My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

Why CRPF persons are not treated as army SHAHID

हजार दुश्वारियां हैं बस्तर में सीआरपीएफ के सामने


यह भी चिंता का विषय है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर में आनेवाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है, ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है..


बस्तर के सुकमा जिले में बीते एक महीने में 38 सीआरपीएफ जवानों के मारे जाने से देश में रोष है। तीन लाख जवानों से अधिक इस सक्षम पुलिस बल के लोगों की इस तरह जंगल में अपने ही देश के लोगों के हाथों से मारा जाना बेहद क्षोभ का विषय है। हर बार की तरह राजनेता, आम लोग विरोध जता रहे हैं, बंदी कर रहे हैं व पुतले जला रहे हैं, लोग उन्हें शहीद बता रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि देश विरोधी ताकतों से लड़ते हुए मां भारती को अपना सर्वोच्च बलिदान देनेवाले केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के जवानों को शहीद का दर्जा व सुविधाएं नहीं मिलती हैं। यही नहीं, हर साल दंगा, नक्सलवाद, अलगाववादियों, बाढ़ और ऐसी ही विकट परिस्थितयों में संघर्ष करने वाले इस बल के लोग मैदान में लड़ते हुए मरने से कहीं ज्यादा गंभीर बीमारियों से मर जाते हैं। यह बानगी है कि जिन लेागें पर हम मरने के बाद नारे लुटाने का काम करते हैं, उनकी नौकरी की शर्तें किस तरह असहनीय और जोखिमभरी हैं।
संसद के अभी समाप्त हुए सत्र में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने बताया था कि पिछले साल सीआरपीएफ के 92 जवान नौकरी करते हुए हार्टअटैक से मर गए, वहीं डेंगू या मलेरिया से मरने वालों की संख्या पांच थी। 26 जवान अवसाद या आत्महत्या के चलते मारे गए तो 353 अन्य बीमारियों की चपेट में असामयिक कालगति को प्राप्त हुए। वर्ष 2015 में दिल के दौरे से 82, मलेरिया से 13 और अवसाद से 26 जवान मारे गए। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जनवरी-2009 से दिसंबर-2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए सीआरपीएफ के कुल 323 जवान देश के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्महत्या करने वालों की संख्या 228 है। वहीं मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी सौ के पार है। अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिलाकर सीआरपीएफ दुश्मन से ही नहीं, खुद से भी जूझ रही है।
सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान न तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं, न ही उन्हें स्थानीय बोली-भाषा, संस्कार की जानकारी होती है और न ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया है। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशा-निर्देश पर ही काम करते हैं। हाल ही में बुरकापाल के पास हुए संहार को ही लें, यहां गत चार साल से सड़क बन रही है और महज सड़क बनाने के लिए सीआरपीएफ की दैनिक ड्यूटी लगाई जा रही थी। असल में केंद्रीय फोर्स का काम दुश्मन को नष्ट करने का होता है, नकि चौकसी करने का। दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से है बस्तर। हरियाली, झरने, पशु-पक्षी और इंसान भी सभी नैसर्गिक वातावरण में उन्मुक्त। भले ही अखबार की सुर्खिया डराएं कि बस्तर में बारूद की गंध आती है, लेकिन हकीकत तो यह है कि किसी भी बाहरी पर्यटक के लिए कभी भी कोई खतरा नहीं है। पूरी रात जगदलपुर से रायपुर तक आनेवाली सड़क वाहनों से आबाद रहती है। यहां टकराव है तो बंदूकों का। नक्सलवाद ने यहां गहरी जड़ें जमा ली हैं। तो जब स्थानीय पुलिस उनके सामने असहाय दिखी तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को यहां झोंक दिया गया। विडंबना है कि उनके लिए न तो माकूल भोजन-पानी है और न ही स्वास्थ्य सेवाएं, न ही सड़कें और न ही संचार। परिणाम सामने है कि बीते पांच सालों के दौरान यहां सीने पर गोली खाकर शहीद होनेवालों से कहीं बड़ी संख्या सीने की धड़कनें रुकने या मच्छरों के काटने से मरने वालों की है।यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व शोषण की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा नहीं करते हैं। अधिकतर मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगातार सर्चिग्ंा व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनाव भरा है। यहां दुश्मन अदृश्य है, हर दूसरे इंसान पर शक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश। इस पर भी हाथ बंधे हुए। लगातार इस तरह का दबाव कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है। सड़कों का न होना महज सुरक्षा के इरादे से ही जवानों को दिक्कत नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी निजी जिंदगी पर भी होता है। उनकी पसंद का भोजन, कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूषित है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गरमी शुरू होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का शिकार होते हैं।
यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से शोधित होकर नहीं आता है। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूंट के साथ डायरिया, पीलिया व टाइफाइड के जीवाणु पीता है। बेहद उमस, तेज गरमी यहां के मौसम की विशेषता है और इसमें उपजते हैं बड़े मच्छर, जोकि हर साल कई जवानों की असामयिक मौत का कारण बनते हैं। हालांकि, जवानों को कड़ा निर्देश है कि वे मच्छरदानी लगाकर सोएं, लेकिन रात की गरमी और घने जंगलों में चौकसी के चलते यह संभव नहीं हो पाता। यहां तक कि बस्तर का मलेरिया अब पारंपरिक कुनैन से ठीक नहीं होता है। घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देश की तरह मौसम बदलते हैं। उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाशिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। इसके बावजूद केंद्रीय बलों के जवानों के लिए स्वास्थ्य सेवा बेहद लचर है। जवान यहां-वहां जा नहीं सकते, जगदलपुर का मेडिकल कॉलेज बेहद अव्यवस्थित-सा है। मोबाइल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर का क्षेत्रफल केरल राज्य से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाइल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक न मिलने से टावर कमजोर रहते हैं।

बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसला होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों न उनका शिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ इयर फोन लगाकर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट में यह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असुरक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख न जान पाने का दर्द भी उनको भीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और न ही जवान के पास उसके लिए समय है। यह भी चिंता का विषय है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर मंे आनेवाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है, ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाश, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेशानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी, चिकत्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं, जो जवानों में अनुशासन व कार्य प्रतिबद्धता, दोनों को बनाए रख सकते हैं। यही नहीं, जबतक सीआरपीएफ के जवान को दुश्मन से लड़ते हुए मारे जाने पर सेना की तरह शहीद का दर्जा व सम्मान नहीं मिलता, उनका मनोबल बनाए रखना कठिन होगा।
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= पंकज चतुर्वेदी
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बुधवार, 26 अप्रैल 2017

Cow in drough pron Bundelkhand

सूखे वाले इलाकों की सुधि लें

बुंदेलखंड जैसे सूखा प्रभावित इलाकों में चारे की कमी के चलते लोग अपने मवेशियों को घर से हटा रहे हैं। इसकी वजह से थोड़ी बहुत बची-खुची खेती चौपट हो रही है, वहीं इन पशुओं की वजह से सड़क हादसों की संख्या बढ़ गई है। दूसरी ओर गाय बचाने के नाम पर ¨हसा को अंजाम देने वाले संगठन बेतरतीब तरीके से खड़े तो हो गए हैं , लेकिन इन बेसहारा मवेशियों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। सरकारों के पास भी पशुओं को लेकर कोई ठोस नीति नहीं है

