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सोमवार, 3 जून 2019

Women can change ecology

धरती को  बचा सकती है आधी आबादी
पंकज चतुर्वेदी


‘‘समाज में स्त्री का बड़ा महत्व है, जिस घर परिवार में स्त्री शिक्षित एवं प्रशिक्षित हो उनके बच्चे सदा ही उन्नति के पथ पर अग्रसर रहते हैं। वह सुंदर परिवार की निर्मात्री है, जब तक हमारे आंदोलनों में महिलाएँं भी भरपूर हिस्सा नहीं लेगीं, तब तक हमारा आंदोलन कभी सफल नहीं हो सकता।’’

डा. भीम राव अंबेडकर

यह बात सरकार व समाज दोनों ही गंभीरता से स्वीकारने लगा है कि हमने अपने सुख-साधन के जो कुछ भी संसाधन आधुनिकता के नाम पर एकत्र किए हैं, वे असल में इस धरती और उस पर रहने वाले जीव-जंतुओं के जीवन और अस्तित्व के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। याद करें समुद्र  मंथन की कहानी, जब  देव व असुरों ने उस समय प्रकृति द्वारा दिए गए सुख-अधिकार से कुछ ज्यादा पाने के लिए मंथन  का प्रकल्प किया था। याद रखें कि वह मंथन था, नाकि शक्ति-प्रदर्शन  - मंथन यानि दोनो पक्षों ने समान शक्ति  लगाई ताकि समुद्र से कुछ प्राप्ति की जा सके। समुद्र से रत्न निकले, आयुर्वेद और कपिला गाय, ऐरावत हाथी सहित 14 रत्न निकले। उन्हें अपने पक्ष में रखने के लिए दोनो पक्ष भिड़ गए। लेकिन शिव  जानते थे कि प्रकृति कोई भी अतिरिक्त सुख कीमत चुकाए बगैर नहीं देती। तभी उसमें से निकले विष  यानि हलाहल को उन्होंने अपने कंठ में धारण कर लिया था। आज के युग में तो कोई शिव  है नहीं, सभी को सुख-सुविधाएं चाहिए, लेकिन उससे उपजे दुष्परिणामों  की जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं। हम यहां कुछ ऐसी घटनाओं का उल्लेख कर रहे है। जो हर दिन आपके सामने घटित होती हैं और जिनके चलते यह धरती तिल-दर-तिल अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। यह बात तय है कि यदि देश  की आधी आबादी को धरती को संरक्षित करने के लिए प्रेरित किया जाए तो हम धरती को कुछ बेहतर और निरापद बना सकते हैं।
पॉलीथीन, पाबंदी और विकल्प
इन दिनों पृथ्वी पर एक ऐसा संकट व्याप्त है जिसका निर्माण, उपयोग सब कुछ इंसान ने किया और अब वही इंसानियत के लिए भस्मासुर हो गया। समाज ने बाजार से सामान लाने से ले कर पैकिंग तक में प्लास्टिक का इस्तेमाल शुरू  किया, देखते ही देखते शहर-गांव तक पॉलीथीन छा गई। जब नींद खुली तो  जमीन पर इस दानव का ऐसा कब्जा था कि मिट्टी को सांस लेने में दिक्कत होने लगी, भूजल तक दूषित  हो गया और गाय जैसे पालतु पशु   मारे जाने लगे।  फिर भी बाजार से सब्जी लाना हो या पैक दूध या फिर किराना या कपड़े, पॉलीथीन के प्रति लोभ ना तो दुकानदार छोड़ पा रहे हैं ना ही खरीदार। मंदिरों, ऐतिहासिक धरोहरों, पार्क, अभ्यारण्य, रैलियों, जुलूसों, शोभा यात्राओं आदि में धड़ल्ले से इसका उपयोग हो रहा है। शहरों की सुंदरता पर इससे ग्रहण लग रहा है। पॉलीथीन न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य को भी नष्ट करने पर आमादा है। यह मानवोचित गुण है कि इंसान जब किसी सुविधा का आदी हो जाता है तो उसे तभी छोड पाता है जब उसका विकल्प हो।
यह भी सच है कि पॉलीथीन बीते दो दशक के दौरान बीस लाख से ज्यादा लेागों के जीवकोपार्जन का जरिया बन चुका है जो कि इसके उत्पादन, व्यवसाय, पुरानी पन्नी एकत्र करने व उसे कबाड़ी को बेचने जैसे काम में लगे हैं। वहीं पॉलीथीन के विकल्प के रूप में जो सिंथेटिक थैले बाजार में डाले गए हैं, वे एक तो महंगे हैं, दूसरे कमजोर और तीसरे वे भी प्राकृतिक या घुलनशील  सामग्री से नहीं बने हैं और उनके भी कई विषम  प्रभाव हैं।  कुछ स्थानों पर कागज के बैग और लिफाफे बनाकर मुफ्त में बांटे भी गए लेकिन मांग की तुलना में उनकी आपूर्ति कम थी।
यदि वास्तव में बाजार से पॉलीथीन का विकल्प तलाशना है तो पुराने कपड़े के थैले बनवाना एकमात्र विकल्प है। इससे कई लेागों को विकल्प मिलता है- पॉलीथीन निर्माण की छोटी-छोटी इकाई लगाए लेागों को कपड़े के थैले बनाने का,  उसके व्यापार में लगे लोगों को उसे दुकानदार तक पहुंचाने का और आम लेागों को सामान लाने-लो जाने का। कहने की आवष्यकता नहीं कि मजबूत, किफायती थैले बनाने के काम में महिलाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। खासतौर पर ग्रामीण परिवेष  के स्वयं सहायता समूह इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
भोपाल की सकारात्मक सोच संस्था की कोई 250 महिलाएं अपने घरों पर पुराने कपड़ों से थैले सिलती हैं, फिर हर रविवार पिपलानी, गांधी मार्केट, इंद्रपुरी, कल्पना नगर समेत आसपास के इलाकों में घर-घर जाकर निशुल्क बांटती हैं। इसके अलावा सब्जी, फल, किराना विक्रेताओं को भी निरूशुल्क कपड़ों के थैले दिए जाते हैं। साथ ही लोगों से अपील करती हैं कि सामान लेने यही थैले लेकर जाएं, पॉलीथीन का इस्तेमाल न करें। ये 400 से 500 बैग हर सप्ताह बांटती हैं महिलाएं पुराने कपड़ों से महिलाएं छोटे-बड़े अलग-अलग डिजाइन के थैले बनाती हैं। एक महिला दो बैग सिलती है।
भिलाई में भी मनीषा  सारंग ऐसे हजारों थैले  लोगों को बांट चुकी हैं इससे महिलओं को रोजगार व हाथ का काम भी मिल रहा है और पर्यावरण संरक्षण भी।

