My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 28 जुलाई 2019

Grasshoppers from pakistan are attacing Rajstahn

कश्मीर पहुंच गए हैं अफ्रीकी टिड्डे

                                                                                                                               
पंकज चतुर्वेदी

इस साल राजस्थान के थार में अभी तक कुछ खास बारिश हुई नहीं, रेत के धारों में उतनी हरियाली भी नहीं उपजी और अचानक पिछले दिनों बीकानेर के आसमान में इतना बड़ा टिड्डी दल मंडराता दिखा कि दिन में अंधेरा दिखने लगा। प्रकाश का अंधेरा तो छंट गया लेकिन बीकानेर के बाद चुरू, सरदार शहर तक के आंचलिक क्षेत्रों में जिस तरह ट्ड्डिी दल पहुंच रहे हैं, उससे वहां कि किसानों की मेहनत जरूर काली होती दिख रही है। जेसलमेर और बाडमेर भी कई बड़े टिड्डी दल सीमा पार से आ कर डेरा जमा चुके हैं। इस बात की प्रबल आशंका है कि राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के तीन दर्जन जिलों में आने वाले महीनों में हरियाली का नामोंनिशान तक नहीं दिखे,क्योंकि वहां अफ्रीका से पाकिस्तान के रास्ते आने वाले कुख्यात टिड्डों का हमला होने वाला हैं । टिड्डी दल का इतना बड़ा हमला आखिरी बार 1993 में यानि 26 साल पहले हुआ था। वैसे इस साल 21 मई को एक टिड्डी दल फलौदी के पास दिखा था, लेकिन उसे गंभीरता से लिया  नहीं गया।
राजस्थान के बीकानेर,जेसलमेर, बाडमेर और गुजरात के कच्छ इलाकों में बारिश और हरियाली ना के बराबर है। या तो किसी मीठे पानी के ताल यानि सर के पास कुछ पेड़ दिखेंगे या फिर यदा-कदा बबूल जैसी कंटीली झाड़ियां ही दिखती हैं। इस साल आषाढ़ लगते ही दो दिन धुंआधार बारिश हुई थी जिसने रेगिस्तान में कई जगह नखलिस्तान बना दिया था। सूखी, उदास सी रहने वाली लूनी नदी लबालब है । पानी मिलने से लोग बेहद खुश हैं,लेकिन इसमें एक आशंका व भय भी छिपा हुआ है । खड़ी फसल को पलभर में चट कर उजाड़ने के लिए मशहूर अफ्रीकी टिड्डे इस हरियाली की ओर आकर्शित हो रहे हैं और आने वाले महीनों में इनके बड़े-बड़े झुंडों का हमारे यहां आना षुरू हो जाएगा । पाकिस्तान ऐसे टिड्डी दल को देखते ही हवाई जहाज से दवा छिड्कवा देता है , ऐसे में हवा में उपर उड़ रहे ट्डिृडी दल भारत की ओर ही भागते हैं।
सोमालिया जैसे उत्तर-पूर्वी अफ्रीकी देशों से ये टिड्डे बारास्ता यमन, सऊदी अरब और पाकिस्तान भारत पहुंचते रहे हैं । विश्व स्वास्थ संगठन ने स्पश्ट चेतावनी दी है कि यदि ये कीट एक बार इलाके में घुस गए तो इनका प्रकोप कम से कम तीन साल जरूर रहेगा । अतीत गवाह है कि 1959 में ऐसे टिड्डों के बड़े दल ने बीकानेर की तरफ से धावा बोला था, जो 1961-62 तक टीकमगढ़(मध्यप्रदेश) में तबाही मचाता रहा था । इसके बाद 1967-68, 1991-92 में भी इनके हमले हो चुके हैं। अफ्रीकी देशों में महामारी के तौर पर पनपे टिड्डी दलों के बढ़ने की खबरों में मद्देनजर हाल ही में राजस्थान सरकार ने अफसरों की मींिटंग बुला कर इस समस्या ने निबटने के उपाय तत्काल करने के निर्देश दिए हैं ।
हमारी फसल और जंगलों के दुश्मन टिड्डे, वास्तव में मध्यम या बड़े आकार के वे साधारण टिड्डे(ग्रास होपर) हैं, जो हमें यदा कदा दिखलाई देते हैं । जब ये छुटपुट संख्या में होते हैं तो सामान्य रहते हैं, इसे इनकी एकाकी अवस्था कहते हैं । प्रकृति का अनुकूल वातावरण पा कर इनकी संख्या में अप्रत्याशित बढ़ौतरी हो जाती है और तब ये बेहद हानिकारक होते हैं। रेगिस्तानी टिड्डे इनकी सबसे खतरनाक प्रजाति हैं । इनकी पहचान पीले रंग और विशाल झुंड के कारण होती हैं। मादा टिड्डी का आकार नर से कुछ बड़ा होता हैं और यह पीछे से भारी होती हैं। तभी जहां नर टिड्डा एक सेकंड में 18 बार पंख फड्फड़ाता है,वहीं मादा की रफ्तार 16 बार होती हैं । गिगेरियस जाति के इस कीट के मानसून और रेत के घोरों में पनपने के आसार अधिक होते हैं ।
एक मादा हल्की नमी वाली रेतीली जमीन पर ं40 से 120 अंडे देती है और इसे एक तरह के तरल पदार्थ से ढंक देती हैं । कुछ देर में यह तरल सूख कर कड़ा हो जाता है और इस तरह यह अंडों के रक्षा कवच का काम करता हैं। सात से दस दिन में अंडे पक जाते हैं । बच्चा टिड्डा पांच बार रंग बदलता हैं । पहले इनका रंग काला होता है, इसके बाद हल्का पीला और लाल हो जाता हैं । पांचवी कैंचुली छूटने पर इनके रंग निकल आते हैं और रंग गुलाबी हो जाता हैं । पूर्ण वयस्क हाने पर इनका रंग पीला हो जाता हैं । इस तरह हर दो तीन हफ्ते में टिड्डी दल हजारों गुणा की गति से बढ़ता जाता हैं ।
यह टिड्डी दल दिन में तेज धूप की रोशनी होने के कारण बहुधा आकाश में उड़ते रहते हैं और षाम ढलते ही पेड़-पौधों पर बैठ कर उन्हें चट कर जाते हैं । अगली सुबह सूरज उगने से पहले ही ये आगे उड़ जाते हैं । जब आकाश में बादल हों तो ये कम उड़ते हैं, पर यह उनके प्रजनन का माकूल मौसम होता हैं । ताजा षोध से पता चला है कि जब अकेली टिड्डी एक विशेश अवस्था में पहुंच जाती है तो उससे एक गंधयुक्त रसायन निकलता हैं । इसी रासायनिक संदेश से टिड्डियां एकत्र होने लगती हैं और उनका घना झुंड बन जाता हैं । इस विशेश रसायन को नश्ट करने या उसके प्रभाव को रोकने की कोई युक्ति अभी तक नहीं खोजी जा सकी हैं ।
रेगिस्तानी इलाकों में बढ़ती हरियाली को देख कर संभावित टिड्डी हमले के खौफ से उससे सटे जिलों के किसानों की नींद उड़ गई हैं । पिछले कुछ दिनों में अभी तक कोई 155 हैक्टर फसल इन ट्ड्डिो की चपेट में आ चुकी है। खुदा ना खास्ता टिड्डी दलों का बड़ा हमला हो गया तो सरकारी अमले हल्ला, दौरा और चिंता जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगे । कुछ जगहों पर कंट्रोल रूम बनाने की भी चर्चा भी है,लेकिन इनका कंट्रोल कागजों पर ही ज्यादा हैं । पिछले टिड्डी हमलों के दौरान राजस्थान व मध्यप्रदेश सरकार ने मेलाथियान और बीएचसी का छिड़काव करवाया था और दोनों ही असरहीन रहे थे । अब सरकार को ही नहीं मालूम कि हमला होने पर कौन सा कीटनाशक काम में लाया जाएगा ।
वैसे टिड्डों के व्यवहार से अंदाज लगाया जा सकता है कि उनका प्रकोप आने वाले साल में जून-जुलाई तक चरम पर होगा । यदि राजस्थान और उससे सटे पाकिस्तान सीमा पर टिड्डी दलों के भीतर घुसते ही सघन हवाई छिड़काव किया जाए, साथ ही रेत के धौरों में अंडफली नश्ट करने का काम जनता के सहयोग से शुरू किया जाए तो अच्छे मानसून का पूरा मजा लिया जा सकता हैं ।
खबर है कि अफ्रीकी देशों से एक किलोमीटर तक लंबाई के टिड्डी दल आगे बढ़ रहे हैं । सोमालिया जैसे देशो ंमें आंतरिक संघर्श और गरीबी के कारण सरकार इनसे बेखबर हैं । यमन या अरब में कोई खेती होती नहीं हैं । जाहिर है कि इनसे निबटने के लिए भारत और पाकिस्तान को ही मिलजुल का सोचना पड़ेगा । वैसे दोनो देशों के बीच इस बाबात जानकारी साझा करने का एक सिस्टम हैं, सतत मीटिंग भी होती हैं लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं हैं।

