My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 13 मई 2024

Will the Muslim population really exceed that of Hindus in India ?

 

क्या सच में मुस्लिम आबादी हिन्दू से अधिक हो जाएगी ?

पंकज चतुर्वेदी



जब चुनाव के तीन चरण बीत गए तो दिल्ली के सेंट्रल विस्टा निर्माण का काम देखने वाले  रत्न वतल  जैसे नौकर शाहों  की जमात – प्रधान मंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने अचानक एक रिपोर्ट जारी कर दी और हल्ला हो गया  भारत में जल्द ही मुसलमान  बहुसंख्यक हो जाएंगे. आजाद भारत में यह पहली बार हो रहा है कि सन  2011 के बाद जनगणना ही नहीं हुई जो कि सन 2021 में हो जानी थी । जाहीर है कि किसी भी तरह का जनसांखिकीय  आकलन के लिए फिलहाल प्रामाणिक आधारभूत आँका  सन 2011 वाला ही है । 

2011 की जनगणना के मुताबिक देश की आबादी में  मुसलमानों का हिस्सा बढ. गया है। 2001 में कुल आबादी में मुसलमान 13.4 प्रतिशत थे, जो 2011 में बढ कर 14.2 प्रतिशत हो गए थे ।  उल्लेखनीय है कि इस अवधि में घुसपैठ से ग्रस्त असम में 2001 के 31 प्रतिशत मुसलमान की तुलना में 2011 में ये बढ कर 34 प्रतिशत के पार हो गए थे । ठीक यही हाल  पश्चिम बंगाल में 25.2 प्रतिशत से बढकर 27 का रहा । सन 1961 से 2011 तक की जनगणना के आँकड़े  बोलते हैं कि इन 50 वर्षों के दौरान भारत में हिंदुओं की आबादी कुछ कम हुई है, जबकि मुसलमानों की कुछ बढ़ी है। यह भी तथ्य है कि बीते दस सालों के दौरान मुस्लिम और हिंदू आबादी का प्रतिशत स्थिर है। अगर जनसंख्या वृद्धि की यही रफ्तार रही तो मुसलमानों की आबादी को हिंदुओं के बराबर होने में 3626 साल लग जाएंगे। वैसे भी समाजविज्ञानी यह बता चुके हैं कि सन् 2050 तक भारत की आबादी स्थिर हो जाएगी और उसमें मुसलमानों का प्रतिशत 13-14 से अधिक नहीं बनेगा। इन आंकड़ों में यह भी कहा गया है कि जहां हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट 3.16 प्रतिशत है तो मुसलमानें में इस दर की गिरावट 4.90 प्रतिशत है। साफ है कि मुसलमानें की आबादी बढ़ने से रही।

यदि जनसंख्या की बात करें तो केंद्र सरकार के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय  द्वारा आयोजित  राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण नेशनल हेल्थ सर्वे (एन एच एस आर )की रिपोर्ट के आंकड़ों को प्रामाणिक माना जा सकता है । यह रिपोर्ट कहती है कि  देश में 2019-21 के दौरान हिंदुओं में प्रजनन दर 1.94 व मुस्लिमों में 2.36 रह गई। यानी हर हिंदू महिला के औसतन 2 बच्चे व मुस्लिम महिलाओं के 2 से ज्यादा बच्चे हैं। 1992 में मुस्लिमों में प्रजनन दर 4.4 व हिंदुओं में 3.3 थी। वैसे देश की कूल मिला कर प्रजनन दर 2.3 हो गई है । अर्थात औसतन एक जोड़े के  2.3 बच्चे । यह आंकड़ा 1992-93 में 4.4 था । यह सच है कि अन्य संप्रदायों की तुलना में मुस्लिम प्रजनन दर अधिक है लेकिन यह साल दर साल घट भी रही है। समझना होगा कि  जनसंख्या का  बाकी संप्रदायों के मुकाबले मुस्लिमों में प्रजनन दर सबसे ज्यादा है लेकिन इसका असल कारण  शिक्षा और आर्थिक स्थिति है  और जैसे जैसे मुस्लिम महिलाओं की शैक्षिक स्थिति सुधार रही है , उनके यहाँ परिवार नियोजन भी बढ़ रहा है । यह आंकड़ा भी एन एच एस आर में ही दर्ज है । 2019-21 में अनपढ़ मुस्लिम महिलाएं घटकर 21.9% रह गईं, जो 2015-16 में 32% तक थीं। अनपढ़ महिलाओं में औसत प्रजनन दर 2.8 व 12वीं या ज्यादा पढ़ी महिलाओं में 1.8 होती है। गर्भनिरोधक साधन इस्तेमाल करने वाले मुस्लिम 2019-21 में 47.4% हो गए, जो 2015-16 में 37.9% थे।