नजरिया

राज्यों की निष्क्रियता पर सही फटकार


पंकज चतुर्वेदी1देश के कई हिस्सों में गोवंश बचाने के नाम पर इंसान की जान लेने में लोग हिचक नहीं रहे हैं। लेकिन सूखे से बेहाल बुंदेलखंड में लाखों गायें सड़कों पर छुट्टा घूम रही हैं। ये गायें स्वयं ही किसी वाहन की चपेट में आ जाती हैं या फिर उनके कारण लोग दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। यहां का एक जिला है छतरपुर। यहां सरकारी रिकॉर्ड में 10 लाख 32 हजार मवेशी दर्ज हैं जिनमें से सात लाख से ज्यादा तो गाय-भैंस ही हैं। तीन लाख के लगभग बकरियां हैं। बारिश न होने के कारण कहीं घास तो बची नहीं है इसलिए इन मवेशियों के लिए हर महीने 67 लाख टन भूसे की जरूरत है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। यह केवल एक जिले का हाल नहीं है, दो राज्यों में विस्तारित समूचे बुंदेलखंड के 12 जिलों में दूध देने वाले चौपायों के हालात भूख-प्यास व कोताही के हैं। आए रोज गांवों में कई दिन से चारा ना मिलने या पानी ना मिलने के कारण राजमार्ग पर आने से होने वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेशी मर रहे हैं। गर्मी के दिन इनके लिए और भी बदतर होते हैं। 1एक स्वयंसेवी संस्था ने पल्स पोलियो व कई ऐसी ही सरकारी संस्थाओं के आंकडों का विश्लेषण किया तो पाया किबीते एक दशक में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के 13 जिलों से 63 लाख से ज्यादा लोग रोजगार व पानी की कमी से हताश होकर अपना घर-गांव छोड़ कर सुदूर नगरों को पलायन कर चुके हैं। गांवों में रह गए हैं तो सिर्फ बुजुर्ग या कमजोर। यहां भी किसान आत्महत्याओं की खबरें लगातार आ रही हैं। मवेशी चारे और पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। ऐसे में कई गायें व मवेशी मांस का अवैध व्यापार करने वालों के हत्थे भी चढ़ते हैं। कई बार वहां की लावारिस गायों के ट्रक मेरठ तक आते हैं। बुंदेलखंड की मशहूर ‘अन्ना प्रथा’ यानी लोगों ने अपने मवेशियों को खुला छोड़ दिया हैं क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते। सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। हर दिन प्रत्येक गांव में लगभग 10 से 100 तक मवेशी खाना-पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। पूरे बुंदेलखंड में दस हजार से कुछ ज्यादा गांव हैं। जाहिर है कि सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव के इस दावे में दम है कि अकेले पिछले साल मई में यहां तीन लाख से ज्यादा मवेशी मर चुके हैं। इनमें कई सड़क दुर्घटना में मारी जाती हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रही हैं। 1किसानों के लिए यह परेशानी का सबब बनी हुई हैं क्योंकि उनकी फसलों को मवेशियों का झुंड चट कर जाता है। दुधारू मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। ‘अन्ना प्रथा’ यानी दूध ना देने वाले मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनों पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान हैं जिनके पास अपने जल साधन हैं लेकिन वे अन्ना पशुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है तो अचानक ही हजारों अन्ना गायों का रेवड़ आता है व फसल चट कर जाता है। यदि गाय को मारो तो धर्म-रक्षक खड़े हो जाते हैं और खदेड़ों तो बगल के खेत वाला बंदूक निकाल लेता है। गाय को बेच दो तो उसके व्यापारी को रास्ते में कहीं भी बजरंगियों द्वारा पिटाई का डर। दोनों ही हालात में खून बहता है। यह बानगी है कि बुंदेलखंड में एक करोड़ से ज्यादा चौपाये किस तरह मुसीबत बन रहे हैं और उनका पेट भरना मुसीबत बन गया है। 1पिछली सरकार के दौरान जारी किए गए विशेष बुंदेलखंड पैकेज में दो करोड़ रुपये का प्रावधान महज ‘अन्न प्रथा’ रोकने के लिए आम लोगों में जागरूकता पैदा करना था। कम बारिश के कारण खेती न होने से हताश किसानों को दुधारू मवेशी पालने को प्रोत्साहित करने के लिए भी सौ करोड़ रुपये का प्रावधान था।1अभी चार दशक पहले तक बुंदेलखंड के हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी। शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां कम से कम एक तालाब और कई कुएं नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। मगर लोगों ने सार्वजनिक चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व खत्म कर दिया। हैंडपंप या ट्यूबवेल की मृगमरिचिका में कुओं को बिसरा दिया। जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी नहीं बची है व वन विभाग के डिपो ती सौ किलोमीटर दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे हैं वहां मवेशी के चरने पर रोक है। कुछ स्थानों पर समाज ने गौशालाएं भी खोली हैं लेकिन एक जिले में दो हजार से ज्यादा गाय पालने की क्षमता इनमें नहीं है। तभी इन दिनों बुंदेलखंड के किसी भी राजमार्ग पर चले जाएं हजारों गायें बैठी मिलेंगी। यदि किसी वाहन की इन गायों से टक्कर हो जाए तो हर गांव में कुछ धर्म के ठेकेदार भी मिलेंगे जो तोड़-फोड़ व वसूली करते हैं, लेकिन इन गाय के मालिकों को इन्हें अपने ही घर में रखने के लिए प्रेरित करने वाले एक भी नहीं मिलेंगे। यह मामला अकेले गांव-कस्बे में रहने वाले मवेशियों तक ही सीमित नहीं है, जंगल में रहने वाले जानवरों पर इसका प्रभाव बहुत ही खतरनाक हो रहा है। हालांकि अब बुंदेलखंड में जंगल बहुत कम बचे हैं, लेकिन पन्ना राष्ट्रीय पार्क जैसे जंगल जहां शेर, हिरण सहित कई जानवर पर्याप्त संख्या में हैं, इस सूखे के कारण वहां ‘जंगल राज’ होना तय है। पानी व चारे के लिए हिरण जैसे जानवर बस्ती की ओर आ रहे हैं और मारे जा रहे हैं। वहीं खाने की कमी के चलते शेर बस्ती की ओर मवेशियों पर घात लगा रहे हैं।1सरकार के पास इन हालातों से निपटने की कोई योजना है ही नहीं। अभी बरसात बहुत दूर है। जब सूखे का संकट चरम पर होगा तो लोगों को मुआवजा, राहत कार्य या ऐसे ही नाम पर राशि बांटी जाएगी, लेकिन देश और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशु-धन को सहेजने के प्रति शायद ही किसी का ध्यान जाए। अभी तो औसत या अल्प बारिश के चलते जमीन पर थोड़ी हरियाली है और कहीं-कहीं पानी भी, लेकिन अगली बारिश होने में अभी कम से कम तीन महीना हैं और इतने लंबे समय तक आधे पेट व प्यासे रह कर मवेशियों का जी पाना संभव नहीं होगा। 1बुंदेलखंड में जीवकोपार्जन का एकमात्र जरिया खेती ही है और मवेशी पालन इसका सहायक व्यवसाय। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पशु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगे। हो सकता है कि इस पर भी कुछ कागजी घोड़े दौड़े लेकिन जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनशील लोग नहीं होंगे, मवेशी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।1(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

people-overcome-problem-of-drought-in-traditional-ways

परंपरागत तरीकों से सूखे की समस्या को मात देते लोग

अभी देश से मानसून बहुत दूर है और भारत का बड़ा हिस्सा सूखे, पानी की कमी व पलायन से जूझ रहा है। बुंदेलखंड के तो सैकड़ों गांव वीरान होने शुरू भी हो गए हैं। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक, देश के लगभग सभी हिस्सों में बड़े जल संचयन स्थलों (जलाशयों) में पिछले साल की तुलना में कम पानी बचा है। यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा, तो तस्वीर क्या होगी? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि हर दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। भारत का क्षेत्रफल दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 प्रतिशत है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं और जनसंख्या में हमारी भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर वर्ष बारिश से कुल 4,000 अरब घन मीटर (बीसीएम) पानी प्राप्त होता है, जबकि उपयोग लायक भूजल 1,869 अरब घन मीटर है। इसमें से महज 1,122 अरब घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है, बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना नहीं चाहिए। कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती और इस्तेमाल सालों-साल कम हुए हैं, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य नगदी फसलों ने खेतों में अपना स्थान मजबूती से बढ़ाया है। इसके चलते देश में बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है।
हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसते हैं, आम आदमी के जीवन का  पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। और एक बार गाड़ी नीचे उतरी, तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक, किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से कम             पानी बरसता है, तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। मगर जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए, तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं।
सूखे के कारण जमीन के कड़े होने या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। वैसे भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है, जो दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। बाकी पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र से जाकर  मिल जाता है और बेकार हो जाता है। गुजरात के जूनागढ़, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद ही सीखा। विछियावाड़ा गांव के लोगों ने डेढ़ लाख रुपये और कुछ दिनों की मेहनत के साथ 12 रोक बांध बनाए और एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नलकूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्य प्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। तलाशने चलें, तो कर्नाटक से लेकर असम तक और बिहार से लेकर बस्तर तक ऐसे हजारों हजार सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लोगों ने सूखे को मात दी।
खेती या बागान की घड़ा प्रणाली हमारी परंपरा का वह पारसमणि है, जो कम बारिश में भी सोना उगा सकती है। इसमें जमीन में गहराई में मिट्टी का घड़ा दबाना होता है। उसके आस-पास कंपोस्ट, नीम की खाद आदि डाल दें, तो बाग में खाद व रासायनिक दवाओं का खर्च बच जाता है। घड़े का मुंह खुला छोड देते हैं व उसमें पानी भर देते हैं। इस तरह एक घड़े के पानी से एक महीने तक पांच पौधों को सहजता से नमी मिलती है। जबकि नहर या ट्यूब वेल से इतने के लिए सौ लीटर से कम पानी नहीं लगेगा। ऐसी ही कई पारंपरिक प्रणालियां हमारे लोक-जीवन में उपलब्ध हैं और वे सभी कम पानी में शानदार जीवन के सूत्र हैं।
कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी रखनी होगी कि पानी की कमी है। दूसरा, ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने की बजाय इसे नियमित कार्य मानना होगा।

