बोलियों को बचाए बगैर नहीं संवरेगी हिंदी
पंकज चतुर्वेदी
सितम्बर का महीना विदा होते बादलों के
साथ-साथ विदा होने के भी से ग्रस्त हिंदी
की चिंता का होता हैं . हिंदी लोक भाषा है और उसे राज भाषा कैसे बनाया जाए ,
इस अंधी दौड़ में देश की बोलियाँ लुप्त हो
रही हैं और हिंदी में उनका समृद्ध शब्द – संस्कार संहित होने के बनिस्पत यूरोपीय भाषाओँ के शब्द
हिंदी में जगह बनाते जा रहे हैं . सन 1857 के आसपास हमारी जनगणना में महज एक
प्रतिशत लोग साक्षर पाए गए थे, लेकिन
इसका अर्थ यह नहीं कि उससे पहले भाषा, साहित्य,
ज्ञान-विज्ञान,
आयुर्वेद
ज्योतिष अंतरिक्ष का ज्ञान हमारे पास नहीं था। वह था- देश की बोलियों में,
संस्कृत
, उससे पहले प्राकृत या पालि में जिसे सीमित
लोग समझते थे, सीमित उसका इस्तेमाल करते थे ।
फिर अमीर खुसरो के समय आई हिंदी, हिंद
यानि भारत के गोबर पट्टी के संस्कृति, साहित्य
व ज्ञान की भाषा, उनकी बोलियों का एक
समुच्चय। इधर भक्ति काल का दौर था । । हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 ई. से 1700
ई. तक माना जाता है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी उसकी लोक
बोलियों में साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।
वास्तव में यह हिंदी साहित्य नहीं, बल्कि हिंदी या देश की अन्य लोक बोलियों की
रचना का काल था . अब सरकारी हिंदी सप्ताह या पखवाड़ा की चिंता है कि दफ्तरों में हिंदी कैसी हो ?
आज जिस हिंदी की स्थापना के लिए पूरे देश में
हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है उसकी सबसे बडी
दुविधा है मानक हिंदी यानि संस्कृतनिष्ठ हिंदी। सनद रहे संस्कृत की स्वभाव
शास्त्रीय है और दरबारी, जबकि
हिंदी का स्वभाव लोक है और विद्रोही । ऐसा नहीं कि आम लोगों की हिंदी में संस्कृत
से कोई परहेज है। उसमें संस्कृत से यथावत लिए गए तत्सम शब्द भी हैं तो संस्कृत से
परिशोधित हो कर आए तत्दव शब्द जैसे अग्नि से आग, उष्ट
से ऊंट आदि । इसमें देशज शब्द भी थे, यानि
बोलियों से आए स्थानीय शब्द और विदेशज भी जो अंग्रेजी, फारसी
व अन्य भाषाओं से आए। आज भी और कल भी जब-जब प्रतिरोध, असहमति की बात होगी लोक बोली
और उससे जुडी हिंदी ही काम आएगी . कई बार लगता है कि सरकारी हिंदी का प्रयास भी
वही हैं जो अंग्रेजी का था , आम लोग उसे
समझ-बूझ ही न सकें .
