My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 28 जून 2019

Expansion of Delhi NCR has eaten water bodies

जल-संपदा उजाड़ कर एनसीआर का विस्तार


पानी की कमी से आज तकरीबन पूरा देश कराह रहा है। बीते एक दशक में महानगरों में आबादी विस्फोट हुआ और बढ़ती आबादी को सुविधाएं देने के लिए खूब सड़कें, फ्लाइओवर, तरह-तरह के भवन, मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स, खेल परिसर आदि भी बने। यह निर्विवाद तथ्य है कि पानी के बगैर मानवीय सभ्यता के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। विकास के प्रतिमान बने इन शहरों में पूरे साल तो जल संकट रहता है और जब बरसात होती है तो वहां जलभराव के कारण मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। शहर का मतलब है उद्योग-धंधों और अनियोजित कारखानों की स्थापना जिसका परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां जहरीली हो चुकी हैं। 
नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यो के लिए, न कि उसमें गंदगी बहाने के लिए। और दूसरी तरफ शहर हैं कि हर साल बढ़ रहे हैं।
देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का भी है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दोगुनी होकर 16 हो गई है। पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर 50 तक पहुंच गए हंैं। आज देश की कुल आबादी का 8.5 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले दो दशकों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी।
रूठ गए राजधानी के नदी-तालाब
राजधानी दिल्ली की बढ़ती आबादी, पानी की कमी और उस पर सियासत किसी से छुपी नहीं है। कहने को दिल्ली की सीमा के बीच से यमुना नदी 28 किमी बहती है, लेकिन दिल्ली में यमुना को जो नुकसान होता है उससे वह अपने विसर्जन-स्थल तक नहीं उबर पाती है। राजधानी में यमुना में हर दिन कई लाख लीटर घरों के निस्तार व कारखानों का जहरीला पानी तो मिलता ही है, इसके तटों को सिकोड़ कर निर्माण करना और तटों के पर्यावास से छेड़छाड़ तो निरंकुश है।
दिल्ली में अकेले यमुना से 724 मिलियन घनमीटर पानी आता है, लेकिन इसमें से 580 मिलियन घनमीटर पानी बाढ़ के रूप में यहां से बह भी जाता है। हर साल गरमी के दिनों में पानी की मांग और सप्लाई के बीच कोई 300 एमजीडी पानी की कमी होना आम बात है। ऐसे में बारिश के दिनों में यमुना में आने वाले पानी को यदि जलाशय आदि के माध्यम से भंडारण करके रखा जाए तो कई माह तक इससे दिल्ली की प्यास बुझाई जा सकती है।
राजधानी के महंगे रिहाईशी इलाकों में भले ही करोड़ में दो कमरे वाला फ्लैट मिले, लेकिन पानी के लिए टैंकर का सहारा लेना ही होगा। दिल्ली के कई अन्य इलाकों की भी यही दशा है।
अन्य राज्यों से हो रही जलापूर्ति
केंद्रीय भूजल बोर्ड ने वर्ष 2001 में एक मास्टर प्लान बनाया था जिसमें दिल्ली में प्रत्येक व्यक्ति की पानी की मांग को औसतन 363 लीटर मापा था, इसमें 225 लीटर घरेलू इस्तेमाल के लिए, 47 लीटर कल-कारखानों में, चार लीटर फायर ब्रिगेड के लिए, 35 लीटर खेती व बागवानी में और 52 लीटर अन्य जरूरतों के लिए। अनुपचारित पानी को दूर तक लाने ले जाने के लिए रिसाव व अन्य हानि को भी जोड़ लें तो यह औसत 400 लीटर होता है। हर रोज पानी की मांग दस हजार करोड़ लीटर। यदि अपने संसाधनों की दृष्टि से देखें तो दिल्ली के पास इसमें से बमुश्किल 15 फीसद पानी ही अपना है। बाकी पानी हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंड से आदि से आता है।
दिल्ली में बारिश कम नहीं होती, लेकिन उसका लाभ यहां के लोगों को नहीं मिल पाता, लिहाजा भूजल स्तर खतरनाक हद तक गिरने का मूल कारण महानगर की परिधि के पुराने तालाब और जोहड़ों आदि का लुप्त हो जाना है। वर्ष 2000 में किए गए एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली के कुल 794 तालाबों में से अधिकांश पर अवैध कब्जा हो चुका था और जो तालाब थे भी उनकी हालत खराब थी। दिल्ली हाई कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान दिल्ली सरकार ने 629 तालाबों की जानकारी दी, जो दिल्ली सरकार, डीडीए, एएसआइ, पीडब्ल्यूडी, नगर निगम, वन विभाग और सीपीडब्ल्यूडी के तहत आते हैं। हाई कोर्ट ने 2007 में आदेश दिया कि जीवित करने लायक बचे 453 तालाबों को दोबारा विकसित किया जाए, लेकिन अब तक ऐसा हो नहीं पाया है।
हाल के दिनों में गाजियाबाद के अर्थला इलाके में जल निकायों पर अवैध कब्जा करते हुए उस पर आवासीय मकान बनाने का मसला सुर्खियों में रहा है। यहां बने मकानों को प्रशासन द्वारा ध्वस्त किए जाने की तैयारियों के बीच यह मसला सामने आया। हालांकि पूरे गाजियाबाद में ऐसे कई मोहल्ले हैं जो जल निकायों को भर कर बनाए गए हैं।

गाजियाबाद में गुम हो गए तालाब

अभी तीन दशक पहले तक गाजियाबाद जिले में 995 तालाब थे जिनमें से आज कोई दो दर्जन ग्राम पंचायतों के तालाब पूरी तरह गुम हो गए हैं। आज जिले के कई तालाबों पर स्थानीय रसूखदारों का कब्जा है और उन्होंने उस पर जबरन निर्माण कार्य को अंजाम दे रखा है। अकेले गाजियाबाद नगर निगम क्षेत्र के 95 तालाबों पर पक्के निर्माण हो गए। कहने को जिले में सैकड़ों तालाब हैं, लेकिन इन तालाबों का इस्तेमाल पानी पीने के लिए नहीं, बल्कि घरों से निकले गंदे पानी को खपाने में हो रहा है। सरकारी रिकार्ड में कुल 1,288 हेक्टेयर भूभाग में 65 तालाब व झीलें हैं, जिनमें से 642 हेक्टेयर ग्राम समाज, 68.5 हेक्टेयर मछली पालन विभाग और 588 हेक्टेयर निजी लोगों के कब्जे में है। तकरीबन सौ तालाबों पर लोगों ने कब्जा कर मकान-दुकान बना लिए हैं। यहां पर दो से पांच एकड़ क्षेत्रफल के 53 तालाब हैं, पांच से 10 हेक्टेयर वाले तीन, 10 से 50 हेक्टेयर का एक तालाब कागजों पर दर्ज है। इनमें से कुल 88 तालाब पट्टे वाले और 13 निजी हैं। जिले की 19.2 हेक्टेयर में फैली मसूरी झील, 37.2 हेक्टेयर में विस्तृत इलाके की सबसे बड़ी हसनपुर झील, धौलाना का 7.9 हेक्टेयर में फैला तालाब अभी भी कुछ उम्मीद जगाते हैं। गाजियाबाद शहर यानी नगर निगम के तहत कुछ दशक पहले तक 138 तालाब हुआ करते थे। इनमें से 29 पर तो कुछ सरकारी महकमों ने ही कब्जा कर लिया। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने रहीसपुर, रजापुर, दमकनपुर, सिहानी आदि 10 तालाबों पर तो अपनी कालोनियां ही बना डालीं। शहर के 28 तालाब अभी भी अपने अस्तित्व की लड़ाई समाज से लड़ रहे हैं, जबकि 78 तालाबों को रसूखदार लोग पी गए। जाहिर है कि जब बाड़ ही खेत चर रही है तो उसका बचना संभव नहीं है।
अब एक और हास्यास्पद बात सुनने में आई है कि कुछ सरकारी महकमे हड़प किए गए तालाबों के बदले में कहीं अन्यत्र जमीन देने व तालाब खोदवाने की बात कर रहे हैं। एनजीटी यानी नेशनल ग्रीन टिब्यूनल ने डांट भी लगाई और प्रशासन ने उतने ही तालाब को निर्मित कर देने का वादा कर दिया। उस वादे के एक दशक बीत जाने के बावजूद एक भी तालाब को खोदा जा सका है। जबकि इसके विपरीत जिले में हिंडन नदी के तट पर दस हजार से ज्यादा मकान और खड़े कर दिए गए हैं। जहां एक ओर आवासीय घरों की मांग निरंतर बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर भूमाफिया भी सक्रिय हैं और वे ताकतवर भी हैं। नदी हो या तालाब, हजारों एकड़ जमीन पर अब कंक्रीट की संरचनाओं का कब्जा है। सरकारी फाइलों पर भले ही उन्होंने इसे अतिक्रमण के रूप में दर्ज किया हो, लेकिन अब उसे हटाने की बात कोई करता नहीं है।
यह समझना जरूरी है कि समाज जिन जल-निधियों को उजाड़ रहा है, वैसी नई संरचनाओं को बनाना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि उन जल निधियों को हमारे पूर्वजों ने अपने पारंपरिक ज्ञान व अनुभव से इस तरह रचा था कि यदि बारिश बहुत ही कम हो तो भी लोगों को पानी की किल्लत नहीं हो। आज समय की मांग है कि मानवीय अस्तित्व को बचाना है तो महानगरों के विस्तार के बनिस्पत जल संरचनाओं को अक्षुण्ण रखना अनिवार्य हो।
दिल्ली में खत्म हो गया ‘डाबर’ का अस्तित्व
दिल्ली-गुरुग्राम अरावली पर्वतमाला के तहत है और एक सदी पहले तक इस पर्वतमाला पर गिरने वाली हर एक बूंद ‘डाबर’ में जमा होती थी। ‘डाबर’ यानी उत्तरी-पश्चिमी दिल्ली का वह निचला इलाका जो पहाड़ों से घिरा था। इसमें कई अन्य झीलों व नदियों का पानी आकर भी जुड़ता था। इस झील का विस्तार एक हजार वर्ग किमी था जो आज गुरुग्राम के सेक्टर 107- 108 से लेकर दिल्ली हवाई अड्डे से होते हुए जनकपुरी के पास तक था। इसमें कई प्राकृतिक नहरें थीं जो दिल्ली की जमीन, आबोहवा और गले को तर रखती थीं। खूब हरियाली थी, यह एक ऐसा ‘वेट लैंड’ था जो दिल्ली के आसपास 200 किमी तक हवा-पानी का जरिया था। वही जीवनदायी ‘वेट लैंड’ आज दिल्ली के भूजल के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक बन गया है। आज नजफगढ़ नाला के नाम से कुख्यात यह जल स्नोत कभी जयपुर के जीतगढ़ से निकल कर अलवर, कोटपुतली, रेवाड़ी व रोहतक होते हुए नजफगढ़ झील और वहां से दिल्ली में यमुना से मिलने वाली साहिबी या रोहिणी नदी हुआ करती थी। इस नदी के जरिये नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना में मिल जाया करता था। वर्ष 1912 के आसपास दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ आई और अंग्रेजी हुकुमत ने नजफगढ़ नाले को गहरा कर उससे पानी निकासी की। उस दौर में इसे नाला नहीं बल्कि ‘नजफगढ़ लेक एस्केप’ कहा जाता था। इसके साथ ही नजफगढ़ झील और प्राकृतिक नहर के नाले में बदलने की दुखद कथा शुरू हो गई।
पूरी नदी को ही पी गया गुरुग्राम
सरकारी रिपोर्ट बताती है कि गत एक दशक में गुरुग्राम के भूजल का स्तर 82 प्रतिशत नीचे गिरा। वर्ष 2006 में यहां औसतन 19.85 मीटर गहराई पर पानी मिल जाता था, लेकिन 2016 में यह 36.21 मीटर हो गया। अब यह और नीचे जा चुका है। कहने को यह अरावली पर्वतमाला के साये में साहिबी नदी के तट पर बसा शहर है, लेकिन अब यहां न तो अरावली के चिन्ह बचे और न ही साहिबी नदी का प्रवाह। करीब डेढ़-दो दशक पहले तक एक नदी हुआ करती थी- साहबी या साबी जो जयपुर जिले के सेवर की पहाड़ियों से निकल कर गुरुग्राम के रास्ते नजफगढ़ झील तक आती थी। आश्चर्य यह कि इस नदी का गुरुग्राम की सीमा में कोई राजस्व रिकार्ड ही नहीं रहा। करीब एक दशक पहले हरियाणा विकास प्राधिकरण ने नदी के जल ग्रहण क्षेत्र को ‘आर जोन’ में घोषित कर दिया। आर जोन में आते ही 50 लाख रुपये प्रति एकड़ की जमीन बिल्डरों की निगाह में आई और इसकी कीमत 15 करोड़ रुपये प्रति एकड़ हो गई। जहां नदी थी वहां हजारों आवास बन गए। ऐसे में बारिश के पानी का प्रवाह थम गया।
बेहतर रोजगार, आधुनिक जन-सुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घरों को छोड़ कर शहरी चकाचांैंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि दिल्ली एनसीआर का निरंतर विस्तार होता जा रहा है और इस बढ़ती आबादी के लिए आवास, सड़क, रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए अनिवार्य जमीन की मांग को पूरा करने के लिए नदी, तालाब, झील, जोहड़ आदि को उजाड़ा जा रहा है। दिल्ली-एनसीआर में कई ऐसी बस्तियां हैं जहां गगनचुंबी इमारतें भले ही भव्य दिखती हों, लेकिन जल-संपदा के मामले में वे कंगाल हैं और इसका कारण है कि लाखों लोगों की प्यास बुझाने में सक्षम संसाधनों को सुखा कर वे इमारतें खड़ी की गई हैं
पंकज चतुर्वेदी

