जल-संपदा उजाड़ कर एनसीआर का विस्तार
पानी की कमी से आज तकरीबन पूरा देश कराह रहा है। बीते एक दशक में महानगरों में आबादी विस्फोट हुआ और बढ़ती आबादी को सुविधाएं देने के लिए खूब सड़कें, फ्लाइओवर, तरह-तरह के भवन, मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स, खेल परिसर आदि भी बने। यह निर्विवाद तथ्य है कि पानी के बगैर मानवीय सभ्यता के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। विकास के प्रतिमान बने इन शहरों में पूरे साल तो जल संकट रहता है और जब बरसात होती है तो वहां जलभराव के कारण मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। शहर का मतलब है उद्योग-धंधों और अनियोजित कारखानों की स्थापना जिसका परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां जहरीली हो चुकी हैं।
नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यो के लिए, न कि उसमें गंदगी बहाने के लिए। और दूसरी तरफ शहर हैं कि हर साल बढ़ रहे हैं।
देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का भी है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दोगुनी होकर 16 हो गई है। पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर 50 तक पहुंच गए हंैं। आज देश की कुल आबादी का 8.5 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले दो दशकों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी।
रूठ गए राजधानी के नदी-तालाब
राजधानी दिल्ली की बढ़ती आबादी, पानी की कमी और उस पर सियासत किसी से छुपी नहीं है। कहने को दिल्ली की सीमा के बीच से यमुना नदी 28 किमी बहती है, लेकिन दिल्ली में यमुना को जो नुकसान होता है उससे वह अपने विसर्जन-स्थल तक नहीं उबर पाती है। राजधानी में यमुना में हर दिन कई लाख लीटर घरों के निस्तार व कारखानों का जहरीला पानी तो मिलता ही है, इसके तटों को सिकोड़ कर निर्माण करना और तटों के पर्यावास से छेड़छाड़ तो निरंकुश है।
दिल्ली में अकेले यमुना से 724 मिलियन घनमीटर पानी आता है, लेकिन इसमें से 580 मिलियन घनमीटर पानी बाढ़ के रूप में यहां से बह भी जाता है। हर साल गरमी के दिनों में पानी की मांग और सप्लाई के बीच कोई 300 एमजीडी पानी की कमी होना आम बात है। ऐसे में बारिश के दिनों में यमुना में आने वाले पानी को यदि जलाशय आदि के माध्यम से भंडारण करके रखा जाए तो कई माह तक इससे दिल्ली की प्यास बुझाई जा सकती है।
राजधानी के महंगे रिहाईशी इलाकों में भले ही करोड़ में दो कमरे वाला फ्लैट मिले, लेकिन पानी के लिए टैंकर का सहारा लेना ही होगा। दिल्ली के कई अन्य इलाकों की भी यही दशा है।
अन्य राज्यों से हो रही जलापूर्ति
केंद्रीय भूजल बोर्ड ने वर्ष 2001 में एक मास्टर प्लान बनाया था जिसमें दिल्ली में प्रत्येक व्यक्ति की पानी की मांग को औसतन 363 लीटर मापा था, इसमें 225 लीटर घरेलू इस्तेमाल के लिए, 47 लीटर कल-कारखानों में, चार लीटर फायर ब्रिगेड के लिए, 35 लीटर खेती व बागवानी में और 52 लीटर अन्य जरूरतों के लिए। अनुपचारित पानी को दूर तक लाने ले जाने के लिए रिसाव व अन्य हानि को भी जोड़ लें तो यह औसत 400 लीटर होता है। हर रोज पानी की मांग दस हजार करोड़ लीटर। यदि अपने संसाधनों की दृष्टि से देखें तो दिल्ली के पास इसमें से बमुश्किल 15 फीसद पानी ही अपना है। बाकी पानी हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंड से आदि से आता है।
