My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 30 अप्रैल 2023

Amendment in law can destroy traditional forest

 इससे तो जंगल और खत्म हो जाएंगे

 सरकारी दस्तावेज देखकर खुश होइए कि देश में जंगल बढ़ रहे। दरअसलआपके मुहल्ले की हरियाली भी वन क्षेत्र में शामिल की जा रही। नए विधेयक से वन क्षेत्र और कम होने की आशंका

-- --


वैश्विक तौर परजंगलों की स्वीकार्य परिभाषा यह है कि एक हेक्टेयर इलाके में कम-से-कम 10 प्रतिशत पेड़ों से आच्छादित इलाका हो। लेकिन भारत में आंकड़े दिखाने के लिए इसमें बाग-बगीचोंचाय बागानोंव्यावसायिक पौधरोपणोंपान के बरेजों और यहां तक कि हाउसिंग सोसाइटियों में रोपे गए पौधोंयहां तक उपनगरीय इलाकों में एक कतार में लगे पेड़ों को भी अचानक इसमें ’जंगल’ के तौर पर को भी शामिल कर लिया गया। इसलिए आश्चर्य नहीं कि आधिकारिक रिपोर्टों में दावा किया जा रहा है कि वन क्षेत्र बढ़ रहा है

-- --

पंकज चतुर्वेदी



-- --

भाजपा सांसद मेनका गांधी ने 2019 में संसद में चेताया था कि सेटेलाइट से ली गई तस्वीरें भ्रमित करने वाली हो सकती हैं। उन्होंने तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से कहा था कि ऐसी तस्वीरों में गन्ने के खेत को भी जंगल के तौर पर दर्ज किया जा सकता है। दरअसलमंत्री ने इससे पहले दावा किया था कि सिर्फ एक साल में ही वन क्षेत्र एक प्रतिशत तक बढ़ गया है।

मेनका की आशंका गलत नहीं थी। इंडियन एक्सप्रेस ने खबर दी है कि इस साल के आरंभ में जारी वन रिपोर्ट, 2021 में मंत्रियोंवरिष्ठ अफसरों के बंगलों वाली लुटियन्स दिल्ली और संसद मार्ग के भारतीय रिजर्व बैंक भवनदिल्ली आईआईटी और एम्स के हिस्सों को ’वन क्षेत्र’ के तौर पर दर्ज किया गया है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) भुगतान पर ’वन नक्शा’ उपलब्ध कराता है। उसने इस शर्त के साथ इसे उपलब्ध कराया कि इसकी मीडिया के साथ साझेदारी नहीं की जाएगी। एफएसआई निदेशक ने इस आधार पर इंडियन एक्सप्रेस से बात करने से मना कर दिया कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं है!

नवीनतम रिपोर्ट में दावा किया गया है कि देश के इलाके का लगभग एक च ौथाई हिस्सा वन क्षेत्र है। कागजों में 24.62 प्रतिशत ’वन क्षेत्र’ का विकास हो रहा है। अंतरिक्ष विभाग के अंतर्गत राष्ट्रीय रिमोट सेन्सिंग एजेंसी (एनआरएसए) ने 1971-1975 (16.89 प्रतिशत) और 1980-1982(14.10 प्रतिशत) की अवधि के लिए उपग्रह चित्रों के माध्यम से बताया  था कि केवल सात वर्षों में 2.79 प्रतिशत जंगल गायब हो गए थे। लेकिन 2021 के लिए 24.62 प्रतिशत आंकड़े के लिए बाग-बगीचोंचाय बागानोंव्यावसायिक पौधारोपणोंपान के बरेजों और यहां तक कि हाउसिंग सोसाइटियों में रोपे गए पौधों को भी शामिल कर लिया गया। इसलिए आश्चर्य नहीं कि आधिकारिक रिपोर्टों में दावा किया जा रहा है कि वन क्षेत्र बढ़ रहा है। 

वैश्विक तौर परजंगलों की स्वीकार्य परिभाषा यह है कि एक हेक्टेयर इलाके में कम-से-कम 10 प्रतिशत पेड़ों से आच्छादित इलाका हो। इंडियन स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (आईएसएफआर) में वन की गणना के लिए एक  हेक्टेयर या उससे अधिक के ऐसे सभी भूखंडों  को शामिल किया गया है जहां कम-से-कम 10 प्रतिशत वृक्ष होंफिर वह भूमि चाहे निजी हो बगीचा हो। इसीलिएचाय बागानोंनारियल के सघन पेड़ों वाले इलाकोंआम के बगीचोंहाउसिंग सोसाइटियों के पेड़-पौधोंयहां तक उपनगरीय इलाकों में एक कतार में लगे पेड़ों को भी अचानक इसमें ’जंगल’ के तौर पर शामिल कर लिया गया है। 1990 के दशक में बाद के वर्षों से ऐसा किया जाने लगा और इस तरह भारत के वन क्षेत्र में 38,000 वर्ग किलामीटर तक की बढ़ोतरी हो गई। केरल राज्य का क्षेत्रफल लगभग इतना ही है।

यह बात समझनी होगी कि वन और हरियाली में फर्क होता है। नैसर्गिक जंगलों के पारिस्थितिकीयआर्थिक और सांस्कृतिक मूल्य वृहत्तर होते हैं। नैसर्गिक जंगलों को बनने में सदियों लगते हैं और वे वनस्पतियों और जीवों- दोनों की मदद करते हैं। उनकी जगह तेजी से बढ़ने वाले पेड़-पौधों को उगाने से कुछ होता-जाता नहीं है। लेकिन लगता है कि भारत सरकार का दर्शन यह है कि हर पेड़ की गणना की जा सकती है- भले ही उसकी प्रकृति कुछ भी हो।

नैसर्गिक वन ऐसे लाखों-करोड़ों लोगों को जीवन-यापन और सांस्कृतिक जीवन उपलब्ध कराता है जो तेंदु पत्तेमहुआजंगली फलजलाने की लकड़ीदवाओं आदि समेत अन्य चीजों के लिए जंगल और जंगली उत्पादों पर निर्भर होते हैं। इसके विपरीत पौधरोपण में इस किस्म की जीवन-व्यवस्था का लोप है। ’जंगल उजाड़ने के बदले में किया जाने वाले पौधरोपण’ की तुलना इसी वजह से नैसर्गिं वनों से नहीं की जा सकती।

......   ....

