My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 29 मई 2019

increase capacity of saving water

संरक्षण के अभाव में बढ़ता जल संकट

पानी की बर्बादी पर लगे रोकथाम


बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि पानी की प्रचुरता वाले राज्य बिहार की 90 प्रतिशत नदियों में पानी नहीं बचा। इस राज्य की स्थिति आज इतनी भयावह हो चुकी है कि कई शहरों में टैंकर के जरिये जलापूर्ति की आवश्यकता महसूस की जा रही है और कई शहरों में ऐसा किया भी जा रहा है। विगत तीन दशकों के दौरान राज्य की 250 नदियों के लुप्त हो जाने की बात सरकारी महकमे स्वीकार करते हैं। अभी कुछ दशक पहले तक राज्य की बड़ी नदियां- कमला, बलान, फल्गू, बागमती आदि कई-कई धाराओं में बहती थीं जो आज नदारद हैं। तालाबों की बात करें तो शहरों-कस्बों की बात छोड़िए, गांवों में भी इन्हें धीरे-धीरे मिट्टी से भर कर बड़े-बड़े मकान बनाए जा रहे हैं। झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियों के गुम हो जाने की बात रिकॉर्ड में तो दर्ज हैं, लेकिन उनकी चिंता किसी को नहीं। राज्य की राजधानी रांची में करमा नदी ने देखते ही देखते अतिक्रमण के कारण दम तोड़ दिया। हरमू और जुमार नदियों को नाला तो बना ही दिया है। यहां चतरा, देवघर, पाकुड़, पूर्वी सिंहभूम जैसे घने जंगल वाले जिलों में कुछ ही सालों में सात से 12 तक नदियों की जलधारा मर गई।
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किमी है, जबकि सभी नदियों का सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग मीटर है। भारतीय नदियों के भाग से हर साल 1,645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। आंकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का करीब 85 फीसद बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।
सूखते जलाशय
जो केरल अभी आठ महीने पहले ही जल प्लावन से अस्त-व्यस्त हो गया था, आज वहां भारी जल संकट दिख रहा है। कर्नाटक का आधा हिस्सा तो अपने इतिहास के बुरे जल संकट के दिन ङोल रहा है। यहां 3,122 तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित किया गया है। करीब 138 तालुके ऐसे हैं जहां भूजल पाताल की गहराई में जा चुका है, कई जगह 350 फुट से भी नीचे। राज्य में सूपा, अल्माटी, नारायणपुरा, भद्रा, केआरएस जैसे 13 विशाल जलाशयों में पानी का स्तर उनकी न्यूनतम जल क्षमता से भी नीचे चला गया है। कावेरी पर बने बांध में भी पानी नहीं है। नौ मई, 2019 को समाप्त सप्ताह के दौरान देश के 91 प्रमुख जलाशयों में 38.734 बीसीएम अर्थात अरब घनमीटर जल संग्रह हुआ। यह इन जलाशयों की कुल संग्रहण क्षमता का 24 प्रतिशत है। इन 91 जलाशयों की कुल संग्रहण क्षमता 161.993 बीसीएम है, जो समग्र रूप से देश की अनुमानित कुल जल संग्रहण क्षमता 257.812 बीसीएम का लगभग 63 प्रतिशत है। इन 91 जलाशयों में से 37 जलाशयों में लगभग 60 मेगावाट बिजली भी पैदा होती है। उत्तरी क्षेत्र के तहत आने वाले हिमाचल प्रदेश, पंजाब तथा राजस्थान में 18.01 बीसीएम की कुल संग्रहण क्षमता वाले छह जलाशय हैं। यहां इनकी क्षमता का महज 49 प्रतिशत जल अर्थात 8.80 बीसीएम बचा है। वैसे यदि बीते दस साल के औसत से तुलना करें तो यहां संग्रहित जल की स्थिति बेहतर है।
देश के पूर्वी क्षेत्र के झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में कुल 15 जलाशय हैं जिनकी क्षमता 18.83 बीसीएम है। यहां महज 31 फीसद पानी बचा है 5.87 बीसीएम। दस साल की तुलनात्मक स्थिति में यह संग्रह औसत है। पश्चिमी क्षेत्र में आने वाले गुजरात तथा महाराष्ट्र के 27 जलाशयों में बीते दस साल का सबसे कम पानी जमा हुआ। यहां के जलाशयों की क्षमता 31.26 बीसीएम है और महज 4.74 बीसीएम पानी ही बचा है। मध्य क्षेत्र के हालात भी औसत हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में 42.30 बीसीएम की कुल संग्रहण क्षमता वाले 12 जलाशय हैं, जिनमें कुल उपलब्ध संग्रहण 11.95 बीसीएम पानी बचा है।
दक्षिणी क्षेत्र में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल एवं तमिलनाडु आते हैं। इस क्षेत्र में 51.59 बीसीएम की कुल संग्रहण क्षमता वाले जलाशयों में कुल उपलब्ध संग्रहण 7.38 बीसीएम है, जो इनकी कुल संग्रहण क्षमता का तकरीबन 14 प्रतिशत है।
कमी पानी नहीं, प्रबंधन की
यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्रहि-त्रहि करती है। जो किसान अभी ज्यादा और असमय बारिश की मार से उबर नहीं पाया था, उसके लिए एक नई चिंता पैदा हो रही है! उधर कम बरसात की आशंका होते ही दाल, सब्जी व अन्य उत्पादों के दाम बाजार में आसमानी हो जाते हैं। यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से खेती प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थव्यवस्था में जीडीपी का आंकड़ा गड़बड़ाएगा। केंद्र से लेकर राज्य व जिला से लेकर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनाने में लग गए हैं कि यदि कम बारिश हुई तो राहतकार्य के लिए कितना व कैसे बजट होगा। असल में इस बात को लोग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।
भारत की जल-कुंडली
जरा मौसम महकमे की घोषणा के बाद पैदा हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से करीब चार फीसद हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी करीब 17 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4,000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1,869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1,122 घनमीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती और उनका इस्तेमाल सालों-साल कम होता जा रहा है, वहीं ज्यादा पानी की खपत करने वाले सोयाबीन और अन्य नकदी फसलों ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है।
देश के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी का 80 फीसद तक जून से लेकन सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में तो यह आंकड़ा करीब 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी की जुगाड़ न तो बारिश से होती है और न ही नदियों से।
आधुनिक जीवनशैली अपनाने के क्रम में हमने पानी को लेकर अपनी आदतें खराब की हैं। जब कुएं से रस्सी डाल कर पानी खींचना होता था या चापाकल चला कर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल निकाला जाता था। घर में टोटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल से चलने वाले ट्यूबवेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है। हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलबा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्त्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ साल भर के पानी की कमी से जूझने की रही है। अब कस्बाई लोग भी 15 रुपये में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का एक बड़ा वर्ग पानी के अभाव में कई बार शौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है।
सूखे के कारण जमीन के बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन बरसात दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा होती है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जाकर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस पानी को संग्रह करने पर जोर दिया जाए।
गुजरात के जूनागढ़, भावनगर, अमरेली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद ही सीखा। विछियावाडा गांव के निवासियों ने डेढ़ लाख रुपये की लागत व कुछ दिनों की मेहनत से 12 रोक बांध बनाए और एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नलकूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्य प्रदेश में झाबुआ और देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें तो कर्नाटक से लेकर असम तक और बिहार से लेकर बस्तर तक ऐसे हजारों सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लोगों ने सुखाड़ को मात दी है। तो ऐसे छोटे प्रयास पूरे देश में करने में कहीं कोई दिक्कत तो होना नहीं चाहिए।
हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा सा भी पानी नहीं बचा है। कुछ तथ्य इस प्रकार हैं- मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन बेकार बह जाता है। ब्रह्मपुत्र नदी का प्रतिदिन 2.16 घनमीटर पानी बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। भारत में हर वर्ष बाढ़ के कारण करीब हजारों लोगों की मौत होती है और अरबों रुपये का नुकसान होता है। इजरायल में औसत बारिश 10 सेंटीमीटर है, इसके बावजूद वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात करता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद सिंचाई के लिए जरूरी जल की कमी बनी रहती है।
जल संकट के लिए कुख्यात मराठवाड़ा के लातूर जिले में पेयजल और सिंचाई की कुल 142 परियोजनाओं में से 39 का एक-एक बूंद पानी अप्रैल महीना समाप्त होते ही सूख गया था। शेष 86 परियोजनाओं में भी नाम मात्र का पानी बचा है, जबकि वहां अभी अच्छी बरसात आने में महीना भर तो लगेगा ही। इस क्षेत्र में पिछले साल बरसात 75 प्रतिशत हुई थी और सिंचाई विभाग के जलाशयों में महज 51 से 75 प्रतिशत पानी ही भर पाया था। झीलों की नगरी कहलाने वाले भोपाल में मार्च महीने से ही घरों में पानी की कटौती शुरू हो गई थी। अप्रैल तक वहां के मुख्य जल स्त्रोत बड़े तालाब का एक-चौथाई पानी सूख चुका था। इस तालाब का कुल आकार 31 वर्ग किलोमीटर है और इसमें पूरा जल भरने पर क्षमता 1,666 वर्ग फुट की होती है। देश के बड़े इलाके में जल संकट पैदा हो चुका है और ऐसे में इसके संरक्षण पर जोर देना होगा
पंकज चतुर्वेदी
स्वतंत्र टिप्पणीकार