कूड़ा, निस्तारण और महिलाएं
देष में हर रोज 45 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है, इसमें से केवल 2500 लाख टन के निस्तारण की ही व्यवसथा है, यानि हर रोज दो हजार लाख टन कचरा हमारे आसपास जुड़ रहा है।  हमारे देष में औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा हर दिन निकलात है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्ठा होता है, जबकि 22 फीसदी कूड़ा-कबाड़ा,  घरेलू गंदगी होती है। कचरे का निबटान पूरे देष के लिए समस्या बनता जा रहा है। दिल्ली की नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक दूसरे राज्यों में कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाष रही है। जरा सोचें कि इतने कचरे को एकत्र करना, फिर उसे दूर तक ढो कर ले जाना कितना महंगा व जटिल काम है। यह सरकार भी मानती है कि देष के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिषत का ईमानदारी से निबटान हो पाता है। राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है।  कागज, प्लास्टिक, धातु  जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाईकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है।
असल में कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। यह भी सच है कि भारतीय समाज में घर की देखभाल का जिम्मा महिलाओं पर ही आता है। कचरे की दिक्कत से निबटने के दो हिस्से हैं- एक तो कचरा कम करना, दूसरा कचरे का मुकम्मल निस्तारण। गंभीरता से देखें तो यदि महिलओं को इसके लिए थोड़ा सा जागरूक और प्रषिक्षित कर दिया जाए तो गंदगी और उससे उपजे पर्यावरणीय संकट का पूरा तो नहीं लकिन बहुत कुछ हल निकाला जा सकता है। महज मुहल्ला स्तर पर महिलओं की षक्तिसंपन्न स्वच्छता समितियां गठित कर दी जाएं, जिनके प्रति स्थानीय निकाय का सफाई कर्मचारी सीधे जवाबदेह हो। महिलओं को गीले व सूखे कूड़े की जानकारी तथा उन्हें अलग-अलग करने के प्रति षिक्षित कर दिया जाए। घर में प्लास्टिक व ऐसे ही कचरे को कम से कम आने की सीख। कुछ ऐसे सूत्र हैं जिनसे  कूड़ा कम करने की दिषा में व्यापक परिणाम पाए जा सकते हैं।
बनारस को पूर्ण स्वच्छ बनाने के लिए कूड़े को अलग-अलग करने की दिषा में महिलओं को व्यापक प्रषिक्षण किया गया और वह सफल भी रहा। अब महिलाएं गीते कूड़े से घर में ही खाद बनाने जैसा कार्य भी कर रही हैं। सही स्थन पर कूड़ा फैंका जाए, गैरजरूरी सामन कूड़े के साथ ना जाए इस दिषा में भी महिलओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती हैं।
गर्म होती धरती कहीं नष्ट  ना हो जाए