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

Who is taking resposability of Murder of 25 CRPF personal

 अविश्वास पर टिके पुलिस-तंत्र के बस का नहीं है नक्सलवाद से निबटना
पंकज चतुर्वेदी
जिस सुकमा जिले के जिस इलाके में अभी दो सप्ताह पहले मुख्यमंत्री मोटरसाईकिल पर घूम कर लोगों को शासन-तंत्र का भरोसा दे रहे थे, ठीक वहीं दिन में डेढ बजे नक्सलियों ने सीआरपीएफ की 74 वीं बटालियन पर हमला किया, 25 जवान शहीद हो गए, दो की हालत खराब है, हथयार भी लूट लिए गए। ठीक ऐसा हीह मला उसी इलाके में अभी 11 मार्च को भी हुआ था और तब केंद्र सरकार के गृह मंत्री राजनाथ सिंह वहीं थे। उन्होंने ताकीद दी थी कि अब ऐसी घटनांए होंगी नहीं। एक राज्य के एक छोटे से हिस्से में(हालांकि यह हिस्सा केरल राज्य के क्षेत्रफल के बराबर है ) स्थानीय पुलिस, एसटीएफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ की कई टुकड़ियां मय हेलीकॉप्टर के तैनात हैं और हर बार लगभग पिछले ही तरीके से सुरक्षा बलों पर हमला होता है। नक्सली खबर रखते हैं कि सुरक्षा बलों की पेट्रोलिंग पार्टी कब अपने मुकाम से निकली व उन्हें किस तरफ जाना है।, वे खेत की मेंढ तथा ऊंची पहाड़ी वाले इलाके की घेराबंदी करते हैं और जैसे ही सुरक्षा बल उनके घेरे के बीच पहुंचते है।, अंधाधुंध फायरिंग करते हैं। इस बार यह हमला दोरनापाल और बुरकापाल के बीच हुआ।
विडंबना यह है कि पिछले सात सालों में ठीक इसी तरह नक्सली छुप कर सुरक्षा बलों को फंसाते रहे हैं और वे खुद को सुरक्षित स्थानों पर ऊंचाई में अपनी जगह बना कर सुरक्षा बलों पर हमला करते रहे हैं। हर बार पिछली घटनाओं से सबक लेने की बात आती है, लेकिन कुछ ही हफ्ते में सुरक्षाबल पुराने हमलों को भूल जाते हैं व फिर से नक्सलियों के फंदे में फंस जाते हैं। बदले, प्रतिहिंसा और प्रतिषोध की भावना के चलते ही देष के एक तिहाई इलाके में ‘लाल सलाम‘ की आम लोगों पर पकड़ सुरक्षा बलों से ज्यादा  है। नक्सली हिंसा को समापत करने के लिए बातचीत शुरू करने वाली हाल ही की सुपी्रम कोर्ट की टिप्पणी भी याद करें। बस्तर के जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है, वहां स्थानीय समाज दो पाटों के बीच पिस रहा है और उनके इस घुटनभरे पलायन की  ही परिणति है कि वहां की कई लोक बोलियां लुप्त हो रही हैं। धुरबी बोलने वाले हल्बी वालों के इलाकों में बस गए हैं तो उनके संस्कार, लोक-रंग, बोली सबकुछ उनके अनुरूप हो रही है। इंसान की जिंदगी के साथ-साथ जो कुछ भी अकल्पनीय नुकसान हो रहे हैं, इसके लिए स्थानीय प्रषासन की कोताही ही जिम्मेदार है। नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक है जबकि प्रषासन खबर पा कर भी कार्यवाही नहीं करता। खीजे-हताश  सुरक्षा बल जो कार्यवाही करते हैं, उनमें स्थानीय निरीह आदिवासी ही शिकार  बनते हैं और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार होता है।
बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से सुकमा की ओर जाने वाले खूबसूरत रास्ते का विस्तार आंध्र प्रदेष के विजयवाड़ा तक है। इस पूरे रास्ते में बीच का कोई साठ किलोमीटर का रास्ता है ही नहीं और यहां चलने वाली बसें इस रास्ते को पार करने में कई घंटे ले लेती हैं। सड़क से सट कर उडिसा का मलकानगिरी जिला पड़ता है जहां बेहद घने जंगल हैं। कांगेर घाटी और उससे आगे झीरम घाटी की सड़कों पर कई-कई सौ मीटर गहराई की घाटियों हैं, जहां पारंपरिक षीषम, साल के पेड़ों की घनी छाया है। अभी नवंबर के तीसरे सप्ताह में कई स्थानीय अखबारों व समाचार चैनलों ने खबर दिखाई थी कि सुकमा में चिंतागुफा  के बीच नक्सलियों की गतिविधियां दिख रही हैं। उधर राज्य की पुलिस पिछले कुछ महीनों से कथित आत्मसमर्पण करवा कर यह माहौल बनाने में लगी थी कि अब नक्सलियों की ताकत खतम हो गई है। इसके बावजूद पुलिस का खुफिया तंत्र उनकी ठीक स्थिति जानने में असफल रहा।यही नहीं केंद्र सरकार के गृह विभाग ने भी चेतावनी भेजी थी कि नक्सली कुछ हिंसा कर सकते हैं। इसमें सुरक्षा बलों पर हमला, जेल पर हमला आदि की संभावना जताई गई थी। एक क्षेत्रीय न्यूज चैनल ने अभी तीन दिन पहले ही खबर दिखाई थी कि कांकेर जिले के जंगलों में नक्सली हलचल देखी जा रही हैं।
इस बार के हमले में  ज्यादा नुकसान होने का सबसे बड़ा कारण था कि सीआरपीएफ के साथ स्थानीय पुलिस नहीं थी। ये नक्सलियों द्वारा दंडामी गोंडी में की जा रही बातचीत को समझ नहीं सके। नक्सली ऊंचाई पर थे, तभी षहीद और घायल सभी जवानों को सिंर, गले या पेट पर गोलियां लगी हैं।
अरण्य में सुलगती आग के कारकों की व्याख्या करें तो जनगणना का एक आंकड़ा चौंकाने वाला है। बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद 2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिषत थी। सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में षेश देष के विपरीत महिला-पुरूश का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियां के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है। यदि सरकार की सभी चार्जषीटों को सही भी मान लिया जाए तो यह हमारे सिस्टम के लिए षोचनीय नहीं है कि आदिवासियों का हमारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वे हथियार के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मजबूर हैं। इतने दमन पर सभी दल मौन हैं और यही नक्सलवाद के लिए खाद-पानी है।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की दस साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सषस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि तीन सौ नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्स लगाई जाती है और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना बदरंग हुआ था और उसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृषंसता से हुई ; सबके सामने है। बंदूकों को अपनों पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देष नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोषिष करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। लेकिन साथ ही उन खुफिया अफसरों, वरिश्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय की जाए जिनकी लापरवाही के चलते 12 सुरक्षाकर्मी के गाल में बेवहज समा गया। सनद रहे उस इलाके में खुफिया तंत्र विकसित करने के लिए पुलिस को बगैर हिसाब-किताब के अफरात पैसा खर्च करने की छूट है और इसी के जरिये कई बार बेकार हो गए या फर्जी लोगों का आत्मसमर्पण दिखा कर पुलिस वाहवाही लूटती हैं। एक बात और, अभी तक बस्तर ुपलिस कहती रही कि नक्सली स्थानीय नहीं हैं और वे सीमायी तेलंगाना के हैं, लेकिन इस बार उनकी गोंडी सुन कर साफ हो जाता है कि विद्रोह की यह नरभक्षा ज्वाला बस्तर के अंचलों से ही हैं।  गौरतलब है कि चार सौ से ज्यादा नक्सली मय हथियार के जमा होते रहे व खुफिया तंत्र बेखबर रहा, जबकि उस इलाके में फोर्स के पास मानवरहित विमान द्रोण तक की सुविधा है।
भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों में षांति के लिए हाथ में क्लाषनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। कष्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और तो भी सरकार गाहे-बगाहे हुरीयत व कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से षांतिपूर्ण हल की गुफ्तगु करती रहती है, फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देष से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रषासन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोषिषें क्यों नहीं की गईं। 
यह हमला उन कारणों को आंकने का सही अवसर हो सकता है जिनके चलते आम लोगों का सरकार या पुलिस से ज्यादा नक्सलियों पर विष्वास है, यह नर संहार अपनी सुरक्षा व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आए झोल को ठीक करने की चेतावनी दे रहा है, दंडकारण्य में फैलती बारूद की गंध नीतिनिर्धारकों के लिए विचारने का अवसर है कि नक्सलवाद को जड से उखाडने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर संवाद का रास्ता खोजना होगा या फिर एक तरफ से बल प्रयोग व दूसरे तरफ से संवाद की संभावनाएं खोजना समय की मांग है। आदिवासी इलाकां की कई करोड अरब की प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंजीवादी घरानों को समर्थन करने वाली सरकार सन 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विषेश पंचायत कानून(पेसा अधिनियम) को लागू करना तो दूर उसे भूल ही चुकी है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ दंडकारण्य तक नहीं गया, कारण वह बड़े धरानों के हितों के विपरीत है। असल में यह समय है उन कानूनों -अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि जनजातिय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्यांकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेव्ही के रूप में वसूल रहे हैं।