विशेषज्ञों का कहना है कि हिंदुओं व मुस्लिमों के बीच प्रजनन दर का अंतर तेजी से कम हो रहा है। ज्यादा प्रजनन दर के पीछे गैर धार्मिक कारण अधिक जिम्मेदार हैं- जैसे, शिक्षा, रोजगार व कमाई का स्तर और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच। जिन राज्यों में शिक्षा, स्वास्थ्य और संपन्नता का स्तर बेहतर है, वहां स्थिति अच्छी है। जैसे- केरल में मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर 2.25 है, जबकि बिहार में यह 2.88 तक रिकॉर्ड हुई है।

 सन 2005 में किया गया एक शोध बानगी है कि ( आर. बी. भगत और पुरुजित प्रहराज) इस बवाल में कितनी हकीकत है और कितना फसाना। उस समय मुसलमानों में जनन दर (एक महिला अपने जीवनकाल में जितने बच्चे पैदा करती है) 3.6 और हिंदुओं में 2.8 बच्चा प्रति महिला थी। यानी औसतन एक मुस्लिम महिला एक हिंदू महिला के मुकाबले अधिक से अधिक एक बच्चे को और जन्म देती है। यानि दस बच्चों वाला  गणित कहीं भी तथ्य के सामने टिकता नहीं है।

        भारत सरकार की जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि 1971 से 81 के बीच हिंदुओं की जन्मदर में वृद्धि का प्रतिशत 0.45 था, लेकिन मुसलमानों की जन्मदर में 0.64 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। गत् 20 वर्षों के दौरान मुसलमानों में परिवार नियोजन के लिए नसबंदी का प्रचलन लगभग 11.5 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि हिंदुओं में यह 10 प्रतिशत के आसपास रहा है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि जनसंख्या वृद्धि की दर को सामाजिक-आर्थिक परिस्थितयां सीधे-सीधे प्रभावित करती हैं।

एक बात और गौर करने लायक है कि बांग्लादेश  की सीमा से लगे पश्चिम बंगाल के छह, बिहार के चार और असम के 10 जिलों की आबादी के आंकड़ों पर निगाह डालें तो पाएंगे कि गत 30 वर्षों में यहां मुसलमानों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ी र्-इतनी तेजी से कि वहां के बहुसंख्यक हिंदू, अब अल्पसंख्यक हो गए। असम और बंगाल के कुछ जिलों में तो मुस्लिम आबादी का उफान 100 फीसदी से अधिक हे। असल में ये अवैध विदेशी घुसपैठिये हैं। जाहिर है कि ये आबादी भी देश की जनगणना में जुड़ी है और यह बात सरकार में बैठे सभी लोग जानते हैं कि इस बढ़ोतरी का कारण गैरकानूनी रूप से हमारे यहां घुस आए बांग्लादेशी हैं। महज वोट की राजनीति और सस्ते श्रम (मजदूरी) के लिए इस घुसपैठ पर रोक नहीं लग पा रही है, और इस बढ़ती आबादी के लिए इस देश के मुसलमानों को कोसा जा रहा है। इस जंनसंख्या में भी स्पष्ट  है कि देश में मुस्लिम आबादी की बढ़ोतरी के सबसे ज्यदा जिम्म्ेदार राज्य बंगाल और असम हैं।

एक यह भी खूब हल्ला होता है कि मुसलमान परिवार नियोजन का विरोध करता है - ‘बच्चे तो अल्लाह की नियामत हैं। उन्हें पैदा होने से रोकना अल्लाह की हुक्म उदूली होता है। यह बात इस्लाम  कहता है और तभी मुसलमान खूब-खूब बच्चे पैदा करते हैं।’ इस तरह की धारणा या यकीन देश में बहुत से लोगों को है और वे तथ्यों के बनिस्पत भावनात्मक नारों पर ज्यादा यकीन करने लगते हैं। वैसे तो जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण साक्षी है कि मुसलमानों की आबादी में अप्रत्याशित वृद्धि या उनकी जन्म दर अधिक होने की बात तथ्यों से परे है। साथ ही मुसलमान केवल भारत में तो रहते नहीं है या भारत के मुसलमानों की ‘शरीयत’ या ‘हदीस’ अलग से नहीं है। इंडोनेशिया, इराक, टर्की, पूर्वी यूरोप आदि के मुसलमान नसबंदी और परिवार नियोजन के सभी तरीके अपनाते हैं। भारत में अगर कुछ लोग  इसके खिलाफ है तो इसका कारण धार्मिक नहीं बल्कि अज्ञानता और अशिक्षा है। गांवों में ऐसे हिंदुओं की बड़ी संख्या है जो परिवार नियोजन के पक्ष में नहीं हैं।