शनिवार, 25 मई 2019

Better management can save water

कमी पानी की नहीं प्रबंधन की है
.पंकज चतुर्वेदी



अभी कुछ महीने पहले जो केरल भयानक जल प्लावन से बरबाद हो गया था, आज पानी की एक -एक बूंद के लिए तरस रहा है। मध्यप्रदेश में झीलों के शहर के नाम से मशहूर भोपल हो या तालाबों से आच्छादित पन्ना, पानी के भीषण संकट से गुजर रहे हैं। भारत का बड़ा हिस्सा सूखे, पानी की कमी और पलायन से जूझने जा रहा है। बुंदेलखंड में तो सैंकड़ों गांव वीरान होने षुरू भी हो गए हैं। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक देश के लगभग सभी हिस्सों में बड़े जल संचयन स्थलों(जलाशयों) में पिछले सालों की तुलना में बहुत कम पानी रह गया है। फिर मौसम महकमे ने भी कह दिया कि बरसात औसत से कम होगी। प्री-मानसून तो बहुत कम हुआ ही है। सवाल उठता है कि हमारा विज्ञान मंगल पर तो पानी खोज रहा है लेकिन जब कायनात छप्पर फाउ़ कर पानी देती है उसे सारे साल सहेज कर रखने की तकनीक नहीं। हालांकि हम अभागे हैं कि हमने अपने पुरखों से मिली ऐसे सभी ज्ञान को खुद ही बिसरा दिया। जरा गौर करें कि यदि पानी की कमी से लोग पलायन करते तो हमारे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके तो कभी के वीरान हो जाने चाहिए थे, लेकिन वहां रंग, लेाक, स्वाद, मस्ती, पर्व सभी कुछ है। क्योंकि वहां के पुश्तैनी बाशिंदे कम पानी से बेहतर जीवन जीना जानते थे। यह आम अदमी भी देख सकता है कि जब एक महीने की बारिश में हमारे भंडार पूरे भर कर झलकने लगे तो यदि इससे ज्यादा पानी बरसा तो वह बर्बाद ही होगा। फिर भी वर्षा के  दिनों में पानी ना बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिंतित हो जाते है।

यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘‘औसत से कम’’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि  करती है। जो किसान अभी ज्यादा और असमय बारिश की मार से उबर नहीं पाया था, उसके लिए एक नई चिंता ! उधर कम बरसात की आंशका होते ही दाल, सब्जी, व अन्य उत्पादों के दाम बाजार में आसमानी हो जाते हैं। यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से खेती प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थ व्यवस्था में जीडीपी का आंकड़ा गड़बड़ाएगा। केंद्र से लेकर राज्य व जिला से ले कर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनानेे में लग गए हैं कि यदि कम बारिश हुई तो राहत कार्य के लिए कितना व कैसे बजट  होगा। असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।
जरा मौसम महकमे की घोशणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केश क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थेाड़ा भी कम पान बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी  का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में  यह आंकडा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि षेश आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से।
     भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का  पहियां जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्श्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं। एक बात जानना जरूरी है कि खाद्यानों के उत्पादन में कमी और देश में खद्यान की कमी में भारी अंतर है। यदि देश के पूरे हालात को गंभीरता से देखा जाए तो हमारे बफर स्टाक में आने वाले तीन सालों का अन्न भरा हुआ है। यह बात दीगर है कि लापरवाह भंडारण, भ्रष्टाचारी  के श्राप से ग्रस्त वितरण और गैर व्यावसायिक प्रबंधन के चलते भले ही खेतों में अनाज पर्याप्त हो, हमारे यहां कुपोशण व भूख से मौत होती ही रहती हैं। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृप की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं ।

असल में हमने पानी को ले कर अपनी आदतें खराब कीं। जब कुंए से रस्सी डाल कर पानी खंीचना होता था या चापाकल चला कर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलींचा जाता था। घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूब वेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है। हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलवा डालने, कूडा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्त्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझने की रही है । अब कस्बाई लोग बीस रूपए में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव मं कई बार षौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है।
सूखे के कारण जमीन के कड़े होने, या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते है। यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। गुजरात के जूनागढ, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुरू खुद ही सीखा। विछियावाडा गांव के लेागों ने डेढ लाख व कुछ दिन की मेहनत के साथ 12 रोक बांध बनाए व एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नल कूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्यप्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें तो कर्नाटक से ले कर असम तक और बिहार से ले कर बस्तर तक ऐसे हजारों हजार सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लेागो ने सुखाड़ को मात दी है। तो ऐसे छोटे प्रयास पूरे देश में करने में कहीं कोई दिक्क्त तो होना नहीं चाहिए।
खेती या बागान की घड़ा प्रणाली हमारी परंपरा का वह पारसमणि है जो कम से कम बारिश में भी सोना उगा सकता है। बस जमीन में गहराई में मिट्टी का घडा़ा दबाना होता है। उसके आसपास कंपोस्ट, नीम की खाद आदि डाल दें तो बाग में खाद व रासायनिक दवा का खर्च बच जाता है। घड़े का मुंह खुला उपर छोड देते हैं व उसमें पानी भर देते हैं। इस तरह एक  घउ़े के पानी से एक महीने तक पांच पौधों को सहजता से नमी मिलती है। जबकि नहर या ट्यूब वेल से इतने के लिए सौ लीटर से कम पानी नहीं लगेगा। ऐसी ही कई पारंपरिक प्रणालियां हमारे लोक जीवन में उपलब्ध हैं और वे सभी कम पानी में षानदार जीवन के सूत्र हैं।
कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्शा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

शुक्रवार, 17 मई 2019

Elephant-human conflict


हाथी बस्ती में या इंसान हाथी के घर में ?


