My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 2 मई 2024

Negligence towards glaciers can prove costly for the earth.

 

ग्लेशियर (Glacier)के प्रति लापरवाही  महंगी पड़  सकती है धरती को

पंकज चतुर्वेदी



 बीते दिनों भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने सेटेलाइट इमेज जारी कर बताया कि किस तरह हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैंऔर इसके चलते कई ग्लेशियल झीलों का आकार दोगुने से बढ़ा है।  इस रिपोर्ट को पढ़ते ही याद आया कि इस तरह छह फरवरी 2021 की सुबह ग्लेशियर  का एक हिस्सा टूट कर तेजी से नीचे फिसल कर ऋषि गंगा नदी में गिर था।  विशाल हिम खंड के गिरने से नदी के जल-स्तर में अचानक  उछाल आया और रैणी गांव के पास चल रहे छोटे से बिजली संयत्र में देखते ही देखते तबाही थी । उसका असर वहीं पांच किलोमीटर दायरे में बहने वाली धौली गंगा पर पड़ा व वहां निर्माणाधीन एनटीपीसी का पूरा प्रोजैक्ट तबाह हो गया था ।  रास्ते के कई पूल टूट गए और कई गांवों का संपर्क समाप्त हो गया। उस  घटना ने यह स्पट कर दिया था कि हमें अभी अपने जल-प्राण कहलाने वाले ग्लेशियरों  के बारे में सतत अध्ययन और नियमित आकलन की बेहद जरूरत है।



हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर बर्फ के वे विशाल  पिंड जो कि कम से कम तीन फुट मोटे व दो किलोमीटर तक लंबे हों, हिमनद, हिमानी या ग्लेशियर  कहलाते हैं। ये अपने ही भार के कारण नीचे की ओर सरकते रहते हैं। जिस तरह नदी में पानी ढलान की ओर बहता है, वैसे ही हिमनद भी नीचे की ओर खिसकते हैं। इनकी  गति बेहद धीमी होती है, चौबीस घंटे में बमुश्किल  चार या पांच इंच। धरती पर जहां बर्फ पिघलने की तुलना में हिम-प्रपात ज्यादा होता है, वहीं ग्लेशियर  निर्मित होते हैं। सनद रहे कि हिमालय क्षेत्र में कोई 18065 ग्लेशियर  हैं और इनमें से कोई भी तीन किलोमीटर से कम का नहीं है। हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर  के बारे में यह भी गौर करने वाली बात है कि यहां साल में तीन सौ दिन , हर दिन कम से कम आठ घंटे  तेज धूप रहती है। जाहिर है कि थोड़ी-बहुत गर्मी में यह हिमनद पिघलने से रहे।


 

इसरो की ताजा रिपोर्ट  देश के लिए बेहद  भयावह है क्योंकि हमारे देश की जीवन रेखा कहलाने वाली गंगा- यमुना जैसी नदियां तो यहाँ से निकलती ही हैं, धरती के तापमान को नियंत्रित रखने और मानसून को पानीदार बनाने में भी  इन हिम-खंडों की  भूमिका होती है । इसरो द्वारा जारी सेटेलाइट इमेज में हिमाचल प्रदेश में 4068 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गेपांग घाट ग्लेशियल झील में 1989 से 2022 के बीच 36.49 हेक्टेयर से 101.30 हेक्टेयर का 178 प्रतिशत विस्तार दिखाया है। यानी हर साल झील के आकार में लगभग 1.96 हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। इसरो ने कहा कि हिमालय की 2431 झीलों में से 676 ग्लेशियल झीलों का 1984 से 2016-17 के बीच  10 हेक्टेयर से ज्यादा विस्तार हुआ है। इसरो ने कहा कि 676 झीलों में से 601 झीलें दोगुना से ज्यादा बढ़ी हैं, जबकि 10 झीलें डेढ़ से दोगुना और 65 झीलें डेढ़ गुना बड़ी हो गई हैं।


चिंता की बात यह है कि जिन 676 झीलों का विस्तार हुआ है उनमें से 130 भारत की सीमा में हैं । यह भी विचारणीय है कि  हिम खंड पिघल का बन रही 14 झीलें 4,000 से 5,000 मीटर की ऊंचाई पर हैं, जबकि 296 झीलें 5000 मीटर से भी अधिक ऊंचाई पर हैं। याद करें  कि उत्तर-पश्चिमी सिक्किम में 17,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित दक्षिण ल्होनक ग्लेशियर झील पिछले साल अक्तूबर में फट गई थी। इससे आई बाढ़ के कारण 40 लोगों की मौत हुई थी और 76 लोग लापता हो गए थे। हिमाचल भी कुछ साल पहले पराच्छू झील के फटने से ऐसे ही त्रासदी का सामना कर चुका है।


हिमालय को इतने विशाल  ग्लेशियरों और हिमाच्छादित उत्तुंग शिखाओं के कारण  तीसरे ध्रुव के रूप में जाना जाता है। यह क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है ।


