फसलों के इस पुराने ढर्रे को अब बदलना ही होगा
बदलते पर्यावरण के हिसाब से खेती और भोजन की आदतों को न बदलना हमें महंगा पड़ सकता है।.
हमें यदि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना है, तो जल सुरक्षा की बात भी करनी होगी। दक्षिण भारत में अच्छी बरसात होती है। वहां खेत में बरसात का पानी भरा जा सकता है, सो पारंपरिक रूप से वहीं धान की खेती होती थी और वहीं के लोगों का मूल भोजन चावल था। पंजाब-हरियाणा आदि इलाकों में नदियों का जाल रहा है, वहां की जमीन में नमी रहती थी, सो चना, गेहूं, राजमा, जैसी फसलें यहां होती थीं। मालवा में गेंहू, चना के साथ मोटी फसल व तेल के लिए सरसो और अलसी का प्रचलन था और उनकी भोजन-अभिरुचि का हिस्सा था। लेकिन यह सब बदल गया।.हाल ही में हरियाणा सरकार ने घोषणा की है कि जो किसान धान की जगह अन्य कोई फसल बोएगा, उसे पांच हजार रुपये प्रति हेक्टेयर अनुदान दिया जाएगा। वैसे पंजाब, हरियाणा या गंगा-यमुना के दोआब के बीच बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आबादी के भोजन में चावल कभी एक जरूरी हिस्सा था ही नहीं, सो उसकी पैदावार भी यहां नहीं होती थी। ठीक इसी तरह ज्वालामुखी के लावे से निर्मित बेहद उपजाऊ जमीन के स्वामी मध्य प्रदेश के मालवा सोयाबीन की न तो खपत थी और न ही खेती। जल की प्रचुर उपलब्धता को देखकर इन जगहों पर ऐसी खेती को प्रोत्साहित किया गया, पर इसने अब वहां भूजल सहित पानी के सभी स्रोत खाली कर दिए हैं। यह पेयजल संकट का भी सबसे बड़ा कारण बन गया है। हमारे पास उपलब्ध कुल जल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल खेती में होता है। वैसे तो खेती-किसानी हमारी अर्थव्यवस्था का मूल आधार है और अगर इस पर ज्यादा पानी खर्च हो, तो चिंता नहीं करनी चाहिए। .
यह गणना अक्सर सुनने को मिलती है कि चावल के प्रति टन उत्पादन पर जल की खपत सबसे ज्यादा है, लेकिन उसकी पौष्टिकता सबसे कम। दूसरी तरफ, मोटे अनाज यानी बाजरा, मक्का, ज्वार आदि की पौष्टिकता सबसे ज्यादा है, लेकिन उनकी मांग सबसे कम। अमेरिका के मशहूर विज्ञान जर्नल साइंस एडवांसेस में प्रकाशित एक लेख ‘अल्टरनेटिव सेरिल्स केन इंप्रूव वाटर यूजेस ऐंड न्यूट्रीशन' में बताया गया है कि किस तरह भारत के लोगों की बदली भोजन-अभिरुचि के कारण उनके शरीर में पौष्टिक तत्व कम हो रहे हैं और जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव का उनके स्वास्थ्य पर तत्काल विपरीत असर पड़ रहा है। रिपोर्ट कहती है कि भारत में गत चार दशकों के दौरान अन्न का उत्पादन 230 प्रतिशत तक बढ़ा, लेकिन उसमें पौष्टिक तत्वों की मात्रा घटती गई। चावल की तुलना में मक्का ज्यादा पौष्टिक है, लेकिन उसकी खेती व मांग लगातार घट रही है। 1960 में भारत में गेहूं की मांग 27 किलो प्रति व्यक्ति थी, जो आज बढ़कर 55 किलो के पार हो गई है, जबकि मोटे अनाज ज्वार-बाजरा की मांग इसी अवधि में 32.9 किलो से घटकर 4 .2 किलो रह गई है। इसलिए इन फसलों की बुवाई भी कम हो रही है। जहां इन मोटी फसल के लिए बरसात या साधारण सिंचाई पर्याप्त थी, तो धान के लिए भूजल को पूरा निचोड़ लिया गया। आज देश में उपलब्ध भूजल के कुल इस्तेमाल का 80 फीसदी खेती में उपयोग हो रहा है और वह भी धान जैसी फसल पर। .
तीन साल पहले चीन ने गैरबासमती चावल को भारत से मंगवाने की भी अनुमति दे दी थी। हम भले ही इसे व्यापारिक सफलता समझें, लेकिन इसके पीछे असल में चीन का जल-प्रबंधन था। चीन और मिस्र समेत कई देशों ने ऐसी सभी खेती-बाड़ी को कम कर दिया है, जिसमें पानी की मांग ज्यादा होती है। भारत ने बीते सालों में कोई 37 लाख टन बासमती चावल विभिन्न देशों को बेचा। असल में, हमने केवल चावल बेचकर कुछ धन नहीं कमाया, उसके साथ एक खरब लीटर पानी भी उन देशों को दे दिया, जो इतना चावल उगाने में हमारे खेतों में खर्च हुआ था। हम एक किलो गेहूं उगाने में 1,700 लीटर पानी खर्च करते हैं। .
इसलिए अब जरूरी है कि हम देश में उपलब्ध पानी के आधार पर अपनी फसलों का निर्धारण करें। फसल ही क्यों, पूरे जीवन को ही पानी की उपलब्धता से निर्धारित करने की जरूरत है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि अब लोगों के भोजन में स्थानीय व मोटे अनाज को फिर से लौटाने के लिए जागरूकता अभियान नए दौर की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए चलाया जाए।.
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