई सुरक्षा व्यवस्था को लचर कहता है, तो कोई कैमरे लगाने की मांग ; एक वर्ग पाकिस्तान पर हमला करने का उन्माद फैलाने लगता है ; कोई चाहता है कि पोटा फिर से ले आओ तो कोई भारत में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी की कारस्तानी को युवाओं से जोड़ कर जाहिरा बयान देता है। । लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि उनके सुझावों को मान लिया जाए या फिर उन सभी बातों को भी मान लिया जाए  तो भी देष-दुनिया को दहशतगर्दी से पूरी मुक्ति मिल जाएगी।  असल सवाल कहीं गौण है कि आखिर हमारी युवा नीति (वैसे तो ऐसी कोई नीति है ही नहीं ) में  क्या ऐसी कमी है कि हमारा युवा अपने ही लोगों के खिलाफ हथियार उठा रहा है। बीते कुछ सालों में यह देखा गया है कि हमारे देश में घटित अधिकांश आतंकवादी घटनाओं में हमारे देश के ही युवा शामिल रहे हैं। यही नहीं इनमें से कई खासे पढ़े-लिखे भी हैं। यह और तकलीफदेह है कि ऐसे युवा या तो आंचलिक ग्रामीण इलाके के हैं या फिर छोटे कस्बों के। हां, इस हकीकत को स्वीकारने के लिए दिल्ली-पटना के धमाकों के साथ-साथ छत्तीसगढ़-झाारखंड की नक्सली हिंसा, उत्तर-पूर्व के संघर्षों को भी एक साथ आंकना-परखना होगा।
यह शक के दायरे में है कि हमारा राजनीतिक नेतृृत्व देश के युवा का असली मर्म समझ पा रहा है। महंगाई की मार के बीच उच्च षिक्षा प्राप्त युवाओं का रोजगार, घाटे का सौदा होती खेती और विकास के नाम पर हस्तांतरित होते खेत, पेट भरने व सुविधाओं के लिए शहरों की ओर पलायन। ग्रामीण युवाओं की ये दिक्कतें क्या हमारे नीति निर्धारकों की समझ में है? क्या भारत के युवा को केवल रोजगार चाहिए ? उसके सपने का भारत कैसा है ? वह सरकार और समाज में कैसी भागीदारी चाहता है? ऐसे ही कई सवाल तरूणाई के ईर्दगिर्द टहल रहे हैं, लगभग अनुत्तरित से। तीन दशक पहले तक कालेज  सियासत के ट्रेनिंग सेंटर होते थे, फिर छात्र राजनीति में बाहरी दखल इतना बढा कि एक औसत परिवार के युवा के लिए छात्र संघ का चुनाव लड़ना असंभव ही हो गया। युवा मन की वैचारिक प्रतिबद्धता जाति,धर्म, क्षेत्र जैसे खांचों में बंट गई है और इसका असर देश की राजनीति पर भी दिख रहा है। कल तक एक पार्टी को कोसने वाला अगले ही दिन दल बदल लेता है, बगैर किसी संकोच-शर्म के।
सरकारी मीडिया हो या स्वयंसेवी संस्थाएं, जिस ने भी युवा वर्ग का जिक्र किया तो, अक्सर इसका ताल्लुक शहर में पलने वाले कुछ सुविधा-संपन्न लड़के-लड़कियों से ही रहा । जींस और रंग बिंरगी टोपियां लगाए, लबों पर फर्राटेदार हिंगरेजी और पश्चिमी सभ्यता का अधकचरा मुलम्मा चढ़े युवा । यह बात भूला ही दी जाती है कि इनसे कहीं पांच गुनी बड़ी और इनसे बिलकुल भिन्न युवा वर्ग की ऐसी भी दुनिया है, जो देश पांच लाख गांवों में हैं । तंगी, सुविधाहीनता व तमाम उपेक्षाओं की गिरफ्त में फंसी एक पूरी कुंठित पीढ़ी । गांव की माटी से उदासीन और शहर की चकाचैंाध