बड़े पैमाने पर जंगलों को काटने से होने वाले बड़े आर्थिक नुकसान और लोगों को होने वाली स्वास्थ्य कठिनाइयों को भी सरकार स्वीकार नहीं करती। 1997 और 2005 के बीच असम में सोनितपुर में बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए। इसस फसलों का नुकसान तो हुआ हीहाथियों और लोगों के बीच संघर्ष में दोनों की जानें गईं और मलेरिया में आठ गुना तक बढ़ोतरी हो गई।

वस्तुतःभारत का 98 देशों में दूसरा स्थान है जहां तेजी से जंगलों को काटा जा रहा है। ब्रिटेन की यूटिलिटी बिडर की रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले 30 साल में भारत में 6,68,400 हेक्टयर वन क्षेत्र कम हुआ है। इसके बाद ब्राजील और इंडोनेशिया का स्थान है। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसारऑनलाइन आवर वर्ल्ड इन डेटा में दिए आंकड़ों से संकेत मिलता है कि 1990 और 2000 के बीच के दशक में भारत में 3,84,000 हेक्टेयर जंगल कम हुए जबकि 2015 और 2020 के बीच के पांच वर्षों में 6,68,400 हेक्टेयर वन क्षेत्र की कमी हुई।

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय एक्शन प्लान के अंतर्गत आठ मिशन में से एक है- राष्ट्रीय मिशन फॉर अ ग्रीन इंडिया (जीआईएम)। इसका मकसद भारत के वन क्षेत्र की रक्षासंरक्षण और इसमें वृद्धि है। इस मिशन के अंतर्गत वन/पेड़ आच्छादन में बढ़ोतरी के लिए वन और गैर वन भूमि पर एक करोड़ हेक्टेयर पौधे लगाना और जहां अभी जंगल हैंवहां की गुणवत्ता बढ़ाना है। इसके अंतर्गत 2015-16 से 2021-22 के बीच 53,377 हेक्टेयर पेड़/वन क्षेत्र बढ़ाना और 1,66,565 हेक्टेयर बंजर जंगलां की गुणवत्ता बेहतर करने का लक्ष्य था। केरल के आरटीआई कार्यकर्ता गोविंदन नमपूथरी के सवाल के जवाब में पर्यावरण मंत्रालय ने स्वीकार किया कि 17 राज्यों के आंकड़े बताते हैं कि 31 दिसंबर, 2022 तक पेड़ आच्छादन/ वन क्षेत्र 26,287 हेक्टेयर तक बढ़े हैं और सिर्फ 1,02,096 हेक्टेयर में वन की गुणवत्ता बढ़ी है। इन योजनाओं के लिए केन्द्र सरकार ने 681 करोड़ आवंटित किए लेकिन इनमें से सिर्फ 525 करोड़ रुपये का उपयोग किया गया।

जंगल की जमीन पर अतिक्रमण कर वहां बस्ती या खेत बसाने के कोई अधिकृत  आंकड़े तो नहीं हैं लेकिन कुछ साल पहले संसद में बताया गया था कि 1951 और 1980 के बीच 42,380 वर्ग किलोमीटर वन भूमि को गैर-वन उपयोग के लिए बदल दिया गया। सनद रहेयह क्षेत्रफल हरियाणा राज्य के बराबर है।

जंगल में आगखननविकास के लिए जमीन-उपयोग के बदलाव की अंधाधुंध मार के बीच भारतीय वन सर्वेक्षण ने 2011 में जो आंकड़े प्रस्तुत किएउससे पता चला कि कागजों पर दर्ज जंगल के एक तिहाई हिस्से पर कोई जंगल नहीं था। दूसरे शब्दों मेंभारत के पुराने प्राकृतिक वनों का लगभग एक तिहाई- 2.44 लाख वर्ग किलोमीटर (उत्तर प्रदेश से बड़ा) या भारत का 7.43 प्रतिशत पहले ही समाप्त हो चुका है।

प्राकृतिक वन सिकुड़ रहे हैं लेकिन आंकड़ों में हरियाली का विस्तार हो रहा है लेकिन जिस तेजी से जंगल का विस्तार  बताया जा रहा हैअसल में यह  संभव ही नहीं है। यह हरियाली व्यावसायिक वृक्षारोपणबागोंग्रामीण घरोंशहरी आवासों के कारण तो है लेकिन यह वन नहीं है।

......  .....