पंकज चतुर्वेदी

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

Delhi Government spoiling education system

कैमरे नहीं कमरे चाहिए बच्चों को 

पंकज चतुर्वेदी


दिल्ली सरकार स्कूल की कक्षाओं में कैेमरे लगवाने और स्कूल में क्या हो रहा है, उसका सीधा प्रसारण घर घर तक करने पर उतारू है। जबकि असल में दिल्ली के स्कूलों में कमरों की कमी है। जान लें चित्रों में जिस तरह के स्मार्ट क्लास रूम दिखाए जा रहे हैं व कुछ ही स्कूलो ंमे ंएक पायलेट प्रोजेक्ट के रूप में है। दिल्ली सरकार के स्कूलो का आंकाड़ा है कि यहां क्लास में गत तीन सालों में चार शिक्षकों की हत्या बच्चों ने कर दी और आधे दर्जन हमलों के भी हैं।  कागजों में यहां के स्कूलों मे एक हैप्पीनेस पाठ्यक्रम चलता है जिसे मखौल या मजाक या समय काटने से ज्यादा नहीं माना जाता है। यह भी समझना  जरूरी है कि स्कूल में हिंसा, शिक्षक से दुर्व्यवहार आदि  गुडगांव, लखनउ और यमुना नगर के ऐसे स्कूलों में भी व्याप्त है जहां कैमरों व अत्याधुनिक विधाओं और सुरक्षा गार्ड से लैस व्यवस्था है। 
समझ से परे हैं कि क्या अभी तक सरकारी स्कूलों में पढाई हो नहीं रही थी, या अब समाज में शिक्षक के प्रति अविश्वास का दायरा गहरा हो गया है। समय -समय पर बहुत से अखबार और मीडिया चैनल बाकायदा मुहिम चलाते रहते हैं कि अमुक स्कूल में सुरक्षा के साधन नहीं है, कहीं पर बंदूकधारी गार्ड को दिखा कर सुरक्षा को पुख्ता कहा जा रहा है। स्कूल के चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी कैमरा लगाए जाने पर जोर दिया जा रहा है। माता-पिता कैमरे की जद में बच्चों के आने पर एक और काम में व्यस्त हो जाएंगे कि तनिक देखा जाए कि मेरा बच्चा कया कर रहा है या टीचर केसे पढ़ा रहा है। 

दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था की त्रासदी यह है कि यहां के विद्यालयों में पढ़ाई में अच्छे व कमजोर बच्चों को अलग-अलग तीन सेक्शन में बांट दिया गया है। बौद्धिक कक्षा में अच्छे बच्चे, निश्ठा में उनसे कम नंबर लाने वाले और न्यू निश्ठा में कमजोर बच्चे। हालांकि भारत में शिक्षा के जितने भी सिद्धरंत हैं उनका तो यही कहना है बच्चे एकसाथ मिल कर सीखते व अपने को सुधारते हैं। दिल्ली सरकार की मौजूदा व्यवस्था से तीसरी कक्षा में रखे गए बच्चों में हीन भावना है। यही नहीं  कमजोर बच्चों के पाठ्यक्रम में कटौती कर दी गई है। नियमानुसार उन्हें कक्षा आठ तक पास भी करना है सो इस तरह नौंवी में आए बच्चों का आधारभूत पाठ्यक्रम भी मजबूत नहीं होता क्योंकि वे तो आधा अधूरा पाठ्यक्रम पढ़ कर आए हैं। चूंकि साठ फीसदी से कम परिणाम वाले स्कूलों से जवाब तलब होता है सो शिक्षक भी जबरदस्ती बच्चों को उतीर्ण कर रहे हैं। 
दिल्ली के स्कूलों में कमरों की कमी के हालात की बनगी है  मदनपुर खादर का स्कूल। यहां बच्चों की संख्या इतनी ज्यादा है कि दो शिफ्ट में स्कूल चलाने के बावजूद बच्चों को एक दिन छोड़ कर बुलाया जाता है। यहां कमरों की कमी है लेकिन कोई ध्यान देने वाला नहीं, लेकिन जनकपुरी पूर्व में इतने कमरे हैं कि वे खाली पड़े रहते हैं। असल में दिल्ली सरकार आंकड़ों में कमरों की संख्या दिखाने के लिए जरूरत वाले स्थानों के बनिस्पत जहां जमीन उपलब्ध है वहां कमरे बनवा रही है। जनकपुरी स्कूल के मैदान में कई ख्ेाल टूर्नामेंट होते थे, वैसे भी हीं बच्चों की संख्या कम थी, लेकिन वहां मैदान खत्म कर कमरे बनवा दिए गए। जहां तक कुछ विज्ञापनों में चमकते स्मार्ट क्लास रूम की बात है, यह गिने-चुने स्कूलों में ही है। ंिबंदापुर जैसे सुदूर विद्यालयों में कमरों में पंखे भी नहीं चलते।  दो दशक पहले दिल्ली में नवोदय विद्यालय की तर्ज पर बनाए गए और उस समय ख्याति प्राप्त सर्वोदय विद्यालयों की तो दुर्गति ही हो गई। ऐसे में सरकार कक्षा में कै।मरे लगवाने को अपनी उपलब्धि कैसे कह सकती है?
एक बात जान लें कि कैमरे के सामने कभी भी कोई स्वाभविक नहीं रह पाता, वह सतर्क हो ही जाता है। प्राथमिकता में यह भले ही स्वाभाविक लगे, लेकिन दूरगामी सोच और बाल मनोविज्ञान की दृश्टि से सोचें तो हम बच्चे को बस्ता, होमवर्क, बेहतर परिवहन, परीक्षा में अव्वल आने, खेल के लिए समय ना मिलने, अपने मन का ना कर पाने, दोस्त के साथ वक्त ना बिता देने जैसे अनगिनत दवाबों के बीच एक ऐसा अनजाना भय दे रहे हैं जो षायद उसके साथ ताजिंदगी रहे।  यह जान लें कि जो शिक्षा या किताबे या सीख, बच्चों को आने वाली चुनौतियों से जूझने और विशम परिस्थितियों का डट कर मुकाबला करने के लायक नहीं बनाती हैं, वह रद्दी से ज्यादा नहीं हैं।
दुर्भाग्य है कि हमारा पूरा सिस्टम अविश्वास की कमजोर इमारत पर खड़ा है। हर जगह निगरानी है, सवाल हैं। कई राजयों में शिक्षकों को अपने मोबाईल पर हाजिरी देना होता हे। यदि नेटवर्क ना आता हो तो शिक्षक पेड़ पर चढ़कर घंटों अपनी हाजिरी सुनिश्चित करने के लिए अपना समय जाया करता है। कई बार वह चाहता है कि अधिकसमय बच्चों को पढ़ाने में लगाए, लेकिन उसका सुपरवाईजर केवल यह देखना व दर्ज करना चाहता है कि शिक्षक कितने बजे पहुंचा। इसमें कोई शक नहीं कि कोई ीा  सेव में सम की पाबंदी और निमितता अनिवाय है, लेकिन जान लें कि जितना बड़ा अविश्वस होगा, उतने ही चोर दरवाजे जुगाउ़बाज लोग तलाश ही लेते हैं। स्कूल एक सहज परिवेश का स्थाना होना चाहिए जहां बच्चे खलें, लड़ें, सवाल करें, बगैर टाईम टेबल के कुछ अचानक करें, लेकिन कैमरों और सुरक्षा के बीच वे भयभीत, बंधे हुए और असहज ही होंगे। देश की राजधानी दिल्ली में अधिकांश सरकारी स्कूलों  में बच्चों की संख्या की तुलना में कमरे और शिक्षक बेहद कम हैं। नगर निगम द्वारा संचालित स्कूलों के शिक्षकों को नियमित पगार नहीं मिलती। जाहिर है कि सरकार की प्राथमिकता कैमरों से ज्यादा कमरों को सक्षम बनाने की हेाना  चाहिए।  इससे भी ज्यादा आज जरूरत इस बात की है कि बच्चों को ऐसी तालीम व किताबें मिलें जो उन्हें वक्त आने पर रास्ता भटकने से बचा सकें। 
संवेदना, और घटनाओं के  प्रति जागरूकता एक बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण के बड़े कदम हैं, उनके पालकों को भी जानना चाहिए कि उनका बच्चा विद्यालय की अवधि में सुरक्षित हाथेां में है। लेकिन इनके माध्यम से उसे भयभीत करना, कमजोर करना और कैमरे जैसे तात्कालिक  कदम उठाना एक बेहतर भविश्य का रास्ता तो नहीं हो सकता। यदि वास्तव में हम चाहते हैं कि शिक्षक और बच्चों के बीच विश्वास की डोर मजबूत हो तो हमारी शिक्षा, व्यवस्था, सरकार व समाज को यह आश्वस्त करना होगा कि भविश्य में कोई शिक्षक ना तो अपने कर्तव्य से विमुख होगा और ना ही बच्चा स्कूल से मुंह मोड़ेगा। उसके बचपन में स्कूल, पुस्तकें, ज्ञान, स्नेह, खेल, सकारात्मकता का इतना भंडार होगा कि वह पथभ्रश्ट हो ही नहीं सकता। भय हर समय भागने की ओर प्रशस्त करता है और भगदड़ हर समय असामयिक घटनाओं का कारक होती है। कैमेरे भय के प्रतीक हैं। विशम हालात में एक दूसरे की मदद करना, साथ खड़ा होना, डट कर मुकाबला करना हमारी सीख का हिस्सा होना चाहिए जोकि गैरमशीनी भावना है।