यदि धार्मिक आधार पर देखें तो  इस्लाम का परिवार नियोजन विरोधी होने की बात महज तथ्यों के साथ हेराफेरी है।  फातिमा इमाम गजाली की मशहूर पुस्तक ‘इहया अल उलूम’ में पैगंबर के उस कथन की व्याख्या की है, जिसमें वे छोटे परिवार का संदेश देते हैं। हजरत मुहम्मद की नसीहत है -‘छोटा परिवार सुगमता है। उसके बड़े हो जाने का नतीजा है -गरीबी।’ दसवीं सदी में रज़ी की किताब ‘हवी’ में गर्भ रोकने के 176 तरीकों का जिक्र है। ये सभी तरीके कोई जादू-टोना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक हैं। भारत में सूफियों के चारों इमाम -हनफी, शाफी, मालिकी और हमबाली समय-समय पर छोटे परिवार की हिमायत पर तकरीर करते रहे हैं।

वैसे तो आज मुसलमानों का बड़ा तबका इस हकीकत को समझने लगा है, लेकिन  दुनियाभर में ‘‘इस्लामिक आतंकवाद’’ के नाम पर खड़े किए गए हौवे ने अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना और उसके कारण संगठत होने को मजबूर किया है। इसका फायदा कट्टरपंथी जमातें उठा रही हैं और इस्लाम की गलत तरीके से व्याख्या कर सीमित परिवार की सामाजिक व धार्मिक व्याख्या के विपरीत तरीके से कर रही हैं। यह तय है कि सीमित परिवर, स्वस्थ्य परिवार और शिक्षित परिवार की नीति को अपनाए बगैर भारत में मुसलमानों की व्यापक हालत में सुधार होने से रहा। लेकिन यह भी तय है कि ना तो भारत में मुसलमान कभी बहुसंख्यक हो पाएगा और ना ही इस्लाम सीमित परिवार का विरोध करता है।

 

 चुनाव के चौथे चरण के आते ही मुद्देविहीन चुनाव अभियान को सांप्रदायिक तड़का देने के लिए प्रधान मंत्री  से जुड़े लोगों ने अप्रासंगिक रूप से अपना सर्वे जारी कर चुनाव को बहकाने का काम किया है ।

 

रविवार, 5 मई 2024

Why do border fishermen not become an election issue?

 

                        सीमावर्ती मछुआरे क्यों नहीं बनते  चुनावी मुद्दा ?

                                                  पंकज चतुर्वेदी



30  अप्रेल 2024  को पाकिस्तान के कराची की लांडी जेल में 18 से 26 माह तक बंद 36 मछुआरे एक नारकीय जीवन और जीवित रहने की आस खो देने के बाद भारत लौटने की आस निराशा में बदल गई । सूची जारी हुई , सामान बांधे गए और इधर भारत में भी परिवारों ने स्वागत की तैयारी कर ली थी । रिहा होने के कुछ घंटे पहले ही पाकिस्तान सरकार ने सुरक्षा का हवाला दे कर रिहाई को टाल  दिया । सीमा पार से जींद कोई नहीं लौट , हाँ एक लाश जरूर आई ।  चुनाव की गर्मी में शायद ही किसी का ध्यान गया हो कि महाराष्ट्र के पालघर  जिले के गोरतपाड़ा  निवासी विनोद  लक्ष्मण नामक मछुआरे की लाश भी वतन लौटी है ।  दुर्भाग्य से इनकी मौत 16 मार्च को हो गई थी और डेढ़ महीने से लाश मिट्टी के लिए तरस रही थी । यह समझना होगा मरने वाले विनोद जी हों या रिहा होने वाले और अब अनिश्चित काल तक फिर जेल मने रह गए 36  मछुआरे , ये बंदी नहीं, बल्कि तकदीर के मारे वे मछुआरे थे जो जल के अथाह सागर में कोई सीमा रेखा नहीं खिंचे होने के कारण सीमा पार कर गए थे और हर दिन अपनी जान की दुहाई मांग कर काट रहे थे।