पंकज चतुर्वेदी


हाल ही में संपन्न लोकसभा के तीसरे चरण  के मतदान में शामिल केरल की वायनाड सीट भले ही राहुल गांधी के वहां से चुनाव लड़ने के लिए मशहूर हो गई हो । यहां के आम मतदाता भले ही इससे बड़ी-बड़ी उम्मीदें लगाए हों लेकिन तीन जिलांे में फैली इस सीट के 18 फीसदी आदिवासी मतदाताओं के लिए इस इलाके की सबसे बड़ी समस्या जंगली हाथियों का आतंक है। पिछले दिनों बंगाल के पुरूलिया जिले में खुले में शौच  गए एक आदमी को हाथी ने सूंढ में लपेट कर पटक दिया। दिल्ली से करीबी जिमकार्बेट पार्क के आसपास के गांव वाले हाथियों के डर से सो नहीं पा रहे है।। हरिद्वार की कनखल कोलोनी में 22अप्रैल को जंगली हाथी घुस आया व खूब उधम काटा। झारखंड के घाटशिला इलाके के आधा दर्जन गांव के लोग गत दो महीने से ना तो सो पा रहे हैं ना ही जंगल या खेत जा पा रहे हैं। गितिलडीह, चाडरी, मकरा, तालाडीह, भदुआ आदि गावों में कभी भी कोई बीस जंगली हाथियों का दल धमक जाता है, घर में रखा धन, महुआ आदि खाता है, झोपड़ियों तोड़ देता है। गांव वाले या तो भाग जाते है। या फिर मशाल जला कर उन्हें भगाने का प्रयास करते हैं। छत्तीसगढ के रायगढ़, बलरामपुर, सरगुजा आदि जिलों के हालात इससे अलग नहीं हैं। यहां गत तीन सालों में हाथियों के गुस्से के शिकार 204 लोग दम तोड़ चुके हैं। जहां कहीं भी झाने जंगल बचे हैं, जहां भी जंगलों में इंसान का दखल बढ़ा है, गरमी होते ही हाथी का खौफ वहां हो जाता है। भले ही हम कहें कि हाथी उनके गांव-घर में घुस रहा है, हकीकत यही है कि प्राकृतिक संसाधनों के सिमटने के चलते भूखा-प्यासा हाथी अपने ही पारंपरिक इलाकों में जाता है। दुखद है कि वहां अब बस्ती, सड़क  का जंजाल है।
जब कभी झारखंड-उडीसा-छत्तीसगढ की सीमा के आसपास हाथी-समूह उत्पात मचाते हैं तो जंगल महकमे के लोग उस झंूड को केवल अपने इलाके से भगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं जबकि ये गजराज-दल भाग कर दूसरे राज्य में उत्पात मचाते हैं। जिन दर्जनों लोगों को वह हाथी-दल घायल या नुकसान कर चुका है; उसे मारने की वकालत कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में कुम्मी यानी हाथी दल के प्रधान के गले में बड़ा सा घंटा बांधने का एक प्रयोग किया जा रहा है ताकि ग्रामीण घंटे की आवाज सुन कर भाग सकें। वास्तव में यह हाथी की समस्या का निराकरण नहीं बल्कि उससे पलायन की तरकीब है।
दुनियाभर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत शामिल हो गया है। भारत में इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है। इसके बावजूद भारत में बीते दो दशकों के दौरान हाथियों की संख्या स्थिर हो गई हे। जिस देश में हाथी के सिर वाले गणेश को प्रत्येक शुभ कार्य से पहले पूजने की परंपरा है , वहां की बड़ी आबादी हाथियों से छुटकारा चाहती है । 
पिछले एक दशक के दौरान मध्य भारत में हाथी का प्राकृतिक पर्यावास कहलाने वाले झारखंड, छत्तीसगड़, उड़िया राज्यों में हाथियों के बेकाबू झंुड के हाथों एक हजार से ज्यादा लाग मारे जा चुके हैं। धीरे-धीरे इंसान और हाथी के बीच के रण का दायरा विस्तार पाता जा रहा है। देश में हाथी के सुरक्षित कॉरीडोरों की संख्या 88 हैं, इसमें 22 पूर्वोत्तर राज्यों , 20 केंद्रीय भारत और 20 दक्षिणी भारत में हैं। कभी हाथियों का सुरक्षित क्षेत्र कहलाने वाले असम में पिछले सात सालों में हाथी व इंसान के टकराव में 467 लोग मारे जा चुके हैं। अकेले पिछले साल 43 लोगों की मौत हाथों के हाथों हुई। उससे पिछले साल 92 लोग मारे गए थे। झारखंड की ही तरह बंगाल व अनय राज्यों में आए रोज  हाथी को गुस्सा आ जाता है और वह खड़े खेत, घर, इंसान; जो भी रास्ते में आए कुचल कर रख देता है । इंसान को भी जब जैसया मौका मिल रहा है, वह हाथियों की जान ले रहा है । दक्षिणी राज्यों  के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथियों के निर्जीव शरीर संदिग्ध हालात में मिल रहे हैं । प्रकृति के साथ लगातार हो रही छेड़छाड़ को अपना हक समझने वाला इसांन हाथी के दर्द को समझ नहीं रहा है और धरती पर पाए जाने वाले सबसे भारीभरकम प्राणी का अस्तित्व संकट में है ।
जानना जरूरी है कि हाथियों केा 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटेां तक भटकना पड़ता है । गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारीभरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है । थेाड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है । ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुचाया जाता है तो मनुष्य से उसकी भिडं़त होती है । असल संकट हाथी की भूख है । कई-कई सदियों से यह हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था । गजराज के आवागमन के इन रास्तों को ‘‘एलीफेंट कॉरीडार’’ कहा गया । जब कभी पानी या भोजन का संकट होता है गजराज ऐसे रास्तों से दूसरे जंगलों की ओर जाता है जिनमें मानव बस्ती ना हो। सन 1999 में भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मंत्रालय ने इन कॉरीडारों पर सर्वे भी करवाया था । उसमें पता चला था कि गजराज के प्राकृतिक कॉरीडार  से छेड़छाड़ के कारण वह व्याकुल है । हरिद्वार और ऋषिकेश के आसपास हाथियों के आवास हुआ करते थे । आधुनिकता की आंधी में जगल उजाड़ कर ऐसे होटल बने कि अब हाथी गंगा के पूर्व से पश्चिम नहीं जा पाते हैं्र। रामगंगा को पार करना उनके लिए असंभव हो गया है । अब वह बेबस हो कर सड़क या रेलवे ट्रैक पर चला जाता है और मारा जाता है । उत्तर भारत में एशियाई हाथियों की सैरगाह राजाजी नेशनल पार्क से गुजर रहे देहरादून-हरिद्वार हाईवे के चौड़ीकरण का बेहद धीमी गति से चल रहा कार्य गजराज पर भारी पड़ रहा है। मोतीचूर से डोईवाला के बीच महज 19 किलोमीटर के दायरे में इनके कदम ठिठक रहे हैं।
दरअसल, गजराज की सबसे बड़ी खूबी है उनकी याददाश्त। आवागमन के लिए वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी परंपरागत रास्तों का इस्तेमाल करते आए हैं। राजाजी नेशनल पार्क के हाथी भी देहरादून-हरिद्वार के बीच मोतीचूर से डोईवाला तक के चार गलियारों का उपयोग ऋषिकेश के सात मोड़ और नरेंद्रनगर वन प्रभाग तक आने-जाने में करते हैं।
2010 से हाईवे चौड़ीकरण के चलते ये गलियारे बाधित हैं। हालांकि, इन स्थानों पर अंडर पास बनने हैं, लेकिन सात साल में वहां ढांचे ही खड़े हो पाए हैं। यही नहीं, वहां बड़े पैमाने पर निर्माण सामग्री भी पड़ी है। ऐसे में हाथियों की आवाजाही बाधित हो रही है और वे जैसे-तैसे निकल पा रहे हैं।ओडिसा के हालात तो बहुत ही खराब हैं । हाथियों का पसंदीदा ‘‘ सिंपलीपल कॉरीडार’’ बोउला की क्रोमियम खदान की चपेट में आ गया । सतसोकिया कॉरीडोर को राष्ट्रीय राजमार्ग हड़प गया ।
ठीक ऐसे ही हालात उत्तर-पूर्वी राज्यों के भी हैं । यहां विकास के नाम पर हाथी के पारंपरिक भोजन-स्थलों का जम कर उजाड़ा गया और बेहाल हाथी जब आबादी में घुस आया तो लोगों के गुस्से का शिकार बना । हाथियों के एक अन्य प्रमुख आश्रय-स्थल असम में हाथी बेरोजगार हो गए है और उनके सामने पेट भरने का संकट खड़ा हो गया है। सन 2005 में सुप्रीम कोट के एक आदेश के बाद हाथियों से वजन ढुलाई का काम गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसके बाद असम के कोई 1200 पालतू हाथी एक झटके में बेरोजगार हो गए। हाथी उत्तर-पूर्वी राज्यों के समाज का अभिन्न हिस्सा रहा है सदियों से ये हाथी जंगलों से लकड़ी के लठ्ठे ढोने का काम करते रहे हैं।  अदालती आदेश के बाद ये हाथी और उनके महावत लगभग भुखमरी की कगार पर हैं। असम में कहीं भी जाईए, सड़कों पर ये हाथी अब भीख मांगते दिखते
दक्षिणी राज्यों में जंगल से सटे गांवों मे रहने वाले लोग वैसे तो हाथी की मौत को अपशकुन मानते हैं , लेकिन बिगड़ैल गजराज से अपने खेत या घर को बचाने के लिए वे बिजली के करंट या गहरी खाई खोदने को वे मजबूरी का नाम देते हैं । यहां किसानों का दर्द है कि ‘हाथी प्रोजेक्ट’ का इलाका होना उनके लिए त्रासदी बन गया है । यदि हाथी फसल को खराब कर दे तो उसका मुआवजा इतना कम होता है कि उसे पाने की भागदौड़ में इससे कहीं अधिक खर्चा हो जाता है । ऐसे ही भूखे हाथी बिहार के पलामू जिले से भाग कर छत्तीसगढ़ के सरगुजा व सटे हुए आंध्रप्रदेश के गंावों तक में उपद्रव करते रहते हैं । कई बार ऐसे बेकाबू हाथियों को जंगल में खदेड़ने के दौरान उन्हें मारना वन विभाग के कर्मचारियों की मजबूरी हो जाता है ।
बढ़ती आबादी के भोजन और आवास की कमी को पूरा करने के लिए जमकर जंगल काटे जा रहे हैं। उसे जब भूख लगती है और जंगल में कुछ मिलता नहीं या फिर जल-स्त्रोत सूखे मिलते हैं तो वे खेत या बस्ती की ओर आ जाते हैं । नदी-तालाबों में शुद्ध पानी के लिए यदि मछलियों की मौजूदगी जरूरी है तो वनों के पर्यांवरण को बचाने के लिए वहां हाथी अत्यावश्यक हैं । मानव आबादी के विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों का लालच; कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण हाथी को निर्ममता से मारा जा रहा है । यदि इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो जंगलों का सर्वोच्च गौरव कहलाने वाले गजराज को सर्कस, चिड़ियाघर या जुलूसों में भी देखना दुर्लभ हो जाएगा ।