शुक्रवार, 21 जून 2019

How A all time Rver Noon become a sewar

नून नदी कैसे नूर नाला बनी
पंकज चतुर्वेदी


यह कहानी है हर समय जल संकट से त्रस्त बुंदेलखंड की एक ऐसी नदी की जो अभी कुछ दशक पहले तक सारे साल हरियाती थी और कालपी में जा क्र यमुना का जल संवर्धन करती थी , आज इसे नाले का नाम दे दिया गया है , शायद ऐसे ही नाले और नदी अब हर शहर में मिलते हैं जिन्हें समाज ने ही उपजाया लेकिन दोष सरकार को दिया , भले ही यहाँ उरई के नूर नाले बनाम नून नदी की चर्चा है लेकिन मान लें कि यही आपे आसपास का भी हाल है , बस  शहर और नदी का नाम बदल दें । इसमें नाव चलते, बाढ आते अैर गर्मियों में पानी द्वारा छोड़ी जमीन पर खेती करते करते देखने वाले अभी जवान ही हैं। बामुष्किल तीन दषक में एक नदी कैसे गुम हो कर नाल बन जाती है, इसकी बानगी है बुंदेलखंड के उरई की नून नदी। इस पर स्टाप् डेम निर्माण हो या रेत का वैध-अवैध खनन, इसके लिए सरकार व समाज इसे नदी मानता है, लेकिन जैसे ही इसे संरक्षण, प्रदूशण, अस्तित्व पर संकट की बात हो तो इसे बरसाती नाली बताने वाले खड़े हो जाते हैं। यदि थोड़ा सा पुराना रिकार्ड देखें तो नून नदी का सफर 20 किलोमीटर तक का है और यह यमुना की सहायक नदी है। कह सकते हैं कि यमुना को जहर बनाने में जिन सहयोगियों की भूमिका है उनमें से एक है। गौर करें कि अकेले जालौन जिले में ही नून नदी कोई 100 ऐसे गांवों के किनारे से गुजरते हुए उनका सहारा हुआ करती थी, जहां का भूजल डार्क जोन में गिना जाता है। जमीन की छाती चीर कर पानी निकालों तो वह बेहद खारा है। ऐसे में नून नदी ही उनके लिए जीवनदायी हुआ करती थीं।

बंुदेलखंड में पानी के संकट की कई-कई कहानियां सारे साल चलती रहती हैं, लेकिन जब समाज खुद ही अपने पारंपरिक जल संसाधनों को मरने को छोड़ दे तो स्पश्ट लगता है कि यह जल-संकट कृत्रिम है जिसे समाज ने ही आमंत्रित किया है। कहने को जिले का नाम जालौन हैं लेकिन इसके सभी जिला कार्यालय 22 किलोमीटर दूर उरई षहर में हैं। कभी नून नदी षहर के बीचों-बीच से गुजरती थी। इसके किनारे तिलक नगर में मन्सिल माता का मंदिर दो हजार साल से अधिक पुराना कहलाता है। अभी तीन दषक पहले तक नून नदी का पानी इस मंदिर के करीब तक हिलौरे मारता था। वहीं बनी ऊंची पहाड़िया या टेकरी पर  कुछ काछियों के घर थे जो पानी उतरने पर किनारे पर फल-सब्जी लगाते थे।  एक तरह से षहर का विभाजन करती थी नदी- पूर्व तरफ पुरानी बस्ती और दूसरी तरफ जिला मुख्यालय बनने से विकसित सरकार दफ्तर और कालोनियां। इस नदी के कारण षहर का भूजल स्तर संरक्षित रहता था। हर आंगन में कुएं थे जो सदानीरा रहते थे। षाम होते ही षहर में ठंडक हो जाती थी।  जिला मुख्यालय के कार्यालय बने तो षहर का विस्तार होने लगा और ना जाने कब षहर की षान नून नदी क किनारों पर कब्जे हो गए। षहरीकरण हुआ तो जमीन के दाम मिलने लगे और लोगों ने अपने खेत भी बेच दिए। कुछ ही साल में नदी के पूरे तट पर रिहाईष बन गई और जाहिर है कि इसके किनारेां पर उगे कंक्रीट के जंगल से उपजने वाला घरेलू कचरा भी इसमें समाने लगा।देखते ही देखते  नदी सिमटी और यह एक नाला बन गया, जिसे आज के बच्चे नूर नाला कहते हैं।