बुधवार, 19 अप्रैल 2017

IPL ; Anti ecology game

बिजली की फिजूलखर्ची का खेल

पंकज चतुर्वेदी


दूसरी तरफ एक गांव का घर जहां दो लाइटें, दो पंखे, एक टीवी और अन्य उपकरण हैं, में दैनिक बिजली खपत दशमलव पांच केवीएच है। एक मैच के आयोजन में खर्च 10 हजार केवीएच बिजली को यदि इसे घर की जरूरत पर खर्च किया जाए तो वह बीस हजार दिन यानी 54 वर्ष से अधिक चलेगी।
जाहिर है यदि एक क्रिकेट मैच दिन की रोशनी में खेल लिया जाए तो उससे बची बिजली से एक गांव में 200 दिन तक निर्बाध बिजली सप्लाई की जा सकती है। ये सभी मैच दिन में होते तो कई गांवों को गर्मी के तीन महीने बिजली की किल्लत से निजात मिल सकती थी।
हमारे देश के कुल 5,79,00 आबाद गांवों में से 82,800 गांवों तक बिजली की लाइन न पहुंचने की बात स्वयं सरकारी रिकार्ड कबूल करता हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में कुल उत्पादित बिजली का मात्र 35 फीसदी का ही वास्तविक उपभोग हो पाता है। हर साल खेतों को बिजली की बाधित आपूर्ति के कारण हजारों एकड़ फसल नष्ट होने के किस्से सुनाई देते हैं।
जनता की मूलभूत जरूरतों में जबरिया कटौती कर कतिपय लोगों के ऐशो-आराम के लिए रात में क्रिकेट मैच आयोजित करना कुछ यूरोपीय देशों की नकल से अधिक कुछ नहीं है। लेकिन भारत में जहां एक तरफ बिजली की त्राहि-त्राहि मची है, वहीं सूर्य देवता यहां भरपूर मेहरबान है। फिर भी रात्रि मैच की अंधी नकल क्यों?
एक मैच के दौरान व्यय बिजली, पानी, वहां बजने वाले संगीत के शोर, वहां पहुंचने वाले लोगों के आवागमन और उससे उपजे सड़क जाम से हो रहे प्रदूषण से प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान तो हो ही रहा है, साथ ही यह सब गतिविधियां कार्बन का उत्सर्जन बढ़ाती हैं। अभी हम ‘अर्थ अवर’ मना कर एक घंटे बिजली उपकरण बंद कर इसी कार्बन उत्सर्जन को कम करने का स्वांग करेंगे। हकीकत तो यह है कि पूरा देश जितना कार्बन उत्सर्जन एक ‘अर्थ अवर’ में कम करेगा, उतना तो दो-तीन आईपीएल मैच में ही हिसाब बराबर हो जाएगा।
आईपीएल के दौरान भारत के विभिन्न शहरों में 05 अप्रैल से 21 मई के बीच कुल 60 मैच हो रहे हैं, जिनमें से 48 तो रात आठ बजे से ही हैं। बाकी मैच भी दिन में चार बजे से शुरू होंगे यानी इनके लिए भी स्टेडियम में बिजली से उजाला करना ही होगा। रात के क्रिकेट मैचों के दौरान आमतौर पर स्टेडियम के चारों कोनों पर एक-एक प्रकाशयुक्त टावर होता है। हरेक टावर में 140 मेटल हेलाइड बल्ब लगे होते हैं। इस एक बल्ब की बिजली खपत क्षमता 180 वाट होती है। यानी एक टावर पर 2,52000 वाट या 252 किलोवाट बिजली फुकती है। इस हिसाब से समूचे मैदान को जगमगाने के लिए चारों टावरों पर 1008 किलोवाट बिजली की आवश्यकता होती है। रात्रिकालीन मैच के दौरान कम से कम छह घंटे तक चारों टावर की सभी लाइटें जलती ही हैं। अर्थात एक मैच के लिए 6048 किलोवाट प्रति घंटा की दर से बिजली की जरूरत होती है। इसके अलावा एक मैच के लिए दो दिन कुछ घंटे अभ्यास भी किया जाता है। इसमें भी 4000 किलोवाट प्रति घंटा (केवीएच) बिजली लगती है। अर्थात एक मैच के आयोजन में दस हजार केवीएच बिजली इसके अतिरिक्त है।

कार्बन की मात्रा में इजाफे से दुनिया पर तूफान, कीटों के प्रकोप, सुनामी या ज्वालामुखी जैसे खतरे मंडरा रहे हैं। दुनिया पर तेजाबी बारिश की संभावना बढ़ने का कारक भी है कार्बन की बेलगाम मात्रा। जब देश का बड़ा हिस्सा खेतों में सिंचाई या घरों में रोशनी के लिए बिजली आने का इंतजार कर रहा होगा, तब देश के किसी महानगर में हजारों लोग ऊंचे खंभों पर लगी हजारों फ्लड-लाइटों में मैच का लुत्फ उठा रहे होंगे।

कहना मुश्किल है कि असल में आईपीएल खेल है या मनोरंजन। यह तथ्य अभी दबा-छुपा है कि आईपीएल के नाम पर इतनी बिजली स्टेडियमों में फूंकी जा रही है, जितने से कई गांवों को सालभर रोशनी दी जा सकती है। यहां यह जानना भी जरूरी है कि बिजली के बेजा इस्तेमाल से हमारा कार्बन फुट प्रिंट अनुपात बढ़ रहा है। यह तो सभी जानते हैं कि वायुमंडल में सभी गैसों की मात्रा तय है और 750 अरब टन कार्बन, कार्बन डायआक्साइड के रूप में वातावरण में मौजूद है। कार्बन की मात्रा बढ़ने का दुष्परिणाम है कि जलवायु परिवर्तन व धरती के गर्म होने जैसे प्रकृतिनाशक बदलाव हम झेल रहे हैं।
देश के अधिकांश राज्यों में चौबीसों घंटे बिजली की सप्लाई एक बड़ा मुद्दा है। भले ही हम बिजली उत्पादन के आंकड़ों में आत्मनिर्भर व मांग के हिसाब से आपूर्ति करने वाले देश बन गए हों, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में भी कई इलाके कम वोल्टेज या अपर्याप्त बिजली संकट से जूझ रहे हैं। ऐसे में 52 दिनों तक दूधिया रोशनी से स्टेडियम को चमका कर इंडियन प्रीमियम लीग का तमाशा खड़ा करना समझ के परे है।

