मौसम की मार से पलायन के बढ़ते खतरे
पंकज चतुर्वेदी
‘आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी किसको
कहा जा सकता है ?’ यदि इस सवाल का
जवाब ईमानदारी से खोजा जाए तो वह होगा -कोई पचास करोड़ लोगों का अपने पुश्तैनी घर, गांव, रोजगार से पलायन। और ‘आने वाले दिनों की सबसे भीषण त्रासदी क्या होगी ?’ आर्थिक-सामाजिक
ढ़ांचे में बदलाव का अध्ययन करें तो जवाब होगा- पलायन से उपजे शहरों का
--अरबन-स्लम’ में बदलना, जहां सामाजिक,
आर्थिक, पर्यावरणीय और विकास के विमर्श में
केवल पूंजी की जयजयकार होगी । पलायन विकास के नाम पर उजाड़े गए लोगों का, पलायन आतंकवाद के भय
से उपजा, पलायन माकूल रोजगार ना मिलने के कारण, पलायन पारंपरिक दक्षता या वृत्ति के बाजारवाद की भेट चढ़कर अप्रासंगिक हो
जाने का। और अब जिस तरह मौसम के बदलते तेवर के कुप्रभाव सामने आ रहे हैं , खेती या मछलीपालन पर निर्भर लोगों का बड़ी
संख्या में महज पेट पालने के लिए घर छोड़ने
की अंधियारी त्रासदी मुंह बाए सामने खड़ी है .
जलवायु
परिवर्तन के चलते नदी किनारे वालों को किस
तरह विस्थापन करना पड़ता है ? इसका जीता जागता उदाहरण पूर्वोत्तर, खासकर ब्रहमपुत्र है .
वर्ष 1912-28 के दौरान जब ब्रहंपुत्र नदी का अध्ययन किया था तो
यह कोई 3870 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र से गुजरती थी। सन 2006 में
किए गए इसी तरह के अध्ययन से पता चला कि नदी का भूमि छूने का क्षेत्र 57 प्रतिशत बढ़ कर 6080 वर्ग किलोमीटर हो गया। वैसे तो नदी की औसत चौड़ाई 5.46 किलोमीटर है लेकिन कटाव के चलते कई जगह ब्रहंपुत्र का पाट 15 किलोमीटर तक चौड़ा हो गया है। सन 2001 में कटाव की
चपेट में 5348 हैक्टर उपजाऊ जमीन आई, जिसमें
227 गांव प्रभावित हुए और 7395 लोगों
को विस्थापित होना पड़ा। सन 2004 में यह आंकड़ा 20724 हैक्टर जमीन, 1245 गांव और 62,258 लोगों के विस्थापन पर पहुंच गया। अकेले सन 2010 से 2015
के बीच नदी के बहाव में 880 गांव पूरी तरह बह
गए, जबकि 67 गांव आंषिक रूप से
प्रभावित हुए। ऐसे गांवों का भविष्य
अधिकतम दस साल आंका गया है। वैसे
असम की लगभग 25 लाख आबादी ऐसे गांवो ंमें रहती है जहां हर
साल नदी उनके घर के करीब आ रही है। ऐसे
इलाकों को यहां ‘चार’ कहते हैं। इनमें से कई नदियों के बीच के द्वीप भी हैं। हर बार ‘चार’ के संकट, जमीन
का कटाव रोकना, मुआवजा , पुनर्वास
चुनावी मुद्दा भी होते हैं. चूँकि अभी डिब्रूगढ़ जैसे पर्यटन स्थल अपर ख़तरा मंडरा
रहा है तो उसकी चर्चा भी है लेकिन यह तो राज्य की बड़ी आबादी के लिए का स्थाई रोग
है .
बंगाल
की खाड़ी में लगातार आ रहे चक्रवात के कारण भारत के सुंदर बन के 54 आबाद द्वीपों में सबसे तेजी से पलायन हुआ . तटीय
कटाव और समुद्र का बढ़ता जलस्तर धीरे-धीरे सुंदरबन की धरती को निगल रहा है. गांवों
के कई लोग कोलकाता जैसे शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि
उनकी उपजाऊ भूमि तूफान और बाढ़ की बढ़ती संख्या के साथ खारी हो रही है. समुद्र के
बढ़ते स्तर और खारापन ने सुंदरबन के मुख्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से उनकी
आजीविका का प्रमुख साधन छिन लिया. पृथ्वी और विज्ञान मंत्रालय का एक अध्ययन बताता है की कर्नाटक राज्य की समुद्री रेखा के 22 फीसदी इलाके की जमीन धीरे
धीर पानी में जा रही है.दक्षिण कन्नड़ जिले की तो 45 प्रतिशत भूमि पर कटाव का
असर दिख रहा है . उडुपी और उत्तर कन्नड़ के
हालात भी गम्भीर हैं . धरती के अप्रत्याशित बढ़ते तापमान और उसके चलते तेजी से
पिघलते ग्लेशियरों के चलते सागर की अथाह जल निधि अब अपनी सीमाओं को तोड़ कर तेजी से बस्ती
की ओर भाग रही है। समुद्र की तेज लहरें तट को काट देती हैं और देखते ही देखते
आबादी के स्थान पर नीले समुद्र का कब्जा हो जाता है । किनारे की बस्तियों में रहने
वाले मछुआरे अपनी झोपड़ियां और पीछे कर
लेते हैं। कुछ ही महीनों में वे कई किलोमीटर पीछे खिसक आए हैं । अब आगे समुद्र है
और पीछे जाने को जगह नहीं बची है । कई जगह पर तो समुद्र में मिलने वाली छोटी-बड़ी
नदियों को सागर का खारा पानी हड़प कर गया है, सो इलाके में पीने, खेती और अन्य
उपयोग के लिए पानी का टोटा हो गया है ।
केरल के कोच्ची के शहरी इलाके चेलेन्नम में सैकड़ों
घर अब समुद्र के “ज्वार-परिधि” में आ गए हैं , यहं सदियों पुरानी बस्ती है लेकिन
अब हर दिन वहां घर ढह रहे हैं . यूनिवर्सिटी ऑफ़ केरल , त्रिवेंद्रम द्वारा किये
गये और जून -22 में प्रकाशित हुए शोध में बताया गया है कि त्रिवेन्द्रम जिले में
पोदियर और अचुन्थंग के बीच के 58 किलोमीटर के समुद्री तट का 2.62 वर्ग किलोमीटर
हिस्सा बीते 14 सालों में सागर की गहराई में समा गया . यही हाल देश के लगभग सभी
समुद्र तट की बस्तियों का है , जहां का समाज मछली पकड़ने या खेती के अलावा कुछ
जानता नहीं था और अब जब उनसे जमीन और पानी छीन गया तो मज़बूरी में वे महानगरों में
मजदूरी तलाशने जा रहे हैं .
इंटरनल
डिस्प्लेसमेंट मोनिटरिंग सेंटर, जेनेवा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि गत वर्ष 2022
में कोई 25 लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं के कारण विस्थापन का शिकार हुए हैं . यह
रिपोर्ट असम में बाढ़ से बिगड़े हालात पर
विशेष उल्लेख करती है . रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रहे चक्रवाती तूफ़ान
के खतरे और उससे विस्थापन की मार के साल दर साल बढ़ने की चेतावनी दी गई है . इससे
पहले आई आई टी , गांधी नगर के एक शोध में भी बाढ़ और लू से लोगों के घर गाँव छोड़ने की बात कही गई है . हमें अब उस वैश्विक रिपोर्ट को आधार बना
कर भविष्य की योजना बनानी होगी जिसमे कहाँ
गया है कि सन 2100 तक धरती का तापमान 2.7 डिग्री बढेगा और उससे भारत के लगभग 60
करोड़ लोग जीवनयापन, जल और रहने की असहनीय
परिस्थितियों के चलते अस्तित्व के संकट से जूझेंगे. इस तरह होने वाले व्यापक पलायन से
समग्र पर्यावास और पर्यावरणीय चक्र गडबडा जाएगा .
शानदार सामयिक लेख.
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