संभवतः इन सवालों के जवाब से बचने के लिए ही केन्द्र सरकार ने लोकसभा में वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 पेश किया जिसका उद्देश्य वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में संशोधन करना है। इसे राज्यसभा की आठ समितियों में से एक- विज्ञानप्रौद्योगिकीपर्यावरण और वन संबंधी संसदीय स्थायी समिति के बजाय संसद की संयुक्त समिति को भेज दिया गया। इसमें कांग्रेस समेत किसी भी प्रमुख विपक्षी दल के सदस्य शामिल नहीं हैं।

कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने इसके खिलाफ राज्यसभा अध्यक्ष जगदीप धनगड़ को लिखा है। उन्होंने लिखा है कि ’वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 को संयुक्त समिति में संदर्भित कर केन्द्र सरकार जानबूझकर स्थायी समिति को बायपास कर रही है जिसमें सभी हितधारकों की पूर्ण भागीदारी है और जो कानून सम्मत दायरे में विधेयक की विस्तृत समीक्षा कर सकती थी।’ वास्तव मेंयह विधेयक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकीपर्यावरणवन और जलवायु परिवर्तन संबंधी संसद की स्थायी समिति के अधिकार क्षेत्र में आता है और किसी भी संशोधन या सुझाव के लिए संसदीय स्थायी समिति ही उत्तरदायी होती है।

इस बिल की प्रस्तावना ही कह देती है कि इसका असल उद्देश्य पैसा कमाना है। विधेयक की प्रस्तावना में ‘आर्थिक आवश्यकताएं’ शब्द शामिल है। यह कहता है कि ’वनों के संरक्षणप्रबंधन और बहालीपारिस्थितिकीय सुरक्षा को बनाए रखनेवनों के सांस्कृतिक और पारंपरिक मूल्यों को बनाए रखने और आर्थिक आवश्यकताओं और कार्बन तटस्थता को सुविधाजनक बनाने से संबंधित प्रावधान प्रदान करना आवश्यक है।’

संशोधन बिल के प्रावधान यदि लागू हो गए तो कई जंगलों की कटाई के लिए अनापत्ति (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) की औपचारिकता समाप्त हो जाएगी। यह कहता है कि अंतरराष्ट्रीय सीमा के 100 किलोमीटर के भीतर सार्वजनिक सड़करक्षा और अर्धसैनिक बलों के लिए प्रतिष्ठान वन भूमि पर बनाए जा सकेंगे। यह रेलवे और सड़कों (0.10 हेक्टेयर तक) के साथ-साथ वन भूमि को भी छूट देता है। छूट की सूची में अब चिड़ियाघर/सफारी की स्थापनाप्रबंधन योजना में शामिल इकोटूरिज्म सुविधाएंकेन्द्र के आदेश वाली या निर्दिष्ट किसी अन्य समान उद्देश्य’ के लिए शामिल हैं।

-- ---

पंकज चतुर्वेदी पर्यावरण-संबंधी विषयों पर नियमित रूप से लिखते हैं।

climate change and lighting

 धरती के बढ़ते तापमान का कुप्रभाव है आकाशीय बिजली का गिरना
पंकज चतुर्वेदी



अभी तो मानसून की आमद भी नहीं हुई और १६ मार्च के बाद बेमौसम बरसात क्या हुई, देश के अलग –अलग हिस्सों में आकाशीय बिजली गिरने से कम से कम 50 लोग मारे गये. अकेले छत्तीसगढ़ में ही सात मौतें हुई और लगभग इतनी ही उत्तर प्रदेश में, मद्य प्रदेश में आंकडा 9 का रहा तो राजस्थान पाली , नागौर जैसे इलाकों में चार लोग तदित से मारे गये, मवेशियों की संख्या बहुत अधिक है . जान कर आश्चर्य होगा कि हर साल आकाशीय बिजली गिरने से औसतन 2500 मौत होती है लेकिन इसे अभी तक प्राकृतिक आपदा घोषित नहीं किया गया है . यह समझना होगा कि जैसे जैसे जलवायु परिवर्तन  का प्रकोप गहराएगा , ठनका या बिजली गिरने की घटनाएँ भी बढेंगी . लाइटिंग रेजिलियेंट इंडिया कैम्पेन के मुताबिक़ अप्रेल -2020  से मार्च-21 के बीच भारत में कोई एक करोड़ 85 लाख बार बिजली गिरी .

इसकी शुरुआत बादलों के एक तूफ़ान के रूप में एकत्र होने से होती है । इस तरह बढ़ते तूफान के केंद्र में, बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े और बहुत ठंडी पानी की बूंदें आपस में टकराते हैं और इनके बीच विपरीत ध्रुवों के विद्युत कणों का प्रवाह होता है । वैसे तो धन और ऋण एक-दूसरे को चुम्बक की तरह अपनी ओर आकर्षित करते हैं, किंतु वायु के एक अच्छा संवाहक न होने के कारण विद्युत आवेश में बाधाएँ आती हैं। अतः बादल की ऋणावेशित निचली सतह को छूने का प्रयास करती धनावेशित तरंगे भूमि पर गिर जाती हैं। चुनी धरती विद्युत की सुचालक है। यह बादलों की बीच की परत की तुलना में अपेक्षाकृत धनात्मक रूप से चार्ज होती है। तभी इस तरह पैदा हुई  बिजली का अनुमानित 20-25 प्रतिशत प्रवाह धरती की ओर हो जाता है।  भारत में हर साल कोई दो हज़ार लोग इस तरह बिजली गिरने से मारे जाते हैं, मवेशी और मकान आदि का भी नुक्सान होता है

अभी तो मानसून की आमद भी नहीं हुई और १६ मार्च के बाद बेमौसम बरसात क्या हुई, देश के अलग –अलग हिस्सों में आकाशीय बिजली गिरने से कम से कम 50 लोग मारे गये. अकेले छत्तीसगढ़ में ही सात मौतें हुई और लगभग इतनी ही उत्तर प्रदेश में, मद्य प्रदेश में आंकडा 9 का रहा तो राजस्थान पाली , नागौर जैसे इलाकों में चार लोग तदित से मारे गये, मवेशियों की संख्या बहुत अधिक है . जान कर आश्चर्य होगा कि हर साल आकाशीय बिजली गिरने से औसतन 2500 मौत होती है लेकिन इसे अभी तक प्राकृतिक आपदा घोषित नहीं किया गया है . यह समझना होगा कि जैसे जैसे जलवायु परिवर्तन  का प्रकोप गहराएगा , ठनका या बिजली गिरने की घटनाएँ भी बढेंगी . लाइटिंग रेजिलियेंट इंडिया कैम्पेन के मुताबिक़ अप्रेल -2020  से मार्च-21 के बीच भारत में कोई एक करोड़ 85 लाख बार बिजली गिरी . यह चेतावनी  भारतीय मौसम विभाग  भी  दे चुका है कि आने वाले साल दर साल प्राकृतिक  आपदाओं की घटनाएँ बढेंगी और इनमें ठनका या बिजली गिरना प्रमुख है .