दिल्ली में बारिश कम नहीं होती, लेकिन उसका लाभ यहां के लोगों को नहीं मिल पाता, लिहाजा भूजल स्तर खतरनाक हद तक गिरने का मूल कारण महानगर की परिधि के पुराने तालाब और जोहड़ों आदि का लुप्त हो जाना है। वर्ष 2000 में किए गए एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली के कुल 794 तालाबों में से अधिकांश पर अवैध कब्जा हो चुका था और जो तालाब थे भी उनकी हालत खराब थी। दिल्ली हाई कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान दिल्ली सरकार ने 629 तालाबों की जानकारी दी, जो दिल्ली सरकार, डीडीए, एएसआइ, पीडब्ल्यूडी, नगर निगम, वन विभाग और सीपीडब्ल्यूडी के तहत आते हैं। हाई कोर्ट ने 2007 में आदेश दिया कि जीवित करने लायक बचे 453 तालाबों को दोबारा विकसित किया जाए, लेकिन अब तक ऐसा हो नहीं पाया है।
गाजियाबाद में गुम हो गए तालाब
अभी तीन दशक पहले तक गाजियाबाद जिले में 995 तालाब थे जिनमें से आज कोई दो दर्जन ग्राम पंचायतों के तालाब पूरी तरह गुम हो गए हैं। आज जिले के कई तालाबों पर स्थानीय रसूखदारों का कब्जा है और उन्होंने उस पर जबरन निर्माण कार्य को अंजाम दे रखा है। अकेले गाजियाबाद नगर निगम क्षेत्र के 95 तालाबों पर पक्के निर्माण हो गए। कहने को जिले में सैकड़ों तालाब हैं, लेकिन इन तालाबों का इस्तेमाल पानी पीने के लिए नहीं, बल्कि घरों से निकले गंदे पानी को खपाने में हो रहा है। सरकारी रिकार्ड में कुल 1,288 हेक्टेयर भूभाग में 65 तालाब व झीलें हैं, जिनमें से 642 हेक्टेयर ग्राम समाज, 68.5 हेक्टेयर मछली पालन विभाग और 588 हेक्टेयर निजी लोगों के कब्जे में है। तकरीबन सौ तालाबों पर लोगों ने कब्जा कर मकान-दुकान बना लिए हैं। यहां पर दो से पांच एकड़ क्षेत्रफल के 53 तालाब हैं, पांच से 10 हेक्टेयर वाले तीन, 10 से 50 हेक्टेयर का एक तालाब कागजों पर दर्ज है। इनमें से कुल 88 तालाब पट्टे वाले और 13 निजी हैं। जिले की 19.2 हेक्टेयर में फैली मसूरी झील, 37.2 हेक्टेयर में विस्तृत इलाके की सबसे बड़ी हसनपुर झील, धौलाना का 7.9 हेक्टेयर में फैला तालाब अभी भी कुछ उम्मीद जगाते हैं। गाजियाबाद शहर यानी नगर निगम के तहत कुछ दशक पहले तक 138 तालाब हुआ करते थे। इनमें से 29 पर तो कुछ सरकारी महकमों ने ही कब्जा कर लिया। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने रहीसपुर, रजापुर, दमकनपुर, सिहानी आदि 10 तालाबों पर तो अपनी कालोनियां ही बना डालीं। शहर के 28 तालाब अभी भी अपने अस्तित्व की लड़ाई समाज से लड़ रहे हैं, जबकि 78 तालाबों को रसूखदार लोग पी गए। जाहिर है कि जब बाड़ ही खेत चर रही है तो उसका बचना संभव नहीं है।
अब एक और हास्यास्पद बात सुनने में आई है कि कुछ सरकारी महकमे हड़प किए गए तालाबों के बदले में कहीं अन्यत्र जमीन देने व तालाब खोदवाने की बात कर रहे हैं। एनजीटी यानी नेशनल ग्रीन टिब्यूनल ने डांट भी लगाई और प्रशासन ने उतने ही तालाब को निर्मित कर देने का वादा कर दिया। उस वादे के एक दशक बीत जाने के बावजूद एक भी तालाब को खोदा जा सका है। जबकि इसके विपरीत जिले में हिंडन नदी के तट पर दस हजार से ज्यादा मकान और खड़े कर दिए गए हैं। जहां एक ओर आवासीय घरों की मांग निरंतर बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर भूमाफिया भी सक्रिय हैं और वे ताकतवर भी हैं। नदी हो या तालाब, हजारों एकड़ जमीन पर अब कंक्रीट की संरचनाओं का कब्जा है। सरकारी फाइलों पर भले ही उन्होंने इसे अतिक्रमण के रूप में दर्ज किया हो, लेकिन अब उसे हटाने की बात कोई करता नहीं है।
यह समझना जरूरी है कि समाज जिन जल-निधियों को उजाड़ रहा है, वैसी नई संरचनाओं को बनाना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि उन जल निधियों को हमारे पूर्वजों ने अपने पारंपरिक ज्ञान व अनुभव से इस तरह रचा था कि यदि बारिश बहुत ही कम हो तो भी लोगों को पानी की किल्लत नहीं हो। आज समय की मांग है कि मानवीय अस्तित्व को बचाना है तो महानगरों के विस्तार के बनिस्पत जल संरचनाओं को अक्षुण्ण रखना अनिवार्य हो।