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

Farmers do not need loan, provide them proper vages of labour

कर्ज माफी नहीं मेहनत की कीमत दो किसान को

                                                                    
उप्र की नई सरकार ने एक लाख तक के कृषि कर्ज माफ किए तो लोगों ने इसे स्वागत योग्य कदम बता दिया और रिजर्व बैंक इससे असहमत दिखा। वहीं राज्य सरकार द्वारा अस्सी लाख टन से अधिक गेंहू खरीदने के केंद्र राज्य भर में शुरू करने, दस रूप्ए प्रति कुंटल ढुलाई का चुकाने का जो फैसला हुआ, उस पर किसी ने तारीफ नहीं की। असल में किसान ना तो कर्ज चाहता है, ना ही उसकी माफी और ना ही उनकी छंटांक भर कर्ज माफी की आड़ में उद्योगपतियों की अरबां-अरब के कर्ज माफी का बहाना बनना चाहता है। इसी साल लें, किसान की मेहनत खेत में जब कर सोना बनी तो देश  के कई हिस्सों में असामयिक बरसात व ओले गिर गए, कई हजार जगह कटी फसल के छोटी सी लापरवाही के चलते खलिहान में ही जल जाने की खबरें आ रही हैं। जब खेत में फसल सूखने को तैयार होती है तो किसान के सपने हरे हो जाते हैं। किसान ही नहीं, देश  भी खुशहाली, भोजन पर आत्मनिर्भरता, महंगाई जैसे मसलों पर निश्चिन्त  हो जाता है।  प्रयास यह होना चाहिए कि किसान और उसके नाम पर देष पर कर्ज भी समाप्त हो, साथ ही खेती-किसानी करने वाले हताश  हो कर अपना काम भी ना छोड़ें।

इस देष में खेती हर समय अजीब विरोधाभास के बीच झूलती है - एक तरफ किसान फसल नश्ट होने पर मर रहा है तो दूसरी ओर अच्छी फसल होने पर वाजिब दाम ना मिलने पर भी उसे मौत को गले लगाना पड़ रहा है। दोनों ही मसलों में मांग केवल मुआवजे, राहत की है। जबकि यह देष के हर गांव के हर किसान की षिकायत है कि गिरदावरी यानि नुकसान के जायजे का गणित ही गलत है। और यही कारण है कि किसान जब कहता है कि उसकी पूरी फसल चौपट हो गई तो सरकारी रिकार्ड में उसकी हानि 16 से 20 फीसदी दर्ज होती है और कुछ दिनों बाद उसे बीस रूपए से लेकर दौ सौ रूप्ए तक के चैक बतौर मुआवजे मिलते हैं। सरकार प्रति हैक्टर दस हजार मुआवजा देने के विज्ञापन छपवा रही है, जबकि यह तभी मिलता है जब नुकसान सौ टका हो और गांव के पटवारी को ऐसा नुकसान दिखता नहीं है।  यही नहीं मुआवजा मिलने की गति इतनी सुस्त होती है कि राषि आते-आते वह खुदकुषी के लिए मजबूर हो जाता हे। दूसरी ओर फसल का की वाजिब कीमत ना मिलने पर कोई संरक्षण का उपाय है ही नहीं।
असल में इसी व्यवस्था के तहत थोड़ा सा डिजिटल हो कर किसान को बाढ़-सुखाड़ या आपदा के प्रकोप से मुक्त किया जा सकता है। ना बीमा की किष्त भरना है, ना ही कर्ज के कागज। हर गांव का पटवारी इस सूचना से लैस होता है कि किस किसान ने इस बार कितने एकड़ में क्या फसल बोई थी। होना तो यह चाहिए कि जमीनी सर्वे के बनिस्पत किसान की खड़ी-अधखड़ी-बर्बाद फसल पर सरकार को कब्जा लेना चाहिए तथा उसके रिकार्ड में दर्ज बुवाई के आंकड़ों के मुताबिक तत्काल अधिकतम खरीदी मूल्य यानि एमएसपी के अनुसार पैसा किसान के खाते ंमें डाल देना चाहिए। इसके बाद गांवों में मनरेगा में दर्ज मजदूरों की मदद से फसल कटाई करवा कर जो भी मिले उसे सरकारी खजाने में डालना चाहिए। फसल अच्छी हुई तो सरकार की और संकट में रही तो सरकार की। कुल मिला कर खेत किसान का, लेकिन वह काम कर रहा है समाज का या सरकार का। जब तक प्राकृतिक विपदा की हालत में किसान आष्वस्त नहीं होगा कि उसकी मेहनत, लागत का पूरा दाम उसे मिलेगा ही, खेती को फायदे का व्यवसाय बनाना संभव नहीं होगा।

एक तरफ जहां किसान प्राकृतिक आपदा में अपनी मेहनत व पूंजी गंवाता है तो यह भी डरावना सच है कि हमारे देष में हर साल कोई 75 हजार करोड के फल-सब्जी, माकूल भंडारण के अभाव में नश्ट हो जाते हैं।  आज हमारे देष में कोई 6300 कोल्ड स्टोरजे हैं जिनकी क्षमता 3011 लाख मेट्रीक टन की है।  जबकि हमारी जरूरत 6100 मेट्रीक टन क्षमता के कोल्ड स्टोरेज की है। मोटा अनुमान है कि इसके लिए लगभग 55 हजार करोड रूपए की जरूरत है। जबकि इससे एक करोड़ 20 लाख किसानों को अपने उत्पाद के ठीक दाम मिलने की गारंटी मिलेगी। वैसे जरूरत के मुताबिक कोल्ड स्टोरेज बनाने का व्यय सालाना हो रहे नुकसान से भी कम है। चाहे आलू हो या मिर्च या ऐसे ही फसल, इनकी खासियत है कि इन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। टमाटर, अंगूर आदि का प्रसस्करण कर वह र्प्याप्त लाभ देती हैं। सरकार मंडियों से कर वूसलने, वहां राजनीति करने में तो आगे रहती है, लेकिन वेयर हाउस या कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने की उनकी जिम्मेदारिया पर चुप रहती हे। यही तो उनके द्वारा किसान के षोशण का हथियार भी बनता हे। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है । पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया । फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों । किसान जब ‘‘केष क्राप’’ यानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचौलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है।
देष के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताष करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेष, महाराश्ट्र, और उप्र के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनांए हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती है। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब षुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत नीचा देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरीदी केंद्र तक ढो कर ले जाना, फिर घूस दे कर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना; किसान को घाटे का सौदा दिखता है।
अपने दिन-रात, जमा पूंजी लगा कर देष का पेट भरने के लिए खटने वाला किसान की त्रासदी है कि ना तो उसकी कोई आर्थिक सुरक्षा है और ना ही  सामाजिक प्रतिश्ठा, तो भी वह अपने श्रम-कणों से मुल्क को सींचने पर तत्पर रहता है। किसान के साथ तो यह होता ही रहता है - कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़, कहीं खेत में हाथी-नील गाय या सुअर ही घुस गया, कभी बीज-खाद-दवा नकली, तो कभी फसल अच्छी आ गई तो मंडी में अंधाधुंध आवक के चलते माकूल दाम नहीं। प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का बस नहीं है, लेकिन ऐसी आपदाएं तो किसान के लिए मौत से बदतर होती हैं। किसानी महंगी होती जा रही है तिस पर जमकर बंटते कर्ज से उस पर दवाब बढ़ रहा है। ऐसे में आपदा के समय महज कुछ सौ रूपए की राहत राषि उसके लिए ‘जले पर नमक’ की मांनिंद होती है। सरकार में बैठे लोग किसान को कर्ज बांट कर सोच रहे हैं कि इससे खेती-किसानी का दषा बदल जाएगी, जबकि किसान चाहता है कि उसे उसकी फसल की कीमत की गारंटी मिल जाए। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है । यह विडंबना ही है कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है ।
एक बात जान लेना जरूरी है कि किसान को ना तो कर्ज चाहिए और ना ही बगैर मेहनत के कोई छूट या सबसिडी। इससे बेहतर है कि उसके उत्पाद को उसके गांव में ही विपणन करने की व्यवस्था और सुरक्षित भंडारण की स्थानीय व्यवस्था की जाए। किसान को सबसिडी से ज्यादा जरूरी है कि उसके खाद-बीज- दवा के असली होने की गारंटी हो तथा किसानी के सामानों को नकली बचने वाले को फांसी जैसी सख्त सजा का प्रावधान हो। अफरात फसल के हालात में किसान को बिचौलियों से बचा कर सही दाम दिलवाने के लिए जरूरी है कि सरकारी एजेंसिया खुद गांव-गांव जाकर  खरीदारी करे। सब्जी-फल-फूल जैसे उत्पाद की खरीद-बिक्री स्वयं सहायता समूह या सहकारी के माध्यम से  करना कोई कठिन काम नहीं है।  एक बात और इस पूरे काम में हाने वाला व्यय, किसी नुकसान के आकलन की सरकारी प्रक्रिया, मुआवजा वितरण, उसके हिसाब-किताब में होने वाले व्यय से कम ही होगा। कुल मिला कर किसान के उत्पाद के विपणन या कीमतों को बाजार नहीं, बल्कि सरकार तय करे।

पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005
9891928376






पंकज चतुर्वेदी

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

sewar converting death holes


                       मौत घर बनते सीवर 

                                                                      पंकज चतुर्वेदी
इस बार मार्च के अंतिम सप्ताह में ही गरमी ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए और यह ताप उन श्रमिकों के लिए जानलेवा बन जाता है जो कि स्वच्छता-तंत्र की आधुनिकता के मानक कहे जाने वाले सीवरों की सफाई काकाम करते हैं। बीते एक सप्ताह में दिल्ली एनसीआर के फरीदाबाद और गाजियाबाद में ही सीवर की जानलेवा गैसे से दम घुटने के चलते छह लोग मरे हैं। एक अप्रेल को उदयपुर में एक ही स्थान पर पांच लोग मारे गए। ऐसी मौतें हर साल हजार से ज्यादा होती हैं। हर मौत का कारण सीवर की जहरीली गैस बताया जाता है । पुलिस ठेकेदार के खिलाफ लापरवाही का मामला दर्ज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। यही नहीं अब नागरिक भी अपने घर के सैप्टिक टैंक की सफाई के लिए अनियोजित क्षेत्र से मजदूरों को बुला लेते हैं और यदि उनके साथ कोई दुर्घटना होती है तो ना तो उनके आश्रितों को कोई मुआवजा मिलता है और ना ही कोताही करने वालों को कोई समझाईष। षायद यह पुलिस को भी नहीं मालूम है कि सीवर सफाई का ठेका देना हाईकोर्ट के आदेष के विपरीत है। समाज के जिम्मेदार लोगों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि नरक-कुंड की सफाई के लिए बगैर तकनीकी ज्ञान व उपकरणों के निरीह मजदूरों को सीवर में उतारना अमानवीय है।
जब गरमी अपना रंग दिखाती है, तो गहरे सीवरों में पानी कुछ कम हो जाता है। सरकारी फाईलें भी बारिष की तैयारी के नाम पर सीवरों की सफाई की चिंता में तेजी से दौड़ने लगती हैं । यह विडंबना है कि सरकार व सफाईकर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढ़ोन की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देता है। राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मुंबई हाईकोर्ट ने सात साल पहले सीवर की सफाई के लिए दिषा-निर्देष जारी किए थे, जिनकी परवाह और जानकारी किसी को नहीं है। वैसे तो  लाखों रूपए बजट वाला यह काम कागजों पर ही अधिक होता है । जहां हकीकत में सीवर की सफाई होती भी है तो कई सरकारी कागजों को रद्दी का कागज मान कर होती है । नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लेगों की सुरक्षा-व्यवस्था के कई कानून हैं और मानव अधिकार आयोग के निर्देष भी ।
कोर्ट के निर्देषों के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजेंसी के पास सीवर लाईन के नक्षे, उसकी गहराई से संबंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई का दैनिक रिकार्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की जांच, आवष्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लगे कर्मचारियों का नियमित प्रषिक्षण, सीवर में गिरने वाले कचरे की नियमित जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं; जैसे निर्देषों का पालन होता कहीं नहीं दिखता है।
भूमिगत सीवरों ने भले ही षहरी जीवन में कुछ सहूलियतें दी हों, लेकिन इसकी सफाई करने वालों के जीवन में इस अंधेरे नाले में और भी अंधेरा कर दिया है । अनुमान है कि हर साल देष भर के सीवरों में औसतन एक हजार लोग दम घुटने से मरते हैं । जो दम घुटने से बच जाते हैं उनका जीवन सीवर की विशैली गंदगी के कारण नरक से भी बदतर हो जाता है । देष में दो लाख से अधिक लोग जाम हो गए सीवरों को खोलने , मेनहोल में घुस कर वहां जमा हो गई गाद, पत्थर को हटाने के काम में लगे हैं । कई-कई महीनों से बंद पड़े इन गहरे नरक कुंडों में कार्बन मोनो आक्साईड, हाईड्रोजन सल्फाईड, मीथेन जैसी दमघोटू गैसें होती हैं ।
यह एक षर्मनाक पहलू है कि यह जानते हुए भी कि भीतर जानलेवा गैसें और रसायन हैं, एक इंसान दूसरे इंसान को बगैर किसी बचाव या सुरक्षा-साधनों के भीतर ढकेल देता है । सनद रहे कि महानगरों के सीवरों में  महज घरेलू निस्तार ही नहीं होता है, उसमें ढ़ेर सारे कारखानों की गंदगी भी होती है । और आज घर भी विभिन्न रसायनों के प्रयोग का स्थल बन चुके हैं । इस पानी में ग्रीस-चिकनाई, कई किस्म के क्लोराईड व सल्फेट, पारा, सीसा के यौगिक, अमोनिया गैस और ना जाने क्या-क्या होता है । सीवरेज के पानी के संपर्क में आने पर सफाईकर्मी  के षरीर पर छाले या घाव पड़ना आम बात है । नाईट्रेट और नाईट्राईड के कारण दमा और फैंफड़े के संक्रमण होने की प्रबल संभावना होती है । सीवर में मिलने वाले क्रोमियम से षरीर पर घाव होने, नाक की झिल्ली फटने और फैंफड़े का कैंसर होने के आसार होते हैं । भीतर का अधिक तापमान इन घातक प्रभावों को कई गुना बढ़ा देता है । यह वे स्वयं जानते हैं कि सीवर की सफाई करने वाला 10-12 साल से अधिक काम नहीं कर पाता है, क्योंकि उनका षरीर काम करने लायक ही नहीं रह जाता है । ऐसी बदबू ,गंदगी और रोजगार की अनिष्चितता में जीने वाले इन लोगों का षराब व अन्य नषों की गिरफ्त में आना लाजिमी ही है और नषे की यह लत उन्हें कई ग्रभीर बीमारियों का षिकर बना देती है ।  आमतौर पर ये लोग मेनहोल में उतरने से पहले ही षराब चढ़ा लेते हैं, क्योंकि नषे के सरूर में वे भूल पाते हैं कि काम करते समय उन्हें किन-किन गंदगियों से गुजरना है । गौरतलब है कि षराब के बाद षरीर में आक्सीजन की कमी हो जाती है, फिर गहरे सीवरों में तो यह प्राण वायु होती ही नहीं है । तभी सीवर में उतरते ही इनका दम घुटने लगता है । यही नहीं सीवर के काम में लगे लोगों को सामाजिक उपेक्षा का भी सामना करना होता है ।, इन लोगों के यहां रोटी-बेटी का रिष्ता करने में उनके ही समाज वाले परहेज करते हैं ।
दिल्ली में सीवर सफाई में लगे कुछ श्रमिकों के बीच किए गए सर्वे से मालूम चलता है कि उनमें से 49 फीसदी लोग सांस की बीमारियों, खांसी व सीने में दर्द के रोगी हैं । 11 प्रतिषत को डरमैटाइसिस, एक्जिमा और ऐसे ही चर्म रोग हैं । लगातार गंदे पानी में डुबकी लगाने के कारण कान बहने व कान में संक्रमण, आंखों में जलन व कम दिखने की षिकायत करने वालों का संख्या 32 फीसदी थी । भूख ना लगना उनका एक आम रोग है । इतना होने पर भी सीवरकर्मियों को उनके जीवन की जटिलताओं की जानकारी देने के लिए ना तो सरकारी स्तर पर कोई प्रयास हुए हैं और ना ही किसी स्वयंसेवी संस्था ने इसका बीड़ा उठाया है ।  अहमदाबाद
वैसे यह सभी सरकारी दिषा-निर्देषों में दर्ज हैं कि सीवर सफाई करने वालों को गैस -टेस्टर(विशैली गैस की जांच का उपकरण), गंदी हवा को बाहर फैंकने के लिए ब्लोअर, टार्च, दस्ताने, चष्मा और कान को ढंकने का कैप, हैलमेट मुहैया करवाना आवष्यक है । मुंबई हाईकोर्ट का निर्देष था कि सीवर सफाई का काम ठेकेदारों के माध्यम से कतई नहीं करवाना चाहिए। यहां जान लेना होगा कि अब दिल्ली व अन्य महानगरों में सीवर सफाई का अधिकांष काम ठेकेदारें द्वारा करवाया जला रहा है, जिनके यहां दैनिक वेतन पर कर्मचारी रखे जाते हैं ।
सफाई का काम करने के बाद उन्हें पीने का स्वच्छ पानी, नहाने के लिए साबुन व पानी तथा स्थान उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है । राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इस बारे में कड़े आदेष जारी कर चुका है । इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं गायब है ।
आज के अर्थ-प्रधान और मषीनी युग में सफाईकर्मियों के राजनीतिक व सामाजिक मूल्यों के आकलन का नजरिया बदलना जरूरी है । सीवरकर्मियों को देखें तो महसूस होता है कि उनकी असली समस्याओं के बनिस्पत भावनात्मक मुद्दों को अधिक उछाला जाता रहा है । केवल छुआछूत या अत्याचार जैसे विशयों पर टिका चिंतन-मंथन उनकी व्यावहारिक दिक्कतों से बेहद दूर है । सीवर में काम करने वालों को काम के लिए आवष्यक सुरक्षा उपकरण, आर्थिक संबल और स्वास्थ्य की सुरक्षा मिल जाए जो उनके बीच नया विष्वास पैदा किया जा सकता है ।