सनद  रहे बिजली के शिकार आमतौर पर दिन में ही होते हैं , यदि तेज बरसात हो रही हो और बिजली  कडक रही हो तो ऐसे में पानी भरे खेत के बीच में, किसी पेड़ के नीचे , पहाड़ी स्थान पर जाने से बचना चाहिए . मोबाईल का इस्तेमाल भी खतरनाक होता है . पहले लोग अपनी इमारतों में ऊपर एक त्रिशूल जैसी आकृति लगाते थे- जिसे तड़ित-चालक कहा जाता था , उससे बिजली गिरने से काफी बचत होती थी , असल में उस त्रिशूल आकृति से एक धातु का मोटा तार या पट्टी जोड़ी जाती थी और उसे जमीन में गहरे गाडा जाता था ताकि आकाशीय बिजली उसके माध्यम से नीचे उतर जाए और इमारत को नुक्सान न हो .

वैसे आकाशीय बिजली वैश्विक रूप से बढ़ती आपदा है . जहाँ अमेरिका में हर साल बिजली गिरने से तीस, ब्रिटेन में औसतन तीन लोगों की मृत्यु होती है , भारत में यह आंकडा बहुत अधिक है- औसतन दो हज़ार . इसका मूल कारण है कि हमारे यहाँ आकाशीय बिजली के पूर्वानुमान और चेतावनी देने की व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है .

यह समझना होगा कि इस तरह बहुत बड़े इलाके में एक साथ घातक बिजली गिरने का असल कारण धरती का लगातार बदल रहा तापमान है . यह बात सभी के सामने है कि आषाढ़ में पहले कभी बहुत भारी बरसात नहीं होती थी लेकिन अब ऐसा होने लगा है, बहुत थोड़े से समय में अचानक भारी बारिश हो जाना और फिर सावन-भादों सूखा जाना- यही जलवायु परिवर्तन की त्रासदी  है और इसी के मूल में बेरहम बिजली गिरने के कारक भी हैं । जैसे-जैसे जलवायु बदल रही है, बिजली गिरने की घटनाएँ ज्यादा हो रही हैं ।

एक बात और बिजली गिरना जलवायु परिवर्तन का दुष्परिणाम तो है लेकिन अधिक बिजली गिरने से जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को भी गति मिलती है । सनद रहे बिजली गिरने के दौरान नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है और यह एक घातक ग्रीनहाउस गैस है।हालांकि अभी दुनिया में बिजली गिरने और उसके जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव के शोध बहुत सीमित हुए हैं लेकिन कई महत्वपूर्ण शोध इस बात को स्थापित करते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने बजली गिरने के खतरे को बढ़ाया है इस दिशा  में और गहराई से कम करने के लिए ग्लोबल क्लाइमेट ऑब्जर्विंग सिस्टम (GCOS) - के वैज्ञानिकों ने  विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO)  के साथ मिल कर एक विशेष शोध दल (टीटीएलओसीए) का गठन  किया है ।

धरती के प्रतिदिन बदलते तापमान का सीधा असर वायुमंडल पर होता है और इसी से भयंकर तूफ़ान भी बनते हैं । बिजली गिरने का सीधा सम्बन्ध धरती के तापमान से है जाहिर है कि जैसे-जैसे धरती गर्म हो रही है , बिजली की लपक उस और ज्यादा हो रही है । यह भी जान लें कि बिजली गिरने का सीधा सम्बन्ध बादलों के उपरी ट्रोपोस्फेरिक या क्षोभ-मंडल जल वाष्प, और ट्रोपोस्फेरिक ओजोन परतों से हैं और दोनों ही खतरनाक ग्रीनहाउस गैस हैं। जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से पता चलता है कि भविष्य में यदि जलवायु में अधिक गर्माहट हुई तो गरजदार तूफ़ान कम लेकिन तेज आंधियां ज्यादा आएँगी और हर एक डिग्री ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती तक बिजली की मार की मात्रा 10% तक बढ़ सकती है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के वैज्ञानिकों ने वायुमंडल को प्रभावित करने वाले अवयव और बिजली गिरने के बीच सम्बन्ध पर एक शोध मई 2018  में प्रारंभ किया था । उनका आकलन था कि आकाशीय बिजली के लिए दो प्रमुख अवयवों की आवश्यकता होती है: तीनो अवस्था (तरल, ठोस और गैस) में  पानी और बर्फ बनाने से रोकने वाले घने बादल । वैज्ञानिकों ने 11 अलग-अलग जलवायु मॉडल पर प्रयोग किये और पाया कि भविष्य में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में गिरावट आने से रही और इसका सीध अपरिणाम होगा कि आकाशीय बिजली गिरने की घटनाएँ बढेंगी ।