नून नदी का गठन चार प्रमुख बरसाती नालों के मिलन से होता है। ये हैं - मलंगा, राबेर, गोहनी और जांघर। इसके आगे जाल्हूपुर-मदारीपुर मार्ग पर महेबा ब्लाक के मांगरोल में भी एक बरसाती नाला इसमें मिलता है। उकासा, भदरेकी, साारा, नूरपुर, कोहना, पारा, हथनौरा जैसे कोई सौ गांव इसके तट पर बसे हैं। इसमें गर्मी के दिनों में भी चार फुट पानी औसतन रहता है। यह बात सही है कि उरई षहर पहुंचने से पहले ही नून नदी में उर्वषी इंडस्ट्रीज, हिंदुस्तान लीवर, उरई आईल केमिकल सहित कोई छह कारखानों और कई एक ईंट भट्टों का रासायनिक उत्सर्जन इसमें मिलता है। कानपुर-झांसी मार्ग पर उरई षहर से कोई दस किलोमीटर पहले मुख्य सड़क से तीन किलोमीटर भीतर जंगल में रगौली गांव में औद्योगिक कचरे का इससे मिलन षुरू होता है और यहीं से इसकी षनैः-षनैः मृत्यू का प्रारंभ हो जाता है। रही -बची कसर उरई षहर की सारा गंदीग की बगैर किसी षेेधन के इसमें मिलने से पूरी हो जाती है। कालपी के नजदीक षेखपुरा गुढ़ा में जब यह मिलना यमुना में होता है तो इसमें कचरा, प्लास्टिक, बदबूदार पानी और गाढ़ा रसायन का मिश्रा ही षेश रह जाता है।
किसी नदी की मौत का इषारा उसमें बचे पानी, उस पानी की गुणवत्ता, पानी के तापमान से होता है। एक षोध के अनुसार इस नदी में इस तरह की एल्गी हुआ करती थीं जो कि सामान्य जल-प्रदूशण का निराकरण स्वतः ही कर लेती थीं। लेकिन आज इसका तापमान जनवरी की ठंड में भी 10 डिगरी और गरमी में 35 डिगरी औसतन होता है। जाहिर है कि इतने तापमान के चलते इसमें जीव या वनस्पति की जीवित रहता संभव नहीं है।  जिस नदी में मछली-कछुआ या जलीय पौध्ेा नहीं हैं उसका जल प्षुओं तक के लिए जहर होता है।  तभी इस नदी के किनारे बसे गांवों में आए रोज मवेषियों के मरने, लोगों को पेट व त्वचा की बीमारियां स्थाई रूप् से बने रहने की षिकायते हैं।
इस नदी पर बेतरतीब आधा दर्जन स्टाप डेम बनाने और हर जगह भारी मषीने लगा कर रेत निकालने से भी इसकी जिंदगी की सांस टूटी है। यह सर्वविदित है कि उरई षहर मच्छर और उससे उपजे मलेरिया व अन्य रोगों केलिए कुख्यात है। यहां मलेरिया से सालाना औसतन मौतों का आंकड़ा प्रदेष में बहुत अधिक है। इसका बड़ा कारण नून नदी का मृतप्राय हो जाना है।  जो नदी कभी ढलते सूरज के साथ षहर को सुनहरी रोषनी से भर देती थी, जहां का पानी लोगों की प्यास बुझाता था वह आज अपना नाम, अस्तित्व खो कर लोगों के लिए त्रासदी बन गई है।
यह किसी से छुपा नहीं है कि इस साल गर्मी ने सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। खासतौर पर उरई-जालौन में गर्मी 48 डिगरी पार कई-कई दिन रही और इसकी सबसे विकट मार मवेषी, पषु और पक्षियों पर पड़ी । कभी यही नून नदी का गंदला पानी इन जीवों का आसरा होता था जेकिन इस साल तो मई आते-आते महेबा, हथरोदा, पिपरोदा आदि गांवोंमें नदी की जल धारा ही टूट गई। जब नदी से पानी लुप्त हुआ तो भूजल और नीचे चला गया।
हालांकि आज भी नून नदी को अपने मूल स्वरूप में लौटाना कठिन नहीं है- बस इसमें जहर मिला रहे कारखानों व नगरीय आबदी के निस्तारण को बगैर परिषोधन के इसमें मिलाने पर सख्ती, इसकी अविरल धारा सुनिष्ति करने के लिए बांध व रेत उत्खनन से मुक्ति हो जाए तो नूर नला फिर से नून नदी बन सकता है। यमुना को इससे राहत मिलेगा , सो अलग।

hazard of climate change is on head of India

अब तो सिर पर खड़ा है जलवायु परिवर्तन का खतरा
पंकज चतुर्वेदी


भारत की समुद्री सीमा तय करने वाले केरल राज्य में बीते दिनों आया भयंकर  जल-प्लावन पिछले साल चैन्ने और उससे पहले कश्मीर और उससे पहले केदारनाथ मची प्राकृतिक विपदा की ही तरह चेतावनी दे रहा है कि धरती के तापनाम में लगातर हो रही बढ़ौतरी और उसके गर्भ से उपजे जलवायु परिवर्तन का भीषण खतरा अब भारत के सिर पर मंडरा रहा है। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इंसान के भाजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से ले कर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है जिसके चलते प्रकृति का अस्तित्व और मानव का जीवन  सांसत में है।

अमेरिका के आरेजोन राज्य की सालाना जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट 2017 में बताया गया है कि मौसम में बदलाव के कारण पानी को सुरक्षित रखने वाले जलाशयों में ऐसे शैवाल विकसित हो रहे हैं जो पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं।  पिछले दिनो अमेरिका के कोई 60 हजार जलाशयों के जल का परीक्षण  वहां की नेशनल लेक असेसमेंट विभाग ने किया और पाया कि जब जलाशयों में मात्रा से कम पानी होता है तो उसका तापमान ज्यादा होता है और साथ ही उसकी अम्लीयता भी बढ़ जाती हे। जब बांध या जलाशय सूखते हैं तो उनकी तलहटी में कई किस्म के खनिज और अवांछित रसायन भी एकत्र हो जात हैं और जैसे ही उसमें पानी आता है तो वह उसकी गुणवत्ता पर विपरीत असर डालते हैं। सनद रहे ये दोनों ही हालात जल में जीवन यानी- मछली, वनस्पति आदि के लिए घातक हैं। भारत में तो यह हालात हर साल उभर रहे हैंा कभी भयंकर सूख तो जलाशय रीते और कभी अचानक बरसात तो लबालब।

यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टी.एच. चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपेर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ौतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे।.दरअसल, 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौह तत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौंधों से होती है। जबकि 1.4 अरब लोग लौह तत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है। .
शोध में पाया गया कि जहां अधिक कार्बन डाईऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में तीन तत्वों जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में प्रयोग के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। .रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई आक्साइड पौंधों को बढ़ने में तो मदद करता है। लेकिन पौंधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देता है।.यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहा पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है।
एक तरफ परिवेश में कार्बन की मात्रा बढ़ रही है तो दूरी ओर ओजोन परत में हुए छेद में दिनों-दिन विस्तार हो रहा है। इससे उपजे पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव है कि मरूस्थलीयकरण दुनिया के सामने बेहद चुपचाप , लेकिन खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। इसकी चपेट में आए इलाकों में लगभग आधे अफ्रीका व एक-तिहाई एशिया के देश हैं। यहां बढ़ती आबादी के लिए भेाजन, आवास, विकास आदि के लिए बेतहाशा जंगल उजाड़े गए । फिर यहां नवधनाढ्य वर्ग ने वातानुकूलन जैसी ऐसी सुविधआों का बेपरवाही से इस्तेमाल किया, सिससे ओजोन परत का छेद और बढ़ गया। याद करें कि सत्तर के दशक में अफी्रका के साहेल इलाके में भयानक अकाल पड़ा था, तब भी संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने चेताया था कि लगातार सूखी या बंजर हो रही जमीन के प्रति बेपरवाही रेत के अंबार को न्यौता दे रही है। उसी समय कुछ ऐसी सिंचाई प्रणालियां शुरू हुई, जिससे एक बारगी तो हरियाली आती लगी, लेकिन तीन दशक बाद वे परियोजनाएं बंजर, दलदली जमीन उपजाने लगीं। ऐसी ही जमीन, जिसकी ‘‘टॉप सॉईल’’ मर जाती है, देखते ही देखते मरूस्थल का बसेरा होती है। जाहिर है कि रेगिसतान बनने का खतरा उन जगहों पर ज्यादा है, जहां पहले उपजाउ जमीन थी और अंधाधुंध खेती या भूजल दोहन या सिंचाई के कारण उसकी उपजाउ क्ष्मता खतम हो गई। ऐसी जमीन पहले उपेक्षित होती है और फिर वहां लाइलाज रेगिस्तान का कब्जा हो जाता है। यहरां जानना जरूरी है कि धरती के महज सात फीसदी इलाके में ही मरूसथल है, लेकिन खेती में काम आने वाली लगभग 35 प्रतिशत जमीन ऐसी भी है जो शुष्क कहलाती है और यही खतरे का केंद्र है।
बेहद हौले से और ना तत्काल दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राजयों में जड़ जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से महज 24 फीसदी ही थार के इर्द गिर्द के हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर था जो कि आज दो लाख आठ हजार 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है। भारत की कुल 328.73 मिलियन जमीन में से 105.19 मिलियन जमीन पर बंजर ने अपना डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हैक्टर जमीन रेगिसतान में बदल रही है। यह हमारे लिए चिंता की बात है कि देश के एक-चौथाई हिस्से पर आने वाले सौ साल में मरूस्थल बनने का खतरा आसन्न है। हमारे यहां सबसे ज्यादा रेगितान राजस्थान में है, कोई 23 मिलियन हैक्टर। गुजरात, महाराष्ट्र, मप्र, और जम्मू-कश्मीर की 13 मिलियन भूमि पर रेगिस्तान है तो अब उड़ीसा व आंध््राप्रदेश में रेतीली जमीन का विस्तार देखा जा रहा है। अंधाधुंध सिंचाई व जम कर फसल लेने के दुष्परिणाम की बानगी पंजाब है, जहां दो लाख हैक्टर जमीन देखते ही देखते बंजर हो गई। बंिटंडा, मानसा, मोगा, फिरोजपुर, मुक्तसर, फरीदकोट आदि में जमीन में रेडियो एक्टिव तत्व की मात्रा सीमा तोड़ चुकी है और यही रेगिस्तान की आमद का संकेत है।
भारत के संदर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचई की दोषपूर्ण परियोजनाएं हैं। बारिकी से देखेें तो इन कारकों का मूल बढ़ती आबादी है। हमारा देश आबादी नियंत्रण में तो सतत सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिए हमारे खेत व मवेशी कम पड़ रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी  वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी हैं। सिंचाई के लिए भी छोटी, स्थानीय तालाब , कुओं पर आधारित रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। यह स्पष्ट है कि बड़े बांध जितने महंगे व अधिक समय में बनते हैं, उनसे उतना पानी तो मिलता नहीं है, वे नई-नई दिक्कतों को उपजाते हैं, सो छोटे तटबंध, कम लंबाई की नहरों के साथ-साथ रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिसतान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है। भोजन व दूध के लिए मवेशी पालन तो बढ़ा लेकिन उनकी चराई की जगह कम हो गई। परिणामतः मवेशी अब बहुत छोटी-छोटी घास को भी चर जाते हैं और इससे जमीन नंगी हो जाती है। जमीन खुद की तेज हवा और पानी से रक्षा नहीं कर पाती है. मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार हो जाती है। मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई  वनस्पति और पशु प्रजातियों की विलुप्ति हो सकती है. गरीबी, भुखमरी और पानी की कमी इससे जुड़ी अन्य समस्याएं हैं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि पर मंडराते खतरों के प्रति सचेत करते हुए इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रोफारेस्ट्री के निदेशक डॉ. कुलूस टोपर ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आने वाले दिन जलवायु परिवर्तन के भीषणतम उदाहरण होंगे जो कृषि उत्पादकता पर चोट, जल दबाव, बाढ़, चक्रवात व सूखे जैसी गंभीर दशाओं को जन्म देंगें। हकीकत यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि व्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ने से पूरी दुनिया में ‘खाद्यान्न संकट’ की विकरालता बढ़ जायेगी जो कि चिन्ता का विषय है। यह सर्वविदित है कि भारत की अर्थ व्यवस्था का आधार आज भी खेती-किसानी ही है। साथ ही हमारे यहां की विशाल आबादी का पेट भरते के लिए उन्नत खेती अनिवार्य है।
जलवायु परिवर्तन की मार भारत में जल की उपलब्धता पर भी पड़ रही है। देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो नब्बे के दशक में कम होकर 119 सेंटीमीटर रह गई है। उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह रूप लेता जा रहा है। तीन साल में एक बार अल्प वर्षा यहां की नियति बन गया है। तिस पर देश की सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियों के उद!गम ग्लैशियर बए़ते तापमान से बैचेन हैं।
विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में 2 डिग्री सेटीग्रेड के लगभग वृद्धि होती है तो गेहूँ की उत्पादकता में कमी आयेगी। जिन क्षेत्रों में गेहूँ की उत्पादकता अधिक है, वहाँ पर यह प्रभाव कम परिलक्षित होगा तथा जहाँ उत्पादकता कम है उन क्षेत्रों में उत्पादकता में कमी अधिक होगी। ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है कि तापमान के 1 डिग्री सेटीग्रेड बढ़ने पर गेहूँ के उत्पादन में 4-5 करोड़ टन की कमी होगी। यही नहीं, वर्ष 2100 तक फसलों की उत्पादकता में 10 से 40 प्रतिशत तक कमी आने से देश की खाद्य-सुरक्षा के खतरे में पड़ जाने की प्रबल संभावना है। ऐसा अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से रबी की फसलों को अधिक नुकसान होगा। इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित फसलां को अधिक नुकसान होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्रा कम होगी जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पायेगा।
इसी प्रकार जलवायु पविर्तन का कुप्रभाव खेती की मिट्टी पर पड़ने के कारण उसकी उर्वरा क्षमता घटने, मवेशियो  की दुग्ध क्षमता कम होने  आदि पर भी दिख रहा है। एक अनुमान है कि जलवायु पविर्तन की मार के कारण वर्ष 2020 तक हमारे यहां की दूध की उपलब्धता 1.6 करोड़ टन तथा 2050 तक 15 करोड़ टन तक कम हो सकती है। खाद्य सुरक्षा रिपोर्ट पर गौर करें तो वर्ष 2030 तक देश में जलवायु में हो रहे परिवर्तन से कई तरह की फसलों को उगाना मुश्किल हो जाएगा। कृषि उत्पादन कम होगा और भूखे लोगों की संख्या बढ़ेगी।
भारत में जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव से खेती-किसानी का ध्वंस्त होने की बात भारत के 2018 आर्थिक सर्वेक्षण में भी दर्ज है। हमारी अधिकांश खेती असिंचित होने के कारण कृषि विकास दर पर मौसम का असर पड़ रहा है।  यदि तापमान एक डिग्री-सेल्सियस बढ़ता है तो खरीफ (सर्दियों) मौसम के दौरान किसानों की आय 6.2 फीसदी कम कर देता है और असिंचित जिलों में रबी मौसम के दौरान 6 फीसदी की कमी करता है। इसी तरह यदि बरसात में औसतन 100 मिमी की कमी होने पर किसानों की आय में 15 फीसदी और रबी के मौसम में 7 फीसदी की गिरावट होती है, जैसा कि सर्वेक्षण में कहा गया है।
यही नहीं ज्यादा बरसात होने पर उफनती नदियों की चपेट में आने वाली आबादी भी छह गुणा तक हो सकती है। अभी हर साल कोई 25 करोड़ लेाग बाढ़ से प्रभावित होते हैं। असल में किसी भी नदी के बीते सौ साल में टहलने वाले रास्ते को ‘‘रीवर बेड़’’ कहा जाता है। यानी इस पर लौट कर कभी भी नदी आ सकी है। हमोर जनसंख्श्या विस्फोट और पलायन के कारण उभरी आवासीय कमी ने ऐसे ही नदी के सूखे रास्तों पर बस्तियां बसा दीं और अब बरसात होने पर नदी जब अपने   किसी भूले बिसरे रास्ते पर लौट आती है तो तबाही होती है। ठीक इसी तरह तापमान बढ़ने से ध्रुवीय क्षेत्र में तेजी से बरफ गलने के कारण समुद्र के जल-स्तर में अचानक बए़ौतरी का असर भी हमारे देश मे तटीय इलाकों पर पउ़ रहा है।