पंकज चतुर्वेदी
नई दिल्ली-110070



बुधवार, 15 मई 2019

Imphal River dying due to plastic

आज के "हिंदुस्तान" के सम्पादकीय पेज पर

एक नदी जो चुनावी मुद्दा बन गयी
पंकज चतुर्वेदी


मणिपुर की राजधानी इंफाल का ईमा कैथेल अर्थात ‘मां का बाजार' दुनिया में अनूठा व्यावसायिक स्थल है, जहां केवल महिलाएं दुकान चलाती हैं। साल 1533 में बने इस बाजार में लगभग पांच हजार महिलाओं का कारोबार है। शायद इस बाजार को वहां बनाने का असली कारण पास में बहने वाली नांबुल नदी थी, ताकि पानी लगातार उपलब्ध रहे और बाजार में इसी नदी की ताजी मछलियां आ सकें। व्यापारी व खरीदार नदी परिवहन का इस्तेमाल कर सकें। बीते दो दशक के दौरान इस बाजार का अभिन्न हिस्सा बन गए पॉलीथिन बैग और प्लास्टिक के पैकिंग मैटेरियल ने पहले तो दुकानदार-खरीदार, दोनों को बहुत सहूलियतें दीं, लेकिन धीरे-धीरे इसका कचरा उस नदी के अस्तित्व के लिए संकट बन गया, जिसके कारण यह बाजार अस्तित्व में आया था। .


ईमा कैथेल में आने वाले पर्यटकों के लिए यह नदी सदा से आकर्षण का एक केंद्र रही है। इसके जल की सहज धारा, इसकी सुगंध और मंद शीतल हवा का अपना ही आनंद था। मगर आज ईमा कैथल के करीब से गुजरते हुए बदबू और नदी का बेहद कुरूप चेहरा दिखता है। वैसे तो पूवार्ेत्तर राज्यों में अब भी अपेक्षाकृत जल स्वच्छ होता है। लेकिन इस नदी में जल के स्थान पर पॉलीथिन, पानी की बोतलें व अन्य प्लास्टिक पैकिंग सामग्री का अंबार दिखता है। यही नदी आगे चलकर विश्व के एकमात्र तैरते नेशनल पार्क व गांवों के लिए प्रसिद्ध लोकटक झील में मिल जाती है। जाहिर है, इस सबका का कुप्रभाव लोकटक पर भी पड़ रहा है। समुद्र तट से कोई 1,830 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कांगचुप पर्वतमाला से निकलने वाली नांबुल नदी इंफाल-पश्चिम, सेनापति और तेमलांग जिलों से होती हुई लोकटक में विसर्जित होती है। इसमें अलग-अलग 30 सरिताएं मिलती हैं, जो इस नदी को मणिपुर की जीवनरेखा और सदानीरा बनाए रखती हैं। इंफाल शहर में पेयजल की मुख्य स्रोत नांबुल 10 किलोमीटर के अपने रास्ते में नदी के रूप में दिखना ही बंद हो गई है। ख्वारेमबंड बाजार के हंप पुलिया से कैथमथोय ब्रिज के पूरे हिस्से में नदी महज कूड़ा ढोने का मार्ग है। जैसे ही यह पानी लोकटक में मिलता है, तो उसे भी दूषित कर देता है। जैव-विविधता की दृष्टि से इतने संवेदनशील और अनूठे लोकटक के पर्यावरणीय तंत्र के लिए नांबुल अब खतरा बन गई है। .

नांबुल के प्रदूषण से इसके पानी के कारण खेती करने वाले और मछली पालन का काम करने वाले कई सौ लोगों के जीविकोपार्जन पर भी खतरा पैदा हो गया है। मछलियों की कई प्रजातियां, जैसे नगनक, नगसेप, नगमु-संगुम, नगटोन, खबक, पेंगवा, थराक, नगारा, नगतिन आदि विलुप्त हो गई हैं। ये मछलियां पहले म्यांमार के चिंडविन-इरावदी नदी तंत्र से आकर मणिपुर घाटी की सरिताओं में प्रजनन किया करती थीं। प्लास्टिक से उन मछलियों के आवागमन का प्राकृतिक रास्ता ही बंद हो गया। यही नहीं, इसके चलते नदी किनारे पैदा होने वाली साग-सब्जियों- हैकाक, थांगजींग, थारो, थांबल, लोकेई, पुलई आदि का उगना रुक गया। खेतों में फूलगोभी और बंदगोभी की फसल भी प्रभावित हुई है। .

अकेले इंफाल शहर के 27 वार्डों से हर दिन 120 से 130 टन कूड़ा निकलता है और इसके निबटारे की कोई माकूल व्यवस्था नहीं है। या तो इस कूड़े को शहर के बाहरी पहाड़ी क्षेत्रों में फेंक दिया जाता है या फिर शहर के बीच से गुजरती नांबुल नदी में डाल दिया जाता है। लगातार कूड़ा फेंकने से जब शहर में नदी ढक गई, तो स्थानीय प्रशासन ने सन 2018 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत शहर में 50 माइक्रोन से कम मोटाई की पॉलीथिन पर पाबंदी लगा दी। इस कानून को तोड़ने पर एक लाख रुपये जुर्माना या पांच साल की सजा या दोनों का प्रावधान है। पाबंदी का असर ईमा कैथल पर भी पड़ा। कई दुकानदार पहले इसे स्वीकारने को तैयार नहीं थे, जबकि कई को शिकायत थी कि वे इस नियम को मानकर पॉलीथिन का प्रयोग बंद भी कर दें, पर बाहर के लोग मानते नहीं। इस बार के चुनाव में पॉलीथिन पर सख्ती से पाबंदी, नदी की सफाई और शहर से निकलने वाले कूडे़ के वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण जैसे मसले सबसे आगे हैं। बाजार चलाने वाली महिलाएं इस पर सबसे ज्यादा मुखर हैं और हर सियासी दल इसके निराकरण के वायदे अपने घोषणापत्र में कर रहा है।

शुक्रवार, 10 मई 2019

Due to water scarcity wilds are turning to human habitat


बस्ती की ओर आते प्यासे जानवर
पंकज चतुर्वेदी
इस बार तपती गरमी कुछ जल्दी ही हो गई। धोलाधार की हिमाच्छादित पर्वतों की गोद में बसे धर्मशाला में तापमान 35 पार हो चुका है। अभी 26 अप्रेल 2019 को मध्यप्रदेश के निमाड़ इलाके का तापमान 47 डिगरी के पार हो गया और षहर की सड़कें तोते सहित कई पंक्षियों की लाशों से पट गईं। 28 अप्रेल को हरियाणा में यमुना नगर-पांवटा साहेब हाईवे पर कलेसर नेशनल पार्क के करीब एक मादा तेंदुआ उस समयएक वाहन की चपेट में आ कर मारी गई, जब वह प्यास से बेहाल हो कर सड़क पर आ गईं। राजस्थान के झालाना सफारी के तंेदुआ बस्ती की ओर पानी की तलाश में लगातार आ रहे हैं। अयोध्या के जखौली गांव में प्यास से बेहाल बारहसिंघा बस्ती में आ गया और कुत्तों ने उसे घायल कर दिया। हाथियों का उत्पात तो जगह-जगह बढ़ रहा है। गरमी होते ही जंगल में पानी और खाना कम होता है तो विशालकाय षरीर का स्वामी हाथी असहाय हो कर खेत-गांव में घुस जाता है। प्यास के कारण बेहाल बंदर-लंगूर तो हर षहर-गांव में देखे जा सकते हैं। बहुत सी जगह नदी-तालाब सूखने पर मगरमच्छ गांव-खेत में घुस आए।

गरमी से परेशान हाथियों का बस्ती-खेत में घुस आना बेहद भयावह होता है। हाथियों केा 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटेां तक भटकना पड़ता है । गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारीभरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है । थेाड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है । ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुचाया जाता है तो मनुष्य से उसकी भिडं़त होती है। सनद रहे  अकेले छत्तीसगढ़ राज्य में सन 2012-18 के छह सालों में हाथियों की चपेट में आ कर 199 लोग मारे गए। अस्सी करोड़ की तीन परियोजनाएं असफल रहीं। सन 2014 की परियोजना में जरूर हाथी के लिए जंगल में स्टाप डेम बनाने की बात थी  वरना जंगल महकमा अपने इलाके से हाथी भगाने के अलावा कुछ सोचता नहीं।

ऐसा नहीं कि इस बार ज्यादा गरमी है और जानवर बेहाल हैं, असल में ऐसे हालात गत दो दशकों से हर साल गर्मी में बनते हैं। विडंबना है कि जंगल केसंरक्षक जानवर हों या फिर खेती-किसानी के सहयोगी मवेशी,उनके  के लिए पानी या औ भोजन की कोई नीति नहीं है। जब कही कुछ हल्ला होता है तो तदर्थ व्यवस्थाएं तो होती हैं लेकिन इस पर कोई दीर्घकालीक नीति बनी नहीं।
प्रकृति ने धरती पर इंसान , वनस्पति और जीव जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया, लेकिन इंसान ने  भौतिक सुखों की लिप्सा में खुद को श्रेष्ठ मान लिया और प्रकृति की प्रत्येक देन पर अपना अधिक अधिकार हथिया लिया। यह सही है कि जीव-जंतु या वनस्पति अपने साथ हुए अन्याय का ना तो प्रतिरोध कर सकते हैं और ना ही अपना दर्द कह पाते हैं। परंतु इस भेदभाव का बदला खुद प्रकृति ने लेना शुरू कर दिया। आज पर्यावरण संकट का जो चरम रूप सामने दिख रहा है, उसका मूल कारण इंसन द्वारा नैसर्गिकता में उपजाया गया, असमान संतुलन ही है। परिणाम सामने है कि अब धरती पर अस्तित्व का संकट है। समझना जरूरी है कि जिस दिन खाद्य श्रंखला टूट जाएगी धरती से जीवन की डोर भी टूट जाएगी। समूची खाद्य श्रंखला का उत्पादन व उपभोग बेहद नियोजित प्रक्रिया है। जंगल बहुत विशाल तो उससे मिलने वाली हरियाली पर जीवनयापन करने वाले उससे कम तो हरियाली खाने वाले जानवरों को मार कर खाने वाले उससे कम। हमारा आदि -समाज इस चक्र से भलीभांति परिचित था तभी वह प्रत्येक जीव को पूजता था, उसके अस्तित्व की कामना करता था। जंगलों में प्राकृतिक जल संसाधनों ंका इस्तेमाल अपने लिए कतई नहीं करता था- न खेती के लिए न ही निस्तार के लिए और न ही उसमें ंगंदगी डालने को ।

जानना जरूरी है कि भारत में संसार का केवल 2.4 प्रतिशत भू−भाग है, जिसके 7 से 8 प्रतिशत भू−भाग पर भिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं। प्रजातियों की संवृधि के मामले में भारत स्तनधारियों में 7वें, पक्षियों में 9वें और सरीसृप में 5वें स्थान पर है। विश्व के 11 प्रतिशत के मुकाबले भारत में 44 प्रतिशत भू−भाग पर फसलें बोई जाती हैं। भारत के 23.39 प्रतिशत भू−भाग पर पेड़ और जंगल फैले हुए हैं। दुनियाभर की 34 चिह्नित जगहों में से भारत में जैवविविधता के तीन हॉटस्पॉट हैं− जैसे हिमालय, भारत बर्मा, श्रीलंका और पश्चिमी घाट। यह वनस्पति और जीव जंतुओं के मामले में बहुत समृद्ध है और जैव विविधता के संरक्षण का कार्य करता है। पर्यावरण के अहम मुदद्ों में से आज जैव विविधता का संरक्षण एक अहम मुदद्ों है।
भारत में संरक्षित वन क्षेत्र तो बहुत से विकसित किए गए और वहां मानव गतिविधियों पर रोक के आदेश भी दिए,लेकिन दुर्भाग्य है कि सभी ऐसे जंगलों के करीब तेज गति वाली सड़कें बनवा दी गईं। इसके लिए पहाड़ काटे गए, जानवरों के नैसर्गिक आवागमन रास्तों पर काली सड़कें बिछा दी गईं। इस निर्माण के कारण कई झरने, सरितांए प्रभावित हुए। जंगल की हरियाली घटने और हरियाली बढ़ाने के लिए गैर-स्थानीय पेड बोने के कारण भी जानवरों को भोजन की कमी महसूस हुई। अब वानर को  लें, वास्तव में यह जंगल का जीव है। जब तक जंगल में उसे बीजदार फल खाने को मिले वह कंक्रीट के जंगल में आया नहीं। वानर के पर्यावास उजड़ने व पानी की कमी के कारण वह सड़क की ओर आया। जंगल से गुजरती सड़कों पर आवागमन और उस पर ही बस गया। यहां उसे खाने को  तो मिल जाता है लेकिन पानी के लिए तड़पता रहता है। साथ ही तेज गति के वाहनों की चपेट में भी आता रहता है।
प्रत्येक वन में सैंकडों छोटी नदियां, तालाब और जोहड़ होते है।  इनमें पानी का आगम बरसात के साथ-साथ जंगल के पहाड़ों के सोते- सरिताओं से होता है। असल में पहाड़जंगल औरउसमें बसने वाले जानवरों की संरक्षण-छत होता है। चूंकि येपहाड़ विभिन्न खनिजों के भंडार होते है। सो खनिज उत्खनन के अंधाधुघ दिए गए ठेकों ने पहाड़ों को जमींदोज कर दिया। कहीं-कहीं पहाड़ की जगह गहरी खाई बन गईं और कई बार प्यासे जानवर ऐसी खाईयों में भी गिर कर मरते हैं।
यदि हमें प्रकृति के अस्तित्व के लिए अनिवाय अपनी जैव विविधता को जिंदा रखना है तो जंगलों के नैसर्गिक वृक्षों के विस्तार पर काम करना होगा। साथ ही संरक्षित वन क्षेत्रों के पास से रेलवे लाईन या हाईवे बनाने से परहेज करना होगा। पहाड़ और जंगल के जल संसाधनों पर तो ध्यान देना ही होगा। जंगल के जल-संसाधन केवल जंगल के जानवरों के लिए है- यही नीति जानवरों को प्यासा मरने से बचा सकती है। गर्मी से पहले जंगल के तालाबों में पानी की उपलब्ध्ता पर नियमित सर्वें होना चाहिए और जहां पानी की कमी दिखे, वहां टैंकरों जैसे माध्यमों से उनमें पर्याप्त पानी सुनिश्चित करना होगा।