एक तरफ परिवेश में कार्बन की मात्रा बढ़ रही है तो दूरी ओर ओजोन परत में हुए छेद में दिनों-दिन विस्तार हो रहा है। इससे उपजे पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव लगातार जलवायु परिवर्तन के रूप में तो सामने आ ही रहा है, जंगलों की कटाई व कुछ अन्य कारकांे के चलते दुनिया में तेजी से पांव फैला रहे रेगिस्तान का खतरा धरती पर जीवन की उपस्थिति को दिनों-दिन कमजोर करता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानि यूनेप की रपट कहती है कि दुनिया के कोई 100 देशों में उपजाउ या हरियाली वाली जमीन  रेत के ढेर से ढक रही है औा इसका असर एक अरब लेागों पर पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि यह खतरा पहले से रेगिस्तान वाले इलाकों से इतर है।
बेहद हौले से और ना तत्काल दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राजयों में जड़ जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से महज 24 फीसदी ही थार के इर्द गिर्द के हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर था जो कि आज दो लाख आठ हजार 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है। भारत की कुल 328.73 मिलियन जमीन में से 105.19 मिलियन जमीन पर बंजर ने अपना डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हैक्टर जमीन रेगिसतान में बदल रही है। यह हमारे लिए चिंता की बात है कि देश के एक-चौथाई हिस्से पर आने वाले सौ साल में मरूस्थल बनने का खतरा आसन्न है। हमारे यहां सबसे ज्यादा रेगितान राजस्थान में है, कोई 23 मिलियन हैक्टर। गुजरात, महाराष्ट्र, मप्र, और जम्मू-कश्मीर की 13 मिलियन भूमि पर रेगिस्तान है तो अब उड़ीसा व आंध््राप्रदेश में रेतीली जमीन का विस्तार देखा जा रहा है। अंधाधुंध सिंचाई व जम कर फसल लेने के दुष्परिणाम की बानगी पंजाब है, जहां दो लख हैक्टर जमीन देखते ही देखते बंजर हो गई। बंिटंडा, मानसा, मोगा, फिरोजपुर, मुक्तसर, फरीदकोट आदि में जमीन में रेडियो एक्टिव तत्व की मात्रा सीमा तोड़ चुकी है और यही रेगिस्तान की आमद का संकेत है।
रियो दे जेनेरियो में हुए धरती बचाओ सम्मेलन में भी इस बात पर सहमति बनी थी कि रेगिस्तान रोकने के लिए नई तकनीक के बनिस्पत पारंपरिक तरीके ज्यादा कारगर हैं, जिसमें जमीन की नमी बरकरार रखने , चारागाह व जंगल बचाने व उसके प्रबंधन के सामाजिक तरीकों, फसल में विविधता लाने जैसेी हमारी बिसराई गई अतीत की तकनीकें प्रमुख हैं।
परिवेष में कार्बन की मात्रा कम करने की दिषा में महिलाओं ने सरकार की पहल पर काम करना भी षुरू कर दिया है। उज्जवला योजना के तहत लगभग सात करोड़ लेाग जोड़े जा चुके हैं। जाहिर है कि इतने लकड़ी के चूल्हे जलने बंद हुए और उससे हर दिन वायुमंडल में जुड़ रही कार्बन की मात्रा कम हुई। यही नहीं इससे उतने ही पेड़ों का कटना बंद हुआ । कई जगह असुरक्षित इंधन जैसे प्लास्टिक आदि जलाई जा रही थी , उस पर भी रोक लगी। अब भोजन के तरीकों व विविधता के प्रबंधन की जिम्मेदारी तो हर घर में महिला की ही होती हैं। बस जरूरत है कि महिला को इस बारे में जानकारी दे दी जाए कि किस तरह खाने में मोटा अनाज ना केवल पाचन व पौश्टिकता के नजरिये से बल्कि जैव विविधता संरक्षण, जल की मांग कम करने में भी कारगर हैं।
       देश में पंचायती संस्थाओं में कम से कम 33 फीसदी महिला आरक्षण लागू हैं और लाखें महिलाएं गांव स्त्र पर व्यवस्था के संचालन के स्तर पर आई हैं। इसके बावजूद यह भी सच है कि ऐसी निर्वाचित महिलाओं की बड़ी संख्या ऐसी है जो केवल नाममात्र की प्रतिनिधि हैं व उनका सारा काम उनके मर्द करते हैं। लेकिन हर राज्य से सैंकड़ों नहीं हजारों ऐसे भी उदाहरण सामने आ रहे हैं जहां औरतों ने गांव की व्यवस्था संभाली तो साफ पानी, हरियाली जैसे मुद्दों पर ईमानदारी से काम होने लगा। महिला सशक्तिकरण  की राष्ट्रिय  नीति में भी 11वां बिंदु ‘‘महिलाएँं एवं पर्यावरण’’ है। महिला किसान सशक्तीकरण परियोजना (एमकेएसपी) की मुख्य विशेषताओं में स्थानीय रूप से अपनाई गई संसाधन संरक्षक, किसानों पर आधारित और पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकियों के उपयोग पर जोर दिया गया है।
      यह जान लें कि धरती को मां का दर्जा दिया गया हैं और उसके प्रति संवेदनषील, उसको सहेजने के लिए गंभीर और लगनषील दूसरी मां ही ज्यादा कारगर होगी।






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