बुधवार, 19 जून 2019

जल आपातकाल से जूझता चेन्नई : बैठकर खाने के बजाय घर से पानी ले जाने वालों को छूट दी जा रही है


वैसे तो चेन्नई भारत के पुराने प्रगतिशील शहरों में गिना जाता है, लेकिन इन दिनों वहां ‘जल -आपातकाल’ का प्रकोप है। शहर के लगभग सभी बड़े रेस्त्रां ने अपने काम करने के समय को कम कर दिया है। बैठ कर खाने के बजाय घर ले जाने वालों को छूट दी जा रही है। चेन्नई होटल एसोसिएशन के मुताबिक, पानी की कमी के चलते शहर के कोई पचास हजार छोटे व मध्यम होटल-रेस्त्रां गत पंद्रह दिन से बंद हैं और इससे हजारों लोग बेरोजगार हो चुके हैं।
महानगर के विश्व प्रसिद्ध आईटी कॉरीडोर ओल्ड महाबलीपुरम रोड (ओएमआर) की साढ़े छह सौ से अधिक आईटी कंपनियों ने अपने बीस हजार से ज्यादा कर्मचारियों को घर से काम करने या फिर कंपनी के हैदराबाद या बंगलूरू स्थित कार्यालयों से काम करने के निर्देश दे दिए हैं। कुल मिला कर शहर में पानी बचा ही नहीं है।

कोई नब्बे लाख की आबादी के शहर में पानी के नल हफ्तों से सूखे हैं और बारह हजार लीटर का एक टैंकर पांच हजार में खरीद कर लोग काम चला रहे हैं। कभी लगता है कि समुद्र तट पर बसा ऐसा शहर, जहां चार बड़े-बड़े जलाशय और दो नदियों थीं, आखिरकार पानी की हर बूंद के लिए क्यों तरस गया?

गंभीरता से देखें, तो यह प्यास समाज के कथित विकास की दौड़ में खुद के द्वारा ही कुचली-बिसराई व नष्ट कर दी गई पारंपरिक जल निधियों के लुप्त होने से उपजाई है। और इसका निदान भी जल के लिए अपनी जड़ों की ओर लौटना ही है। सरकार कह रही है कि गत तीन सालों में चेन्नई मेट्रो वाटर को 2638.42 करोड़ रुपये दिए गए, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि डाले गए पाइप या टंकियां तब तक काम की नहीं हैं, जब तक कि जल स्रोत न हो।

कभी समुद्र के किनारे का छोटा-सा गांव मद्रासपट्टनम आज भारत का बड़ा नगर है। अनियोजित विकास, शरणार्थी समस्या और जल निधियों की उपेक्षा के चलते आज यह महानगर एक बड़ी झुग्गी में बदल गया है। नवंबर-2015 में आई भयानक बाढ़ के बाद तैयार की गई नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजास्टर मैनेजमेंट की रिपोर्ट में बताया गया है कि 650 से अधिक जल निधियों में कूड़ा भर कर चौरस मैदान बना दिए गए। यही वे पारंपरिक स्थल थे, जहां बारिश का पानी टिकता था और जब उनकी जगह समाज ने घेर ली तो पानी समाज में घुस गया।

बुधवार, 12 जून 2019

Prepare yourself for water conservation

हर समय तैयार रहना होगा अल्प वर्षा के लिए 
.पंकज चतुर्वेदी



लगातार चौथे साल सूखा झेल रहे बुंदेलखंड व मराठवाड़ा के अंचलों में प्यास व पलायन से हालात भयावह है। जंगलों में पालतू मवेशियों की लाशों का अंबार लग गया है और अभी तक सरकार तय नहीं कर पा रही है कि सूखे से जूझा कैसे जाए? जब पानी नहीं है तो राहत का पैसा लेकर लोग क्या करेंगे? महज खेत या किसान ही नहीं, खेतों में काम करने वाले मजदूर व अन्य श्रमिक वर्ग भी सूखे से बेहाल है। रही बची कसर मौसम विभाग की उस घोशणा ने पूरी कर दी कि मानसून कुछ देर से आ रहा है और बरसात भी औसत होगा। हालांकि ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवतैन ने पूरे मौसम चक्र को अविष्वसनीय और गफलत वाला बना दिया है और अब वक्त आ गया है कि सारे साल, भले ही पानी अच्छा भी बरसे, पानी को सहजेने, प्रकृति पर भरोसा करने के कमा करने होंगे।
यह अब उजागर हो चुका है कि हमने अपने पारंपरिक जल संसाधनों की जो दुर्गति की है, जिस तरह नदियों के साथ खिलवाड़ किया है, खेतों में रासायनिक खाद व दवा के प्रयोग से सिंचाई की जरूरत में इजाफा किया है, इसके साथ ही धरती का बढ़ता तापमान, भौतिक सुखों के लिए पानी की बढ़ती मांग और भी कई कारक हैं जिनसे पानी की कमी तो होना ही है। ऐसे में सारे साल, पूरे देश में, कम पानी से बेहतर जीवन और जल-प्रबंधन, ग्रामीण अंचल में पलायन थामने और वैकल्पिक रोजगार मुहैया करवाने की योजनाएं बनाना अनिवार्य हो गया है।

आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में समाज और सरकार बैठे है।। कही पानी बरसा तो, लेकिन गरमी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब.... ? अब क्या होगा.... ?  यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि  करती है। खतरा यह है कि ऐसे जिलों की संख्या अब बढ़ती जा रही है। इस बार यह संख्या 230 के पार है।
असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है। एक तो यह जान लें कि पानी उलीचने की मशीनों ने पानी की सबसे ज्यादा बर्बादी की हे। जब आंगन में एक कुंआ होता था तो इंसान अपनी जरूरत की एक बाल्टी खींचता था और उसी से काम चलाता था। आज एक गिलास पानी के लिए भी हैंड पंप या बिजली संचालित मोटर का बटन दबा कर एक बाल्टी से ज्यादा पानी बेकार कर देता है। दूसरा शहरी नालियों की प्रणाली, और उनका स्थानीय नदियों में मिलना व उस पानी का सीधा समुद्र के खारे पान में घुल जाने के बीच जमीन में पानी की नमी को सहेज कर रखने के साधन कम हो गए हे।ं कुएं तो लगभग खतम हो गए, बावड़ी जैसी संरचनांए उपेक्षा की खंडहर बन गईं व तालाब गंदा पानी निस्तारण के नाबदान । जरा इस व्यवस्था को भी सुधारना होगा या यों कहं कि इसके लिए अपने अतीन व परंपरा की
ओर लौटना होगा।
जरा सरकारी घोशणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देष की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाध्नों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिषत है। हमें हर साल बारिष से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिष का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिष में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केष क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिष पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थेाड़ा भी कम पान बरसने पर किसान रोता दिखता है। देष के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी  का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में  यह आंकडा 90 प्रतिषत का है। जाहिर है कि षेश आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिष से होती है और ना ही नदियों से। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं ।
कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी की कमी इंसान के जीवन के रंगो को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढ़ियों से बेहद कम बारिष होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियांॅ हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं। सबसे बड़ी बात अब यह विचार करना होगा कि किन इलाकों में किस तरह की फसल हो या कौन सी परियोजनाए हों। अब मराठवाड़ा के लेाग महसूस कर रहे हैं कि जिस पैसे के लालच में उन्होंने गन्ने की अंधाधंुध फसल उगाई वही उन्हें प्यासा कर गया है। गन्ने में पानी की खपत ज्यादा होती है, लेकिन इलाके के ताकतवर नेताओं की चीनी मिलों के लिए वहां गन्ना उगवाया गया था। हरियाण  पंजाब में जम कर धान की खेती हुई तो भूजल का खाता षून्य हो गया।
आज यह आवष्यक हो गया है कि किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोशित करने, वहां राहत के लिए पैसा भेजने जैसी पारंपरिक व छिद्रयुक्त योजनाओं को रोक जाए, इसके स्थान पर पूरे देष के संभावित अल्प वर्शा वाले क्षेत्रों में जल संचयन, खेती, रोजगार, पषुपालन क की नई परियोजनाएं स्थाई रूप् से लागू की जाएं जाकि इस आपदा को आतंक के रूप में नहीं, प्रकृतिजन्य अनियमितता मान कर सहजता से जूझा जा सके। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्शा से जुड़ी परेषानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

बुधवार, 5 जून 2019

For saving ecology mass has to come forward

पर्यावरण : धरती बचाने सभी आएं आगे

पंकज चतुर्वेदी
पर्यावरण : धरती बचाने सभी आएं आगे
अब तो पर्यावरण पर खतरा धरती के अस्तित्व के लिए चुनौती बन गया है। हर कोई समझ रहा है कि कार्बन की बढ़ती मात्रा से दुनिया का गरम होना भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं को न्यौता है। तापमान ऊर्जा का प्रतीक है।

आधुनिक सुख-सुविधा के साधन बगैर ऊर्जा चलते नहीं। लेकिन इसका संतुलन बिगड़ने का अर्थ है हमारे अस्तित्व पर संकट। वायुमंडल में सभी गैसों की मात्रा तय है और 750 अरब टन कार्बनडाई आक्साईड वातावरण में मौजूद है। कार्बन की मात्रा बढ़ने का दुष्परिणाम है कि जलवायु परिवर्तन और धरती के गरम होने जैसे प्रकृतिनाशक बदलाव हम झेल रहे हैं।
कार्बन की मात्रा में इजाफे से तूफान, कीटों के प्रकोप, सुनामी या ज्वालामुखी जैसे खतरे मंडरा रहे हैं। तेजाबी बारिश की आशंका बढ़ने का कारक भी है कार्बन की बेलगाम मात्रा। इतने विषम हालात का अंदाजा हजारों साल पुराने ग्रंथों के रचयिता साधु-संतों को लग गया था। महाभारत में ‘वनपर्व’ में युधिष्ठिर  ने मार्कण्डेय ऋषि से पूछा कि  आपने युगों के अंत में होने वाले अनेक महापल्रय के दृश्य देखे हैं, उसके बारे में बताएंगे। ऋषि ने जो जवाब दिया वह आज के हालत की ही तस्वीर प्रतीत होता है। वे कहते हैं कि पल्रयकाल में सुगंधित पदार्थ की खुश्बु गायब हो जाती है। रसीले पदार्थ स्वादिष्ट नहीं रह जाएंगे। वृक्षों पर फल और फूल बहुत कम हो जाएंगे। उन पर बैठने वाले पक्षियों की विविधता भी कम हो जाएगी। वष्रा ऋतु में जल की वष्रा नहीं होगी। ऋतुएं अपने-अपने समय का परिपालन त्याग देंगी। वन्य जीव, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक निवास की बजाए नागरिकों के बनाए बगीचों और विहारों में भ्रमण करने लगेंगे। संपूर्ण दिशाओं में हानिकारक जंतुओं और सपरे का बाहुल्य हो जाएगा। वन-बाग और वृक्षों को लोग निर्दयतापूर्वक काट देंगे। खेती के संकट, नदी-तालाबों पर कब्जे की बात भी ऋषि ने कही। इसी प्रकार ब्रrावैवर्त पुराण में लोगों के जल्दी बाल सफेद होने से ले कर गंगा के अस्तित्व पर संकट जैसी भविष्यवाणी दर्ज हैं।
जलवायु परिवर्तन, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का क्या भीषण असर होता है, इसकी बानगी है बुंदेलखंड का टीकमगढ़ जिला। यहां वर्ष 1991-2000 के दशक में कुल 497 दिन बरसात हुई यानी लगभग हर साल पचास दिन। अगले दशक 2001-2010 में यह आंकड़ा 355 दिन हो गया। सन 2011 से अभी तक की औसत बारिश तो बामुश्किल 28 दिन सालाना है। एक तो बरसात घटी, दूसरा पानी की मांग बढ़ी, तीसरा पारंपरिक जल प्रणालियों को समाज ने ही नष्ट कर दिया। परिणाम सामने हैं कि अब इस जिले के गांवों में केवल बूढ़े या महिलाएं रह गई हैं। मवेशी आवारा घेषित कर छोड़ दिए गए। जरा गंभीरता से अतीत के पन्नों का पलट कर देखें तो पाएंगे कि मौसम की यह बेईमानी बीते दशक से कुछ ज्यादा ही समाज को तंग कर रही है।
अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा ने भी कहा है कि तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि पूर्व के महीनों के रिकॉर्ड को तोड़ रही है। यह पर्यावरण के लिए उत्पन्न होने वाले खतरे का संकेत है। आंकड़े जारी होने के बाद उनका अध्ययन कर भूमिगत तापमान पर अपने ब्लॉग में जेफ मास्टर्स और बॉब हेनसन ने लिखा है कि यह मानव उत्पादित ग्रीन हाउस गैसों के नतीजतन वैश्विक तापमान में लंबे समय में वद्धि की चेतावनी है। मार्च की शुरुआत में प्रारम्भिक नतीजों से  सुनिश्चित हो गया है कि तापमान में वृद्धि के रिकॉर्ड टूटने जा रहे हैं। 1951 से 1980 के मध्य की आधार अवधि की तुलना में धरती की सतह और समुद्र का तापमान फरवरी में 1.35 सेल्सियस अधिक रहा है।
कैसी विडंबना है कि धरती की अधिकांश आबादी इन खतरों के प्रति चिंतित है, लेकिन निदान के लिए दूसरों की तरफ देखती है। विकसित देश सोचते हैं कि उनके कल-कारखाने, एयरकंडीशन चलते रहें और विकासशील या तीसरी दुनिया के देश ही वायुमंडल में कार्बन की मात्रा घटाने के लिए कटौती करें। स्थानीय स्तर पर भी वायु प्रदूषण होने के लिए हम सरकार को कोसते हैं लेकिन अपने स्तर पर कुछ नहीं करते जिससे धरती पर जीव के सुखद जीवन में कुछ और सांसें जुड़ सकें। आमजन ऊर्जा की बचत, पानी को गंदा करने से बचने, हरियाली और मिट्टी के संरक्षण का संकल्प ले तो बड़ा बदलाव हो सकता है। छोटे तालाब और कुएं, पारंपरिक मिश्रित जंगल, खेती और परिवहन के पुराने साधन, कुटीर उद्योग का सशक्तीकरण कुछ ऐसे प्रयास हैं, जो कार्बन पर नियंत्रण कर सकते हैं। इसके लिए हमें पश्चिम से उधार में लिये ज्ञान की जरूरत भी नहीं है।

सोमवार, 3 जून 2019

Women can change ecology

धरती को  बचा सकती है आधी आबादी
पंकज चतुर्वेदी


‘‘समाज में स्त्री का बड़ा महत्व है, जिस घर परिवार में स्त्री शिक्षित एवं प्रशिक्षित हो उनके बच्चे सदा ही उन्नति के पथ पर अग्रसर रहते हैं। वह सुंदर परिवार की निर्मात्री है, जब तक हमारे आंदोलनों में महिलाएँं भी भरपूर हिस्सा नहीं लेगीं, तब तक हमारा आंदोलन कभी सफल नहीं हो सकता।’’