एक बात गौर करने की है कि हाल ही में जिन इलाकों में बिजली गिरी ,उनमें से बड़ा हिस्सा धान  की खेती का है और जहां धान के लिए पानी को एकत्र किया जता है, वहां से ग्रीन हॉउस गैस जैस मीथेन का उत्सर्जन अधक होता है । जितना मौसम अधिक गर्म होगा, जितनी ग्रीन हॉउस गैस उत्सर्जित होंगी, उतनी ही अधिक बिजली, अधिक ताकत से धरती पर गिरेगी । उनके निष्कर्ष समझ में आते हैं क्योंकि भारी वर्षा और तूफान ऊर्जा वायुमंडल में जल वाष्प की उपलब्धता से संबंधित हैं, और गर्म वातावरण अधिक नमी धारण कर सकते हैं। हालांकि, यह काम भविष्यवाणी नहीं कर सकता है, जब या जहां बिजली के हमले हो सकते हैं।

 “जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स” नामक ऑनलाइन जर्नल के मई-22  अंक में प्रकाशित एक अध्ययन में अल नीनो-ला नीना, हिंद महासागर डाय  और दक्षिणी एन्यूलर मोड के जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव और उससे दक्षिणी गोलार्ध में बढ़ते तापमान के कुप्रभाव सवरूप अधिक आकाशीय विद्धुत-पात की संभावना पर प्रकाश डाला गया है । एल नीनो-ला नीना, विषुवतीय पूर्वी और मध्य प्रशांत महासागर में गर्म और ठन्डे काल हैं और यह समूची दुनिया की जलवायु को सबसे अधिक प्रभावित करते  है।

विदित हो मानसून में बिजली चमकना बहुत सामान्य बात है। बिजली तीन तरह की होती है- बादल के भीतर कड़कने वाली, बादल से बादल में कड़कने वाली और तीसरी बादल से जमीन पर गिरने वाली। यही सबसे ज्यादा नुकसान करती है। बिजली उत्पन्न करने वाले बादल आमतौर पर लगभग 10-12 किमी. की ऊँचाई पर होते हैं, जिनका आधार पृथ्वी की सतह से लगभग 1-2 किमी. ऊपर होता है। शीर्ष पर तापमान -35 डिग्री सेल्सियस से -45 डिग्री सेल्सियस तक होता है। स्पष्ट है कि जितना तापमान बढेगा , बिजली भी उतनी ही बनेगी व् गिरेगी

यह सारी दुनिया की चुनोती है कि कैसे ग्रीन हॉउस गैसों पर नियंत्रण हो और जलवायु में अनियंत्रित परिवर्तन पर काबू किया जा सके , वरना, समुद्री तूफ़ान, बिजली गिरना, बादल फटना जैसी भयावह त्रासदियाँ हर साल बढेंगी ।

फिलहाल तो हमारे देश में बिजली गिरने के प्रति लोगों को जागरूक बनाना, जैसे कि किस मौसम में, किन स्थानों पर यह आफ़ात आ सकती है , यदि संभावित अवस्था हो तो कैसे और कहाँ शरण लें , तदित चालक का अधिक से अधिक इस्तेमाल आदि कुछ ऐसे कदम हैं, जिससे इसके नुक्सान को कम किया जा सकता है. सबसे बड़ी बात दूरस्थ अंचल तक आम आदमी की भागीदारी पर विमर्श करना अनिवार्य है कि कैसे ग्रीन हॉउस गैसों पर नियंत्रण हो और जलवायु में अनियंत्रित परिवर्तन पर काबू किया जा सके , वरना, समुद्री तूफ़ान, बिजली गिरना, बादल फटना जैसी भयावह त्रासदियाँ हर साल बढेंगी ।

 

बॉक्स

दामिनी एप : पूर्वानुमान का वरदान

भारत सरकार ने एक साल पहले गूगल प्ले स्टोर पर “दामिनी” नाम से एक एप  जारी किया है , जो 20 से 40 किलोमाटर दायरे में आकाशीय बिजली गिरने का पूर्वानुमान  सटीक देता है . इस एप को आई आई टी एम् , पुणे और ई एस एस ओ ने विक्सित किया है . आज आवश्यकता है कि आकाशीय बिजली से अधिक प्रभावित इलाकों में इस इप के बारे में सूचना और इसे अधिक से अधिक फोन में इंस्टाल और अपडेट के लिए जागरूकता अभियान चलाया जाए .

 

 

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

small rivers are in dangoure

            छोटी नदियाँ बड़े काम की

वैसे तो हर दिन समाज, देश और धरती के लिए बहुत जरुरी है , लेकिन छोटी  नदियों  पर ध्यान देना अधिक  जरुरी है . गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है , पर ये नदियाँ बड़ी इसी लिए  बनती है  क्योंकि इनमें बहुत सी छोटी नदियाँ आ कर मिलती हैं, यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी , यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा .



छोटी नदियां   अक्सर गाँव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहती हैं.  कई बार एक ही नदी के अलग अलग गाँव में अलग-अलग नाम होते हैं . बहुत नदियों का तो रिकार्ड भी नहीं है . हमारे लोक समाज  और प्राचीन मान्यता नदियों   और जल को ले कर बहुत अलग थी , बड़ी नदियों से दूर घर-बस्ती हो . बड़ी नदी को अविरल बहने दिया जाए . कोई बड़ा पर्व या त्यौहार हो तो बड़ी नदी के किनारे एकत्र हों, स्नान करें और पूजा करें . छोटी नदी , या तालाब या झील के आसपास बस्ती . यह जल संरचना दैनिक कार्य के लिए जैसे स्नान, कपडे धोने, मवेशी आदि के लिए . पीने की पानी के लिए घर- आँगन, मोहल्ले में कुआँ , जितना जल चाहिए, श्रम  करिए , उतना ही रस्सी से खिंच कर निकालिए . अब यदि बड़ी नदी बहती रहेगी तो छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा , यदि तालाब और छोटी नदी में  पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में कभी जल की कमी नहीं होगी .


एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हज़ार छोटी ऐसी नदियाँ हैं , जो उपेक्षित है , उनके अस्तित्व पर खतरा है . उन्नीसवीं सदी तक बिहार(आज के झारखंड को मिला कर ) कोई छः हज़ार  नदियाँ हिमालय से उतर कर आती थी, आज  इनमें से महज 400  से 600 का ही अस्तित्व बचा है . मधुबनी, सुपौल  में बहने वाली  तिलयुगा नदी कभी  कौसी से भी विशाल हुआ करती  थी, आज उसकी जल धरा सिमट कर  कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है . सीतामढ़ी की लखनदेई  नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गई. नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड के दर्द साथ –साथ चलने की कहानी  देश के हर जिले और कसबे की है . लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है , उन्हें यह समझने में दिक्कत हो रही हैं कि धरती की कोख में जल भण्डार  तभी लबा-लब रहता है, जब पास बहने वाली नदिया हंसती खेलती हो .

   अंधाधुंध रेत खनन , जमीन  पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण , ही  छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं – दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं हैं, उनको  शातिर तरीके से  नाला बता दिया जाता है , जिस साहबी  नदी पर  शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं हैं , झारखण्ड- बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हज़ार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गई , हम यमुना में पैसा लगाते हैं लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं – कुल  मिला कर यह  नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा है .

छोटी नदी केवल पानी के आवागमन का साधन नहीं होती . उसके चरों तरफ समाज भी होता है और पर्यावरण भी . नदी किनारे  किसान भी है और कुम्हार भी, मछुआरा भी और  धीमर भी – नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से ले कर कुएं तक में जल का संकट हुआ – सो परोक्ष और अपरोक्ष समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं है  जो  इससे प्रभावित नहीं हुआ हो . नदी- तालाब से जुड़ कर पेट पालने वालों का जब जल-निधियों से आसरा ख़त्म हुआ तो  मजबूरन उन्हें पलायन करना पड़ा. इससे एक तरफ  जल निधियां दूषित हुईं तो  दूसरी तरफ बेलगाम शहरीकरण के चलते महा नगर अरबन स्लम में बदल रहे हैं . स्वास्थ्य , परिवहन और शिक्षा के संसाधन महानगरों में केन्द्रित होने के कारण ग्रामीण सामाजिक- आर्थिक संतुलन भी इससे गड़बड़ा  रहा है . जाहिर है कि नदी- जीवी लोगों की निराशा ने समूचे समाज को समस्याओं की नई सौगात दी है .

 

 

सबसे पहले छोटी नदियों का एक सर्वे और उसके जल तन्त्र  का दस्तावेजीकरण हो , फिर छोटी नदियों कि अविरलता सुनिश्चित हो, फिर उससे रेत उत्खनन और  अतिक्रमण को मानव- द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए .  नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें . नदी में पानी रहेगा तो  तालाब, जोहड़सम्रद्ध रहेंगे  और इससे कुएं या भू जल . स्थानीय इस्तेमाल के लिए वर्षा जल को पारम्परिक तरीके जीला कर एक एक बूँद एकत्र किया जाए , नदी के किनारे  कीटनाशक के इस्तेमाल, साबुन  और शौच से परहेज के लिए जन जागरूकता और वैकल्पिक  तंत्र विकसित हो . सबसे बड़ी बात नदी को सहेजने का जिमा स्थानीय समाज, खासकर उससे सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए , जैसे कि  मद्रास से पुदुचेरी तक ऐरी के रखरखाव के जल- पंचायत हैं .

बुंदेलखंड तो प्यास , पलायन के लिए बदनाम है . यहाँ के प्रमुख शहर छतरपुर में एक नदी की सेहत बिगड़ने से वेनिस की तरह जल से लबालब रहने वाला शहर भी प्यास हो गया . महाराजा छत्रसाल ने यह शहर बसाया था . यहाँ नदी के उतार चढाव की गुंजाईश कम ही है . तीन बरसाती नाले देखें– गठेवरा नाला, सटई रोड के नाला और चंदरपुरा गांव के बरसाती नाला  । इन तीनों का पानी अलग–अलग रास्तों से डेरा पहाड़ी पर आता और यह जल–धारा  एक नदी बन जाती ।  चूंकि इसमें खूब सिंघाड़े होते तो लोगों ने इसका नाम सिंघाड़ी नदी रख दिया । छतरपुर कभी वेनिस  तरह था– हर तरफ तालाब और उसके किनारे बस्तियां और इन तालाबों से पानी का लेन–देन चलता था -सिंघाड़ी नदी का । बरसात की हर बूंद तीन नालों में आती और फिर एकाकार हो कर सिंघाडी नदी के रूप में प्रवाहित होती । इस नदी से  तालाब जुड़े हुए थे, जो एक तो पानी को बहता हुआ निर्मल रखते, दूसरा यदि तालाब भर जाए तो उसका पानी नदी के जरिये  से दूसरे तालाबों में बह जाता । सिंघाड़ी नदी से शहर का संकट मोचन तालाब और ग्वाल मगरा तालाब भी भरता था । इन तालाबों से प्रताप सागर और किशोर सागर तथा रानी तलैया भी नालों और ओनों (तालाब में ज्यादा जल होने पर जिस रास्ते से बाहर बहता है, उसे ओना कहते हैं ।)से होकर जुड़े थे ।