बुधवार, 24 जुलाई 2019

Stem cell therapy can be permanent solution of Diabetes

मुसीबत बनता मधुमेह



दो साल पहले के सरकारी आंकड़ों को सही मानें तो उस समय देश में कोई सात करोड़ तीस लाख लोग ऐसे थे जो मधुमेह या डायबीटिज की चपेट में आ चुके थे। अनुमान है कि 2045 तक यह संख्या 13 करोड़ को पार कर जाएगी। मधुमेह वैसे तो खुद में एक बीमारी है, लेकिन इसके कारण शरीर को खोखला होने की जो प्रक्रिया शुरू होती है उससे मरीजों की जेब भी खोखली हो रही है और देश के मानव संसाधन की कार्य क्षमता पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। जानकर आश्चर्य होगा कि बीते एक साल में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत के लोगों ने मधुमेह या उससे उपजी बीमारियों पर सवा दो लाख करोड़ रुपये खर्च किए, जो कि हमारे कुल सालाना बजट का 10 फीसद है। बीते दो दशक के दौरान इस बीमारी से ग्रस्त लोगों की संख्या में 65 प्रतिशत की बढ़ोतरी होना भी कम चिंता की बात नहीं है।


पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआइ) की एक रिपोर्ट बताती है कि 2017 में देश के साढ़े पांच करोड़ लोगों के लिए स्वास्थ्य पर किया गया व्यय उनकी हैसियत से अधिक व्यय की सीमा से पार रहा। यह संख्या दक्षिण कोरिया या स्पेन की आबादी से अधिक है। इनमें से 60 फीसद यानी तीन करोड़ अस्सी लाख लोग अस्पताल के खर्चो के चलते बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे आ गए। पहले मधुमेह, दिल के रोग आदि खाते-पीते या अमीर लोगों की बीमारी माने जाते थे, लेकिन अब ये ग्रामीण, गरीब बस्तियों और तीस साल तक के युवाओं को शिकार बना रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मधुमेह जीवनशैली बिगड़ने पर उपजने वाला रोग है। फिर भी बेरोजगारी, बेहतर भौतिक सुख जोड़ने की अंधी दौड़ तो खून में शर्करा की मात्र बढ़ा ही रही हैं, कुपोषण, निम्न गुणवत्ता वाला भोजन भी इसके मरीजों की संख्या में बढ़ोतरी के बड़े कारक हैं। बदलती जीवनशैली कैसे मधुमेह को आमंत्रित करती है इसका सबसे बड़ा उदाहरण लेह-लद्दाख है। पहाड़ी इलाका होने के चलते पहले वहां लोग खूब पैदल चलते थे, जीवकोपार्जन के लिए उन्हें खूब मेहनत करनी पड़ती थी सो लोग ज्यादा बीमार नहीं होते थे। पिछले कुछ दशकों में वहां पर्यटक बढ़े। उनके लिए घर में जल की व्यवस्था वाले पक्के मकान बने। बाहरी दखल के चलते वहां चीनी यानी शक्कर का इस्तेमाल होने लगा और इसी का कुप्रभाव है कि स्थानीय समाज में अब मधुमेह जैसे रोग घर कर रहे हैं। ठीक इसी तरह अपने भोजन के समय, मात्र, सामग्री में परिवेश एवं शरीर की मांग के मुताबिक सामंजस्य ना बैठा पाने के चलते ही अमीर एवं सर्वसुविधा संपन्न वर्ग के लेग मधुमेह में फंस रहे हैं।
हाल ही में दवा कंपनी सनोफी इंडिया के एक सर्वे में ये डरावने तथ्य सामने आए हैं कि मधुमेह की चपेट में आए लोगों में से 14.4 फीसद को किडनी और 13.1 फीसद को आंखों की रोशनी जाने का रोग लग जाता है। इस बीमारी से ग्रस्त लोगों में से 14 फीसद मरीजों के पैरों की धमनियां जवाब दे जाती हैं जिससे उनके पैर खराब हो जाते हैं। वहीं लगभग 20 फीसद लोग किसी ना किसी तरह की दिल की बीमारी की चपेट में आ जाते हैं। वहीं 6.9 प्रतिशत लोगों को न्यूरो अर्थात तंत्रिका से संबंधित दिक्कतें भी हो जाती हैं। जाहिर है कि मधुमेह अकेले नहीं आता, वह कई अन्य शारीरिक विकारों को साथ लाता है।

यह तथ्य बानगी है कि भारत को रक्त की मिठास बुरी तरह खोखला कर रही है। एक तो अमेरिकी मानक संस्थाओं ने भारत में रक्त में चीनी की मात्र को कुछ अधिक दर्ज करवाया है जिससे प्री-डायबीटिज वाले भी इसकी दवाओं के फेर में आ जाते हैं। सभी जानते हैं कि एक बार मधुमेह हो जाने पर मरीज को जिंदगी भर दवाएं खानी पड़ती हैं। मधुमेह नियंत्रण के साथ-साथ रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल की दवाओं को लेना आम बात है। जब इतनी दवाएं लेंगे तो पेट में बनने वाले अम्ल के नाश के लिए भी एक दवा जरूरी है। जब अम्ल नाश करना है तो उसे नियंत्रित करने के लिए कोई मल्टी विटामिन अनिवार्य है। एक साथ इतनी दवाओं के बाद लीवर पर तो असर पड़ेगा ही। प्रत्येक मरीज हर महीने औसतन डेढ़ हजार रुपये की दवा तो लेता ही है अर्थात सालाना 18 हजार रुपये। देश में अभी कुल साढ़े सात करोड़ मरीज होने का अनुमान है। इस तरह यह राशि तेरह लाख पचास हजार करोड़ रुपये होती है। इसमें शुगर मापने वाली मशीनों एवं टेस्ट को तो जोड़ा ही नहीं गया है।