भारत-पाकिस्तान की  समुद्री सीमा पर मछली पकड़ने वाले अधिकांश गुजरात के हैं।  गुजरात देश के मछली उत्पादन का पाँच फीसदी उपजाता  है ।  सरकारी आँकड़े कहते हैं कि राज्य मेंकोई 1058 गांवों में 36980 नावों पर स्वर हो कर कोई छह लाख मछुआरे समुद्र में मछलियों की जगह खुद के जाल में फँसने के भी में रहते हैं। जान लें इन नावों पर काम करने वाले आसपास के राज्यों से आते हैं और उनकी संख्या भी लाखों में होती है । भारत की संसद में 11 अगस्त 2023 को  विदेश राज्य मंत्री  ने बताया था कि पाकिस्तानी जेलों में भारत के 266 मछुआरे और 42  अन्य नागरिक बंद हैं। जबकि भारतीय जेल में पाकिस्तान के 343 आम लोग और 74 मछुआरे बंद हैं । एक तरफ मछुआरों को छोड़ने के प्रयास हैं तो दूसरी तरफ दोनों तरफ की समुद्री सीमओं के रखवाले चौकन्ने हैं कि मछली पकड़ने वाली कोई नाव उनके इलाके में ना आ जाए। जैसे ही कोई मछुआरा मछली की तरह दूसरे के जाल में फंसा, स्थानीय प्रशासन व पुलिस अपनी पीठ थपथपाने के लिए उसे जासूस  घोषित  कर ढेर सारे मुकदमें ठोक देती हैं और पेट पालने को समुद्र में उतरने की जान में जोखिम डालने वाला मछुआरा किसी अंजान जेल में नारकीय जिंदगी काटने लगता है। सनद रहे यह दिक्कत केवल पाकिस्तान की सीमा पर ही नहीं है, श्रीलंका के साथ भी मछुआरों की धरपकड़ ऐसे ही होती रहती है लेकिन पाकिस्तान से लौटना सबसे मुश्किल है ।

कसाब वाले मुंबई हमले व अन्य कुछ घटनाओं के बाद समुद्र के रास्तों पर संदेह होना लाजिमी है, लेकिन मछुआरों व घुसपैठियों में अंतर करना इतना भी कठिन नहीं है जितना जटिल एक दूसरे देश  के जेल में समय काटना है। एक तो पकड़े गए लोगों की आर्थिक हालत ऐसी नहीं होती कि वे पाकिस्तान  में कानूनी लड़ाई लड़ सकें । दूसरा पाकिस्तान के उच्चायोग के लिए मछुआरों के पकड़े जाने की घटना उनकी अधिक चिंता का विषय  नहीं होती।

भारत और पाकिस्तान में साझा अरब सागर के किनारे रहने वाले कोई 70 लाख परिवार सदियों से समुद्र  से निकलने वाली मछलियों से अपना पेट पालते आए हैं। जैसे कि मछली को पता नहीं कि वह किस मुल्क की सीमा में घुस रही है, वैसे ही भारत और पाकिस्तान की सरकारें भी तय नहीं कर पा रही हैं कि आखिर समुद्र की असीम जल पर कैसे सीमा खींची जाए।  कच्छ के रन के पास सर क्रीक  विवाद सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। असल में वहां पानी से हुए कटाव की जमीन को नापना लगभग असंभव है क्योंकि पानी से आए रोज जमीन कट रही है और वहां का भूगोल बदल रहा है।  दोनों  मुल्कों के बीच की कथित सीमा कोई 60 मील यानि लगभग 100 किलोमीटर में विस्तारित है। कई बार तूफान आ जाते हैं तो कई बार मछुआरों को अंदाज नहीं रहता कि वे किस दिशा  में जा रहे हैं, परिणामस्वरूप वे एक दूसरे के सीमाई बलों द्वारा पकड़े जाते हैं। कई बार तो इनकी मौत भी हो जाती है व घर तक उसकी खबर नहीं पहुंचती।

जब से शहरी बंदरगाहों पर जहाजों की आवाजाही बढ़ी है तब से गोदी के कई-कई किलोमीटर तक तेल रिसने ,शहरी सीवर डालने व अन्य किस्म के प्रदूषणों के कारण समुद्री  जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है। अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए बस्तियों, आबादियों और बंदरगाहों से काफी दूर निकलना पड़ता है। जैसे ही  खुले सागर  में आए तो वहां सीमाओं को तलाशना लगभग असंभव होता है और वहीं दोनों देशों  के बीच के कटु संबंध, श क और साजिशों  की संभावनाओं (जो कई  बार सच भी साबित होती है ) के शिकार  मछुआरे हो जाते हैं।  

जब उन्हें पकड़ा जाता है तो सबसे पहले सीमा की पहरेदारी करने वाला तटरक्षक बल अपने तरीके से पूछताछ व जामा तलाशी  करता है। चूंकि इस तरह पकड़ लिए  गए लोगों को वापिस भेजना सरल नहीं है, सो इन्हें स्थानीय पुलिस को सौंप दिया जाता है। इन गरीब मछुआरों के पास पैसा-कौडी तो होता नहीं, सो ये ‘‘गुड वर्क’’ के निवाले बन जाते हैं। घुसपैठिये, जासूस, खबरी जैसे मुकदमें उन पर होते हैं। वे दूसरे तरफ की बोली-भाषा  भी नहीं जानते, सो  अदालत में क्या हो रहा है, उससे बेखबर होते हैं।  कई बार इसी का फायदा उठा कर प्रोसिक्यूशन उनसे जज के सामने हां कहलवा देता है और वे अनजाने में ही देश द्रोह जैसे आरोप में दोषी  बन जाते हैं। कई-कई सालों बाद उनके खत  अपनों के पास पहुंचते हैं।  फिर लिखा-पढ़ी का दौर चलता है। सालों-दशकों बीत जाते हैं और जब दोनों देशो  की सरकारें एक-दूसरे के प्रति कुछ सदेच्छा दिखाना चाहती हैं तो कुछ मछुआरों को रिहा  कर दिया जाता है। कई बार तो इस जाल में नाबालिग बच्चे फंस जाते हैं और फिर उनके साथ जो होता है  उसके बाद वे मछली पकड़ने दरिया में उतरने से तौबा कर लेते हैं ।