अभी दो दशक पहले तक संकट मोचन पहाड़िया के पास सिंघाड़ी नदी चोड़े पाट के साथ सालभर बहती थी । उसके किनारे घने जंगल थे , जिनमे हिरन, खरगोश , अजगर , तेंदुआ लोमड़ी जैसे  पर्याप्त जानवर भी थे . नदी किनारे श्मसान  घाट हुआ करता था .  कई खेत इससे सींचे जाते और कुछ लोग  ईंट के भट्टे लगाते थे । 

बीते दो दशक में ही नदी पर घाट, पुलिया  और सौन्द्रयीकरण के नाम पर जम कर सीमेंट तो लगाया गया  लेकिन उसमें पानी की आवक की रास्ते  बंद कर दिए गए. आज नदी के नाम पर नाला रह गया है । इसकी धारा  पूरी तरह सूख गई है । जहाँ कभी पानी था, अब वहां बालू-रेत उत्खनन वालों ने बहाव मार्ग को उबड़-खाबड़ और  दलदली बना दिया .  छतरपुर शहरी सीमा में  एक तो जगह जगह जमीन के लोभ में जो कब्जे हुए उससे नदी का तालाब से जोड़-घटाव की रास्तों पर विराम लग गया , फिर संकट मोचन पहाड़िया पर अब हरियाली की जगह कच्चे-पक्के मकान दिखने लगे , कभी बरसात की हर बूंद इस पहाड  पर रूकती थी और धीरे-धीरे रिस कर नदी को  पोषित करती थी . आज  यहाँ बन गए हजारों मकानों का अमल-मूत्र और गंदा पानी सीधे सिंघाड़ी नदी में गिर कर उसे नाला बना  रहा है  .

जब यह नदी अपने पूरे स्वरूप में थी तो  छतरपुर शहर से निकल कर  कोई 22 किलोमीटर का सफर तय कर हमा, पिड़पा, कलानी गांव होते हुए उर्मिल नदी में मिल जाती थी । उर्मिल भी यमुना तंत्र की नदी है । नदी जिंदा थी तो शहर के सभी तालाब, कुएं भी लबालब रहते थे । दो दशक पहले तक यह नदी 12 महीने कल कल बहती रहती थी । इसमें पानी रहता था । शहर के सभी तालाबों को भरने में कभी सिंघाड़ी नदी की बहुत बड़ी भूमिका होती थी. तालाबों के कारण कुओं में अच्छा पानी रहता था , लेकिन आज वह खुद अपना ही असतित्व से जूझ रही है ।

नदी की मुख्य धारा के मार्ग में अतिक्रमण होता जा रहा है । नदी के कछार ही नहीं प्रवाह मार्ग में ही लोगों ने मकान बना लिए हैं । कई जगह धारा को तोड़ दिया गया है । पूरे नदी में कहीं भी एक बूंद पानी नहीं है । नदी के मार्ग में जो छोटे–छोटे रिपटा ओर बंधान बने थे वे भी खत्म हो गए हैं । पूरी नदी एक पगडंडी और ऊबड़–खाबड़ मैदान के रूप में तब्दील होकर रह गई है । जबकि दो दशक पहले तक इस नदी में हर समय पानी रहता था । नदी के घाट पर शहर के कई लोग हर दिन बड़ी संख्या में नहाने जाते थे । यहां पर पहुंचकर लोग योग–व्यायाम करते थे, कुश्ती लडऩे के लिए यहां पर अखाड़ा भी था । भूतेश्वर भगवान का मंदिर भी यहां प्राचीन समय से है । यह पूरा क्षेत्र हरे–भरे पेड़–पौधों और प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित था, लेकिन समय के साथ–साथ यहां का नैसर्गिक सौंदर्य नष्ट होता चला गया ।  नदी अब त्रासदी बन गई है । आज नदी के आसपास रहने वाले लोग  मानसून के दिनों में भी एक से दो किलोमीटर दूर से  सार्वजानिक हैण्ड पंप  से  पानी लाने को मजबूर है, जब-तब जल संकट का हल्ला होता है तो या तो  भूजल उलीचने के लिए  पम्प रोप जाते है या फिर मुहल्लों में पाइप बिछाए जाने लगते है, लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं होता कि  जमीन की कोख या पाइप में पानी कहाँ से आएगा ?

जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं . ऐसे में  छोटी नदियाँ धरती  के तापमान को नियंत्रित रखने , मिटटी की नमी बनाए रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं . नदिउओन के किनारे से अतिक्रमण हटाने, उसमें से  बालू-रेत उत्खनन को  नियंत्रित करने , नदी की गहराई के लिए उसकी समय समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है , सबसे बड़ी बात समाज यदि इन नदियों को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे  समाज का ही भविष्य उज्जवल होगा .

 

गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

The heating metropolis increases the concern

 

तपते महानगर बढ़ाते चिंता

पंकज चतुर्वेदी



अभी आगे पूरा मई और जून बकाया है , इस बार तो मनमोहक कहे जाने वाले वसंत के मौसम में ही  गर्मी ने जेठ की तपन का अहसास करवा दिया . दिल्ली में  अप्रैल के तीसरे   हफ्ते में अधिकतम तापमान 43.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था। करीबी शहर फरीदाबाद और गुरुग्राम का तापमान 44.5 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया जो कि औसत से 10 डिग्री ज्यादा था।  गाज़ियाबाद भी तपने में पीछे नहीं था . ठीक यही हाल भोपाल या भुवनेश्वर का भी रहा . यह सर्वविदित है कि भारत में भीषण गर्मी पड़ती है, ,  हालांकि, बहुत कम लोगों को पता होगा कि इस प्रचंड गर्मी ने देश में पिछले 50 साल में 17,000 से ज्‍यादा लोगों की जान ली है। 1971 से 2019 के बीच लू चलने की 706 घटनाएं हुई हैं।लेकिन गत पांच सालों में चरम तापमान और  लू की घटनाएँ न केवल समय के पहले हो रही हैं , बल्कि  लम्बे समय तक इनकी मार रहती है, खासकर शहरीकरण ने इस मौसमी आग में ईंधन का काम किया है, शहर अब जितने दिन में तपते हैं, रात उससे भी अधिक गरम हवा वाली होती है . जान लें आबादी से उफनते महानगरों में बढ़ता तापमान अकेले संकट नहीं होता , उसके साथ  बढती बिजली और पानी की मांग , दूषित होता पर्यावरण भी नया संकट खड़ा करता है .