दिल्ली-गुरुग्राम अरावली पर्वतमाला के तहत है और एक सदी पहले तक इस पर्वतमाला पर गिरने वाली हर एक बूंद ‘डाबर’ में जमा होती थी। ‘डाबर’ यानी उत्तरी-पश्चिमी दिल्ली का वह निचला इलाका जो पहाड़ों से घिरा था। इसमें कई अन्य झीलों व नदियों का पानी आकर भी जुड़ता था। इस झील का विस्तार एक हजार वर्ग किमी था जो आज गुरुग्राम के सेक्टर 107- 108 से लेकर दिल्ली हवाई अड्डे से होते हुए जनकपुरी के पास तक था। इसमें कई प्राकृतिक नहरें थीं जो दिल्ली की जमीन, आबोहवा और गले को तर रखती थीं। खूब हरियाली थी, यह एक ऐसा ‘वेट लैंड’ था जो दिल्ली के आसपास 200 किमी तक हवा-पानी का जरिया था। वही जीवनदायी ‘वेट लैंड’ आज दिल्ली के भूजल के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक बन गया है। आज नजफगढ़ नाला के नाम से कुख्यात यह जल स्नोत कभी जयपुर के जीतगढ़ से निकल कर अलवर, कोटपुतली, रेवाड़ी व रोहतक होते हुए नजफगढ़ झील और वहां से दिल्ली में यमुना से मिलने वाली साहिबी या रोहिणी नदी हुआ करती थी। इस नदी के जरिये नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना में मिल जाया करता था। वर्ष 1912 के आसपास दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ आई और अंग्रेजी हुकुमत ने नजफगढ़ नाले को गहरा कर उससे पानी निकासी की। उस दौर में इसे नाला नहीं बल्कि ‘नजफगढ़ लेक एस्केप’ कहा जाता था। इसके साथ ही नजफगढ़ झील और प्राकृतिक नहर के नाले में बदलने की दुखद कथा शुरू हो गई।
सरकारी रिपोर्ट बताती है कि गत एक दशक में गुरुग्राम के भूजल का स्तर 82 प्रतिशत नीचे गिरा। वर्ष 2006 में यहां औसतन 19.85 मीटर गहराई पर पानी मिल जाता था, लेकिन 2016 में यह 36.21 मीटर हो गया। अब यह और नीचे जा चुका है। कहने को यह अरावली पर्वतमाला के साये में साहिबी नदी के तट पर बसा शहर है, लेकिन अब यहां न तो अरावली के चिन्ह बचे और न ही साहिबी नदी का प्रवाह। करीब डेढ़-दो दशक पहले तक एक नदी हुआ करती थी- साहबी या साबी जो जयपुर जिले के सेवर की पहाड़ियों से निकल कर गुरुग्राम के रास्ते नजफगढ़ झील तक आती थी। आश्चर्य यह कि इस नदी का गुरुग्राम की सीमा में कोई राजस्व रिकार्ड ही नहीं रहा। करीब एक दशक पहले हरियाणा विकास प्राधिकरण ने नदी के जल ग्रहण क्षेत्र को ‘आर जोन’ में घोषित कर दिया। आर जोन में आते ही 50 लाख रुपये प्रति एकड़ की जमीन बिल्डरों की निगाह में आई और इसकी कीमत 15 करोड़ रुपये प्रति एकड़ हो गई। जहां नदी थी वहां हजारों आवास बन गए। ऐसे में बारिश के पानी का प्रवाह थम गया।
बेहतर रोजगार, आधुनिक जन-सुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घरों को छोड़ कर शहरी चकाचांैंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि दिल्ली एनसीआर का निरंतर विस्तार होता जा रहा है और इस बढ़ती आबादी के लिए आवास, सड़क, रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए अनिवार्य जमीन की मांग को पूरा करने के लिए नदी, तालाब, झील, जोहड़ आदि को उजाड़ा जा रहा है। दिल्ली-एनसीआर में कई ऐसी बस्तियां हैं जहां गगनचुंबी इमारतें भले ही भव्य दिखती हों, लेकिन जल-संपदा के मामले में वे कंगाल हैं और इसका कारण है कि लाखों लोगों की प्यास बुझाने में सक्षम संसाधनों को सुखा कर वे इमारतें खड़ी की गई हैं
पंकज चतुर्वेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें