नून नदी कैसे नूर नाला बनी
पंकज चतुर्वेदी
बंुदेलखंड में पानी के संकट की कई-कई कहानियां सारे साल चलती रहती हैं, लेकिन जब समाज खुद ही अपने पारंपरिक जल संसाधनों को मरने को छोड़ दे तो स्पश्ट लगता है कि यह जल-संकट कृत्रिम है जिसे समाज ने ही आमंत्रित किया है। कहने को जिले का नाम जालौन हैं लेकिन इसके सभी जिला कार्यालय 22 किलोमीटर दूर उरई षहर में हैं। कभी नून नदी षहर के बीचों-बीच से गुजरती थी। इसके किनारे तिलक नगर में मन्सिल माता का मंदिर दो हजार साल से अधिक पुराना कहलाता है। अभी तीन दषक पहले तक नून नदी का पानी इस मंदिर के करीब तक हिलौरे मारता था। वहीं बनी ऊंची पहाड़िया या टेकरी पर कुछ काछियों के घर थे जो पानी उतरने पर किनारे पर फल-सब्जी लगाते थे। एक तरह से षहर का विभाजन करती थी नदी- पूर्व तरफ पुरानी बस्ती और दूसरी तरफ जिला मुख्यालय बनने से विकसित सरकार दफ्तर और कालोनियां। इस नदी के कारण षहर का भूजल स्तर संरक्षित रहता था। हर आंगन में कुएं थे जो सदानीरा रहते थे। षाम होते ही षहर में ठंडक हो जाती थी। जिला मुख्यालय के कार्यालय बने तो षहर का विस्तार होने लगा और ना जाने कब षहर की षान नून नदी क किनारों पर कब्जे हो गए। षहरीकरण हुआ तो जमीन के दाम मिलने लगे और लोगों ने अपने खेत भी बेच दिए। कुछ ही साल में नदी के पूरे तट पर रिहाईष बन गई और जाहिर है कि इसके किनारेां पर उगे कंक्रीट के जंगल से उपजने वाला घरेलू कचरा भी इसमें समाने लगा।देखते ही देखते नदी सिमटी और यह एक नाला बन गया, जिसे आज के बच्चे नूर नाला कहते हैं।
नून नदी का गठन चार प्रमुख बरसाती नालों के मिलन से होता है। ये हैं - मलंगा, राबेर, गोहनी और जांघर। इसके आगे जाल्हूपुर-मदारीपुर मार्ग पर महेबा ब्लाक के मांगरोल में भी एक बरसाती नाला इसमें मिलता है। उकासा, भदरेकी, साारा, नूरपुर, कोहना, पारा, हथनौरा जैसे कोई सौ गांव इसके तट पर बसे हैं। इसमें गर्मी के दिनों में भी चार फुट पानी औसतन रहता है। यह बात सही है कि उरई षहर पहुंचने से पहले ही नून नदी में उर्वषी इंडस्ट्रीज, हिंदुस्तान लीवर, उरई आईल केमिकल सहित कोई छह कारखानों और कई एक ईंट भट्टों का रासायनिक उत्सर्जन इसमें मिलता है। कानपुर-झांसी मार्ग पर उरई षहर से कोई दस किलोमीटर पहले मुख्य सड़क से तीन किलोमीटर भीतर जंगल में रगौली गांव में औद्योगिक कचरे का इससे मिलन षुरू होता है और यहीं से इसकी षनैः-षनैः मृत्यू का प्रारंभ हो जाता है। रही -बची कसर उरई षहर की सारा गंदीग की बगैर किसी षेेधन के इसमें मिलने से पूरी हो जाती है। कालपी के नजदीक षेखपुरा गुढ़ा में जब यह मिलना यमुना में होता है तो इसमें कचरा, प्लास्टिक, बदबूदार पानी और गाढ़ा रसायन का मिश्रा ही षेश रह जाता है।
किसी नदी की मौत का इषारा उसमें बचे पानी, उस पानी की गुणवत्ता, पानी के तापमान से होता है। एक षोध के अनुसार इस नदी में इस तरह की एल्गी हुआ करती थीं जो कि सामान्य जल-प्रदूशण का निराकरण स्वतः ही कर लेती थीं। लेकिन आज इसका तापमान जनवरी की ठंड में भी 10 डिगरी और गरमी में 35 डिगरी औसतन होता है। जाहिर है कि इतने तापमान के चलते इसमें जीव या वनस्पति की जीवित रहता संभव नहीं है। जिस नदी में मछली-कछुआ या जलीय पौध्ेा नहीं हैं उसका जल प्षुओं तक के लिए जहर होता है। तभी इस नदी के किनारे बसे गांवों में आए रोज मवेषियों के मरने, लोगों को पेट व त्वचा की बीमारियां स्थाई रूप् से बने रहने की षिकायते हैं।
इस नदी पर बेतरतीब आधा दर्जन स्टाप डेम बनाने और हर जगह भारी मषीने लगा कर रेत निकालने से भी इसकी जिंदगी की सांस टूटी है। यह सर्वविदित है कि उरई षहर मच्छर और उससे उपजे मलेरिया व अन्य रोगों केलिए कुख्यात है। यहां मलेरिया से सालाना औसतन मौतों का आंकड़ा प्रदेष में बहुत अधिक है। इसका बड़ा कारण नून नदी का मृतप्राय हो जाना है। जो नदी कभी ढलते सूरज के साथ षहर को सुनहरी रोषनी से भर देती थी, जहां का पानी लोगों की प्यास बुझाता था वह आज अपना नाम, अस्तित्व खो कर लोगों के लिए त्रासदी बन गई है।
यह किसी से छुपा नहीं है कि इस साल गर्मी ने सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। खासतौर पर उरई-जालौन में गर्मी 48 डिगरी पार कई-कई दिन रही और इसकी सबसे विकट मार मवेषी, पषु और पक्षियों पर पड़ी । कभी यही नून नदी का गंदला पानी इन जीवों का आसरा होता था जेकिन इस साल तो मई आते-आते महेबा, हथरोदा, पिपरोदा आदि गांवोंमें नदी की जल धारा ही टूट गई। जब नदी से पानी लुप्त हुआ तो भूजल और नीचे चला गया।
हालांकि आज भी नून नदी को अपने मूल स्वरूप में लौटाना कठिन नहीं है- बस इसमें जहर मिला रहे कारखानों व नगरीय आबदी के निस्तारण को बगैर परिषोधन के इसमें मिलाने पर सख्ती, इसकी अविरल धारा सुनिष्ति करने के लिए बांध व रेत उत्खनन से मुक्ति हो जाए तो नूर नला फिर से नून नदी बन सकता है। यमुना को इससे राहत मिलेगा , सो अलग।
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