दुर्भाग्य है कि देश के दूरस्थ अंचलों की बात तो छोड़ दें, राजधानी या महानगरों में ही हजारों ऐसे लैब हैं जिनकी जांच की रिपोर्ट संदिग्ध रहती है। फिर भी गंभीर बीमारियों के लिए प्रधानमंत्री आरोग्य योजना के तहत पांच लाख रुपये तक के इलाज की नि:शुल्क व्यवस्था में मधुमेह जैसे रोगों के लिए कोई जगह नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानी केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है। इस योजना के तहत पंजीकृत लोगों में चालीस फीसद मधुमेह के मरीज हैं और वे हर महीने केवल नियमित दवा लेने जाते हैं।
आज भारत मधुमेह को लेकर बेहद खतरनाक मोड़ पर खड़ा है। जरूरत है कि इस पर सरकार अलग से कोई नीति बनाए, जिसमें जांच, दवाओं के लिए कुछ कम तनाव वाली व्यवस्था हो। वहीं स्टेम सेल से मधुमेह के स्थायी इलाज का व्यय महज सवा से दो लाख रुपये है, लेकिन सीजीएचएस में यह इलाज शामिल नहीं है। सनद रहे स्टेम सेल थेरेपी में बोन मैरो या एडीपेस से स्टेम सेल लेकर इलाज किया जाता है। इस इलाज की पद्धति को ज्यादा लोकप्रिय और सरकार की विभिन्न योजनाओं में शामिल किया जाए तो बीमारी से लड़ने में सफलता मिलेगी। इसके साथ ही बाजार में मिलने वाले डिब्बाबंद सामानों एवं हलवाई की दुकानों की सामग्रियों की कड़ी पड़ताल, देश में योग या व्यायाम को बढ़ावा देने के और अधिक प्रयास युवा आबादी की कार्यक्षमता को बढ़ाने और इस बीमारी से लड़ने में मददगार साबित हो सकते हैं।

आज भारत मधुमेह को लेकर बेहद खतरनाक मोड़ पर खड़ा है। जरूरत है कि इस पर सरकार अलग से कोई नीति बनाए, जिसमें जांच, दवाओं के लिए कुछ कम तनाव वाली व्यवस्था हो
पंकज चतुर्वेदी

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

Flood throw back economy of country

देश की अर्थ व्यवस्था को पीछे ढकेल देता है सैलाब

पंकज चतुर्वेदी

अजीब विडंबना है कि आंकड़ों में देखें तो अभी तक देश के बड़े हिस्से में मानसून नाकाफी रहा है, लेकिन जहां जितना भी पानी बरसा है, उसने अपनी तबाही का दायरा बढ़ा दिया है। पिछले कुछ सालों में बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ौतरी हुई है । कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। असल में बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा ही नहीं है, बल्कि यह देश के गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गया है। हमारे पास बाढ़ से निबटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बांध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन,  बढ़ती गरमी, रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई मलवे का नदी में बढ़ना, जमीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों-दिन गंभीर होते जा रहे हैं। जिन हजारों करोड़ की सड़क, खेत या मकान बनाने में सरकार या समाज को दशकों लग जाते हैं, उसे बाढ़ का पानी पलक झपकते ही उजाड़ देता है। हम नए कार्याे के लिए बजट की जुगत लगाते हैं और जीवनदायी जल उसका काल बन जाता है।
जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय  के ताजा आंकड़े बताते हैं कि भारत देश में पिछले 65 वर्षाे के दौरान बाढ़ के कारण 1.07 लाख लोगों की मौत हुई, आठ करोड़ से अधिक मकान नष्ट हुए और 25.6 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में 109202 करोड़ रूपये मूल्य की फसलों को नुकसान पहुंचा है। इस अवधि में बाढ़ के कारण देश में 202474 करोड़ रूपये मूल्य की सड़क, पुल जैसी सार्वजनिक संपत्ति पानी में मिल गई। मंत्रालय बताता है कि बाढ़ से प्रति वर्ष औसतन 1654 लोग मारे जाते हैं, 92763 पशुओं का नुकसान होता है। लगभग 71.69 लाख हेक्टेयर क्षेत्र जल प्लावन से बुरी तरह प्रभावित होता है जिसमें 1680 करोड़ रूपये मूल्य की फसलें बर्बाद हुईं और 12.40 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं। वर्ष 2005 से 2014 के दौरान देश के जिन कुछ राज्यों में नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में बाढ़ की त्रासदी और जलस्तर के खतरे के निशान को पार करने का एक समान चलन देखा गया है, उनमें पश्चिम बंगाल की मयूराक्षी, अजय, मुंडेश्वरी, तीस्ता, तोर्सा नदियां शामिल हैं। ओडिशा में ऐसी स्थिति सुवर्णरेखा, बैतरनी, ब्राह्मणी, महानंदा, ऋषिकुल्या, वामसरदा नदियों में रही। आंध्रप्रदेश में गोदावरी और तुंगभद्रा, त्रिपुरा में मनु और गुमती, महाराष्ट्र में वेणगंगा, गुजरात और मध्यप्रदेश में नर्मदा नदियों में यह स्थिति देखी गई।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 में भारत की बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी । 1960 में यह बढ़ कर ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर हो गई । 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी आज देश के कुल 329 मिलियन(दस लाख) हैक्टर में से चार करोड़ हैक्टर इलाका नियमित रूप से बाढ़ की चपेट में हर साल बर्बाद होता है। वर्ष 1995-2005 के दशक के दौरान बाढ़ से हुए नुकसान का सरकारी अनुमान 1805 करोड़ था जो अगल दशक यानि 2005-2015 में 4745 करोड़ हो गया हे। यह आंकड़ा ही बानगी है कि बाढ़ किस निर्ममता से हमारी अर्थ व्यवस्था को चट कर रही है।  बिहार राज्य का 73 प्रतिशत हिस्सा आधे साल बाढ़ और शेष दिन सुखाड़ की दंश झेलता है और यही वहां के पिछड़ेपन, पलायन और परेशानियों का कारण है। यह विडंबना है कि राज्य का लगभग 40 प्रतिषत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पस्त रहता है। असम में इन दिनों 23 जिलों के कोई साढ़े सात लाख लोग नदियों के रौद्र रूप के चलते घर-गांव से पलायन कर गए है और ऐसा हर साल होता है। यहां अनुमान है कि सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें - मकान, सड़क, मवेषी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि षामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं , जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानि असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है।  केंद्र हो या राज्य , सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कार्यों व मुआवजा पर रहता है, यह दुखद ही है कि आजादी के 67 साल बाद भी हम वहां बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाए हैं। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राषि को जोड़े तो पाएंगे कि इतने धन में एक नया सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था।
देश में सबसे ज्यादा सांसद व प्रधानमंत्री देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश की उर्वरा धरती, कर्मठ लोग, अयस्क व अन्य सांसधन उपलब्ध होनेे के बावजूद विकास की सही तस्वीर ना उभर पाने का सबसे बड़ा कारण हर साल आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान हैं।  बीते एक दशक के दौरान राज्य में बाढ़ के कारण 45 हजार करोड़ रूपए कीमत की तो महज खड़ी फसल नष्ट हुई है। सड़क, सार्वजनिक संपत्ति, इंसान, मवेशी आदि के नुकसान अलग हैं। राज्य सरकार की रपट को भरोसे लायक मानें तो सन 2013 में राज्य में नदियों के उफनने के कारण 3259.53 करोड़ का नुकसान हुआ था जो कि आजादी के बाद का सबसे बड़ा नुकसान था। अब तो देश के शहरी क्षेत्र भी बाए़ की चपेट में आ रहे हैं, इसके कारण भौतिक नुकसान के अलावा मानव संसाधन का जाया होना तो असीमित  है। सनद रहे कि देश के 800 से ज्यादा शहर नदी किनारे बसे हैं, वहां तो जलभ्राव का ंसकट है ही, कई ऐसे कस्बे जो अनियोजित विकास की पैदाईश हैं, शहरी नालों के कारण बाढ़-ग्रसत हो रहे है।।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकार (एनडीएमए) के पूर्व सचिव नूर मोहम्मद ने कहा कि देश में समन्वित बाढ़ नियंत्रण व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया गया। नदियों के किनारे स्थित गांव में बाढ़ से बचाव के उपाए नहीं किये गए। आज भी गांव में बाढ़ से बचाव के लिये कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं है। उन्होंने कहा कि उन क्षेत्रों की पहचान करने की भी जरूरत है जहां बाढ़ में गड़बड़ी की ज्यादा आशंका रहती है। आज बारिश का पानी सीधे नदियों में पहुंच जाता है। वाटर हार्वेस्टिंग की सुनियोजित व्यवस्था नहीं है ताकि बारिश का पानी जमीन में जा सके। शहरी इलाकों में नाले बंद हो गए हैं और इमारतें बन गई हैं। ऐसे में थोड़ी बारिश में शहरों में जल जमाव हो जाता है। अनेक स्थानों पर बाढ़ का कारण मानवीय हस्तक्षेप है।
मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है । अतएव बाढ़ के बढ़ते सुरसा-मुख पर अंकुश लगाने के लिए शीघ्र्र कुछ करना होगा । कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विशयों का हमारे यहां कभी निश्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठा कर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी , नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेउ़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीशण विभीशिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।