डा. भीम राव अंबेडकर

यह बात सरकार व समाज दोनों ही गंभीरता से स्वीकारने लगा है कि हमने अपने सुख-साधन के जो कुछ भी संसाधन आधुनिकता के नाम पर एकत्र किए हैं, वे असल में इस धरती और उस पर रहने वाले जीव-जंतुओं के जीवन और अस्तित्व के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। याद करें समुद्र  मंथन की कहानी, जब  देव व असुरों ने उस समय प्रकृति द्वारा दिए गए सुख-अधिकार से कुछ ज्यादा पाने के लिए मंथन  का प्रकल्प किया था। याद रखें कि वह मंथन था, नाकि शक्ति-प्रदर्शन  - मंथन यानि दोनो पक्षों ने समान शक्ति  लगाई ताकि समुद्र से कुछ प्राप्ति की जा सके। समुद्र से रत्न निकले, आयुर्वेद और कपिला गाय, ऐरावत हाथी सहित 14 रत्न निकले। उन्हें अपने पक्ष में रखने के लिए दोनो पक्ष भिड़ गए। लेकिन शिव  जानते थे कि प्रकृति कोई भी अतिरिक्त सुख कीमत चुकाए बगैर नहीं देती। तभी उसमें से निकले विष  यानि हलाहल को उन्होंने अपने कंठ में धारण कर लिया था। आज के युग में तो कोई शिव  है नहीं, सभी को सुख-सुविधाएं चाहिए, लेकिन उससे उपजे दुष्परिणामों  की जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं। हम यहां कुछ ऐसी घटनाओं का उल्लेख कर रहे है। जो हर दिन आपके सामने घटित होती हैं और जिनके चलते यह धरती तिल-दर-तिल अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। यह बात तय है कि यदि देश  की आधी आबादी को धरती को संरक्षित करने के लिए प्रेरित किया जाए तो हम धरती को कुछ बेहतर और निरापद बना सकते हैं।
पॉलीथीन, पाबंदी और विकल्प
इन दिनों पृथ्वी पर एक ऐसा संकट व्याप्त है जिसका निर्माण, उपयोग सब कुछ इंसान ने किया और अब वही इंसानियत के लिए भस्मासुर हो गया। समाज ने बाजार से सामान लाने से ले कर पैकिंग तक में प्लास्टिक का इस्तेमाल शुरू  किया, देखते ही देखते शहर-गांव तक पॉलीथीन छा गई। जब नींद खुली तो  जमीन पर इस दानव का ऐसा कब्जा था कि मिट्टी को सांस लेने में दिक्कत होने लगी, भूजल तक दूषित  हो गया और गाय जैसे पालतु पशु   मारे जाने लगे।  फिर भी बाजार से सब्जी लाना हो या पैक दूध या फिर किराना या कपड़े, पॉलीथीन के प्रति लोभ ना तो दुकानदार छोड़ पा रहे हैं ना ही खरीदार। मंदिरों, ऐतिहासिक धरोहरों, पार्क, अभ्यारण्य, रैलियों, जुलूसों, शोभा यात्राओं आदि में धड़ल्ले से इसका उपयोग हो रहा है। शहरों की सुंदरता पर इससे ग्रहण लग रहा है। पॉलीथीन न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य को भी नष्ट करने पर आमादा है। यह मानवोचित गुण है कि इंसान जब किसी सुविधा का आदी हो जाता है तो उसे तभी छोड पाता है जब उसका विकल्प हो।
यह भी सच है कि पॉलीथीन बीते दो दशक के दौरान बीस लाख से ज्यादा लेागों के जीवकोपार्जन का जरिया बन चुका है जो कि इसके उत्पादन, व्यवसाय, पुरानी पन्नी एकत्र करने व उसे कबाड़ी को बेचने जैसे काम में लगे हैं। वहीं पॉलीथीन के विकल्प के रूप में जो सिंथेटिक थैले बाजार में डाले गए हैं, वे एक तो महंगे हैं, दूसरे कमजोर और तीसरे वे भी प्राकृतिक या घुलनशील  सामग्री से नहीं बने हैं और उनके भी कई विषम  प्रभाव हैं।  कुछ स्थानों पर कागज के बैग और लिफाफे बनाकर मुफ्त में बांटे भी गए लेकिन मांग की तुलना में उनकी आपूर्ति कम थी।
यदि वास्तव में बाजार से पॉलीथीन का विकल्प तलाशना है तो पुराने कपड़े के थैले बनवाना एकमात्र विकल्प है। इससे कई लेागों को विकल्प मिलता है- पॉलीथीन निर्माण की छोटी-छोटी इकाई लगाए लेागों को कपड़े के थैले बनाने का,  उसके व्यापार में लगे लोगों को उसे दुकानदार तक पहुंचाने का और आम लेागों को सामान लाने-लो जाने का। कहने की आवष्यकता नहीं कि मजबूत, किफायती थैले बनाने के काम में महिलाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। खासतौर पर ग्रामीण परिवेष  के स्वयं सहायता समूह इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
भोपाल की सकारात्मक सोच संस्था की कोई 250 महिलाएं अपने घरों पर पुराने कपड़ों से थैले सिलती हैं, फिर हर रविवार पिपलानी, गांधी मार्केट, इंद्रपुरी, कल्पना नगर समेत आसपास के इलाकों में घर-घर जाकर निशुल्क बांटती हैं। इसके अलावा सब्जी, फल, किराना विक्रेताओं को भी निरूशुल्क कपड़ों के थैले दिए जाते हैं। साथ ही लोगों से अपील करती हैं कि सामान लेने यही थैले लेकर जाएं, पॉलीथीन का इस्तेमाल न करें। ये 400 से 500 बैग हर सप्ताह बांटती हैं महिलाएं पुराने कपड़ों से महिलाएं छोटे-बड़े अलग-अलग डिजाइन के थैले बनाती हैं। एक महिला दो बैग सिलती है।
भिलाई में भी मनीषा  सारंग ऐसे हजारों थैले  लोगों को बांट चुकी हैं इससे महिलओं को रोजगार व हाथ का काम भी मिल रहा है और पर्यावरण संरक्षण भी।

कूड़ा, निस्तारण और महिलाएं
देष में हर रोज 45 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है, इसमें से केवल 2500 लाख टन के निस्तारण की ही व्यवसथा है, यानि हर रोज दो हजार लाख टन कचरा हमारे आसपास जुड़ रहा है।  हमारे देष में औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा हर दिन निकलात है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्ठा होता है, जबकि 22 फीसदी कूड़ा-कबाड़ा,  घरेलू गंदगी होती है। कचरे का निबटान पूरे देष के लिए समस्या बनता जा रहा है। दिल्ली की नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक दूसरे राज्यों में कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाष रही है। जरा सोचें कि इतने कचरे को एकत्र करना, फिर उसे दूर तक ढो कर ले जाना कितना महंगा व जटिल काम है। यह सरकार भी मानती है कि देष के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिषत का ईमानदारी से निबटान हो पाता है। राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है।  कागज, प्लास्टिक, धातु  जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाईकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है।
असल में कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। यह भी सच है कि भारतीय समाज में घर की देखभाल का जिम्मा महिलाओं पर ही आता है। कचरे की दिक्कत से निबटने के दो हिस्से हैं- एक तो कचरा कम करना, दूसरा कचरे का मुकम्मल निस्तारण। गंभीरता से देखें तो यदि महिलओं को इसके लिए थोड़ा सा जागरूक और प्रषिक्षित कर दिया जाए तो गंदगी और उससे उपजे पर्यावरणीय संकट का पूरा तो नहीं लकिन बहुत कुछ हल निकाला जा सकता है। महज मुहल्ला स्तर पर महिलओं की षक्तिसंपन्न स्वच्छता समितियां गठित कर दी जाएं, जिनके प्रति स्थानीय निकाय का सफाई कर्मचारी सीधे जवाबदेह हो। महिलओं को गीले व सूखे कूड़े की जानकारी तथा उन्हें अलग-अलग करने के प्रति षिक्षित कर दिया जाए। घर में प्लास्टिक व ऐसे ही कचरे को कम से कम आने की सीख। कुछ ऐसे सूत्र हैं जिनसे  कूड़ा कम करने की दिषा में व्यापक परिणाम पाए जा सकते हैं।
बनारस को पूर्ण स्वच्छ बनाने के लिए कूड़े को अलग-अलग करने की दिषा में महिलओं को व्यापक प्रषिक्षण किया गया और वह सफल भी रहा। अब महिलाएं गीते कूड़े से घर में ही खाद बनाने जैसा कार्य भी कर रही हैं। सही स्थन पर कूड़ा फैंका जाए, गैरजरूरी सामन कूड़े के साथ ना जाए इस दिषा में भी महिलओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती हैं।
गर्म होती धरती कहीं नष्ट  ना हो जाए