 विचारणीय है कि आबादी के इतने बड़े हिस्से को प्रभावित करन एवले इस गंभीर मसले पर कोई भी राजनीतिक दल इस चुनाव में बात तक नहीं कर रहा है । समझा जा रहा है कि चुनावों पर पड़ने वाले प्रभावों के ही चलते 36 मछुआरों की वापीसी भी टाली  गई।  जबकि दोनों देशों  के बीच सर क्रीक वाला सीमा विवाद भले ही ना सुलझे, लेकिन मछुआरों को इस जिल्ल्त से छुटकारा दिलाना कठिन नहीं है। एमआरडीसी यानि मेरीटाईम रिस्क रिडक्शन  सेंटर की स्थापना कर इस प्रक्रिया को सरल किया जा सकता है। यदि दूसरे देश  का कोई व्यक्ति किसी आपत्तिजनक वस्तुओं जैसे- हथियार, संचार उपकरण या अन्य खुफिया यंत्रों के बगैर मिलता है तो उसे तत्काल रिहा किया जाए। पकड़े गए लोगों की सूचना 24 घंटे में ही दूसरे देश  को देना, दोनों तरफ माकूल कानूनी सहायत मुहैया करवा कर इस तनाव को दूर किया जा सकता है। वैसे संयुक्त राष्ट्र  के समुद्री  सीमाई विवाद के कानूनों यूएनसीएलओ में वे सभी प्रावधान मौजूद हैं जिनसे मछुआरों के जीवन को नारकीय होने से बचाया जा सकता है। जरूरत तो बस उनके दिल से पालन करने की है।

 

 

 

 

गुरुवार, 2 मई 2024

Negligence towards glaciers can prove costly for the earth.

 

ग्लेशियर (Glacier)के प्रति लापरवाही  महंगी पड़  सकती है धरती को

पंकज चतुर्वेदी



 बीते दिनों भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने सेटेलाइट इमेज जारी कर बताया कि किस तरह हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैंऔर इसके चलते कई ग्लेशियल झीलों का आकार दोगुने से बढ़ा है।  इस रिपोर्ट को पढ़ते ही याद आया कि इस तरह छह फरवरी 2021 की सुबह ग्लेशियर  का एक हिस्सा टूट कर तेजी से नीचे फिसल कर ऋषि गंगा नदी में गिर था।  विशाल हिम खंड के गिरने से नदी के जल-स्तर में अचानक  उछाल आया और रैणी गांव के पास चल रहे छोटे से बिजली संयत्र में देखते ही देखते तबाही थी । उसका असर वहीं पांच किलोमीटर दायरे में बहने वाली धौली गंगा पर पड़ा व वहां निर्माणाधीन एनटीपीसी का पूरा प्रोजैक्ट तबाह हो गया था ।  रास्ते के कई पूल टूट गए और कई गांवों का संपर्क समाप्त हो गया। उस  घटना ने यह स्पट कर दिया था कि हमें अभी अपने जल-प्राण कहलाने वाले ग्लेशियरों  के बारे में सतत अध्ययन और नियमित आकलन की बेहद जरूरत है।



हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर बर्फ के वे विशाल  पिंड जो कि कम से कम तीन फुट मोटे व दो किलोमीटर तक लंबे हों, हिमनद, हिमानी या ग्लेशियर  कहलाते हैं। ये अपने ही भार के कारण नीचे की ओर सरकते रहते हैं। जिस तरह नदी में पानी ढलान की ओर बहता है, वैसे ही हिमनद भी नीचे की ओर खिसकते हैं। इनकी  गति बेहद धीमी होती है, चौबीस घंटे में बमुश्किल  चार या पांच इंच। धरती पर जहां बर्फ पिघलने की तुलना में हिम-प्रपात ज्यादा होता है, वहीं ग्लेशियर  निर्मित होते हैं। सनद रहे कि हिमालय क्षेत्र में कोई 18065 ग्लेशियर  हैं और इनमें से कोई भी तीन किलोमीटर से कम का नहीं है। हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर  के बारे में यह भी गौर करने वाली बात है कि यहां साल में तीन सौ दिन , हर दिन कम से कम आठ घंटे  तेज धूप रहती है। जाहिर है कि थोड़ी-बहुत गर्मी में यह हिमनद पिघलने से रहे।