अमरीका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के शीर्ष वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक बढ़ती आबादी और गर्मी के कारण देश के चार बड़े शहर नई दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई और चेन्नई सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। पूरी दुनिया में बांग्लादेश की राजधानी ढाका इस मामले में पहले पायदान पर है। कोलकाता में बढ़ते जोखिम के पीछे 52 फीसदी गर्मी तथा 48 फीसदी आबादी जिम्मेदार है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बाहरी भीड़ को नही रोका गया तो तापमान तेजी से बढ़ेगा यह स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह साबित होगा।


शहरों का बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरणीय संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक त्रासदी-असमानता और संकट का कारक भी बनेगा , गर्मी अकेले शरीर को नहीं प्रभावित करती, इससे इंसान की कार्यक्षमता प्रभावित होती है , पानी और बिजली की मांग बढती है , उत्पादन लागत भी बढती है . शिकागो विश्वविद्यालय के एक शोध से पता चला है कि वर्ष 2100 तक दुनिया में गर्मी का प्रकोप इतना ज्यादा होगा कि महामारी, बीमारी, संक्रमण से भी ज्यादा लोग भीषण गर्मी, लू और प्रदूषण से मरने लगेंगे। अगर ग्रीनहाउस गैसों  के उत्सर्जन पर जल्द ही लगाम नहीं लगाई गई जो आज से 70-80 साल बाद की दुनिया हमारे रहने लायक भी नहीं रह जाएगी। वर्ष 2100 आते-आते दुनिया में होने वाली प्रति एक लाख व्यक्ति में से 73 लोगों की मौत गर्मी और लू की वजह से होगी। इस तरह की प्राक्रतिक आपदा का सर शहरों में ही ज्यादा होगा . यह इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि यह संख्या एचआईवी, मलेरिया और येलो फीवर से होने वाली संयुक्त मौतों के बराबर है।


शहरों में बढ़ते तापमान के  कई कारण है – सबसे बड़ा तो शहरों के विस्तार में हरियाली का होम होना . भले ही दिल्ली जैसे शहर दावा करें कि उनके यहाँ हरियाली की छतरी का विस्तार हुआ है लेकिन हकीकत यह है की इस महानगर में लगने वाले अधिकाँश पेड़ पारम्परिक ऊँचे वृक्ष की जगह जल्दी उगने वाले झाड हैं , जो कि धरती के बढ़ते तापमान की विभीषिका से निबटने में अक्षम हैं . शहरी ऊष्मा द्वीप शहरों की कई विशेषताओं के कारण बनते हैं। बड़े वृक्षों के कारण वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन होता है जो कि धरती के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करता है . वाष्पीकरण अर्थात मिट्टी, जल संसाधनों आदि से हवा में पानी का प्रवाह.  वाष्पोत्सर्जन  अर्थात पौधों की जड़ों के रास्ते  रंध्र कहलाने वाले पत्तियों में छोटे छिद्रों के माध्यम से हवा में पानी की आवाजाही। शहर के डीवायडर पर लेगे बोगेनवेलिया या ऐसी ही हरियाली  धरती के शीतलीकरण की नैसर्गिक प्रक्रिया में कोई भूमिका निभाते नहीं हैं .

महानगरों की गगनचुम्बी इमारतें भी इसे गरमा रही हैं , ये भवन सूर्य की तपन  से गर्मी को प्रतिबिंबित और अवशोषित करते हैं। इसके अलावा, एक-दूसरे के करीब कई ऊंची इमारतें भी हवा के प्रवाह में बाधा बनती हैं, इससे शीतलन अवरुद्ध होता हैं. शहरों की सड़कें उसका तापमान बढ़ने में बड़ी कारक हैं . महानगर में सीमेंट और कंक्रीट के बढ़ते जंगल, डामर की सड़कें और ऊंचे ऊंचे मकान बड़ी मात्रा में सूर्य की किरणों को सोख रहे हैं। इस कारण शहर में गर्मी बढ़ रही है।वाहनों के चलने और इमारतों में लगे पंखे, कंप्यूटर, रेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशनर जैसे बिजली के उपकरण भले ही इंसान को सुख देते हों लेकिन  ये शहरी अप्रिवेश का तापमान बढ़ने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं . फिर कारखाने , निर्माण कार्य और बहुत कुछ है जो शहर को उबाल रहा है .

यदि शहर में गर्मी की मार से बचना है तो अधिक से अधिक  पारम्परिक पेड़ों का रोपना  जरुरी है, साथ ही शहर के बीच बहने वाली नदियाँ, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल और अविरल  रहेंगे  तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे , कार्यालयों के समय में बदलाव , सार्वजनिक  परिवहन को बढ़ावा, बहु मंजिला भवनों का ईको फ्रेंडली होना , उर्जा संचयन  सहित कुछ ऐसे उपाय हैं जो बहुत कम व्यय में शहर को भट्टी बनने  से बचा सकते हैं . हां – अंतिम उपाय तो शहरों की तरफ पलायन रोकना ही होगा .

 

 

 

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...