गुरुवार, 9 मई 2019

Why and how Cyclone took place

आखिर क्यों उठता है बवंडर
पंकज चतुर्वेदी

हवा की विशाल मात्रा के तेजी से गोल-गोल घूमने पर उत्पन्न तूफान उष्णकटिबंधीय चक्रीय बवंडर कहलाता है। यह सभ्ी जानते हैं कि पृथ्वी भौगोलिक रूप से दो गोलार्धाें में विभाजित है। ठंडे या बर्फ वाले उत्तरी गोलार्द्ध में उत्पन्न इस तरह के तूफानों को हरिकेन या टाइफून कहते हैं । इनमें हवा का घूर्णन घड़ी की सुइयों के विपरीत दिशा में एक वृत्ताकार रूप में होता है। जब बहुत तेज हवाओं वाले उग्र आंधी तूफान अपने साथ मूसलाधार वर्षा लाते हैं तो उन्हें हरिकेन कहते हैं। जबकि भारत के हिस्से  दक्षिणी अर्द्धगोलार्ध में इन्हें चक्रवात या साइक्लोन कहा जाता है। इस तरफ हवा का घुमाव घड़ी की सुइयों की दिशा में वृत्ताकार होता हैं। किसी भी उष्णकटिबंधीय अंधड़ को चक्रवाती तूफान की श्रेणी में तब गिना जाने लगता है जब उसकी गति कम से कम 74 मील प्रति घंटे हो जाती है। ये बवंडर कई परमाणु बमों के बराबर ऊर्जा पैदा करने की क्षमता वाले होते है।
धरती के अपने अक्ष पर घूमने से सीधा जुड़ा है चक्रवती तूफानों का उठना। भूमध्य रेखा के नजदीकी जिन समुद्रों में पानी का तापमान 26 डिग्री सेल्सियस या अधिक होता है, वहां इस तरह के चक्रवातों के उभरने  की संभावना होती है। तेज धूप में जब समुद्र के उपर की हवा गर्म होती है तो वह तेजी से ऊपर की ओर उठती है। बहुत तेज गति से हवा के उठने से नीसे कम दवाब का क्ष्ज्ञेत्र विकसित हो जाता है। कम दवाब के क्षेत्र के कारण वहाँ एक शून्य या खालीपन पैदा हो जाता है। इस खालीपन को भरने के लिए आसपास की ठंडी हवा तेजी से झपटती है । चूंकि पृथ्वी भी अपनी धुरी पर एक लट्टू की तरह गोल घूम रही है सो हवा का रुख पहले तो अंदर की ओर ही मुड़ जाता है और फिर हवा तेजी से खुद घूर्णन करती हुई तेजी से ऊपर की ओर उठने लगती है। इस तरह हवा की गति तेज होने पर नीेचे से उपर बहुत तेज गति में हवा भी घूमती हुई एक बड़ा घेरा बना लेती है। यह घेरा कई बार दो हजार किलोमीटर के दायरे तक विस्तार पा जाता है। सनद रहे भूमध्य रेखा पर पृथ्वी की घूर्णन गति लगभग 1038 मील प्रति घंटा है जबकि ध्रुवों पर यह शून्य रहती है।
इस तरह उठे बवंडर के केंद्र को उसकी आंख कहा जाता है। उपर उठती गर्म हवा समु्रद से नमी को साथ ले कर उड़ती है। इन पर धूल के कण भी जम जाते हैं और इस तरह संघनित होकर गर्जन मेघ का निर्माण होता है। जब ये गर्जन मेघ अपना वजन नहीं संभाल पाते हैं तो वे भारी बरसात के रूप में धरती पर गिरते हैं। चक्रवात की आँख के इर्द गिर्द 20-30 किलोमीटर की गर्जन मेघ की एक दीवार सी खड़ी हो जाती है और इस चक्रवाती आँख के गिर्द घूमती हवाओं का वेग 200 किलोमीटर प्रति घंटा तक हो जाता है। कल्पना करें कि एक पूरी तरह से विकसित चक्रवात एक सेकेंड में बीस लाख टन वायु राशि खींच लेता है। तभी कुछ ही घंटों में सारे साल की बरसात हो जाती है।
इस तरह के बवंडर संपत्ति और इंसान को तात्कालिक नुकसान तो पहुंचाते ही हैं, इनका दीर्घकालीक प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता हे। भीषण बरसात के कारण बन गए दलदली क्षेत्र, तेज आंधी से उजड़ गए प्राकृतिक वन और हरियाली, जानवरों का नैसर्गिक पर्यावास समूची प्रकृति के संतुलन को उजाड़ देता है। जिन वनों या पेड़ों को संपूर्ण स्वरूप पाने में दशकों लगे वे पलक झपकते नेस्तनाबूद हो जाते हैं। तेज हवा के कारण तटीय क्षेत्रों में मीठे पानी मे खारे पानी और खेती वाली जमीन पर मिट्टी व दलदल बनने से हुए क्षति को पूरा करना मुश्किल होता है।
बहरहाल हम केवल ऐसे तूफानों के पूर्वानुमान से महज जनहानि को ही बचा सकते हैं। एक बात और किस तरह से तटीय कछुए यह जान जाते हैं कि आने वाले कुछ घंटों में समुद्र में उंची लहरें उठेंगी और उन्हें तट की तरफ सुरक्षित स्थान की ओर जाना, एक शोध का विषय है। हाल ही में फणी तूफान के दौरान ये कछुए तट पर रेत के धोरों में कई घंटे पहले आ कर दुबक गए और तूफान जाने के बाद खुद ब खुद समुद्र में उतर गए। यह एक आश्चर्य से कम नहीं है।


आपदा से निबटने में भारत की तारीफ
संयुक्त राष्ट्र की आपदा न्यूनीकरण एजेंसी ने भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की ओर से चक्रवाती तूफान फनी की पूर्व चेतावनियों की “लगभग अचूक सटीकता” की सराहना की है। इन चेतावनियों ने लोगों को बचाने और जनहानि को काफी कम करने की सटीक योजना तैयार करने में अधिकारियों की मदद की और पुरी तट के पास इस चक्रवाती तूफान के टकराने के बाद ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान बचाई जा सकी। भारत में पिछले 20 साल में आए इस सबसे भयंकर तूफान ने भारत के पूर्वी राज्य ओडिशा के तट से टकराने के बाद कम से कम 8ठ लोगों की जान ले ली। तीर्थस्थल पुरी में समुद्र तट के पास स्थित इलाके और अन्य स्थान भारी बारिश के बाद जलमग्न हो गए जिससे राज्य के करीब 11 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। भारतीय मौसम विभाग ने फनी को “अत्यंत भयावह चक्रवाती तूफान” की श्रेणी में रखा है। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियां फनी की गति पर करीब से नजर बनाए हुए हैं और बांग्लादेश में शरणार्थी शिविरों में रह रहे परिवारों को बचाने के इंतजाम कर रही हैं। यह तूफान पश्चिम बंगाल में दस्तक देने के बाद बांग्लादेश पहुंचेगा जिसे अलर्ट पर रखा गया है।

आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र महासचिव के विशेष प्रतिनिधि मामी मिजुतोरी ने कहा, “अत्यंत प्रतिकूल स्थितियों के प्रबंधन में भारत का हताहतों की संख्या बेहद कम रखने का दृष्टिकोण सेनदाई रूपरेखा के क्रियान्वयन में और ऐसी घटनाओं में अधिक जिंदगियां बचाने में बड़ा योगदान है।” मिजुतोरी आपदा जोखिम न्यूनीकरण 2015-2030 के सेनदाई ढांचे की ओर इशारा करता है। यह 15 साल का ऐच्छिक, अबाध्यकारी समझौता है जिसके तहत आपदा जोखिम को कम करने में प्रारंभिक भूमिका राष्ट्र की है लेकिन इस जिम्मेदारी को अन्य पक्षधारकों के साथ साझा किया जाना चाहिए।



जलवायु परिवर्तन और चक्रवात
यह तो हुआ चक्रवाती तूफान का असली कारण लेकिन भारत उपमहाद्वीप में बार-बार और हर बार पहले से घातक तूफान आने का असल कारण इंसान द्वारा किये जा रहे प्रकृति के अंधाधुध शोषण से उपजी पर्यावरणीय त्रासदी ‘जलवायु परिवर्तन’ भी है। इस साल के प्रारंभ में ही अमेरिका की अंतरिक्ष शोध संस्था नेशनल एयरोनाटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन ‘नासा ने चेता दिया था कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रकोप से चक्रवाती तूफान और खूंखार होते जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण उष्णकटिबंधीय महासागरों का तापमान बढ़ने से सदी के अंत में बारिश के साथ भयंकर बारिश और तूफान आने की दर बढ़ सकती है। यह बात नासा के एक अध्ययन में सामने आई है। अमेरिका में नासा के ‘‘जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी’’ (जेपीएल) के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया। इसमें औसत समुद्री सतह के तापमान और गंभीर तूफानों की शुरुआत के बीच संबंधों को निर्धारित करने के लिए उष्णकटिबंधीय महासागरों के ऊपर अंतरिक्ष एजेंसी के वायुमंडलीय इन्फ्रारेड साउंडर (एआईआरएस) उपकरणों द्वारा 15 सालों तक एकत्र आकंड़ों के आकलन से यह बात सामने आई। अध्ययन में पाया गया कि समुद्र की सतह का तापमान लगभग 28 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर गंभीर तूफान आते हैं। ‘जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स’(फरवरी 2019) में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि के कारण हर एक डिग्री सेल्सियस पर 21 प्रतिशत अधिक तूफान आते हैं। ‘जेपीएल’ के हार्टमुट औमन के मुताबिक गर्म वातावरण में गंभीर तूफान बढ़ जाते हैं। भारी बारिश के साथ तूफान आमतौर पर साल के सबसे गर्म मौसम में ही आते हैं।


