My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

For Educational eqaulity Nationalised the school education

फिर क्यों ना हो शिक्षा का राष्‍ट्रीयकरण ?


                                                                  पंकज चतुर्वेदी

दिल्ली-एनसीआर में नर्सरी स्कूलों में एडमिशन को ले कर बवाल हो रहा है। कहीं फार्म की मनमानी कीमतों को ले कर असंतुष्‍िटि है तो कोई सरकार द्वारा तय मानदंडों का पालन ना होने से रूष्‍ट। हालत इतने बदतर हैं कि तीन साल के बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाने के लिए कई महीनों से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमें चल रहे हैं और ना तो पालक और ना ही स्कूल इससे संतुष्‍ट हैं।  नर्सरी का दाखिला आईआईटी की फीस से भी महंगा हो गया है। कुल मिला कर देखें तो देष में स्कूली शिक्षा पर सरकार और समाज अफरात खर्च कर रहे हैं और कोई भी संतुष्‍ट नहीं है। देश मंे आज भी प्राईमरी स्तर के 75 फीसदी स्कूल सरकारी हैं और वहां पढ़ाई की गुणवत्ता इतनी कमजोर है कि 45 फीसदी से ज्यादा बच्चे कक्षा पांच के आगे पढ़ने के लायक नहीं होते हैं।
प्रजातंत्र लाईव 21 दिसंबर 2014 http://www.readwhere.com/read/400092/Prajatantra-Live/issue-216#page/9/1  