Flood in Rivers - The men made disaster

छेड़छाड़ से बिफर रही हैं नदियां
        पंकज चतुर्वेदी

जो देश अभी एक सप्ताह पहले एक-एक बूंद पानी के लिए तरस रहा था, बादल क्या बरसे, आधे से ज्यादा इलाका बाढ़ की चपेट में आ गया। असम जैसे राज्य में 26 से ज्यादा मौत हो चुकी हैं व 25 जिले पूरी तरह जलमग्न है।। असम, बिहार, पूर्वी उ.्रप तो हर साल बारिश में हलकान रहता है,लेकिन इस बार तो जम्मू-कश्मीर, गुजरात का सौराश्ट्र और राजस्थान के शेखावटी के रेतीले इलाके भी जलमग्न हैं। भयंकर सूखे से हैरान मध्यप्रदेश के कोई 12 जिलों की छोटी नदियां आशाढ की पहली फुहारों में ही उफन गईं।  पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पायेंगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ौतरी हुई है । कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफन रही हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है । गंभीरता से देखें तो यह छोटी नदियों के लुप्त होने, बड़ी नदियों पर बांध और मध्यम नदियों के उथले होने का दुष्परिणाम है। बाढ़ अकेले कुछ दिनों की तबाही ही नहीं लाती है, बल्कि वह उस इलाके के विकस को सालेां पीछे ले जाती है ।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी । 1960 में यह बढ़ कर ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर हो गई । 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया । अभी यह तबाही कोई सात करोड़ हेक्टेयर होने की आशंका है । पिछले साल आई बाढ़ से साढ़े नौ सौ से अधिक लोगों के मरने, तीन लाख मकान ढ़हने और चार लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल बह जाने की जानकारी सरकारी सूत्र देते हैं । यह जान कर आश्चर्य होगा कि सूखे और मरुस्थल के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है ।ं देश में बाढ़ की पहली दस्तक असम में होती है । असम का जीवन कहे जाने वाली ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां मई-जून के मध्य में ही विनाश फैलाने लगती हैं । हर साल लाखों बाढ़ पीड़ित शरणार्थी इधर-उधर भागते है । बाढ़ से उजड़े लोगों को पुनर्वास के नाम पर एक बार फिर वहीं बसा दिया जाता है, जहां छह महीने बाद जल प्लावन होना तय ही होता है । यहां के प्राकृतिक पहाडों की बेतरतीब खुदाई कर हुआ अनियोजित शहरीकरण और सड़कों का निर्माण भी इस राज्य में बाढ़ की बढ़ती तबाही के लिए काफी हद तक दोषी है । सनद रहे वृक्षहीन धरती पर बारिश का पानी सीधा गिरता है और भूमि पर मिट्टी की उपरी परत, गहराई तक छेदता है ।यह मिट्टी बह कर नदी-नालों को उथला बना देती है, और थोड़ी ही बारिश में ये उफन जाते हैं । हाल ही में दिल्ली में एनजीटी ने मेट्रो कारपोरेशन को चताया है कि वह यमुना के किनारे  जमा किए गए हजारों ट्रक मलवे को हटवाए। यह पूरे देश में हो रहा है कि विकास कार्याें के दौरान निकली मिट्टी व मलवे को स्थानीय नदी-नालों में चुपके से डाल दिया जा रहा है। और तभी थोड़ी सी बारिश में ही  इन जल निधियों का प्रवाह कम हो जाता है व पानी बस्ती,खेत, ंजगलों में घुसने लगता है।
   देश के कुल बाढ़ प्रभवित क्षेत्र का 16 फीसदी बिहार में है । यहां कोशी, गंड़क, बूढ़ी गंड़क, बाधमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं । इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केन्दª सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा हैं । यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं । ‘‘बिहार का शोक’’ कहे जाने वाली कोशी के उपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है । लेकिन इसके रखरखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रूपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है । हालांकि तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं । कोशी के तटबंधों के कारण उसके तट पर बसे 400 गांव डूब में आ गए हैं । कोशी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सील्ट (गाद) के भराव से उंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती हैं । फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मंुगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है । विदित हो आजादी से पहले अंग्रेज सरकार व्दारा बाढ़ नियंत्रण में बड़े बांध या तटबंधों को तकनीकी दृष्टि से उचित नहीं माना था । तत्कालीन गवर्नर हेल्ट की अध्यक्षता में पटना में हुए एक सम्मेलन में डा. राजेन्दªप्रसाद सहित कई विद्वानों ने बाढ़ के विकल्प के रूप में तटबंधों की उपयोगिता को नकारा था । इसके बावजूद आजादी के बाद हर छोटी-बड़ी नदी को बांधने का काम अनवरत जारी है ।
    बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों के कई उदाहरण पूरे देश में देखने को मिल रहे हैं। वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे है । जब प्राकृतिक हरियाली उजाड़ कर कंक्रीट जंगल सजाया जाता है तो जमीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है, साथ ही सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है । फिर शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है । यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है । फलस्वरूप नदी की जल ग्रहण क्षमता कम होती है ।
   कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बाढ़ का कारण जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हो रहा जमीन का अनियंत्रित शहरीकरण ही है । इससे वहां भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं और इसका मलवा भी नदियों में ही जाता है । पहाड़ों पर खनन से दोहरा नुकसान है । इससे वहां की हरियाली उजड़ती है और फिर खदानों से निकली धूल और मलवा नदी नालों में अवरोध पैदा करता है । हिमालय से निकलने वाली नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है । सनद रहे हिमालय, पृथ्वी का सबसे कम उम्र का पहाड़ है । इसकी विकास प्रक्रिया सतत जारी है, तभी इसे ‘‘जीवित-पहाड़’’ भी कहा जाता है । इसकी नवोदित हालत के कारण यहां का बड़ा भाग कठोर-चट्टानें ना हो कर, कोमल मिट्टी है । बारिश या बरफ के पिघलने पर, जब पानी नीचे की ओर बहता है तो साथ में पर्वतीय मिट्टी भी बहा कर लाता है । पर्वतीय नदियों में आई बाढ़ के कारण यह मिट्टी नदी के तटों पर फैल जाती है । इन नदियों का पानी जिस तेजी से चढ़ता है, उसी तेजी से उतर जाता है । इस मिट्टी के कारण नदियों के तट बेहद उपजाऊ हुआ करते हैं । लेकिन अब इन नदियों को जगह-जगह बांधा जा रहा है, सो बेेशकीमती मिट्टी अब बांध्बांधंांेे में ही रुक जाती है और नदियों को उथला बनाती रहती है । साथ ही पहाड़ी नदियों में पानी चढ़ तो जल्दी जाता है, पर उतरता बड़े धीरे-धीरे है ।
  मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है । हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विशयों का हमारे यहां कभी निश्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठा कर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी , नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेउ़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीशण विभीशिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।
पंकज चतुर्वेदी
फ्लेट यूजी-1, 3/186 राजेन्द्र नगर सेक्टर-2
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
संपर्क: 9891928376, 011- 26707758(आफिस),