चेतावनी की चुनौती  डेढ शती
कोई 155 साल पहले, जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था, सन 1864 में देश के पूर्वी समुद्री तट पर दो भीषण तूफान आए - अक्तूबर में कोलकाता में और फिर नवंबर में मछलीपट्टनम में। अनगिनत लोग मारे गए और अकूत संपत्ति इस विपदा के उदरस्थ हो गई। उन दिनों कोलकाता देश की राजधानी था और व्यापार व फौज का मुख्य अड्डा। ब्रितानी सरकार ने तत्काल एक कमेटी गठित की ताकि ऐसे तूफानों की पहले से सूचना पाने का कोई तंत्र विकसित किया जा सके। और एक साल के भीतर ही सन 1865 में  कोलकाता बंदरगाह ऐसा पहला समुद्र तट बन गया जहां समुद्री बवंडर आने की पूर्व सूचना की प्रणाली स्थापित हुई। सनद रहे भारत में मौसम विभाग की स्थापना इस केंद्र के दस साल बाद यानि 1875 में हुई थी।
सन 1880 तक भारत के पश्चिमी समुद्री तटों - मुंबई, कराची, रत्नागिरी, कारवाड़, कुमरा आदि में भी तूफान पूर्व सूचना के केंद्र स्थापित हो गए थे।  मौसम विभाग की स्थापना और विज्ञान-तकनीक के विकास के साथ-साथ आकलन , पूर्वानुमान और सूचनओ को त्वरित प्रसारित करने की प्रणाली बदलती रहीं।
आजादी के बाद सन 1969 में भारत सरकार ने आंध्रप्रदेश में बार-बार आ रहे तूफान, पलरायन व नुकसान के हालातों के मद्देनजर एक कमेटी - सीडीएमसी (साईक्लोन डिस्ट्रेस मिटिगेशन कमेटी) का गठन किया ताकि चक्रवाती तूफान की प्राकृतिक आपदा से जन और संपत्त की हानि को कम से कम किया जा सके।  उसी दौरान ओडिसा और पश्चिम बंगाल में भी ऐसी कमेटियां बनाई गईं जिनमें मौसम वैज्ञानिक, इंजीनियर, समाजशास्त्री आदि शामिल थे। इस कमेटियों ने सन 1971-72 में अपनी रिपोर्ट पेश कीं और सभी में कहा गया कि तूफान आने की पूर्व सूचना जितनी सटीक और पहले मिलेगी, हानि उतनी ही कम होगी।  कमेटी के सुझाव पर विशाखपत्तनम और भुवनेश्वर में अत्याधुनिक मशीनों से लैस सूचना केंद्र तत्काल स्थापित किए गए।
भारतीय उपग्रहों के अंतरिक्ष में स्थापित होने और धरती की हर पल की तस्वीरें त्वरित मिलने के शानदार तकनीक के साथ ही अब तूफान पूर्वानुमान विभाग, चित्रों, इन्फ्रारेड चैनल, बादलों की गति व प्रकृति, पानी के वाष्पीकरण, तापमान आकलन जैसी पद्यतियों से कई-कई दिन पहले बता देता है कि आने वाला तूफान कब, किस स्थान पर कितने संवेग से आएगा। इसी की बदौलत ‘फणी’ आने से पहले ही ओडिशा सरकार ने 11 लाख से अधिक लोगों को 4400 से अधिक सुरक्षित आश्रय घरों में पहुंचा दिया। उनके लिए साफ पानी, प्राथमिक स्वास्थय , भेजन जैसी व्यवसथाएं बगैर किसी हड़बडाहट के हो गईं। जब 240 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से बवंडर उठेगा तो सड़क, पुल, इमारत, बिजली के खंभे, मोबाईल टावर आदि को नुकसान तो होगा ही, लेकिन इसनते भयावह तूफान को देखते हुए जन हानि बहुत कम होना और पुनर्निमाण का काम तेजी से शुय हो जाना सटीक पूर्वानुमान प्रणाली के चलते ही संभव हुआ।
तबाही का नाम क्यों व कैसे
हाल ही में आए तूफान का नाम था -फणी, यह सांप के फन का बांग्ला अनुवाद है। इस तूफान का यह नाम भी बांग्लादेश ने ही दिया था। जान लें कि प्राकृतिक आपदा केवल एक तबाही मात्र नहीं होती, उसमें भविष्य के कई राज छुपे होते हैं। तूफान की गति, चाल, बरसात की मात्रा जसे कई आकलन मौसम वैज्ञानिकों के लिए एक पाठशाला होते हैं। तभी हर तूफान को नाम देने की प्िरक्रया प्रारंभ हुई। विकसित देशो में नाम रखने की प्रणाली 50 के दशक से विकसित है लेकिन हिंद महासागर इलाके के भयानक बवंडरों के ठीक तरह से अध्ययन करने के इरादे से सन 2004 में भारत की पहल पर आठ देशों ने एक संगठन बनाया। ये देश चक्रवातों की सूचना एकदूसरे से साझा करते हैं। ये आठ तटीय देश हैं - ं भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, मालदीव, श्रीलंका, ओमान और थाईलैंड ं।
दरअसल तूफानों के नाम एक समझौते के तहत रखे जाते हैं। इस पहल की शुरुआत अटलांटिक क्षेत्र में 1953 में एक संधि के माध्यम से हुई थी। अटलांटिक क्षेत्र में हेरिकेन और चक्रवात का नाम देने की परंपरा 1953 से ही जारी है जो मियामी स्थित नैशनल हरिकेन सेंटर की पहल पर शुरू हुई थी। 1953 से अमेरिका केवल महिलाओं के नाम पर तो ऑस्ट्रेलिया केवल भ्रष्ट नेताओं के नाम पर तूफानों का नाम रखते थे। लेकिन 1979 के बाद से एक नर व फिर एक नारी नाम रखा जाता है।
भारतीय मौसम विभाग के तहत गठित देशों का क्रम अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार सदस्य देशों के नाम के पहले अक्षर से तय होते हैं। जैसे ही चक्रवात इन आठ देशों के किसी हिस्से में पहुंचता है, सूची में मौजूद अलग सुलभ नाम इस चक्रवात का रख दिया जाता है। इससे तूफान की न केवल आसानी से पहचान हो जाती है बल्कि बचाव अभियानों में भी इससे मदद मिलती है। भारत सरकार इस शर्त पर लोगों की सलाह मांगती है कि नाम छोटे, समझ आने लायक, सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील और भड़काऊ न हों ।किसी भी नाम को दोहराया नहीं जाता है। अब तक चक्रवात के करीब 64 नामों को सूचीबद्ध किया जा चुका है। कुछ समय पहले जब क्रम के अनुसार भारत की बारी थी तब ऐसे ही एक चक्रवात का नाम भारत की ओर से सुझाये गए नामों में से एक ‘लहर’ रखा गया था।
इस क्षेत्र में जून 2014 में आए चक्रवात नानुक का नाम म्यांमार ने रखा था। साल 2013 में भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर आए पायलिन चक्रवात का नाम थाईलैंड ने रखा था । इस इलाक़े में आए एक अन्य चक्रवात ‘नीलोफ़र का नाम पाकिस्तान ने दिया था। पाकिस्तान ने नवंबर 2012 में आए चक्रवात को ‘नीलम’ नाम दिया था। .इस सूची में शामिल भारतीय नाम काफ़ी आम नाम हैं, जैसे मेघ, सागर, और वायु। चक्रवात विशेषज्ञों का पैनल हर साल मिलता है और ज़रूरत पड़ने पर सूची फिर से भरी जाती है.