 

इसरो की ताजा रिपोर्ट  देश के लिए बेहद  भयावह है क्योंकि हमारे देश की जीवन रेखा कहलाने वाली गंगा- यमुना जैसी नदियां तो यहाँ से निकलती ही हैं, धरती के तापमान को नियंत्रित रखने और मानसून को पानीदार बनाने में भी  इन हिम-खंडों की  भूमिका होती है । इसरो द्वारा जारी सेटेलाइट इमेज में हिमाचल प्रदेश में 4068 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गेपांग घाट ग्लेशियल झील में 1989 से 2022 के बीच 36.49 हेक्टेयर से 101.30 हेक्टेयर का 178 प्रतिशत विस्तार दिखाया है। यानी हर साल झील के आकार में लगभग 1.96 हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। इसरो ने कहा कि हिमालय की 2431 झीलों में से 676 ग्लेशियल झीलों का 1984 से 2016-17 के बीच  10 हेक्टेयर से ज्यादा विस्तार हुआ है। इसरो ने कहा कि 676 झीलों में से 601 झीलें दोगुना से ज्यादा बढ़ी हैं, जबकि 10 झीलें डेढ़ से दोगुना और 65 झीलें डेढ़ गुना बड़ी हो गई हैं।


चिंता की बात यह है कि जिन 676 झीलों का विस्तार हुआ है उनमें से 130 भारत की सीमा में हैं । यह भी विचारणीय है कि  हिम खंड पिघल का बन रही 14 झीलें 4,000 से 5,000 मीटर की ऊंचाई पर हैं, जबकि 296 झीलें 5000 मीटर से भी अधिक ऊंचाई पर हैं। याद करें  कि उत्तर-पश्चिमी सिक्किम में 17,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित दक्षिण ल्होनक ग्लेशियर झील पिछले साल अक्तूबर में फट गई थी। इससे आई बाढ़ के कारण 40 लोगों की मौत हुई थी और 76 लोग लापता हो गए थे। हिमाचल भी कुछ साल पहले पराच्छू झील के फटने से ऐसे ही त्रासदी का सामना कर चुका है।


हिमालय को इतने विशाल  ग्लेशियरों और हिमाच्छादित उत्तुंग शिखाओं के कारण  तीसरे ध्रुव के रूप में जाना जाता है। यह क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है ।


 
कोई 200 साल के दौरान जैसे -जैसे दुनिया में कल-कारखाने लगे,ग्लेशियर के पिघलने की नैसर्गिक गति प्रभावित भी हुई 
जब गलेश्यिर अधिक तेजी से  पिघलते हैं तो ऊंचे पहाड़ों की घाटियों में कई नई झीलें बन जाती हैं, साथ ही  पहले से मौजूद झीलों का भी विस्तार होता है। ऐसी झीलों को हिमनद झील कहते हैं ।

ये झील नदियों के जल स्रोत होते हैं लेकिन इनका फट जाना अर्थात ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) एक बड़ी प्राकृतिक  आपदा भी होता है । जब बर्फ से बने बांध अर्थात मोराईन के कमजोर होने पर अक्सर ऐसे हादसे होते हैं ।

हिमालय भारतीय उपमहाद्धीप के जल का मुख्य आधार है और यदि नीति आयोग के विज्ञान व प्रोद्योगिकी विभाग द्वारा सं 2018 में  तैयार जल संरक्षण पर रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसदी जल धाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्रा कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और  शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों  पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण-विषेशज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं। यह सारी दुनिया की चिंता है कि यदि हिमालय के ग्लेशियर  ऐसे ही पिघले तो नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप जहां एक तरफ कई नगर-गांव जल मग्न हो जाएंगे, वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट  होने से भयानक सूखा, बाढ़ व गरमी पड़ेगी।  जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा।

हिमालय पर्वत के उत्तराखंड  वाले हिस्से में छोटे-बड़े कोई 1439 ग्लेशियर  हैं। राज्य के कुल क्षेत्रफल का बीस फीसदी इन बर्फ-शिलाओं से आच्छादित है। इन ग्लेशियर  से निकलने वाला जल पूरे देश  की खेती, पेय, उद्योग, बिजली, पर्यटन  आदि के लिए जीवनदायी व एकमात्र स्त्रोत है। जाहिर है कि ग्लेशियर  के साथ हुई कोई भी छेड़छाड़ पूरे देष के पर्यावरणीय, सामाजिक , आर्थिक और सामरिक संकट का कारक बन सकता है।

