दफ्न होते दरिया की दास्तान
इस बार बारिश तो ठीक-ठाक हुई थी, लेकिन बुंदेलखंड, तेलंगाना, मराठवाड़ा, बस्तर जैसे इलाके मार्च समाप्त होते-होते पानी के लिए हांफने लगे हैं।
स बार बारिश तो ठीक-ठाक हुई थी, लेकिन बुंदेलखंड, तेलंगाना, मराठवाड़ा, बस्तर जैसे इलाके मार्च समाप्त होते-होते पानी के लिए हांफने लगे हैं। पिछले अनुभवों से स्पष्ट है कि भारीभरकम बजट, राहत, नलकूप जैसे शब्द जल संकट का निदान नहीं हैं। अगर भारत के ग्रामीण जीवन और खेती को बचाना है तो बारिश की हर बूंद को सहेजने के अलावा और कोई चारा नहीं है। देश के बड़े हिस्से के लिए न अल्प वर्षा नई बात है और न ही वहां के समाज के लिए कम पानी में गुजारा करना, लेकिन बीते पांच दशकों के दौरान आधुनिकता की आंधी में दफ्न हो गई पारंपरिक जल प्रणालियों के चलते आज वहां निराशा, पलायन और बेबसी का आलम है। मध्यप्रदेश के बुरहानपुर शहर की आबादी तीन लाख के आसपास है। यह इलाका पानी की कमी के कारण कुख्यात है, लेकिन आज भी शहर में कोई अठारह लाख लीटर पानी प्रतिदिन एक ऐसी प्रणाली के जरिए वितरित होता है, जिसका निर्माण सन 1615 में किया गया था। यह प्रणाली जल संरक्षण और वितरण की दुनिया की अजूबी मिसाल है, जिसे ‘भंडारा’ कहा जाता है। सतपुड़ी पहाड़ियों से एक-एक बूंद जल जमा करना और उसे नहरों के माध्यम से लोगों के घरों तक पहुंचाने की व्यवस्था मुगल काल में फारसी जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने की थी। समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह नष्ट हो गए हैं।
हमारे पूर्वजों ने देश-काल, परिस्थिति के अनुसार वर्षाजल को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित और संरक्षित की थीं, जिनमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल और खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये आमतौर पर वर्षाजल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की तरह होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काट कर रोकने की पद्धति ‘पाट’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिए किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘नाड़ा या बंधा’ अब देखने को नहीं मिलती। कुंड और बावड़िया महज जल संरक्षण के साधन नहीं, बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रही हैं। यह बीते दो सौ साल में ऐसा हुआ कि लोग भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी घरों-पिंडों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। वह गरमी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना और उसे किफायत से खर्च करना अपनी संस्कृति मानता था। अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती-संरचना, पानी की मांग और आपूर्ति का गणित भी जानता था। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी को और कितने में कंठ तर हो जाएगा।
राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुएं और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के साधन थे, जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और आज जब पाताल का पानी निकालने और नदियों पर बांध बनाने की जुगत अनुत्तीर्ण होती दिख रही है, तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाख में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है, जो शाम को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।
तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई तालाबों की शृंखला में मोड़ कर हर बूंद को बड़ी नदी और वहां से समुद्र में बर्बाद होने से रोकने की अनूठी परंपरा थी। उत्तरी अराकोट और चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिए इस ‘पद्धति तालाब’ प्रणाली में तीन सौ सत्रह तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों की अंतर्शृंखला भी विस्मयकारी है। पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बुंदेलखंड में भी पहाड़ी के नीचे तालाब, पहाड़ी पर हरियाली वाला जंगल और एक तालाब के ‘ओने’ (अतिरिक्त जल निकासी का मुंह) से नाली निकाल कर उसे उसके नीचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोड़ने और ऐसे पांच-पांच तालाबों की कतार बनाने की परंपरा नौ सौवीं सदी में चंदेल राजाओं के काल से रही है। वहां तालाबों के आंतरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के बंधान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी फोड़ी गई, पेड़ उजाड़ दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रूठे तो पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किए गए। सभी उपाय बेकार रहे तो आज फिर तालाबों की याद आ रही है।
भारत में हर साल कोई चालीस करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिलता है। उसका खर्च तीन प्रकार से होता है: सात करोड़ हेक्टेयर मीटर भाप बन कर उड़ जाता है, 11.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर नदियों आदि से बहता है, शेष 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर जमीन में जज्ब हो जाता है। फिर इन तीनों में लेन-देन चलता रहता है। जमीन में जज्ब होने वाले कुल 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी में से 16.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर मिट्टी की नमी बनाए रखता है और बाकी पांच करोड़ हेक्टेयर मीटर भूमिगत जल स्रोतों में जा मिलता है। पिछले कुछ सालों में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के चलते बारिश का पानी सीधे जमीन पर गिरता है और मिट्टी की ऊपरी परत को काटते हुए बह निकलता है। इससे नदियों में मिट्टी अधिक पहुंचने के कारण वे उथली हो रही हैं और भूमिगत जल का भंडार भी प्रभावित हुआ है। इसके विपरीत नलकूप, कुओं आदि से भूमिगत जल का खींचना बेतरतीब बढ़ा है।सन 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। पर तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा शुरू हो गई। चाहे कालाहांडी हो, बुंदेलखंड या तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक-सी है। इन इलाकों में एक सदी पहले तक कई सौ तालाब होते थे। ये यहां की अर्थव्यवस्था का मूलाधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है।
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