शुक्रवार, 3 मई 2019

No one follow the limit of expenditure in election

चुनावी खर्च की निरर्थक सीमा
पंकज चतुर्वेदी


इस चुनाव में लोकसभा निर्वाचन के लिए किसी उम्मीदवार के खर्च की सीमा सत्तर लाख है । इससे पहले कई बड़े नेता सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि उन्होंने बीते चुनाव में कितने करोड़ खर्च किए। ‘‘भारत में लोकतंत्रात्मक गणराज्य का सपना देखने वाले सेनानियों का मत था कि वोट के लिए निजी अपील करना संसदीय लोकतंत्र और सामूहिक हित की भावना के प्रतिकूल है । वोट मांगने का काम केवल सार्वजनिक सभाओं के जरिए होना चाहिए ।’’ इस अर्थ-प्रधान युग में ऐसी धारणा रखने वालों का राजनीति में कोई स्थान नहीं है । आज का चुनाव वास्तव में हथकंडों के साथ ‘लड़ा’ जा रहा है । यह सत्ता हथियाने का पर्व है , जिसमें अरबों-खरबों के काले धन का वारा-न्यारा होना है । चुनाव आयोग खर्चेां पर नजर रखने के लिए भले ही पर्यवेक्षक नियुक्त करता है, लेकिन चुनावी हथकंडों की जटिलता के बीच कायदे- कानून असहाय रह जाते हैं । सन 2014 के चुनाव में आयोग ने 1400 करोड़ रूपए जब्त किए थे जबकि इस बार चौथे चरण के मतदान तक ,अभी तक कोई 14 सौ करोड की नगदी, ड्रग्स व शराब आदि चुनाव आयोग जब्त कर चुका है। वैल्लौर सीट का निर्वाचन तो नगदी बांटने की षिकायतों के बाद रद्द किया गया। अब यह बात खुले आम कही जा रही है कि चाहे जितनी निगरानी कर लो, इस आम चुनाव में दस हजार करोड से ज्यादा का काला धन खर्च होगा, जबकि चुनाव आयोग इस बार चुनाव लड़ने के लिए खर्च की सीमा सत्तर लाख कर चुका है। हकीकत के धरातल पर यह रकम  नाकाफी है और जाहिर है कि बकाया खर्च की आपूर्ति दो नंबर के पैसे से व फर्जी तरीके से ही होगी।  यह विडंबना ही है कि यह जानते -बूझते हुए चुनाव आयोग इस खर्च पर निगाह रखने के नाम पर खुद ही कई हजार करोड़ खर्च कर देता है, वह भी जनता की कमाई का।
किसी ने ‘नए फिल्मी गाने की धुन’ को ही एक करोड़ में खरीद डाला है तो कोई मषहूर फिल्मी अदाकारों  को किराए पर ले कर गली-गली घुमाने जा रहा है। भाजपा हो या कांग्रेस या फिर समाजवादी पार्टी या दलित मित्र बसपा सभी ने अपने बड़े नेताओं के दौरों के लिए अधिक से अधिक हेलीकाप्टर और विमान किराए पर ले लिए हैं , जिनका किराया हर घंटे की पचपन लाख तक है। कंाग्रेस ने इलेक्ट्रानिक्स संचार माध्यमों, केबल नेटवर्क के जरिए गांव-गांव तक बात पहुंचाने का करोड़ों का प्रोजेक्ट तैयार किया है । भाजपा के नेता षूटिंग कर रहे । कोई एक राज्य में ही चार सौ रथ चलवा रहा है तो कहीं रोड षो। वोटों के लिए लोगों को रिझाने के वास्ते हर पार्टी हाई-टेक की ओर अग्रसर है । यह तो महज पार्टी के आलाकमानों का खर्चा है । हर पार्टी का उम्मीदवार स्थानीय देश -  काल- परिस्थिति के अनुरूप अपनी अलग से प्रचार योजना बना रहा है । जिसमें दीवार रंगाई, झंडे, बैनर, पोस्टर गाड़ियों पर लाऊड-स्पीकर से प्रचार, आम सभाओं के साथ-साथ क्षेेत्रीय भाषाओं में आडियो-वीडियो कैसेट बनवाने, आंचलिक वोट के ठेकेदारों को अपने पक्ष में पटाने सरीखे खर्चें भी हांेगे । इसमें टिकट पाने के लिए की गई जोड़-तोड़ का खर्चा षामिल नहीं है। अभी दो साल पहले ही उत्तर प्रदेष में संपन्न पंचायत चुनाव बानगी हैं कि एक गांव का सरपंच बनने के लिए कम से कम दस लाख का खर्च मामूली बात थी। फिर एक लोकसभा सीट के तहत आठ सौ पंचायतें होना सामान्य सी बात है। इसके अलावा कई नगर पालिक व निगम भी होते हैं।
भाजपा, कांग्रेस, सरीखी पार्टियां ही नहीं क्षेत्रीय दल के उम्मीदवार भी 15 से 40 वाहन प्रचार में लगाते ही हैं । आज गाड़ियों का किराया न्यूनतम पच्चीस सौ रुपए रोज है । फिर उसमें डी़जल, उस पर लगे लाऊड-स्पीकर का किराया और सवार कार्यकर्ताओं का खाना-खुराक,यानि प्रति वाहन हर रोज दस हजार रुपए का खर्चा होता है । यदि चुुनाव अभियान 20 दिन ही चला तो तीस लाख से अधिक का खर्चा तो इसी मद पर होना है । पर्चा, पोस्टर लेखन, स्थानीय अखबार में विज्ञापन पर बीस लाख, वोट पड़ने के इंतजाम ,मतदाता पर्चा लिखना, बंटवाना, मतदान केंदª के बाहर कैंप लगाना आदि में बीस लाख का खर्चा मामूली बात है । इसके अलावा आम सभाओें, स्थानीय बाहुबलियों को प्रोत्साहन राशि, पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के मानदेय पर चालीस लाख का खर्चा होना ही है । साफ है कि एक करोड़ का खर्चा किए बगैर ढ़ंग से लोकसभा चुनाव लड़ने की बात सोची भी नहीं जा सकती है ।
इस बार देष कुल 543 सीटों लिए छह बड़ी, 40 क्षेत्रीय दल व कई सौ अन्य उम्मीदवार मैदान में हैं । औसतन हर सीट पर तीन बड़ी पार्टियों की टक्कर होना है । यदि न्यूनतम खर्चा भी लें तो प्रत्येक सीट पर छह करोड से अधिक रुपए का धंुआ उड़ना है । यह पैसा निश्चित ही वैध कमाई का हिस्सा नहीं होगा, अतः इसे वैध तरीके से खर्च करने की बात करना बेमानी होगा । यहां एक बात और मजेदार है कि चुनावी खर्चे पर नजर रखने के नाम पर चुनाव आयोग भी जम कर फिजूलखर्ची करता है । अफसरों के टीए-डीए, वीडियो रिकार्डिंग, और ऐसे ही मद में आधा अरब का खर्चा मामूली माना जा रहा है। कई महकमों के अफसर चुनाव खर्च पर नजर रखने के लिए लगाए जाते हैं, उनके मूल महकमे का काम काज एक महीने ठप्प रहता है सो अलग। यदि इसे भी खर्च में जोडे़ं तो आयोग का व्यय ही दुगना हो जाता है।
यह सभी कह रहे हैं कि इस बार का चुनाव सबसे अधिक खर्चीला है- असल में तो चुनाव के खर्चे छह महीने पहले से षुरू हो गए थे। एक-एक रैली पर कई करोड़ का खर्च, इमेज बिल्डिंग के नाम पर जापनी एजेंसियों को दो सौ करोड तक चुकाने, और इलेक्ट्रानिक व सोषल मीडिया पर ‘‘भ्रमित प्रचार’’ के लिए पीछे के रास्ते से खर्च अकूत धन का तो कहीं इरा-सिरा  ही नहीं मिल रहा है। कुल मिला कर चुनाव अब ‘इन्वेस्टिमेंट’ हो गया है, जितना करोड लगाओगे, उतने अरब का रिटर्न पांच साल में मिलेगा।
चुनावी खर्च बाबत कानून की ढ़ेरों खामियों को सरकार और सभी सियासती पार्टियां स्वीकार करती हैं । किंतु उनके निदान के सवाल को सदैव खटाई में डाला जाता रहा है । राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन, मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिए । ये सिफारिशें कहीं ठडे बस्ते में पड़ी हुई हैं । वैसे भी आज के भ्रष्ट राजनैतिक माहौल में समिति की आदर्श सिफारिशें कतई प्रासंगिक नहीं हैं । इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि नेता महज सरकारी खर्चे पर ही चुनाव लड़ लेंगे या फिर सरकारी पैसे को ईमानदारी से खर्च करेंगे । 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा ।
चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घड़ियाली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि  राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरैक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित ऑडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिती ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । सनद रहे कि 1979 के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा किसी भी दल ने अपने आय-व्यय के ब्यौरे इनकम टेक्स विभाग को नहीं दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाया तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा कीं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है ।
वैसे लोकतंत्र में मत संकलन की जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए,नाकि पार्टी या प्रत्याशी की । हम इस सदी के संभवतया आखिरी आम चुनाव की तैयारी में लगे हुए हैं । थैलीशाहों ने काले धन का बहाव तेज कर दिया है । औद्योगिक घराने मंदी के बावजूद अपनी थैलियां खोले हुए हैं। आखिर सरकार उन्हीं के लिए तो चुनी जानी है । आम मतदाता को तो वोट के ऐवज में महंगाई, बढ़े हुए टेक्स और परेशानियों से अधिक कुछ तो मिलने से रहा ।

पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...