सोमवार, 15 जुलाई 2019

Why rivers over flood in rainy season

बाढ़ : छेड़छाड़ से बौराई नदियां


पंकज चतुर्वेदी

बाढ़ : छेड़छाड़ से बौराई नदियां
जो देश अभी एक सप्ताह पहले एक-एक बूंद पानी के लिए तरस रहा था,आधे से ज्यादा इलाका बाढ़ की चपेट में आ गया।
असम जैसे राज्य  के 33 जिले में से 21 बाढ़ की चपेट में है, आठ लाख लोग पीड़ित हैं, 6 लोग मर गए हैं और 27 हजार हेक्टेयर से अधिक की खेती बह गई है। बिहार में पिछले चार दिनों में बाढ़ पीड़ित जिलों में 32 लोगों की मौत हो गई। आपदा प्रबंधन विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक नेपाल की सीमा से लगे क्षेत्रों में मूसलाधार बारिश राज्य की पांच नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। राज्य के नौ जिलों-शिवहर, सीतामढ़ी, पूर्वी चंपारण, मधुबनी, अररिया, किशनगंज, सुपौल, दरभंगा और मुजफ्फरपुर के 55 प्रखंडों में बाढ़ से कुल 17,96,535 आबादी पीड़ित हुई है। सबसे ज्यादा सीतामढ़ी में करीब 11 लाख लोग बाढ़ से घिरे हुए हैं तो अररिया में पांच लाख लोग।भयंकर सूखे से हैरान मध्य प्रदेश के कोई 12 जिलों की छोटी नदियां आषाढ़ की पहली फुहारों में ही उफन गईं।
आंकड़ों को देखें तो बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफन रही हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। गंभीरता से देखें तो यह छोटी नदियों के लुप्त होने, बड़ी नदियों पर बांध और मध्यम नदियों के उथले होने के दुष्परिणाम हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी। 1960 में यह बढ़ कर ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर हो गई। 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया। अभी यह तबाही कोई सात करोड़ हेक्टेयर होने की आशंका है।
पिछले साल बाढ़ से साढ़े नौ सौ से अधिक लोगों के मरने, तीन लाख मकान ढ़हने और चार लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल बह जाने की जानकारी सरकारी सूत्र देते हैं। हर साल लाखों बाढ़ पीड़ित शरणार्थी इधर-उधर भागते हैं। पुनर्वास के नाम पर उन्हें फिर वहीं बसा दिया जाता है, जहां छह महीने बाद जल प्लावन होना तय ही होता है। यहां के प्राकृतिक पहाड़ों की बेतरतीब खुदाई कर हुआ अनियोजित शहरीकरण और सड़कों का निर्माण भी इस राज्य में बाढ़ की बढ़ती तबाही के लिए काफी हद तक दोषी है।
देश के कुल बाढ़ पीड़ित क्षेत्र का 16 फीसद बिहार में है। यहां कोशी, गंड़क, बूढ़ी गंड़क, बाघमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं। इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केद्र सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा है। यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं। ‘बिहार का शोक’ कोशी के ऊपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है। लेकिन इसके रख-रखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रुपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है। तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं। कोशी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सील्ट (गाद) के भराव से उंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती हैं। फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मुंगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है। ब्रिटिश सरकार ने बाढ़ नियंत्रण में बड़े बांध या तटबंधों को उचित नहीं माना था। इसके बावजूद आजादी के बाद हर छोटी-बड़ी नदी को बांधने का काम जारी है।
    हिमालयन नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है। हिमालय, पृथ्वी का सबसे कम उम्र का पहाड़ है। इस कारण यहां का बड़ा भाग कठोर-चट्टानें न हो कर, कोमल मिट्टी है। बारिश या बरफ के पिघलने पर, जब पानी नीचे की ओर बहता है तो साथ में पर्वतीय मिट्टी भी बहा कर लाता है। पर्वतीय नदियों में आई बाढ़ के कारण यह मिट्टी नदी के तटों पर फैल जाती है। इस कारण नदियों के तट बेहद उपजाऊ  हो जाते हैं।लेकिन अब इन नदियों को जगह-जगह बांधा जा रहा है, सो बेशकीमती मिट्टी अब बांधों में ही रुक जाती है और नदियों को उथला बनाती रहती है। नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो बाढ़  जैसी भीषण विभीषिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।