 
कोई 200 साल के दौरान जैसे -जैसे दुनिया में कल-कारखाने लगे,ग्लेशियर के पिघलने की नैसर्गिक गति प्रभावित भी हुई 
जब गलेश्यिर अधिक तेजी से  पिघलते हैं तो ऊंचे पहाड़ों की घाटियों में कई नई झीलें बन जाती हैं, साथ ही  पहले से मौजूद झीलों का भी विस्तार होता है। ऐसी झीलों को हिमनद झील कहते हैं ।

ये झील नदियों के जल स्रोत होते हैं लेकिन इनका फट जाना अर्थात ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) एक बड़ी प्राकृतिक  आपदा भी होता है । जब बर्फ से बने बांध अर्थात मोराईन के कमजोर होने पर अक्सर ऐसे हादसे होते हैं ।

हिमालय भारतीय उपमहाद्धीप के जल का मुख्य आधार है और यदि नीति आयोग के विज्ञान व प्रोद्योगिकी विभाग द्वारा सं 2018 में  तैयार जल संरक्षण पर रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसदी जल धाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्रा कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और  शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों  पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण-विषेशज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं। यह सारी दुनिया की चिंता है कि यदि हिमालय के ग्लेशियर  ऐसे ही पिघले तो नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप जहां एक तरफ कई नगर-गांव जल मग्न हो जाएंगे, वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट  होने से भयानक सूखा, बाढ़ व गरमी पड़ेगी।  जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा।

हिमालय पर्वत के उत्तराखंड  वाले हिस्से में छोटे-बड़े कोई 1439 ग्लेशियर  हैं। राज्य के कुल क्षेत्रफल का बीस फीसदी इन बर्फ-शिलाओं से आच्छादित है। इन ग्लेशियर  से निकलने वाला जल पूरे देश  की खेती, पेय, उद्योग, बिजली, पर्यटन  आदि के लिए जीवनदायी व एकमात्र स्त्रोत है। जाहिर है कि ग्लेशियर  के साथ हुई कोई भी छेड़छाड़ पूरे देष के पर्यावरणीय, सामाजिक , आर्थिक और सामरिक संकट का कारक बन सकता है।

कोई एक दशक पहले जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय  पैनल(आईपीसीसी) ने दावा किया कि धरती के बढ़ते तापमान के चलते संभव है कि सन 2035 तक हिमालय के ग्लेशियरों  का नामोंनिशान मिट जाए। उदाहरण के तौर पर कश्मीर  के कौलहाई हिमनद के आंकड़े दे कर बताया गया कि वह एक साल में  20 मीटर सिकुड़ गया, जबकि एक अन्य छोटा ग्लेशियर  लुप्त हो गया।

जरा गंभीरत से विचार करें तो पाएंगे कि हिमालय पर्वतमाला के उन इलाकों में ही ग्लेशियर  ज्यादा प्रभावित हुए हैं जहां मानव-दखल ज्यादा हुआ है।  सनद रहे कि 1953 के बाद अभी तक एवरेस्ट की चोटी पर 3000 से अधिक पर्वतारोही झंडे गाड़ चुके हैं। अन्य उच्च पर्वतमालाओं पर पहुंचने वालों की संख्या भी हजारों में है। ये पर्वतारोही अपने पीछे कचरे का अकूत भंडार छोड़ कर आते हैं। इंसान की बेजा चहलकदमी से ही ग्लेशियर  सहम-सिमट रहे हैं । कहा जा सकता है कि यह ग्लोबल नहीं लोकल वार्मिग का नतीजा है। जब तब ग्लेशियर  के उपरी व निचले हिस्सों के तापमान में अत्यिक फर्क होगा, उसके बड़े हिस्से में टूटने, फिसलने की संभावना होती है। कई बार चलायमान दो बड़े हिम पिंड आपस में टकरा कर भी टूट जाते हैं।

हालांकि यह बात स्वीकार करना होगा कि ग्लेशियर  के करीब बन रही जल विद्युत परियोजना के लिए हो रहे धमाकों व तोड़ फोड़ से शांत - धीर गंभीर रहने वाले जीवित हिम- पर्वत नाखुश  हैं। हिमालय भू विज्ञान संस्थान का एक अध्ययन बताता है कि गंगा नदी का मुख्य स्त्रोत गंगोत्री हिंम खंड भी औसतन 10 मीटर के बनिस्पत 22 मीटर सालाना की गति से पीछे खिसका हैं। सूखती जल धाराओं के मूल में ग्लेशियर  क्षेत्र के नैसर्गिक स्वरूप में हो रही तोड़फोड है।

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Why do paramilitary forces commit suicide in Bastar?

  आखिर बस्तर में क्यों खुदकुशी करते हैं अर्ध सैनिक बल पंकज चतुर्वेदी गत् 26 अक्टूबर 24 को बस्तर के बीजापुर जिले के पातरपारा , भैरमगढ़ में...