कोई एक दशक पहले जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय  पैनल(आईपीसीसी) ने दावा किया कि धरती के बढ़ते तापमान के चलते संभव है कि सन 2035 तक हिमालय के ग्लेशियरों  का नामोंनिशान मिट जाए। उदाहरण के तौर पर कश्मीर  के कौलहाई हिमनद के आंकड़े दे कर बताया गया कि वह एक साल में  20 मीटर सिकुड़ गया, जबकि एक अन्य छोटा ग्लेशियर  लुप्त हो गया।

जरा गंभीरत से विचार करें तो पाएंगे कि हिमालय पर्वतमाला के उन इलाकों में ही ग्लेशियर  ज्यादा प्रभावित हुए हैं जहां मानव-दखल ज्यादा हुआ है।  सनद रहे कि 1953 के बाद अभी तक एवरेस्ट की चोटी पर 3000 से अधिक पर्वतारोही झंडे गाड़ चुके हैं। अन्य उच्च पर्वतमालाओं पर पहुंचने वालों की संख्या भी हजारों में है। ये पर्वतारोही अपने पीछे कचरे का अकूत भंडार छोड़ कर आते हैं। इंसान की बेजा चहलकदमी से ही ग्लेशियर  सहम-सिमट रहे हैं । कहा जा सकता है कि यह ग्लोबल नहीं लोकल वार्मिग का नतीजा है। जब तब ग्लेशियर  के उपरी व निचले हिस्सों के तापमान में अत्यिक फर्क होगा, उसके बड़े हिस्से में टूटने, फिसलने की संभावना होती है। कई बार चलायमान दो बड़े हिम पिंड आपस में टकरा कर भी टूट जाते हैं।

हालांकि यह बात स्वीकार करना होगा कि ग्लेशियर  के करीब बन रही जल विद्युत परियोजना के लिए हो रहे धमाकों व तोड़ फोड़ से शांत - धीर गंभीर रहने वाले जीवित हिम- पर्वत नाखुश  हैं। हिमालय भू विज्ञान संस्थान का एक अध्ययन बताता है कि गंगा नदी का मुख्य स्त्रोत गंगोत्री हिंम खंड भी औसतन 10 मीटर के बनिस्पत 22 मीटर सालाना की गति से पीछे खिसका हैं। सूखती जल धाराओं के मूल में ग्लेशियर  क्षेत्र के नैसर्गिक स्वरूप में हो रही तोड़फोड है।

 

 

बुधवार, 1 मई 2024

If we had respected the ponds -

 

 

गाद तो हमारे ही माथे पर है

पंकज चतुर्वेदी


 

इस बार गर्मी जल्दी आई और साथ में  प्यास भी गहराई। केंद्र सरकार की की हजार करोड़ की “हर घर जल योजना” ने बढ़ते ताप के सामने दम तोड़ दिया , आखिर धरती का सीन चीर कर गहराई से पानी उलीचने से हर एक का कंठ टार होने से रहा । वैसे हकीकत  तो यह है कि अब देश के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन यहां जेठ ही रहता है। समझना होगा कि  एक अरब 44 करोड़ की विशाल आबादी को पानी देना महज सरकार के जिम्मे नहीं छोड़ आज सकता। इस गर्मी में  सूखती जल निधियों के प्रति यदि समाज आज सक्रिय हो जाए तो अगली गर्मी में उन्हें यह संकट नहीं झेलना होगा । एक बात समझ लें प्रकृति से जुड़ी जितनी भी समस्या हैं उनका निदान न वर्तमान के पास है न भविष्य के। इसके लिए हमें अतीत की ही शरण में जाना होगा । थोड़ी गाद हटानी होगी –कुछ सूख चुकीं हमारे  पुरखों द्वारा बनाई  जल निधियों से और कुछ अपनी  समझ से – देखें थोड़ी भी बरसात हुई तो  समाज पानीदार बन सकता है ।


यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्त्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्त्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है - तालाब, कुंए, बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी ओर काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। तभी बीते तीन दशक में  केंद्र और राज्य की अनैक योजनों के तहत तालाबों से गाद निकालने, उन्हें सहेजने  के नाम पर अफरत पैसा खर्च किया गया और नतीजा रहा ‘ढाक के तीन पात!’ ।

 