Misuse of ground water is harmful

भूजल के दोहन से मंडराता खतरा



जमीन की गहराइयों में पानी का अकूत भंडार है। यह पानी का सर्वसुलभ और स्वच्छ जरिया है, लेकिन यदि एक बार यह दूषित हो जाए तो इसका परिष्करण लगभग असंभव होता है। भारत में आबादी बढ़ने के साथ-साथ घरेलू इस्तेमाल, खेती और औद्योगिक उपयोग के लिए भूगर्भ जल पर निर्भरता साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। पाताल से पानी निचोड़ने की प्रक्रिया में सामाजिक और सरकारी कोताही के चलते भूजल खतरनाक स्तर तक नीचे तो जा ही रहा है, जहरीला भी होता जा रहा है।
भारत में दुनिया की सर्वाधिक खेती होती है। यहां पांच करोड़ हेक्टेयर से अधिक जमीन पर जोताई होती है, इस पर 460 बीसीएम (बिलियन क्यूसेक मीटर) पानी खर्च होता है। खेतों की जरूरत का 41 फीसद पानी सतही स्रोतों से और 51 प्रतिशत भूगर्भ से मिलता है। विगत पांच दशकों के दौरान भूजल के इस्तेमाल में 115 गुना का इजाफा हुआ है। देश की राजधानी दिल्ली इसकी बानगी है कि हम भूगर्भ से जल उलीचने के मामले में कितने लापरवाह हैं। राजधानी के भूगर्भ में 13,491 मिलियन क्यूसेक मीटर (एमसीएम) पानी मौजूद है। इसमें से 10,284 एमसीएम पानी लवण और रसायन युक्त है। सिर्फ 3,207 एमसीएम पानी ही साफ है। दिल्ली में हर साल 392 एमसीएम भूजल का दोहन होता है। जबकि 287 एमसीएम पानी ही रिचार्ज किया जाता है। इस तरह भूजल के स्टॉक से हर साल 105 एमसीएम पानी अधिक दोहन हो रहा है।
दिल्ली के निकट बसे गुरुग्राम को भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए पसंदीदा जगह माना जाता है। यहां की आबादी करीब 25 लाख है। वर्ष 2018 में यहां पानी की अधिकतम मांग रोजाना 410 एमजीडी थी। अनुमान है कि वर्ष 2021 तक यहां की आबादी 35 लाख हो जाएगी जिनके लिए पानी की मांग 600 एमजीडी होगी। आज गुरुग्राम की पानी की मांग का आधा हिस्सा भूजल से ही पूरा होता है। यमुना नदी से नहरों से लाए गए पानी के माध्यम से बसई जलशोधन संयंत्र से 270 एमजीडी और एक अन्य संयंत्र से 140 एमजीडी पानी आता है। शेष 90 एमजीडी पानी की आपूर्ति पर माफियाओं का कब्जा है जो जमीन के भीतर से पानी निकाल कर टैंकरों के माध्यम से बेचकर व्यापक पैमाने पर कमाई करते हैं।
गुरुग्राम में भूजल के हालात गंभीर हैं। यहां जल स्तर हर साल डेढ़ से दो मीटर नीचे गिर रहा है। यहां का पानी इस स्तर पर रसायनयुक्त हो चुका है कि साधारण फिल्टर से इसके कुप्रभावों को दूर किया ही नहीं जा सकता। दिल्ली से ही सटे उत्तर प्रदेश के बागपत जिले को भूजल के मामले में डार्क जोन घोषित कर दिया गया है। यहां गन्ने की खेती व्यापक पैमाने पर होती है और उसमें भूजल का इस्तेमाल होता है।
हरियाणा से सीखने की जरूरत
हरियाणा सरकार ने इस मामले में इस वर्ष एक क्रांतिकारी निर्णय लिया है। हरियाणा में धान की खेती छोड़ने वाले किसान को सरकार कई सुविधाआंे के साथ पांच हजार रुपये प्रति एकड़ का अनुदान भी दे रही है। दरअसल राज्य सरकार यह समझ गई है कि धान की खेती के लिए किसान जमीन को बहुत गहरा छेद कर सारा पानी निकाल चुके हैं। धान की जगह मोटा अनाज उगाने से कम पानी लगेगा और भूजल भी बचेगा। वैसे पंजाब सरकार ने भी धान की बोआई का समय घटाया है। लेकिन इसका असर भूजल दोहन पर विपरीत होने की आशंका है, क्योंकि किसान कम समय में बोआई के चलते बरसात का इंतजार करने के बनिस्पत बोरवेल चलाएगा।
दुरुपयोग होने से बचाव
भूजल कभी भी पेयजल के लिए नहीं होता। इसके बावजूद भारत की बड़ी आबादी खेती के अलावा पीने के पानी हेतु इस पर निर्भर है। भारत में भूजल की अपेक्षा सतही जल की उपलब्धता अधिक है। हमारे यहां हजारों नदियां, तालाब, जोहड़ आदि हैं। समाज ने उनकी दुर्गति कर दी और आसानी से उपलब्ध भूजल पर हमला कर दिया। भारत की कृषि और पेय जलापूर्ति में उसकी हिस्सेदारी बहुत बड़ी है। हर साल निकाले जाने वाले भूजल का 89 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई क्षेत्र में प्रयोग किया जाता है। नौ फीसद पीने व घरेलू निस्तार में और कारखानों में दो फीसद पानी का इस्तेमाल होता है। शहरों में जल की 50 प्रतिशत और गांवों में जल की 85 प्रतिशत घरेलू आवश्यकता भूजल से पूरी होती है।
पानी निचोड़ने से बेहाल धरती
हाल ही में लोकसभा से साझा किए गए केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार देश के 16 फीसद तालुका, मंडल, ब्लॉक स्तरीय इकाइयों में भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ है। जबकि देश के चार फीसद इलाकों में भूजल स्तर इतना गिर चुका है कि इसे ‘विकट स्थिति’ या डार्क जोन बताया जा रहा है। हद से ज्यादा भूजल का दोहन करने वाले राज्य हैं- पंजाब (76 फीसद), राजस्थान (66 फीसद), दिल्ली (56 फीसद) और हरियाणा (54 फीसद)। इस संस्थान ने 6,584 ब्लॉक, मंडलों, तहसीलों के भूजल स्तर का मुआयना किया है। इनमें से केवल 4,520 इकाइयां ही सुरक्षित हैं, जबकि 1,034 इकाइयों को अत्यधिक दोहन की जाने वाली श्रेणी में डाला गया है। इसमें 681 ब्लॉक, मंडल के भूजल स्तर में (जो कुल संख्या का 10 फीसद है) अर्ध विकट श्रेणी में रखा गया है, जबकि 253 को विकट श्रेणी में रखा गया है। ये आंकड़े 2013 के मूल्यांकन के आधार पर हैं जिसके अनुसार 6,584 ब्लॉक, तालुका, मंडलों, जल क्षेत्रों में 17 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों की 1,034 इकाइयों का अत्यधिक दोहन किया गया है। इससे भूजल स्तर नीचे चला गया है। अत्यधिक दोहन वाले वह स्थान कहे जाते हैं जहां लंबी अवधि में जलस्तर में कमी देखी गई हो।
और भी खतरे हैं इसके
देश के कई हिस्सों में जमीन फटने की घटनाएं आमतौर पर सामने आती रहती हैं। बुहत सी जगह कुओं के पानी का स्तर अचानक नीचे गिर जाने या तालाब का पानी गायब होने की बातें सुनने में आती हैं। असल में यह सब अनियोजित और अनियंत्रित भूजल दोहन का दुष्प्रभाव ही है। भूजल दोहन का सबसे बड़ा खतरा भूकंप है। हम जानते हैं कि भारत दुनिया के सबसे जवान पहाड़ हिमालय की गोद में बसा है। हिमालय लगातार बढ़ रहा है और इसके कारण हमारे भूगर्भ में सतत टकराव व गतिविधियां चलती रहती हैं। किसी स्थान से अचानक पानी निकालने या चट्टानों को मशीनों से तोड़ कर पाताल से पानी निकालने वालों के लिए स्पेन से सबक लेना होगा। स्पेन के लरका शहर में 2011 में आए एक भूकंप के कारणों ने हमारी पेशानी में बल दिए हैं। स्पेन के इस शहर में आया विनाशकारी भूकंप चंद सेकेंड में पूरे शहर को लील गया था। वैज्ञानिक जांच से पता चला था कि यहां भूकंप का कारण अत्यधिक जलदोहन था। यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑनटेरियो के प्रोफेसर पैब्लो गॉनजालेज और उनके सहयोगियों ने सेटेलाइट राडार के जरिये भेजे गए आंकड़ों के अध्ययन के बाद पाया कि स्पेन के शहर लरका में आए भूकंप में भूमि सतह के केवल तीन किलोमीटर नीचे जमीन का एक हिस्सा अपनी जगह से फिसला था। वैज्ञानिकों के अध्ययन से पता चला है कि किस तरह बोरिंग के जरिये वर्षो तक जमीन से पानी निकालने से भूकंप आने का खतरा बढ़ सकता है।
बरसात होने पर जो पानी चट्टानों और मिट्टी से रिस कर भूमि के नीचे जमा हो जाता है, वही भूजल या भूमिगत जल है। जिन चट्टानों की शरण में भूजल जमा होता है, उन्हें जलभृत (एक्विफर) कहा जाता है। सामान्य तौर पर, जलभृत बजरी, रेत, बलुआ पत्थर या चूना पत्थर से बने होते हैं। इन चट्टानों से पानी नीचे बह जाता है, क्योंकि इनके बीच में ऐसी बड़ी और परस्पर जुड़ी हुई जगहें होती हैं, जो चट्टानों को पारगम्य (प्रवेश के योग्य) बना देती हैं। जलभृतों में जिन जगहों पर पानी भरता है, वे संतृप्त जोन (सैचुरेटेड जोन) कहलाते हैं। सतह में जिस गहराई पर पानी मिलता है, वह जल स्तर कहलाता है। जल स्तर जमीन से नीचे एक फुट तक उथला भी हो सकता है और वह कई मीटर गहराई तक भी हो सकता है। भारी वर्षा से जल स्तर बढ़ सकता है और लगातार दोहन करने से इसका स्तर गिर भी सकता है। भारतीय प्रायद्वीप में कठोर चट्टान वाले जलभृत ज्यादा हैं, लगभग 65 फीसद। इनमें से अधिकांश मध्य भारत में ही हैं। यहां जमीन की कुछ गहराई के बाद कठोर चट्टानों का राज है। इन चट्टानों से सतह पर ऐसी जटिल और निम्न संग्रहण वाली जलभृत व्यवस्था तैयार होती है कि अगर एक बार जल स्तर में दो-छह मीटर से अधिक की गिरावट हो जाती है तो फिर जल स्तर तेजी से गिरने लगता है। इन जलभृत की भेद्यता बहुत कम है जिस कारण बारिश होने पर भी वे दोबारा जल्दी नहीं भरते। इसका अर्थ यह है कि इन जलभृतों का पानी दोबारा भरने योग्य नहीं है और निरंतर प्रयोग किए जाने के कारण सूख सकता है। सिंधु-गंगा के मैदानों में कछारी जलभृत में पानी के संग्रहण की अद्भुत क्षमता है। इसलिए इन्हें जलापूर्ति का बहुमूल्य स्नोत माना जाता है। फिर भी भूजल को बड़े पैमाने पर उलीचा जा रहा है, जबकि इन स्नोतों के दोबारा भरने की दर निम्न है।
देश के 360 जिलों को भूजल स्तर में गिरावट के लिए खतरनाक स्तर पर चिन्हित किया गया है। भूजल रिचार्ज के लिए तो कई प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन खेती, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण जहर होते भूजल को लेकर लगभग निष्क्रियता का माहौल है। बारिश, झील व तालाब, नदियों और भूजल के बीच यांत्रिकी अंर्तसबंध है। जंगल और वृक्ष वाटर रिचार्ज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसी प्रक्रिया में कई जहरीले रसायन जमीन के भीतर रिस जाते हैं। दूषित पानी पीने के कारण कई इलाकों में त्वचा रोग, पेट खराब होना आदि महामारी का रूप ले चुका है।
भारत में खेती, पेयजल व अन्य कार्यो के लिए अत्यधिक जल दोहन से धरती का भूजल भंडार अब दम तोड़ रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर 5,723 ब्लॉकों में से 1,820 ब्लॉक में जल स्तर खतरनाक हद पार कर चुका है। जल संरक्षण न होने और लगातार दोहन के चलते 200 से अधिक ब्लॉक ऐसे भी हैं, जिनके बारे में केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने संबंधित राज्य सरकारों को जल दोहन पर पाबंदी लगाने का सुझाव दिया है। लेकिन कई राज्यों में इस दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जा सका है। उत्तरी राज्यों में हरियाणा के 65 फीसद और उत्तर प्रदेश के 30 फीसद ब्लॉकों में भूजल का स्तर चिंताजनक हो चुका है। इन राज्यों को जल संसाधन मंत्रलय ने अंधाधुंध दोहन रोकने के कई उपाय भी सुझाए हैं। इनमें सामुदायिक भूजल प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया गया है। राजस्थान जैसे राज्य में 94 प्रतिशत पेयजल योजनाएं भूजल पर निर्भर हैं। और अब राज्य के 30 जिलों में जल स्तर का सब्र समाप्त हो गया है। भूजल विशेषज्ञों के मुताबिक आने वाले दो सालों में राजस्थान के 140 ब्लॉकों में शायद ही जमीन से पानी उलीचा जा सकेगा। ऐसे में यह समस्या और गहरा सकती है।