एक तरफ परिवेश में कार्बन की मात्रा बढ़ रही है तो दूरी ओर ओजोन परत में हुए छेद में दिनों-दिन विस्तार हो रहा है। इससे उपजे पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव लगातार जलवायु परिवर्तन के रूप में तो सामने आ ही रहा है, जंगलों की कटाई व कुछ अन्य कारकांे के चलते दुनिया में तेजी से पांव फैला रहे रेगिस्तान का खतरा धरती पर जीवन की उपस्थिति को दिनों-दिन कमजोर करता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानि यूनेप की रपट कहती है कि दुनिया के कोई 100 देशों में उपजाउ या हरियाली वाली जमीन  रेत के ढेर से ढक रही है औा इसका असर एक अरब लेागों पर पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि यह खतरा पहले से रेगिस्तान वाले इलाकों से इतर है।
बेहद हौले से और ना तत्काल दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राजयों में जड़ जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से महज 24 फीसदी ही थार के इर्द गिर्द के हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर था जो कि आज दो लाख आठ हजार 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है। भारत की कुल 328.73 मिलियन जमीन में से 105.19 मिलियन जमीन पर बंजर ने अपना डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हैक्टर जमीन रेगिसतान में बदल रही है। यह हमारे लिए चिंता की बात है कि देश के एक-चौथाई हिस्से पर आने वाले सौ साल में मरूस्थल बनने का खतरा आसन्न है। हमारे यहां सबसे ज्यादा रेगितान राजस्थान में है, कोई 23 मिलियन हैक्टर। गुजरात, महाराष्ट्र, मप्र, और जम्मू-कश्मीर की 13 मिलियन भूमि पर रेगिस्तान है तो अब उड़ीसा व आंध््राप्रदेश में रेतीली जमीन का विस्तार देखा जा रहा है। अंधाधुंध सिंचाई व जम कर फसल लेने के दुष्परिणाम की बानगी पंजाब है, जहां दो लख हैक्टर जमीन देखते ही देखते बंजर हो गई। बंिटंडा, मानसा, मोगा, फिरोजपुर, मुक्तसर, फरीदकोट आदि में जमीन में रेडियो एक्टिव तत्व की मात्रा सीमा तोड़ चुकी है और यही रेगिस्तान की आमद का संकेत है।
रियो दे जेनेरियो में हुए धरती बचाओ सम्मेलन में भी इस बात पर सहमति बनी थी कि रेगिस्तान रोकने के लिए नई तकनीक के बनिस्पत पारंपरिक तरीके ज्यादा कारगर हैं, जिसमें जमीन की नमी बरकरार रखने , चारागाह व जंगल बचाने व उसके प्रबंधन के सामाजिक तरीकों, फसल में विविधता लाने जैसेी हमारी बिसराई गई अतीत की तकनीकें प्रमुख हैं।
परिवेष में कार्बन की मात्रा कम करने की दिषा में महिलाओं ने सरकार की पहल पर काम करना भी षुरू कर दिया है। उज्जवला योजना के तहत लगभग सात करोड़ लेाग जोड़े जा चुके हैं। जाहिर है कि इतने लकड़ी के चूल्हे जलने बंद हुए और उससे हर दिन वायुमंडल में जुड़ रही कार्बन की मात्रा कम हुई। यही नहीं इससे उतने ही पेड़ों का कटना बंद हुआ । कई जगह असुरक्षित इंधन जैसे प्लास्टिक आदि जलाई जा रही थी , उस पर भी रोक लगी। अब भोजन के तरीकों व विविधता के प्रबंधन की जिम्मेदारी तो हर घर में महिला की ही होती हैं। बस जरूरत है कि महिला को इस बारे में जानकारी दे दी जाए कि किस तरह खाने में मोटा अनाज ना केवल पाचन व पौश्टिकता के नजरिये से बल्कि जैव विविधता संरक्षण, जल की मांग कम करने में भी कारगर हैं।
       देश में पंचायती संस्थाओं में कम से कम 33 फीसदी महिला आरक्षण लागू हैं और लाखें महिलाएं गांव स्त्र पर व्यवस्था के संचालन के स्तर पर आई हैं। इसके बावजूद यह भी सच है कि ऐसी निर्वाचित महिलाओं की बड़ी संख्या ऐसी है जो केवल नाममात्र की प्रतिनिधि हैं व उनका सारा काम उनके मर्द करते हैं। लेकिन हर राज्य से सैंकड़ों नहीं हजारों ऐसे भी उदाहरण सामने आ रहे हैं जहां औरतों ने गांव की व्यवस्था संभाली तो साफ पानी, हरियाली जैसे मुद्दों पर ईमानदारी से काम होने लगा। महिला सशक्तिकरण  की राष्ट्रिय  नीति में भी 11वां बिंदु ‘‘महिलाएँं एवं पर्यावरण’’ है। महिला किसान सशक्तीकरण परियोजना (एमकेएसपी) की मुख्य विशेषताओं में स्थानीय रूप से अपनाई गई संसाधन संरक्षक, किसानों पर आधारित और पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकियों के उपयोग पर जोर दिया गया है।
      यह जान लें कि धरती को मां का दर्जा दिया गया हैं और उसके प्रति संवेदनषील, उसको सहेजने के लिए गंभीर और लगनषील दूसरी मां ही ज्यादा कारगर होगी।