 

रविवार, 9 अप्रैल 2017

Back to traditional water conservation system for saving water

दफ्न होते दरिया की दास्तान

इस बार बारिश तो ठीक-ठाक हुई थी, लेकिन बुंदेलखंड, तेलंगाना, मराठवाड़ा, बस्तर जैसे इलाके मार्च समाप्त होते-होते पानी के लिए हांफने लगे हैं।
स बार बारिश तो ठीक-ठाक हुई थी, लेकिन बुंदेलखंड, तेलंगाना, मराठवाड़ा, बस्तर जैसे इलाके मार्च समाप्त होते-होते पानी के लिए हांफने लगे हैं। पिछले अनुभवों से स्पष्ट है कि भारीभरकम बजट, राहत, नलकूप जैसे शब्द जल संकट का निदान नहीं हैं। अगर भारत के ग्रामीण जीवन और खेती को बचाना है तो बारिश की हर बूंद को सहेजने के अलावा और कोई चारा नहीं है। देश के बड़े हिस्से के लिए न अल्प वर्षा नई बात है और न ही वहां के समाज के लिए कम पानी में गुजारा करना, लेकिन बीते पांच दशकों के दौरान आधुनिकता की आंधी में दफ्न हो गई पारंपरिक जल प्रणालियों के चलते आज वहां निराशा, पलायन और बेबसी का आलम है। मध्यप्रदेश के बुरहानपुर शहर की आबादी तीन लाख के आसपास है। यह इलाका पानी की कमी के कारण कुख्यात है, लेकिन आज भी शहर में कोई अठारह लाख लीटर पानी प्रतिदिन एक ऐसी प्रणाली के जरिए वितरित होता है, जिसका निर्माण सन 1615 में किया गया था। यह प्रणाली जल संरक्षण और वितरण की दुनिया की अजूबी मिसाल है, जिसे ‘भंडारा’ कहा जाता है। सतपुड़ी पहाड़ियों से एक-एक बूंद जल जमा करना और उसे नहरों के माध्यम से लोगों के घरों तक पहुंचाने की व्यवस्था मुगल काल में फारसी जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने की थी। समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह नष्ट हो गए हैं।

हमारे पूर्वजों ने देश-काल, परिस्थिति के अनुसार वर्षाजल को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित और संरक्षित की थीं, जिनमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल और खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये आमतौर पर वर्षाजल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की तरह होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काट कर रोकने की पद्धति ‘पाट’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिए किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘नाड़ा या बंधा’ अब देखने को नहीं मिलती। कुंड और बावड़िया महज जल संरक्षण के साधन नहीं, बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रही हैं। यह बीते दो सौ साल में ऐसा हुआ कि लोग भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी घरों-पिंडों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। वह गरमी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना और उसे किफायत से खर्च करना अपनी संस्कृति मानता था। अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती-संरचना, पानी की मांग और आपूर्ति का गणित भी जानता था। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी को और कितने में कंठ तर हो जाएगा।

राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुएं और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के साधन थे, जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और आज जब पाताल का पानी निकालने और नदियों पर बांध बनाने की जुगत अनुत्तीर्ण होती दिख रही है, तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाख में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है, जो शाम को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।

तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई तालाबों की शृंखला में मोड़ कर हर बूंद को बड़ी नदी और वहां से समुद्र में बर्बाद होने से रोकने की अनूठी परंपरा थी। उत्तरी अराकोट और चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिए इस ‘पद्धति तालाब’ प्रणाली में तीन सौ सत्रह तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों की अंतर्शृंखला भी विस्मयकारी है। पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बुंदेलखंड में भी पहाड़ी के नीचे तालाब, पहाड़ी पर हरियाली वाला जंगल और एक तालाब के ‘ओने’ (अतिरिक्त जल निकासी का मुंह) से नाली निकाल कर उसे उसके नीचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोड़ने और ऐसे पांच-पांच तालाबों की कतार बनाने की परंपरा नौ सौवीं सदी में चंदेल राजाओं के काल से रही है। वहां तालाबों के आंतरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के बंधान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी फोड़ी गई, पेड़ उजाड़ दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रूठे तो पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किए गए। सभी उपाय बेकार रहे तो आज फिर तालाबों की याद आ रही है।
भारत में हर साल कोई चालीस करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिलता है। उसका खर्च तीन प्रकार से होता है: सात करोड़ हेक्टेयर मीटर भाप बन कर उड़ जाता है, 11.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर नदियों आदि से बहता है, शेष 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर जमीन में जज्ब हो जाता है। फिर इन तीनों में लेन-देन चलता रहता है। जमीन में जज्ब होने वाले कुल 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी में से 16.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर मिट्टी की नमी बनाए रखता है और बाकी पांच करोड़ हेक्टेयर मीटर भूमिगत जल स्रोतों में जा मिलता है। पिछले कुछ सालों में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के चलते बारिश का पानी सीधे जमीन पर गिरता है और मिट्टी की ऊपरी परत को काटते हुए बह निकलता है। इससे नदियों में मिट्टी अधिक पहुंचने के कारण वे उथली हो रही हैं और भूमिगत जल का भंडार भी प्रभावित हुआ है। इसके विपरीत नलकूप, कुओं आदि से भूमिगत जल का खींचना बेतरतीब बढ़ा है।सन 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। पर तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा शुरू हो गई। चाहे कालाहांडी हो, बुंदेलखंड या तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक-सी है। इन इलाकों में एक सदी पहले तक कई सौ तालाब होते थे। ये यहां की अर्थव्यवस्था का मूलाधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है।
आज जलनिधि को खतरा बढ़ती आबादी से नहीं, बढ़ रहे औद्योगिक प्रदूषण, दैनिक जीवन में बढ़ रहे रसायनों के प्रयोग और मौजूद जल संसाधनों के अनियोजित उपयोग से है। अगर देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए तो पांच सौ लाख हेक्टर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति सौ लीटर पानी पूरे देश में दिया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर पारंपरिक जल प्रणालियों को खोजा जाए, उन्हें सहेजने, संचालित करने वाले समाज को