संचार माध्यमों की हिंदी आज कई भाषाओं से
प्रभावित है। विशुद्ध हिंदी बहुत ही कम माध्यमों में है। दृश्य और श्रव्य माध्यमों
में हिंदी की विकास-यात्रा बड़ी लंबी है। हिंदी के इस देश में जहां की जनता गांव
में बसती है, हिंदी ही अधिकांश लोग
बोलते-समझते हैं, इन माध्यमों में हिंदी
विकसित एवं प्रचारित हुई है। इसके लिए मानक हिंदी कुछ बनी हैं। ध्वनि-संरचना,
शब्द
संरचना में उपसर्ग-प्रत्यय, संधि,
समास,
पद
संरचना, वाक्य संरचना आदि में कुछ मानक
प्रयोग, कुछ पारंपरिक प्रयोग इन
दृश्य-श्रव्य माध्यमों में हुए है, किंतु
कुछ हिंदीतर शब्दों के मिलने से यहाँ विशुद्ध खड़ी बोली हिंदी नहीं है,
मिश्रित
शब्द, वाक्य प्रसारित,
प्रचारित
हो रहे हैं।
यह चिंता का विषय है कि समाचार पत्रों ने अपने
स्थानीय संस्करण निकालने तो शुरू किए लेकिन उनसे स्थानीय भाषा गायब हो गई। जैसे कुछ दशक पहले कानपुर के
अखबारों में गुम्मा व चुटैल जैसे शब्द होते थे, बिहार
में ट्रेन-बस से ले कर जहाज तक के प्रारंभ होने के समय को ‘‘खुलने’ का सम कहा जाता
था। महाराष्ट्र के अखबारों में जाहिरा, माहेती
जैसे शब्द होते थे। पंजाब -हरियाणा- हिमाचल के हिंदी मीडिया में स्थानीयता का पुट
पर्याप्त होता था. अब सभी जगह एक जैसे शब्द आ रहे हैं। लगता है कि हिंदी के भाषा-समृद्धि
के आगम में व्यवधान सा हो गया है। तिस पर
सरकारी महकमे हिंदी के मानक रूप को तैयार करने में संस्कृतनिष्ठ हिंदी ला रहे हैं।
असल में वे जो मानक हिंदी कहते हैं असल में वह सीसे के लेटर प्रेस की हिंदी थी
जिसमें कई मात्राओं, आधे शब्दों के फाँट
नहीं होते थे। आज कंप्यूटर की प्रकाशन-दुनिया में लेड-प्रेस के फाँट की बात करने
वाले असल में हिंदी को थाम रहे हैं।
हिंदी में बोली और भाषा का द्वन्द शिक्षा के प्रसार और स्कूल जाने वाले बच्चो की बढती संख्या और
रोजगार के लिए पलायन ने बढाया ही है . संप्रेषणीयता की दुनिया में बच्चे के साथ
दिक्कतों का दौर स्कूल में घुसते से ही से शुरू हुआ- घर पर वह सुनता है मालवी,
निमाडी,
आओ,
मिजो,
मिसिंग,
खासी,
गढवाली,राजस्थानी
, बुंदेली, या
भीली, गोंडी, धुरबी
या ऐसी ही ‘अपनी’ बोली-भाषा। स्कूल में गया तो किताबें खड़ी हिंदी या अंग्रेजी या
राज्य की भाषा में और उसे तभी से बता दिया गया कि यदि असल में पढ़ाई कर नौकरी पाना
है तो उसके लिए अंग्रेजी ही एकमात्र जरिया है - ‘आधी छोड़ पूरी को जाए,
आधी
मिले ना पूरी पाए’’। बच्चा इसी दुरूह स्थिति में बचपना बिता देता है कि उसके ‘पहले
अध्यापक’ मां-पिता को सही कहूं या स्कूल की पुस्तकों की भाषा को जो उसे ‘सभ्य‘
बनाने का वायदा करती है या फिर जिंदगी
काटने के लिए जरूरी अंग्रेजी को अपनाऊं। स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व
पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव
ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है , अपनी
बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना,
भाषा
के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है। भाषा का
सीधा संबंध जीवन से है और मात्रभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज
से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्यभ बालक को सोचने-विचारने की क्षमता
प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए
रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त
करने का मार्ग तलाशना होता है। सभी
जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौथाई होते ही नहीं है। असल
में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन
करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके
पास बेइंतिहां शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की
मानिंद अहसास करवाता है। इस टकराव के बीच हिंदी को ना अजाने कब अंग्रेजी श्रेष्ठता
के ग्रहण से ढँक लेती है . जाहिर है कि इस शिक्षा से पढ़े लोग जिस दफ्तर
में जायेंगे , वे भी राज भाषा और लोकभाषा की हिंदी में उलझे रहेंगे .
असल में कोई भी भाषा ‘बहता पानी निर्मला’ होती
है, उसमें समय के साथ शब्दों का आना-जाना,
लेन-देन,
नए
प्रयोग आदि लगे रहते है। यदि हिंदी को
वास्तव में एक जीवंत भाषा बना कर रखना है तो शब्दों का यह लेन-देन पहले अपनी
बोलियों व फिर भाषाओं से हो, वरना
हिंदी एक नारे, सम्मेलन,
बैनर,
उत्सव
की भाषा बनी रहेगी। जान लें कि हिंदी का आज का मानक रूप से बुंदेली,
ब्रज,
राजस्थानी
आदि बोलियों से ही उभरा है और इसकी श्री-वृद्धि के लिए इन बोलियों को ही हिंदी की
पालकी संभालनी होगी।
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