रविवार, 2 जून 2019

climate change killing agriculture

उ.प्र. : सिमटती खेती, उजड़ता किसान
पंकज चतुर्वेदी

जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम का गड़बड़ाता मिजाज उ.प्र. में खेती के लिए बड़ा संकट बना है। इससे केवल देष को अन्न उपलब्ध कराने की क्षमता ही नहीं, कृशि पर लोगों की निर्भरता भी घटी है। इसके चलते भयंकर पलायन हो रहा है। कहीं विकास के नाम पर तो कही षहरीकरण की चपेट में खेत सिमट रहे हैं , वहीं खेती में लाभ ना देख कर उससे विमुख हो रहे लोगों की संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है। यह हाल है देश्  को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्रा व सबसे ज्यादा सांसद देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश  का। यह दुखद है कि राज्य का किसान दिल्ली या ऐसे ही महानगर में दूसरों की चाकरी करे, गांव की खुली हवा-पानी छोड़ कर महानगर की झुग्गियों में बसे और यह मानने को मजबूर हो जाए कि उसका श्रम किसी पूंजीपति के पास रेहन रख दिया गया है।
हालांकि पूरे देश में ही खेतों के बंटवारे , खेती की बढ़ती लागत, फसल के वाजिब दाम के सुनिश्चित ना होने, सिंचाई की माकूल  व्यवस्था के अभाव जैसे मसलों के कारण खेती पिछड़ रही है। परिवारों के बंटवारे से जैसे ही जोत छोटी होती है तो खेती में मशीन व तकनीक के प्रयोग का व्यय बढ़ जाता है। इसी के चलते किसान खेती से बाहर निकल कर वैकल्पिक रोजगार की तलाश में खेत बेच कर बड़े शहरों की राह पकड़ता है। सन रहे देश में किसनों की कुल संख्या 14. 57 करोड़ है यह संख्या पांच साल पहले 13.83 करोड़ थी। लेकिन इसमें लघु और सीमांत किसानों की संख्या ही 86 फीसदी है। वहीं उत्तर प्रदेश में लघु और सीमांत किसान 93 फीदी हैं जिन्हें खेती के बदौलत दो जून की रोटी मिलना मुश्किल होता है। बुंदेलखंड जैसे इलाकों में हर तीन-चार साल में अल्प वर्षा तो खेती की दुश्मन है ही, आवारा पशु एक नई समस्या के रूप में उभरे हैं। एक तो छोटा सा खेत, वह भी प्रकृति की कृपा पर आश्रित और उसमें भी ‘‘अन्ना गाय’’ का रेवड़ घुस गया तो किसान बर्बादी अपने ही आंखें के सामने देखता रह जाता है। यदि मवेशी भगाये और वह दूसरे के खेत में चले गए तो उससे फौजदारी तय है। ऐसे में बुंदेलखंड से दिल्ली आने वाली ट्रेन व बसें हर समय गारा-गुम्मा का मजूरी करने वालों से पटी होती हैं।
सरकारी आंकड़ों के चश्मे  से यदि उप्र को देखें तो प्रदेष में 24202000 हेक्टेयर भूमि है जिसमें से शुध्ध  बुवाई वाला(यानी जहां खेती होती है) रकवा 16812000हेक्टेयर है जो कुल जमीन का 69.5 फीसदी है। जाहिर है कि राज्य के निवासियों की चूल्हा-चौका का सबसे बड़ा जरिया खेती ही है। राज्य में कोई ढाई फीसदी जमीन उसर या खेती के अयोग्य भी है।  प्रदेष के 53 प्रतिषत लोग किसान हैं और कोई 20 प्रतिषत खेतिहर मजदूर। यानी लगभग तीन-चौथाई आबादी इसी जमीन से अपना अन्न जुटाती है। एक बात और गौर करने लायक है कि 1970-1990 के दो दशकों के दौरान राज्य में नेट बोया गया क्षेत्रफल 173 लाख हेक्टेयर स्थिर रहने के पश्चात  अब लगातार कम हो रहा है।  ऐसोचेम का कहना है कि हाल के वर्षों में उ.प्र. का कृषि के मामले में सालाना विकास दर यानि सीएजीआर महज 2.9 प्रतिषत है, जोकि राष्ट्रीय  प्रतिशत 3.7 से बेहद कम व निराशाजनक है। विकास के नाम पर सोना उगलने वाली जमीन की दुर्दशा  इस आंकड़े से आंसू बहाती दिखती है कि उत्तर प्रदेश  में सालाना कोई 48 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन  कंक्रीट द्वारा निगली जा रही है। वैसे तो सन 2013 की कृषि नीति में राज्य षासन ने खेती की विकास दर 5.3 तक ले जाने का लक्ष्य तय किया था । इसके लिए अनुबंध खेती, बीटी बीज जैसे प्रयाग भी शुरू  किए गए , लेकिन जमीन पर कुछ दिखा नहीं क्योंकि यह सब तभी संभव है जब खेती लायक जमीन को सड़क, शहर जैसे निर्माण कार्यों के बनने से बचाया जा सके।
उत्तरप्रदेश  की सालाना राज्य आय का 31.8 प्रतिषत खेती से आता है। हालांकि यह प्रतिशत सन 1971 में 57, सन 1981 में 50 और 1991 में 41 हुआ करता था। साफ नजर आ रहा है कि लोगों से खेती दूर हो रही है - या तो खेती ज्यादा फायदे का पेषा नहीं रहा या फिर दीगर कारणों से लोगों का इससे मोहभ्ांग हो रहा है। दिल्ली से सटे जिलों- गाजियाबाद, बागपत, गौतम बु़द्ध नगर जिले से बीते तीन दषकों से खेत उजड़ने का जो सिलसिला षुरू हुआ , उससे भले ही कुछ लोगों के पास पैसा आ गया हो , लेकिन वह अपने साथ कई ऐसी बुराईयां व अपराध लाया कि गांवों की संस्कृति, संस्कार और सभ्यता सभी कुछ नश्ट हो गई। जिनके खेत थे, उन्हें तो कार, मकान और मौज-मस्ती के लिए पैसे मिल गए, लेकिन उनके खेतों में काम करने वाले तो बेरोजगार हो गए। उनके लिए करीबी महानगर दिल्ली में आ कर रिक्षा चलाने या छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। जो गांव में आधा पेट रह कर भी ख्ुष थे, वे आज दिल्ली में ना तो खुद खुष है और ना ही दूसरों की खुषी के लिए कुछ कर पा रहे हैं। देष के अन्न भंडार भरने वाले खेतों पर जो आवासीय परिसर खड़े हो रहे हैं, वे बगैर घर वाले लोगों की जरूरत पूरा करने के बनिस्पत निवेष का कम ज्यादा कर रहे हैं। वहीं अधिगृहित भूमि पर लगने वाले कारखानों में स्थानीय लोगों के लिए मजदूर या फिर चौकीदार से ज्यादा रोजगार के अवसर नहीं । इन कारखानों में बाहर से मोटे वेतन पर आए लोग स्थानीय बाजार को महंगा कर रहे है।, जोकि स्थानीय लोगों के लिए नए तरीके की दिक्कतें पैदा कर रहा है।
राज्य में बड़े या मझौले उद्योगों को स्थापित करने में कई समस्याएं हैं- बिजली व पानी की कमी, कानून-व्यवस्था की जर्जर स्थिति, राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और इच्छा-षक्ति का अभाव। ऐसे में खेती पर जीवकोपार्जन व रोजगार का जोर बढ़ जाता है। इस कटु सत्य से बेखबर सरकार पक्के निर्माण, सड़कों में अपना भविश्य तलाष रही है और अपनी गांठ के खेतों को उस पर खपा रही है। यदि हाल ऐसा ही रहा तो आने वाले पांच सालों में राज्य की कोई तीन लाख हेक्टेयर जमीन से खेतों का नामोनिषान मिट जाएगा। किसान को भले ही देर से सही, यह समझ में आ रही है कि षहर व आधुनिक सुख-सुविधाओं की बातें मृगमरिचिका है और एक बार जमीन हाथ से जाने के बाद मिट्टी भी मुट्ठी में नहीं रह जाती है। मुआवजे का पैसा पूर्णिमा की चंद्र-कला की तरह होता है जो हर दिन के हिसाब से स्याह पड़ता जाता है। गांव वाले, विषेशरूप से खेती करने वाले यह भांप गए हैं कि जमीन हाथ से निकलने के बाद उनके बच्चों की षादियां भी मुष्किल है और ऐसे परिवार वालों की संख्या, पष्चिमी उत्तर प्रदेष में बढ़ी है जिनके यहां वंष बढ़ाने वाला ही नहीं बच रहा है। जमीन के लिए हत्या कर देना बहुत ही आम बात हो गया है।
प्रदेष के चहुंमुखी विकास के लिए कारखाने, बिजली परियोजना और सड़कें सभी कुछ जरूरी हैं, लेकिन यह भी तो देखा जाए कि अन्नपूर्णा धरती को उजाड़ कर इन्हें पाना कहां तक व्यावहारिक व फायदेमंद है। सनद रहे कि राज्य की कोई 11 फीसदी भूमि या तो ऊसर है या फिर खेती में काम नहीं आती है। यह बात जरूर है कि ऐसे इलाकों में मूलभूत सुविधाएं जुटाने में जेब कुछ ज्यादा ढीली करनी होगी। काष ऐसे इलाकों में नई परियोजना, कारखानों आदि को लगाने के बारे में सोचा जाए। इससे एक तो नए इलाके विकसित होंगे, दूसरा खेत बचे रहेंगे, तीसरा विकास ‘‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’’ वाला होगा। हां, ठेकेदारों व पूंजीपतियों के लिए  यह जरूर महंगा सौदा होग, दादरी, अलीगढ़ या गाजियाबाद की तुलना में। वैसे उप्र सरकार विष्व बैंक से उसर-बंजर जमीन के सुधार के नाम पर 1332 करोड़ का कर्जा भी ले चुकी है। यह कैसी नौटंकी है कि एक तरफ से तो करोड़ो का कर्जा ले कर सवा लाख हेक्टेयर जमीन को खेती के लायक बनाने के कागजी घोड़े दौड़ रहे हैं दूसरी आरे अच्छे-खोस खेतों को ऊसर बनाया जा रहा है।
सही नहीं इस राज्य में नकली बीज व खाद की भी समस्या निरंकुष है तो खेत सींचने के लिए बिजली का टोटा है। कृशि मंडियां दलालों का अड्डा बनी है व गन्ना, आलू जैसी फसलों के वाजिब दाम मिलना या सही समय पर कीमत मिलना लगभग असंभव जैसा हो गया हे। जाहिर है कि ऐसी घिसी-पिटी व्यवस्था में नई पीढ़ी तो काम करने से रही, सो वह खेत छोड़ कर चाकरी करने पलायन कर रही है।
जब तक खेत उजड़गे, दिल्ली जैसे महानगरों की ओर ना तो लोगों का पलायन रूकेगा और ना ही अपराध रूकेंगे , ना ही जन सुविधाओं का मूलभूत ढ़ांचा लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप होगा। आज किसानों के पलायन के कारण दिल्ली  व अन्य महानगर त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, कल जमीन से उखड़े ये कुंठित, बेरोजगार और हताष लोगों की भीड़ कदम-कदम पर महानगरों का रास्ता रोकेगी। यदि दिल से चाहते हो कि कभी किसान दिल्ली की ओर ना आए तो सरकार व समाज पर दवाब बनाएं कि दिल्ली या लखनऊ उसके खेत पर लालच से लार टपकाना बंद कर दे।

IN BHASKRA 02 JUNE IN ALL EDITION WATER CRISIS IN INDIA

दैनिक भास्कर के सारे देश से निकलने वाले सभी ५२ संस्करणों के पहले पन्ने पर
i16 करोड़ लोग पीने के साफ पानी से दूर, हर साल 3.7 करोड़ बीमार
पंकज चतुर्वेदी (जल संकट पर 4 किताबें लिख चुके हैं)



गर्मी चरम पर है और जल संकट भी। दुनिया में जनसंख्या के मामले में हमारी हिस्सेदारी 16% है लेकिन हमें दुनिया में उपलब्ध कुल पानी का 4% ही मिल पाता है। 2018 में सरकार की ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार की सभी योजनाएं प्रति व्यक्ति 4 बाल्टी साफ पानी प्रति दिन उपलब्ध कराने के निर्धारित लक्ष्य से आधे से कम यानी दो बाल्टी भी उपलब्ध नहीं करा पा रही हैं। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक सन 2017 तक साफ पानी उपलब्ध कराने के लिए कुल राशि 89,956 करोड़ रु. का 90% खर्च हो चुका है। इसके बावजूद आज भी करीब 3.77 करोड़ लोग हर साल दूषित पानी के इस्तेमाल से बीमार पड़ते हैं। हर साल बारिश से कुल 4 हजार घन किमी पानी िमलता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किमी है। इसमें से महज 1122 घन किमी पानी ही काम आता है। भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के ज्यादातर देशों से बहुत ज्यादा है। आंकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध जरूर हैं, लेकिन 85% बारिश का पानी समुद्र की ओर बह जाता है और बारिश के कुल पानी का महज 15% ही संचित कर पाते हैं।
शेष | पेज 9 पर
पानी बर्बादी में हम लोग पीछे नहीं हैं। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन बेकार बह जाता है। मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। खास बात यह है कि देश के करीब 85 फीसदी ग्रामीण इलाकों में रहने वाली आबादी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है। यह संसद में बताया गया है कि करीब 6.6 करोड़ लोग अत्यधिक फ्लोराइड वाले पानी की वजह से बीमारियों से जूझ रहे हैं।
यह आंकड़ा भी चौंकाने वाला है कि देश का भाैगोलिक क्षेत्रफल और नदियों के जलग्रहण का क्षेत्र करीब करीब बराबर है। भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों का सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 32.7 लाख वर्गमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1913.6 अरब घनमीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। बिहार की 90 प्रतिशत नदियों में पानी नहीं बचा। पिछले तीन दशक में राज्य की 250 नदियां लुप्त हो चुकी हैं। अभी कुछ दशक पहले तक राज्य की बड़ी नदियां- कमला, बलान, घाघरा आदि कई-कई धाराओं में बहती थीं जो आज खत्म हो गईं हैं। झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियां लुप्त हो चुकी हैं।
सन 2009 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश में कुल दूषित नदियों की संख्या 121 पाई थी, जो अब 275 हो चुकी है। यही नहीं आठ साल पहले नदियों के कुल 150 हिस्सों में प्रदूषण पाया गया था जो अब 302 हो गया है। बोर्ड ने 29 राज्यों व छह केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 445 नदियों पर अध्ययन किया, जिनमें से 225 का जल बेहद खराब हालत में मिला। इन नदियों के किनारे बसे शहरों 650 के 302 स्थानों पर 62 हजार एमएलडी सीवर का गंदा पानी नदियों में गिरता है। भारत में प्रदूषित नदियों के बहाव का इलाका 12,363 किलोमीटर मापा गया है। इनमें से 1,145 किलोमीटर का क्षेत्र बेहद दूषित श्रेणी का है।
दिल्ली में यमुना इसमें शीर्ष पर है, इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है जहां 43 नदियां मरने की कगार पर हैं। असम में 28, मध्यप्रदेश में 21, गुजरात में 17, कर्नाटक में 15, केरल में 13, बंगाल में 17, उप्र में 13, मणिपुर और उड़ीसा में 12-12, मेघालय में दस और कश्मीर में नौ नदियां अपने अस्तित्व के लिए तड़प रही हैं। (जैसा कि पंकज चतुर्वेदी ने शरद पांडे को बताया)

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...