छू लेने की ललक साधे युवा शक्ति । भारतीय संस्कार, संस्कृति और सभ्यता की महक अभी कहीं शेष है तो वह है ग्रामीण युवा पीढ़ी । यथार्थता, जिंदादिली और अनुशासन सरीखे गुणों को शहरी सभ्यता लील चुकी है । एक तरफ ग्रामीण युवक तत्पर, मेहनती, संलग्नशील व विश्वसनीय है तो दूसरी ओर नारों, हड़तालों और कृत्रिम सपनों में पले-पघे शहरी युवा । वस्तुतया कुशल जन-बल के निर्माण के लिए ग्रामीण युवक वास्तव में ‘कच्चे माल’ की तरह है , जिसका मूल्यांकन कभी ठीक से किया ही नहीं जाता और लाजिमी है कि उनके विद्रोह हो कोई सा भी रंग दे दिया जाता है।
गांवों में आज ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट डिग्रीधारी युवकों के बजाए मध्यम स्तर तक पढ़े-लिखे और कृषि-तकनीक में पारंगत श्रमशील युवाओं की भारी जरूरत है । अतः आंचलिक क्षेत्रों में डिग्री कालेज खोलने के बनिस्पत वहां खेती-पशुपालन-ग्रामीण प्रबंधन के प्रायोगिक प्रशिक्षण संस्थान खोलना ही उपयोगी होगा । ऐसे संस्थानों में माध्यमिक स्तर की शिक्षा के बाद एक साल के कोर्स रखे जा सकते हैं, साथ ही वहां आए  युवकों को रोजगार की गारंटी देना होगा । इस तरह प्रशिक्षित युवकों का गांव में रहने व ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ओर रुझान खुद-ब-खुद आएगा । इससे एक तो गांवों में आधुनिकता की परिभाषा खुद की तय होगी साथ ही ग्रामीण युवाओं को शहर भागने या अज्ञात भविष्य के लिए शून्य में भटकने की नौबत नहीं आएगी ।
सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश को ओलंपिक या अन्य अंतरराष्ट्ररीय खेलों में कम पदक मिलने पर सड़क से संसद तक चर्चा होती रहीं है । लेकिन क्या कभी किसी ने खयाल किया कि खेलनीति के सरकारी बजट का कितना हिस्सा जन्मजात खिलाड़ी यानि ग्रामीण युवकों पर खर्च होता है । ग्रामीण खेलों की सरकारी उपेक्षा का दर्दनाक पहलू हरियाणा, झारखंड या उत्तर-पूर्वी राज्यों में देखा जा सकता है वहां गांव-गांव में खेल की परंपरा रही है । इनमें बेहतरीन खिलाड़ी छोटी उम्र में तैयार किए जाते थे । उन्हें कभी सरकारी प्रश्रय मिला नहीं । सो धीरे-धीरे से अखाड़े अपराधियों के अड्डे बन गए। अब ठेका हथियाने, जमीन कब्जाने या चुनावों में वोट लूटने सरीखे कार्यों में इन अखाड़ों व खिलाडि़यों का उपयोग आम बात है । जरूरत है तो बस उन्हें थोड़े से प्रशिक्षण और प्रतियोगिताओं के कानून-कायदें सिखाने की । काष गांवों में खेल-कूद प्रशिक्षण का सही जरिया बन पाए।
एक बात और, इस समय देष का लेाकतंत्र गांवों की ओर जा रहा है, लाखों पंच, सरपंच, पार्षद नेतृत्व की नई कतार तैयार कर रहे हैं। इन लोगों को सही प्रशिक्षण मिले- योजना बनाने, क्रियान्वयन और वित्तीय प्रबंधन का, इन लोगों को अवसर मिलें, नए भारत के निर्माण में, इन लोगों को प्रसिद्धी मिले दूरस्थ गांवों, मजरों में पसीना बहाने पर ; क्या कोई ऐसी योजना सरकार तैयार कर पाएगी ?
गांवों में बसने वाले तीन चैथाई नवयुवकों की उपेक्षा से कई राष्ट्रीय स्तर पर कई समस्याएं भी खड़ी हो रही हैं । कश्मीर हो या उत्तर-पूर्व, जहां भी सशस्त्र अलगाववाद की हवा बह रही है, वहां हथियार थामने वाले हाथों में ग्रामीण युवाओं की संख्या ही अधिक हैं । हमारी शिक्षा में कुछ बात तो ऐसी है कि वह ऐसे युवाओं को देश, राष्‍ट्रवाद, जैसी भावनाओं से परिपूर्ण नहीं कर पाया। क्रिकेट के मैदान पर तिरंगे ले कर उधम मचाने वाले युवाओं का भी देष-प्रेम के प्रति दृश्टिकोण महज नेताओं को गाली देने या पाकिस्तान को मिटा देने तक ही सीमित है। यह हमारी पाठ्य पुस्तकों  और उससे उपज रही शिक्षा का खोखला दर्शन नहीं तो और क्या है ? बातें युवाओं की लेकिन नीति में दिशाहीन, अनकहे सवालों से जझते युवा ।





 

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

Travels of The First Russian Traveller to Indiaअफ़नासी निकीतीन की भारत यात्रा: Travels of The First Russian Traveller to India by पंकज चतुर्वेदी (Pankaj Chaturvedi) Paperback (Edition: 2011) National Book Trust India

अफ्नासी निकितिन कि भारत यात्रा

by पंकज चतुर्वेदी (Pankaj Chaturvedi)
Paperback (Edition: 2011)
National Book Trust India
पुस्तक के विषय में
प्राचीन काल से ही मध्य एशिया और रूस के बीच सशक्त सांस्कृतिक बंधन रहे हैं । उफनते समुद्रोंखतरनाक रेगिस्तानों और ऊंचे-ऊंचे पर्वतों को पार करते हुए कई बौद्ध भिक्षु व व्यापारी इधर से उधर आते-जाते रहेलेकिन उनकी रोमांचकारी यात्राओं के बहुत कम विवरण लोगों तक पहुंच पाए हैं ।
वास्को हि गामा से 25 साल पहले भारत की धरती पर कदम रखने वाला पहला यूरोपीय अफ़नासी निकीतीन मूल रूप से रूस का रहने वाला था । वह सन् 1466 से 1475 के बीच लगभग तीन वर्ष तक भारत में रहा । अफ़नासी निकीतीन को पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत की यात्रा कर अपने अनुभवों को लिखने वाला पहला रूसी माना जाता है । उसका जन्म आज के कलीनीन (त्वेरमें हुआ था । यहां पर दो छोटी नदियां महान नदी वोल्गा में मिलती हैं । त्वेर उस समय का संपन्न नगर व व्यापार का मुख्य केंद्र हुआ करता था । वह लगभग छह साल तक भारत की यात्रा पर रहा और इस दौरान उसने यहां के राज-काजसमाजसंस्कृतिखानपान को करीब से देखा । चूंकि वह कोई तीर्थ-यात्री नहीं थाअतउसने एक आम आदमी या व्यापारी के तौर पर सभी बातों का आकलन किया है ।
हमें कई नाम अटपटे लगेंगेकई घटनाएं अविश्वसनीय व भ्रामक लगेंगीलेकिन यह एक विदेशी का हमारे देश को समझने का नजरिया कहा जा सकता है ।
पंकज चतुर्वेदी नेशनल बुक ट्रस्ट के संपादकीय विभाग से संबद्ध हैं तथा कई पुस्तकों के लेखक व अनुवादक हैं ।
भूमिका
लंबी दूरी और दुनिया की सबसे ऊंची पर्वतमालाएं रूस और भारत को बहुत दूरी पर ला देती हैं । हालांकि दोनों देशों के संबंध सदैव मधुर व स्वाभाविक मित्र के रहे हैं । अफ़नासी निकीतीन भारत की यात्रा करने वाला पहला रूसी था । त्वेर्त्सा व त्मागा नदियों के वोल्गा से संगम-तट पर स्थित त्वेर नगर (अब कालीनीनमें जन्मे निकीतीन ने किसी से सुना कि भारत में घोड़े नहीं पाले जाते हैं और तभी वहां घोड़े बहुत महंगे बिकते हैं । उसने सोचा कि वह भारत में घोड़े को बेचेगा और उससे मिले बहुत से धन से ऐसी चीजें खरीद लाएगाजो रूस में महंगी मिलती हैं ।
यह त्वेर शहर के लोगों की फितरत ही कहा जा सकता है कि यहां हर दूसरा आदमी विदेश में व्यापार करने को लालायित रहता था । 15वीं शताब्दी में त्वेर को रूस का व्यापारिक केंद्र माना जाता था । यहां की संपन्नता सड्कों और मकानों पर स्पष्ट दिखती थी । इस विवरण को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि निकीतीन भी व्यापार करने के लिए विदेशों की यात्रा करने वाला उत्साही युवा था । वह जिस तरह से जार्जियातुर्की आदि देशों के बारे में लिखता हैउससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वह उन देशों से पहले से ही परिचित था ।
कहा जाता है कि शिर्वान रियासत का राजदूत एक दिन मास्को के ग्रैंड ड्यूक इवान तृतीय के दरबार में आया। उसके द्वारा लाए गए तोहफों से ड्यूक बेहद प्रसन्न हुआ और उसने वसीली पापिन को अपना दूत बना कर शिर्वान के दरबार में भेजा । जब यह खबर निकीतीन व कुछ अन्य व्यापारियों ने सुनी तो वे भी शिर्वान के लिए रवाना हो गए । ये लोग दो जलपोत पर सवार थे। इस तरह निकीतीन की महान यात्रा शुरू हुई । निकीतीन की लेखनी से अनुमान लगता है कि उसने वसीली पापिन के साथ सन् 1466 में अपनी यात्रा प्रारंभ की थी । ये लोग वोल्गा नदी के रास्ते अस्त्राखान के शहर पहुंचे । यहां उनके एक जहाज को लुटेरों ने लूट लिया। उनका दूसरा जहाज केस्पियन सागर में तूफान की चपेट में आ कर नष्ट हो गया । अपने जहाज और सारा सामान गंवा देने के बाद भी निकीतीन ने हिम्मत नहीं हारी और वह जैसे-तैसे भारत की ओर बढ़ता गया ।
वास्को डि गामा से 25 साल पहले भारत की धरती पर कदम रखने वाला पहला यूरोपीय अफ़नासी निकीतीन मूल रूप से रूस का रहने वाला था । वह सन् 1466 से 1475 के बीच लगभग तीन वर्ष तक भारत में रहा । निकीतीन रूस से चल कर जार्जियाअरमेनियाईरान के रास्ते मुंबई पहुंचा था । सन् 1475 में वह अफ्रीका होता हुआ वापिस लौटा,लेकिन अपने घर त्वेर पहुंचने से पहले ही उसका निधन हो गया । निकीतीन द्वारा भारत-यात्रा पर तैयार नोट्स को19वीं सदी में रूस के जाने-माने इतिहासविद् एन.एमकरामजीन ने खोजा था ।
निकीतीन ने भारत में तीन साल बिताएलेकिन उसकी यात्रा छह साल की रही । उन दिनों समुद्री यात्रा में कितना अधिक समय लगता थाइसकी बानगी कई जगह देखने को मिलती है। पांच सौ से अधिक साल पहले लिखा गया यह यात्रा विवरण इस बात का साक्षी है कि विदेशियों के लिए भारत सदैव से अचंभेअनबुझी पहेली की तरह रहा है। उसने मूर्ति-पूजा को 'बुतपरस्ती'गणेश व हनुमान को क्रमशहाथी व वानर के मुंह वाले देवता के रूप में लिखा है।
निकीतीन ने कई खतरे उठाएकई बार वह लूट लिया गया । उन दिनों समुद्र की यात्रा भी बेहद जोखिम भरी हुआ करती थी । वह पूरे फारस को पार कर के पूर्व के सबसे बड़े बंदरगाह होर्मुज जा पहुंचा। यहां उसने एक घोड़ा खरीदा,ताकि उसे भारत ले जा कर बेचा जा सके । यह हिम्मती व्यापारी एक छोटे से जलपोत में सवार हो कर हिंद महासागर में आ गया और उसका पहला पड़ाव चौल राज्य था। उसने इसी को हिंदुस्तान या भारत माना। निकीतीन ने केवल समुद्र तट से सटे दक्षिणी भारत की ही यात्रा की थी । उसके यात्रा विवरण में विजय नगर साम्राज्यगुलबर्ग,बीदरगोलकुंडा जैसे स्थानों का उल्लेख हैजो कि आज भी मशहूर हैं। निकीतीन की अवलोकन-दृष्टि भले ही कहीं-कहीं अतिशयोक्ति से परिपूर्ण लगती होलेकिन वह विभिन्न नगरों में मिलने वाले उत्पादोंधार्मिक अनुष्ठानोंजाति प्रथा पर टिप्पणी अवश्य करता है। विभिन्न राजाओं के वैभवपराक्रम और शानो-शौकत पर भी उसने ढेर सारी जानकारी दी है। कुल मिला कर यह यात्रा-वृतांत मनोरंजक और सूचनाप्रद है।

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...