चुनावी खर्च की निरर्थक सीमा
पंकज चतुर्वेदी
किसी ने ‘नए फिल्मी गाने की धुन’ को ही एक करोड़ में खरीद डाला है तो कोई मषहूर फिल्मी अदाकारों को किराए पर ले कर गली-गली घुमाने जा रहा है। भाजपा हो या कांग्रेस या फिर समाजवादी पार्टी या दलित मित्र बसपा सभी ने अपने बड़े नेताओं के दौरों के लिए अधिक से अधिक हेलीकाप्टर और विमान किराए पर ले लिए हैं , जिनका किराया हर घंटे की पचपन लाख तक है। कंाग्रेस ने इलेक्ट्रानिक्स संचार माध्यमों, केबल नेटवर्क के जरिए गांव-गांव तक बात पहुंचाने का करोड़ों का प्रोजेक्ट तैयार किया है । भाजपा के नेता षूटिंग कर रहे । कोई एक राज्य में ही चार सौ रथ चलवा रहा है तो कहीं रोड षो। वोटों के लिए लोगों को रिझाने के वास्ते हर पार्टी हाई-टेक की ओर अग्रसर है । यह तो महज पार्टी के आलाकमानों का खर्चा है । हर पार्टी का उम्मीदवार स्थानीय देश - काल- परिस्थिति के अनुरूप अपनी अलग से प्रचार योजना बना रहा है । जिसमें दीवार रंगाई, झंडे, बैनर, पोस्टर गाड़ियों पर लाऊड-स्पीकर से प्रचार, आम सभाओं के साथ-साथ क्षेेत्रीय भाषाओं में आडियो-वीडियो कैसेट बनवाने, आंचलिक वोट के ठेकेदारों को अपने पक्ष में पटाने सरीखे खर्चें भी हांेगे । इसमें टिकट पाने के लिए की गई जोड़-तोड़ का खर्चा षामिल नहीं है। अभी दो साल पहले ही उत्तर प्रदेष में संपन्न पंचायत चुनाव बानगी हैं कि एक गांव का सरपंच बनने के लिए कम से कम दस लाख का खर्च मामूली बात थी। फिर एक लोकसभा सीट के तहत आठ सौ पंचायतें होना सामान्य सी बात है। इसके अलावा कई नगर पालिक व निगम भी होते हैं।
भाजपा, कांग्रेस, सरीखी पार्टियां ही नहीं क्षेत्रीय दल के उम्मीदवार भी 15 से 40 वाहन प्रचार में लगाते ही हैं । आज गाड़ियों का किराया न्यूनतम पच्चीस सौ रुपए रोज है । फिर उसमें डी़जल, उस पर लगे लाऊड-स्पीकर का किराया और सवार कार्यकर्ताओं का खाना-खुराक,यानि प्रति वाहन हर रोज दस हजार रुपए का खर्चा होता है । यदि चुुनाव अभियान 20 दिन ही चला तो तीस लाख से अधिक का खर्चा तो इसी मद पर होना है । पर्चा, पोस्टर लेखन, स्थानीय अखबार में विज्ञापन पर बीस लाख, वोट पड़ने के इंतजाम ,मतदाता पर्चा लिखना, बंटवाना, मतदान केंदª के बाहर कैंप लगाना आदि में बीस लाख का खर्चा मामूली बात है । इसके अलावा आम सभाओें, स्थानीय बाहुबलियों को प्रोत्साहन राशि, पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के मानदेय पर चालीस लाख का खर्चा होना ही है । साफ है कि एक करोड़ का खर्चा किए बगैर ढ़ंग से लोकसभा चुनाव लड़ने की बात सोची भी नहीं जा सकती है ।
इस बार देष कुल 543 सीटों लिए छह बड़ी, 40 क्षेत्रीय दल व कई सौ अन्य उम्मीदवार मैदान में हैं । औसतन हर सीट पर तीन बड़ी पार्टियों की टक्कर होना है । यदि न्यूनतम खर्चा भी लें तो प्रत्येक सीट पर छह करोड से अधिक रुपए का धंुआ उड़ना है । यह पैसा निश्चित ही वैध कमाई का हिस्सा नहीं होगा, अतः इसे वैध तरीके से खर्च करने की बात करना बेमानी होगा । यहां एक बात और मजेदार है कि चुनावी खर्चे पर नजर रखने के नाम पर चुनाव आयोग भी जम कर फिजूलखर्ची करता है । अफसरों के टीए-डीए, वीडियो रिकार्डिंग, और ऐसे ही मद में आधा अरब का खर्चा मामूली माना जा रहा है। कई महकमों के अफसर चुनाव खर्च पर नजर रखने के लिए लगाए जाते हैं, उनके मूल महकमे का काम काज एक महीने ठप्प रहता है सो अलग। यदि इसे भी खर्च में जोडे़ं तो आयोग का व्यय ही दुगना हो जाता है।
यह सभी कह रहे हैं कि इस बार का चुनाव सबसे अधिक खर्चीला है- असल में तो चुनाव के खर्चे छह महीने पहले से षुरू हो गए थे। एक-एक रैली पर कई करोड़ का खर्च, इमेज बिल्डिंग के नाम पर जापनी एजेंसियों को दो सौ करोड तक चुकाने, और इलेक्ट्रानिक व सोषल मीडिया पर ‘‘भ्रमित प्रचार’’ के लिए पीछे के रास्ते से खर्च अकूत धन का तो कहीं इरा-सिरा ही नहीं मिल रहा है। कुल मिला कर चुनाव अब ‘इन्वेस्टिमेंट’ हो गया है, जितना करोड लगाओगे, उतने अरब का रिटर्न पांच साल में मिलेगा।
चुनावी खर्च बाबत कानून की ढ़ेरों खामियों को सरकार और सभी सियासती पार्टियां स्वीकार करती हैं । किंतु उनके निदान के सवाल को सदैव खटाई में डाला जाता रहा है । राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन, मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिए । ये सिफारिशें कहीं ठडे बस्ते में पड़ी हुई हैं । वैसे भी आज के भ्रष्ट राजनैतिक माहौल में समिति की आदर्श सिफारिशें कतई प्रासंगिक नहीं हैं । इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि नेता महज सरकारी खर्चे पर ही चुनाव लड़ लेंगे या फिर सरकारी पैसे को ईमानदारी से खर्च करेंगे । 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा ।
चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घड़ियाली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरैक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित ऑडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिती ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । सनद रहे कि 1979 के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा किसी भी दल ने अपने आय-व्यय के ब्यौरे इनकम टेक्स विभाग को नहीं दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाया तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा कीं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है ।
वैसे लोकतंत्र में मत संकलन की जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए,नाकि पार्टी या प्रत्याशी की । हम इस सदी के संभवतया आखिरी आम चुनाव की तैयारी में लगे हुए हैं । थैलीशाहों ने काले धन का बहाव तेज कर दिया है । औद्योगिक घराने मंदी के बावजूद अपनी थैलियां खोले हुए हैं। आखिर सरकार उन्हीं के लिए तो चुनी जानी है । आम मतदाता को तो वोट के ऐवज में महंगाई, बढ़े हुए टेक्स और परेशानियों से अधिक कुछ तो मिलने से रहा ।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376
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