मंगलवार, 2 जुलाई 2019

need to change food habits and accordingly agriculture too


फसलों के इस पुराने ढर्रे को अब बदलना ही होगा


बदलते पर्यावरण के हिसाब से खेती और भोजन की आदतों को न बदलना हमें महंगा पड़ सकता है।.

हमें यदि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना है, तो जल सुरक्षा की बात भी करनी होगी। दक्षिण भारत में अच्छी बरसात होती है। वहां खेत में बरसात का पानी भरा जा सकता है, सो पारंपरिक रूप से वहीं धान की खेती होती थी और वहीं के लोगों का मूल भोजन चावल था। पंजाब-हरियाणा आदि इलाकों में नदियों का जाल रहा है, वहां की जमीन में नमी रहती थी, सो चना, गेहूं, राजमा, जैसी फसलें यहां होती थीं। मालवा में गेंहू, चना के साथ मोटी फसल व तेल के लिए सरसो और अलसी का प्रचलन था और उनकी भोजन-अभिरुचि का हिस्सा था। लेकिन यह सब बदल गया।.हाल ही में हरियाणा सरकार ने घोषणा की है कि जो किसान धान की जगह अन्य कोई फसल बोएगा, उसे पांच हजार रुपये प्रति हेक्टेयर अनुदान दिया जाएगा। वैसे पंजाब, हरियाणा या गंगा-यमुना के दोआब के बीच बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आबादी के भोजन में चावल कभी एक जरूरी हिस्सा था ही नहीं, सो उसकी पैदावार भी यहां नहीं होती थी। ठीक इसी तरह ज्वालामुखी के लावे से निर्मित बेहद उपजाऊ जमीन के स्वामी मध्य प्रदेश के मालवा सोयाबीन की न तो खपत थी और न ही खेती। जल की प्रचुर उपलब्धता को देखकर इन जगहों पर ऐसी खेती को प्रोत्साहित किया गया, पर इसने अब वहां भूजल सहित पानी के सभी स्रोत खाली कर दिए हैं। यह पेयजल संकट का भी सबसे बड़ा कारण बन गया है। हमारे पास उपलब्ध कुल जल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल खेती में होता है। वैसे तो खेती-किसानी हमारी अर्थव्यवस्था का मूल आधार है और अगर इस पर ज्यादा पानी खर्च हो, तो चिंता नहीं करनी चाहिए। .
यह गणना अक्सर सुनने को मिलती है कि चावल के प्रति टन उत्पादन पर जल की खपत सबसे ज्यादा है, लेकिन उसकी पौष्टिकता सबसे कम। दूसरी तरफ, मोटे अनाज यानी बाजरा, मक्का, ज्वार आदि की पौष्टिकता सबसे ज्यादा है, लेकिन उनकी मांग सबसे कम। अमेरिका के मशहूर विज्ञान जर्नल साइंस एडवांसेस में प्रकाशित एक लेख ‘अल्टरनेटिव सेरिल्स केन इंप्रूव वाटर यूजेस ऐंड न्यूट्रीशन' में बताया गया है कि किस तरह भारत के लोगों की बदली भोजन-अभिरुचि के कारण उनके शरीर में पौष्टिक तत्व कम हो रहे हैं और जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव का उनके स्वास्थ्य पर तत्काल विपरीत असर पड़ रहा है। रिपोर्ट कहती है कि भारत में गत चार दशकों के दौरान अन्न का उत्पादन 230 प्रतिशत तक बढ़ा, लेकिन उसमें पौष्टिक तत्वों की मात्रा घटती गई। चावल की तुलना में मक्का ज्यादा पौष्टिक है, लेकिन उसकी खेती व मांग लगातार घट रही है। 1960 में भारत में गेहूं की मांग 27 किलो प्रति व्यक्ति थी, जो आज बढ़कर 55 किलो के पार हो गई है, जबकि मोटे अनाज ज्वार-बाजरा की मांग इसी अवधि में 32.9 किलो से घटकर 4 .2 किलो रह गई है। इसलिए इन फसलों की बुवाई भी कम हो रही है। जहां इन मोटी फसल के लिए बरसात या साधारण सिंचाई पर्याप्त थी, तो धान के लिए भूजल को पूरा निचोड़ लिया गया। आज देश में उपलब्ध भूजल के कुल इस्तेमाल का 80 फीसदी खेती में उपयोग हो रहा है और वह भी धान जैसी फसल पर। .
तीन साल पहले चीन ने गैरबासमती चावल को भारत से मंगवाने की भी अनुमति दे दी थी। हम भले ही इसे व्यापारिक सफलता समझें, लेकिन इसके पीछे असल में चीन का जल-प्रबंधन था। चीन और मिस्र समेत कई देशों ने ऐसी सभी खेती-बाड़ी को कम कर दिया है, जिसमें पानी की मांग ज्यादा होती है। भारत ने बीते सालों में कोई 37 लाख टन बासमती चावल विभिन्न देशों को बेचा। असल में, हमने केवल चावल बेचकर कुछ धन नहीं कमाया, उसके साथ एक खरब लीटर पानी भी उन देशों को दे दिया, जो इतना चावल उगाने में हमारे खेतों में खर्च हुआ था। हम एक किलो गेहूं उगाने में 1,700 लीटर पानी खर्च करते हैं। .
इसलिए अब जरूरी है कि हम देश में उपलब्ध पानी के आधार पर अपनी फसलों का निर्धारण करें। फसल ही क्यों, पूरे जीवन को ही पानी की उपलब्धता से निर्धारित करने की जरूरत है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि अब लोगों के भोजन में स्थानीय व मोटे अनाज को फिर से लौटाने के लिए जागरूकता अभियान नए दौर की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए चलाया जाए।.

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...