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

8th April. bomb and photo with hat : memories of comred Bhagat Singh

 8 अप्रेल, बम का धमाका और तस्वीर
पंकज चतुर्वेदी
बहुत कम लोगों को याद रहता है कि आठ अप्रेल वह तारीख था जिसने एक विप्लववादी सरदार भगत सिंह को एक विचारक, स्वप्नद्रष्टा और लेखक के तौर पर स्थापित कर दिया था। इसी तारीख से जुड़ी है उनकी सबस लोक प्रिय हैट वाली तस्वीर भी। शहीदे आजम भगत सिंह के 23 साल पांच महीने और 23 दिन के छोटे से जीवन का हर दिन अपने में रोमांच, साहस, विचार और देश के प्रति समर्पण की अद्वितीय कहानी है। उनके महज चार असली चित्र उपलब्ध हैं और हर चित्र के पीछे अपने कारण हैं। सरदार भगत सिह का पूरा परिवार क्रांतिकारी था, उनके दादा अर्जुन सिंह, पिता किशन सिंह , चाचा सरदार अजीत सिंह हों या चाचा स्वर्ण सिंह , सभी आजादी के आंदोलन में विप्लवी गतिविधियों के कारण मशहूर और सरकार की नजरों में खटके हुए थे। जब वह पैदा हुए थे तो उनके चाचा सरदार स्वर्ण सिंह जेल में थे। ब्रितानी हुकुमत की खिलाफत के कारण उन्हें सजा हुई थी। जेल में उन्हें ना तो खाना मिल रहा था, ना ही बीमारी का इलाज। वे महज 23 साल की उम्र में जेल में ही षहीद हो गए थे। 
दूसरे चाचा सरदार अजीत सिंह तो आजादी के आंदोलन के बडे क्रांतिकारी थे। अंग्रेजों से बचते-बचाते वे विदेष चले गए थे। अब घर में एक चाची विधवा तो दूसरी विधवा जैसी। भगत जब किसी चाची को रेता देखता तो उनके आंसू पोंछता । ‘‘‘चाची रोना नहीं, मैं अंग्रेजों को मार भगाउंगा फिर चाचाजी लौट आएंगे।’’ कभी कहता, ‘चाची , देखना मैं अपने चाचा का बदला जरूर लूंगा।’’ भगत सिंह का पहला उपलब्ध फोटो उनकी ग्यारह साल की अवस्था का हैं। जबकि दूसरा चित्र एक खटिया पर बैठे हाथ में हथकड़ी लगा हुआ। तीसरा चित्र उनके कालेज के दिनों का है जिसमें वे पगड़ी पहने है और सबसे ज्यादा चर्चित और प्रिय चित्र उनका हैट वाला है।
भगत सिंह का हथकड़ी वाला चित्र असल में उनकी पहली गिरफ्तारी के वक्त का है। वे एक बांस की ढीली सी खटिया पर बैठे हैं, उनके सामने कोई आदमी है, हाथ में हथकड़ी लगी है। उनके नंगे सिर पर पर सिखें वाली जूड़ी है। पैरे नंगे हैं, कुरता या शर्ट भी अव्यवस्थित सी है। बात अक्तूबर- 1926 की है। अभी तक भगत सिंह की पहचान क्रांतिकारी के तौर पर नहीं थी, लेकिन अंग्रेज सीआईडी को शक था कि क्रांतिकारियों के घर का यह नौजवान कुछ संदिग्ध लेगों के संपर्क में है। लाहैर में दशहरे के मेले में रामलीला के समय एक बम फटा। पंजाब पुलिस ने मान लिया कि यह धमाका विप्लववादियों ने किया हे। आनन-फानन में भगत सिंह को पकड़ कर लाहौर रेलवे स्टेशन के बगल वाले हवालात में रखा गया। ना अदालत ले गए, ना कोई कानूनी लिखा-पढ़ी हुई और भगत सिंह को कोई तीन सप्ताह हिरासत में रखा गया। बब्बर अकाली आंदोलन के कार्यकर्ता मिलखा सिंह निर्झर ने गुरबचन सिंह भुल्लर को दिए एक साक्षात्कार में बताया था कि असल में यह फोटो उस समय का हे। ठंड के दिन थे। सीआईडी वाले पूछताछ के लिए पेड़ के नीचे खुले में भगत सिंह को ले कर बैठते और पूछताछ करते थे। बाद में साठ हजार रूपए के मुचलके पर उन्हें छोड़ दिया गया था क्योंकि कोई भी प्रमाण उनके विरूद्ध नहीं मिले थे। यह फोटो पुलिस वालों ने ही अपने रिकार्ड के लिए खींचा था। यह तस्वीर भगत सिंह के भाई कुलबीर सिंह को सन 1950 में मिली थी। इस चित्र के पुलिस के रिकार्ड से बब्बर अकाली मूवमेंट के एक वकील तक पहुंचने फिर उसे बितानी सरकार के भय से छुपा कर रखने और आजादी के बाद उसके सामने आने की कहान भी बेहद घुमावदार ंहै, बिल्कुल भगत सिंह के जीवन की तरह। इससे पहले नेशनल कालेज , लाहौर में उनका एक फोटो सन 1924 में खि्ांचा था जो कि पूरी कक्षा का समूह फोटो था। बाद में उससे निकाल कर उनकी यह तस्वीर लोगों के सामने लाई गई, जिसमें उनके सिर पर पगड़ी है और दाढ़ी-मूंछ भी। यह फोटो भी उनकी शहादत के बाद कालेज के रिकाउर् से निकल कर लोगों तक पहुंचा।
इन्कलाब जिंदाबाद और साम्राज्वाद का नाश हो के नारों के बीच उभरी भगतसिंह की क्रतिकारी विचारक की छबि काप्रतीक बन गया उनका हेट वाला फोटो भी बेहद क्रांतिकारी ढंग से जनता के सामने आ पाया था। इस चित्र में सरदार भगत सिंह के चैहरे रौब, दृढ संकल्प और आंखों की चमक आज भी लोगों को सम्मोहित करती हे। यह कहानी तो सभी को पता हैकि लाहौर गोली कांड के बाद पुलिस से बचने के लिए भगत सिंह ने अपने केश कटवा लिए थे और अंग्रेजी हेट लगा कर वे पुलिस को चकमा दे कर ट्रैन से उनकी नाक के सामने से फरार हो गए थे। उसके बाद भगत सिंह को हैट से प्यार सा हो गया था। जब एच एस आर ए(हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएसन) ने तय कर लिया कि असेंबली में बम फैक कर खुद को गिरफ्तार करवाया जाएगा और फिर अदालत में देश की आजादी की आवश्यकता पर देश को संबोधित किया जाएगा, उसके बाद भगत के सभी साथी उसे असीम प्यार करने लगे थे। वे सभी जानते थे कि यह कारनामा उनके जीवन का अंत का मार्ग प्रशस्त करेगा, लेकिन भगत सिंह का जबरदस्त आत्म विश्वास और मौत के प्रति निर्भरता के भाव से उने चैहरे का नूर बढ़ गया था। आठ अप्र्रैल को दिल्ली का असेंबली में बम फैंका गया था, लेकिन उससे पहले कई दिनों तक भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त असेंबली की कार्यवाही और हालात देखने वहां जाते रहे थे। शायद चार अप्रैल की बात है यानि कांड के चार दिन पहले, साथी जयदेव कपूर ने दिल्ली के ही कश्मीरी गेट के रामनाथ फोटोग्राफर स्टूडियो में इस फोटो को खींचने का इंतजाम किया था। उन्होंने फोटोग्राफर को कहा कि ‘‘मेरे यार की शानदार तस्वीर खींचना, यह हमसे बहुत दूर जा रहा है। ’’
तय तो यह था कि तीन दिन में तस्वीर मिल जाएगी। सनद रहे उस दौर में फोटो खींचना और उसे बनाने की तकनीक बहुद धीमी थी और तीन-चार दिन से पहले फोटो मिलती नहीं थी। काम की अधिकता के चलते रामनाथ आठ तारीख तक फोटो तैयार नहीं कर पाए और असेंबली में हुए धमाके की चर्चा से पूरी दुनिया हिल गई। जयदेव कपूर भागते हुए गए और रामनाथ से फोटो ले कर आए। उसके बाद इसी फोटो ग्राफर को पुलिस ने पुरानी दिल्ली के थाने में बुलाया ताकि अभियुक्तों के फोटो खींचे जा सके। वह देखते से ही पहचान गए, लेकिन मौन रहे।
भगतसिंह की असली तस्वीर  केवल उप्र वाली तीन है - हेट  वाली, बचपन वाली और तीसरी उनके  कालेज के ग्रुप फोटो से ली गयी 

उसके बाद जब भगत सिंह को लाहोर गोली कांड में फांसी की सजा हुई तो उनका एक नोट जेल से आया जिसमें उन्होंने कहा कि ‘मेरा नाम हिंदुस्तानी इंक्लाब का प्रतीक बन गया है। अगर में मुस्कुराता हुआ फांसी पर चढता हूं तो हिंदुस्तानी मांओं को प्रेरणा मिलेगी और वे अपने बच्चों को भी भगत सिंह बनने के लिए प्रेरित करेंगी। इस तरह अपनी जिंदगी कुर्बान कर देने वालों की तादाद में भारी बढ़ेतरी होगी। फिर साम्राज्यवाद के लिए इंकलाब के सैलाब का समना कर पाना मुश्किल होगा।’’
एचएसआरए ने यह फोटो और नोट को पोस्टर की शक्ल में तैयार किया और कई अखबारों को भेजा। सभी राजद्राह की लटकती तलवार से भयभीत थे लेकिन फांसी के बाद 12 अप्रेल को लाहौर के उर्दू अखबार ‘वंदे मातरम ’ ने इस तस्वीर को छापा। यह अखबार के पनें की जगह पोस्टर के रूप में ही अखबार के बीच रख कर वितरित की गई। हालांकि बाद में अखबार के मालिक लाला फिरोजचंद को भी पुलिस ने पकड़ा।
भगत सिंह की खटिया वाली और हेट वाली तस्वीर उस समय ब्रितानी सरकार की नींद हराम किए थी तो आज भी जब जोर जुल्म की टक्कर का नारा उभरता है तो प्रेरणा और ताकत का स्त्रोंत यही दो तस्वीरे बनती हैं।
यह आलेख मेरे ब्लॉग पर भी उपलब्ध है

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...