भारत के  हर हिस्से में वैदिक काल से लेकर ब्रितानी हुकूमत के पहले तक सभी कालखंडों में समाज द्वारा अपनी  देश-काल- परिस्थिति  के मुताबिक बनाई गई जल संरचनाओं और जल प्रणालियों के कई प्रमाण मिलते हैं, जिनमें तालाब हर एक जगह हैं। रेगिस्तान में तो उन तालाबों को सागर की उपमा दे दी गई तो कन्नड में कैरे और तमिल में ऐरी । यहाँ तक कि  ऋग्वेद में सिंचित खेती, कुओं और गहराई से पानी खींचने वाली प्रणालियों का उल्लेख मिलता है। हडप्पा एवं मोहनजोदडो (ईसा से 3000 से 1500 साल पूर्व) में जलापूर्ति और मल निकासी की बेहतरीन प्रणालियों के अवशेष मिले हैं।

ईसा से 321-297 साल पहले , कौटिल्य का  अर्थशास्त्र बानगी है जो बताता है कि तालाबों को  राज्य की जमीन पर बनाया जाता था। समाज ही तालाब गढ़ने का सामान जुटाता था । जो लोग इस काम में असहयोग करते या तालाब की पाल को नुकसान पहुँचाते , उन्हें राज्य -दंड मिलता । आधुनिक तंत्र की कोई भी जल संरचना 50 से 60 साल में  दम तोड़ रही हैं जबकि चन्देलकाल अर्थात 1200 साल से अधिक पुराने तालाब आज भी लोगों को जिंदगी का भरोसा दिए हुए हैं । जाहिर है कि हमारे पूर्वजों की समझ कितनी सूझबूझभरी एवं वैज्ञानिक थी। उन दिनों उन्नत जल-विज्ञान और कुशल जलविज्ञानी का पूरा समाज  था जो मिट्टी और जलवायु की बेहतरीन समझ  रखते थे ।

यदि आजादी के बाद विभिन्न सिंचाई योजनाओं पर खर्च बजट व उससे हुई सिंचाई और हजार साल पुराने तालाबों को क्षमता की तुलना करें तो आधुनिक इंजीनियरिंग पर लानत ही जाएगी । अंग्रेज शासक चकित थे, यहां के तालाबों की उत्तम व्यवस्था देख कर । उन दिनों कुंओं के अलावा सिर्फ तालाब ही पेयजल और सिंचाई के साधन हुआ करते थे । फिर आधुनिकता की आंधी में सरकार और समाज दोनों ने तालाबों को लगभग बिसरा दिया, जब आंख खुली तब बहुत देर हो चुकी थी।

अभी एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे । वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते - ऐवज में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता । इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेज ने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था, जो तालाब के जल का इस्तेमाल करता था। तालाब तो लोक की संस्कृति  सभ्यता का अभिन्न अंग हैं और इन्हें सरकारी बाबुओं के लाल बस्ते के बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता । असल में तालाब की सफाई का काम आज के अंग्रेजीदां इंजीनियरों के बस की बात नहीं है।

हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नही है ,ना ही इसके लिए भारीभरकम मशीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देशी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ जिले में ‘‘खेतों मे पालिश करने’’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है ।

 

गांव या शहर के रूतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं, पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है - न भरेगा पानी, ना रह जाएगा तालाब । गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में कालोनियां बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं । यह राजस्थान में उदयपुर से ले कर जेसलमेर तक, हैदराबाद में हुसैनसागर, हरियाणा में दिल्ली से सटे सुल्तानपुर लेक या फिर उ.प्र. के चरखारी व झांसी हो या फिर तमिलनाडु की पुलिकट झील ; सभी जगह एक ही कहानी है। हां, पात्र अलग-अलग हो सकते हैं। सभी जगह पारंपरिक जल-प्रबंधन के नष्ट  होने का खामियाजा भुगतने और अपने किये या फर अपनी निश्क्रियता पर पछतावा करने वाले लोग एकसमान ही हैं। समाज और सरकार पारंपरिक जल-स्त्रोतों कुओं, बावड़ियों और तालाबों में गाद होने की बात करता है, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदा नीरा रहने वाली बावड़ी -कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया।

 

एक तरफ प्यास से बेहाल हो कर अपने घर-गांव छोड़ते लोगों की हकीकत है तो दूसरी ओर पानी का अकूत भंडार ! यदि जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर इंर्च खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है । एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए । जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में ‘‘अपनी जड़ों को लौटने’’ की इच्छा शक्ति विकसित करनी होगी ।

दो साल पहले केंद्र सरकार ने  देश के सभी तालाबों का सर्वेक्षण करवा कर क्रांतिकारी काम किया । उसके बाद अमृत सरोवर  योजना के तहत भी देश के कुछ तालाबों की तकदीर बदली है । यह समझना होगा कि जब तक सहेजे गए तालाबों का इस्तेमाल  समाज की हर दिन की जल जरूरत के लिए नहीं होगा , जब तक समाज को इन तालाबों का जिम्मा नहीं सौंपा जाता , तालाब की संरड़ध विरासत को स्थापित नहीं किया जा सकता ।

 


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