राजधानी से सटे गाजियाबाद के कई नामचीन स्कूलों में बढ़ी फीस का झंझट अब थाना-पुलिस कोतवाली तक पहुंच गया है। स्कूल वाले बच्चों को प्रताडि़त कर रहे हैं तो अभिभावक पुलिस के पास गुहार लगा रहे हैं। स्कूल हाईकोर्ट की शरण में है तो पालक नेताओं की। इस मारामारी में आम निम्न-मध्यमवर्गीय आदमी की बुद्धि जाम सी हो गई है। माहौल ऐसा हो गया है कि बच्चों के मन में स्कूल या शिक्षक के प्रति कोई श्रद्धा नहीं रह गई है। वहीं स्कूल वालों की बच्चों के प्रति ना तो संवेदना रह गई है और ना ही सहानुभूति। ऐसा अविष्वास का का माहौल बन गया है जो बच्चे का जिंदगीभर साथ नहीं छोड़ेगा। शिक्षा का व्यापारीकरण कितना खतरनाक होगा, इसका अभी किसी को अंदाजा नहीं है। लेकिन मौजूदा पीढ़ी जब संवेदनहीन हो कर अपने ज्ञान को महज पैसा बनाने की मशीन बना कर इस्तेमाल करना शुरू करेगी, तब समाज और सरकार को इस भूल का एहसास होगा। साफ जाहिर होता है कि शिक्षा व्यवस्था अराजकता और अंधेरगर्दी के ऐस गलियारे में खड़ी है जहां से एक अच्छा नागरिक बनने की उम्मीद करना बेमानी ही होगा। ऐसे में एक ही विकल्प पेश है- सभी को एक समान स्कूली शिक्षा।
कहा जाता है कि उन दिनों ज्ञानार्जन का अधिकार केवल उच्च वर्ग के लोगों के पास हुआ करता था। इस ‘तथाकथित’ मनुवाद को कोसने का इन दिनों कुछ फैशन-सा चला है, या यों कहें कि इसे सियासत की सहज राह कहा जा रहा हैं। लेकिन आज की खुले बाजार वाली मुक्त अर्थव्यवस्था से जिस नये ‘मनीवाद’ का जन्म हो रहा है, उस पर चहुं ओर चुप्पी है। लक्ष्मी साथ है तो सरस्वती के द्वार आपके लिए खुले हैं, अन्यथा सरकार और समाज दोनों की नजर में आपका अस्तित्व शून्य है। इस नये ‘मनुवाद’, जो मूल रूप से ‘मनी वाद’ है, का सर्वाधिक शिकार प्राथमिक शिक्षा ही रही हैं। यह सर्वविदित है कि प्राथमिक शिक्षा किसी बच्चे के भविष्‍य की बुनियाद है। हमारे देश में प्राथमिक स्तर पर ही शिक्षा लोगों का स्तर तय कर रही है। एक तरफ कंप्यूटर, ए.सी., खिलौनो से सज्जित स्कूल हैं तो दूसरी ओर ब्लेक बोर्ड, शौचालय जैसी मूलभूत जरूरत को तरसते बच्चे।
दिल्ली हो या भोपाल या फिर रांची या नागपुर, ं दो-ढाई साल के बच्चों का प्री-स्कूल प्रवेश चुनाव लड़ने के बराबर कठिन माना जाता हैं। यदि जुगाड़ लगा कर कोई मध्यम वर्ग का बच्चा इन बड़े स्कूलों में पहुंच भी जाए तो वहां के ढंकोसले-चोंचले झेलना उसके बूते के बाहर होता है। ठीक यही हालात देश के अन्य महानगरों का भी है। बच्चे के जन्मदिन पर स्कूल के सभी बच्चों में कुछ वितरित करना या ‘ट्रीट’ देना, सालाना जलसों के लिए स्पेशल ड्रेस बनवाना, साल भर में एक-दो पिकनिक या टूर ये ऐसे व्यय हैं, जिन पर हजारों का खर्च यूं ही हो जाता है। फिर स्कूल की किताबें, वर्दी, जूते, वो भी स्कूल द्वारा तयशुदा दुकानों से खरीदने पर स्कूल संचालकों के वारे-न्यारे होते रहते हैं।
कोई 16 साल पहले केंद्र सरकार के कर्मचारियों के पांचवे वेतन आयोग के समय दिल्ली सरकार ने फीस बढ़ोतरी के मुद्दे पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय से अवकाश प्राप्त सचिव जे.वी. राघवन की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक कमेटी गठित की थी। इस समिति ने दिल्ली स्कूल एक्ट 1973 में संशोधन की सिफारिश की थी। समिति का सुझाव था कि पब्लिक स्कूलों को बगैर लाभ-हानि के संचालित किया जाना चाहिए। कमेटी ने पाया था कि कई स्कूल प्रबंधन, छात्रों से उगाही फीस का इस्तेमाल अपने दूसरे व्यवसायों में कर रहे हैं। वीराराघवन कमेटी ने ऐसे स्कूलों के प्रबंधन के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की अनुशंसा भी की थीं। कमेटी ने सुझाव दिया था कि छात्रों से वसूले धन का इस्तेमाल केवल छात्रों और शिक्षकों की बेहतरी पर ही किया जाए। उसके बाद पांच साल पहले छठवें वेतन आयोग के बाद भी सरकार ने बंसल कमेटी गठित की, जिसकी सिफारियों पूर्ववत वीराराघवन कमेटी की ही तरह थीं। ये रिपोर्ट बानगी हैं कि स्कूली-शिक्षा अब एक नियोजित ध्ंाधा बन चुका है। बड़े पूंजीपति, औद्योगिक घराने, माफिया, राजनेता अपने धन को काला-गोरा करने के लिए स्कूल खोल रहे हैं। वहां किताबों, वर्दी की खरीद, मौज-मस्ती की पिकनिक या हाॅबी क्लास, सभी मुनाफे का व्यापार बन चुका है। इसके बावजूद इन अनियमितताओं की अनदेखी केवल इसी लिए है क्योंकि स्कूल-माफिया में नेताओं की सीधी साझेदारी है। तिस पर सरकार शिक्षा को मूलभूत अधिकर देने के प्रस्ताव सदन में पारित कर चुकी है।
घूम-फिर कर बात एक बार फिर विद्यालयों के दुकानीकरण पर आ जाती है। शिक्षा का सरकारी सिस्टम जैसे जाम हो गया है। निर्धारित पाठ्यक्रम की पुस्तकें मांग के अनुसार उपलब्ध कराने में एनसीईआरटी सरीखी सरकारी संस्थाएं बुरी तरह फेल रही हैं । जबकि प्राइवेट या पब्लिक स्कूल अपनी मनमानी किताबें छपवा कर कोर्स में लगा रहे हैं। यह पूरा धंधा इतना मुनाफे वाला बन गया है कि अब छोटे-छोटे गांवों में भी पब्लिक या कानवेंट स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं। कच्ची झोपडि़यों, गंदगी के बीच, बगैर माकूल बैठक व्यवस्था के कुछ बेरोजगार एक बोर्ड लटका कर प्राइमरी स्कूल खोल लेते हैं। इन ग्रामीण स्कूलों के छात्र पहले तो वे लोग होते हैं, जिनका पालक पैसे वाले होते हैं और अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना हेठी समझते हैं। फिर कुछ ऐसी अभिभावक, जो खुद तो अनपढ़ होते हैं लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की महत्वाकांक्षा पाले होते हैं, अपना पेट काट कर ऐसे पब्लिक स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने लगते हैं। कुल मिला कर दोष जर्जर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के सिर पर जाता है। जो आम आदमी का विश्वास पूरी तरह खो चुकी है। अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए पालक मजबूरीवश इन शिक्षा की दुकानों पर खुद लुटने को पहुंच जाते हैं। लोग भूल चुके हैं कि दसवीं पंचवर्शीय योजना के समापन तक यानी सन 2007 तक शत-प्रतशित बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का सपना बुना गया था जिसे ध्वंस्त हुए पांच साल बीत चुके हैं।
वैसे स्कूलरूपी दुकानों का रोग कोई दो दशक पहले महानगरों से ही शुरु हुआ था, जो अब शहरों, कस्बों से संक्रमित होता हुआ अब दूरस्थ गांवों तक पहुंच गया है। समाजवाद की अवधारणा पर सीधा कुठाराघात करने वाली यह शिक्षा प्रणाली शुरुआत से ही उच्च और निम्न वर्ग तैयार कर रही है, जिसमें समर्थ लोग और समर्थ होते हैं, जबकि विपन्न लोगों का गर्त में जाना जारी रहता हैं। विश्व बैंक की एक रपट कहती है कि भारत में छह से 10 साल के कोई तीन करोड़ बीस लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत में शिक्षा को ले कर बच्चों-बच्चों में खासा भेदभाव है। लडकों-लड़कियों, गरीब-अमीर और जातिगत आधार पर बच्चों के लिए पढ़ाई के मायने अलग-अलग हैं। रपट के अनुसार 10 वर्ष तक के सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए 13 लाख स्कूली कमरे बनवाने होंगे और 740 हजार नये शिक्षकों की जरूरत होगी।  सरकार के पास खूब बजट है और उसे निगलने वाले कागजी शेर भी। लेकिन मूल समस्या स्कूली शिक्षा में असमानता की है।
प्राथमिक स्तर की शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन ‘देश के भविष्य’ की नैतिक शिक्षा का पहला आदर्श शिक्षक जब तीन हजार पर दस्तखत कर बामुश्किल डेढ़-दो सौ रुपये का भुगतान पा रहा हो तो उससे किस स्तर के ज्ञान की उम्मीद की जा सकती है। जब पहली कक्षा के ऐसे बच्चे को, जिसे अक्षर ज्ञान भी बामुश्किल है, उसे कंप्यूटर की ट्रेनिंग दी जाने लगे, महज इसलिए कि पालकों से इस नाम पर अधिक फीस घसीटी जा सकती है, तो किस तरह तकनीकी शिक्षा प्रसार की बात सोची जा सकती है? प्राइवेट स्कूलों की आय की जांच, फीस पर सरकारी नियंत्रण, पाठ्यक्रम, पुस्तकों आदि का एकरूपीकरण, सरकारी स्कूलों को सुविधा संपन्न बनाना, आला सरकारी अफसरों और जनप्रतिनिधियों के बच्चों की सरकारी स्कूलों में शिक्षा की अनिवार्यता, निजी संस्था के शिक्षकों के सुरक्षित वेतन की सुनिश्चित व्यवस्था सरीखे सुझाव समय-समय पर आते रहे और लाल बस्तों में बंध कर गुम होते रहे हैं।
अतुल्य भारत के सपने को साकार करने की प्राथमिक जरूरत स्तरीय प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य पाने के केवल एकमात्र तरीका है- स्कूली शिक्षा का राष्‍ट्रीयकरण। अपने दो या तीन वर्ग किलोमीटर के दायरे में आने वाले स्कूल में प्रवेश पाना सभी बच्चों का हक हो, सभी स्कूलों की सुविधाएं, पुस्तकें, फीस एकसमान हो, मिड डे मील सभी को एक जैसा मिले अैार कक्षा आठ तक के सभी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम मातृ-भाषा होे। फिर ना तो भगवा या लाल किताबों का विवाद होगा और ना ही मदरसों की दुर्दशा पर चिंता। यह सब करने में खर्चा भी अधिक नहीं है, बस जरूरत होगी तो इच्छा शक्ति की। जो अभिभावक नामचीन निजी स्कूलों में अपने बच्चों के एडमीशन के लिए लाखों रूपए डोनेशन देते हैं वे यदि इस पैसा का एक अंश अपने घर के पास के सरकारी स्कूल में लगाएंगे, जहां उनका बच्चा पढ़ता है तो स्कूल स्तर पर विषमता की खाई आसानी से पाटी जा सकेगी।
9891928376


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