My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

Understand Manson for better water conservation

मानसून को समझे बगैर नहीं बुझगी प्यास
पंकज चतुर्वेदी 

विनाश  कर दिया, नष्ट  कर दिया, उजाड़ दिया, बर्बाद कर दिया-- बीते दो महीने से भारते के प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर उस बात के लिए ये नफरतें घंटों- पन्नों में उकेरी जा रही हैं जिसके संरक्षण के लिए सरकार-समाज चिंतित है और उसके सहेजने के लिए पूरी ताकत लगाई जा रही है। असल में पानी को ले कर हमारी सोच प्रारंभ से ही त्रुटिपूर्ण है- हमें पढ़ा दिया गया कि नदी, नहर, तालाब झील आदि पानी के स्त्रोत हैं, हकीकत में हमारे देश  में पानी का स्त्रोत केवल मानूसन ही हैं, नदी-दरिया आदि तो उसको सहेजने का स्थान मात्र हैं। मानसून को हम कदर नहीं करते और उसकी नियामत को सहेजने के स्थान हमने खुद उजाड़ दिए।  गंगा-यमुना के उद्गम स्थल से छोटी नदियों के गांव-कस्बे तक बस यही हल्ला है कि बरसात ने खेत-गांव सबकुछ उजाड़ दिया। यह भी सच है कि अभी मानसून विदा होते ही उन सभी इलाकों में पानी की एक-एक बूंद के लिए मारा-मारी होगी और लोग पीने के एक गिलास पानी में आधा भर कर जल-संरक्षण के प्रवचन देते और जल जीवन का आधार जैसे नारे दीवारों पर पोतते दिखेंगे।

मानसून शब्द  असल में अरबी शब्द ‘मौसिम’ से आया है, जिसका अर्थ होता है मौसम। अरब सागर में बहने वाली मौसमी हवाओं के लिए अरबी मल्लाह इस श ब्द का इस्तेमाल करते थे। हकीकत तो यह है कि भारत में केवल तीन ही किस्म की जलवायु है - मानसून, मानून-पूर्व और मानसून-पष्चात। तभी भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है । जान लें मानसून का पता सबसे पहले पहली सदी ईस्वी में हिप्पोलस ने लगाया था और तभी से इसके मिजाज को भांपने की वैज्ञज्ञनकि व लोक प्रयास जारी हैं।
यह हम सभी जानते हैं कि भारत के लेाक-जीवन, अर्थ व्यवस्था, पव-त्योहार का मूल आधार बरसात या मानसून का मिजाज ही है। कमजोर मानसून पूरे देश  को सूना कर देता है। कहना अतिशियोक्ति  नहीं होगा कि मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी है। जो महानगर- श हर पूरे साल वायु प्रदुषण  के कारण हल्कान रहते हैं, इसी मौसम में वहां के लोगों को सांस लेने को साफ हवा मिलती है।  खेती-हरियाली और साल भर के जल की जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर है। इसके बावजूद जब प्रकृति अपना आशीष  इन बूंदों के रूप में देती है तो समाज व सरकार इसे बड़े खलनायक के रूप में पेष करने लगते हैं। इसका असल कारण यह है कि हमारे देश  में मानसून को सम्मान करने की परंपरा समाप्त होती जा रही है - कारण भी है , तेजी से हो रहा शहरों की ओर पलायन व गांवों का श हरीकरण।
भारतीय मानसून का संबंध मुख्यतया  गरमी के दिनों  में होने वाली वायुमंडलीय परिसंचरण में परिवर्तन से है। गरमी की षुरूआत होने से सूर्य उत्तरायण हो जाता है। सूर्य के उत्तरायण के साथ -साथ अंतःउष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र का भी उत्तरायण होना प्रारंभ हो जाता है इसके प्रभाव से पश्चिमी जेट स्ट्रीम हिमालय के उत्तर में प्रवाहित होने लगती है। इस तरह तापमान बढने से निम्न वायुदाब निर्मित होता है। दक्षिण में हिंद महासागर में मेडागास्कर द्वीप के समीप उच्च वायुदाब का विकास होता है इसी उच्च वायुदाब के केंद्र से दक्षिण पश्चिम मानसून की उत्पत्ति होती है । जान लें तामान बढ़ने के कारण एशिया पर न्यून वायुदाब बन जाता है। इसके विपरीत दक्षिणी गोलार्द्ध में शीतकाल के कारण दक्षिण हिंद महासागर तथा उत्तर-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पास उच्च दाब विकसित हो जाता है। परिणामस्वरूप उच्च दाब वाले क्षेत्रों से अर्थात् महासागरीय भागों से निम्न दाब वाले स्थलीय भागों की ओर हवाएँ चलने लगती हैं। सागरों के ऊपर से आने के कारण नमी से लदी ये हवाएँ पर्याप्त वृष्टि प्रदान करती हैं। जब निम्न दाब का क्षेत्र अधिक सक्रिय हो जाता है तो दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवा भी भूमध्य रेखा को पार करके मानसूनी हवाओं से मिल जाती है। इसे दक्षिण-पश्चिमी मानसून अथवा भारतीय मानसून भी कहा जाता है। इस प्रकार एशिया में मानसून की दो शाखाएँ हो जाती हैं-भारत में भी दक्षिण-पश्चिम मानसून की दो शाखाएँ हो जाती हैं-बंगाल की खाड़ी और अरब सागर की शाखा। लवायु परिवर्तन का गहरा असर भारत में अब दिखने लगा है, इसके साथ ही ठंड के दिनों में अलनीनो और दीगर मौसम में ला नीना का असर हमारे मानसून-तंत्र को प्रभावित कर रहा है।
विडंबना यह है कि हम अपनी जरूरतों के कुछ लीटर पानी को घटाने को तो राजी हैं लेकिन मानसून से मिले जल को संरक्षित करने के मार्ग में खुद ही रोड़ अटकाते हैं। जबकि मानूसन को सहेजने वाली नदियों में पानी सुरक्षित रखने के बनिस्पत रेत निकालने पर ज्यादा ध्यान देते हैं।हम यह भूल जाते हैं कि नदी की अपनी याददाष्त होती है, वह दो सौ साल तक अपने इलाके को भूलती नहीं। गौर से देखें तो आज जिन इलाकों में नदी से तबाही पर विलप हो रहा है, वे सभी किसी नदी के बीते दो सदी के रास्ते में यह सोच कर बसा लिए गए कि अब तो नदी दूसरे रास्ते बह रही है, खाली जगह पर बस्ती बसा ली जाए। दूर क्यों जाएं, दिल्ली में ही अक्षरधम मंदिर से ले कर खेलगांव तक को लें, अदालती दस्तावेजों में खुड़पेंच कर यमुना के जल ग्रहण क्षेत्र में बसा ली गईं। दिल्ली के पुराने खादर बीते पांच दषक में ओखला-जामिया नगर से ले कर गीता कालोनी, बुराड़ी जैसी घनी कालेानियों में बस गए और अब सरकार यमुना का पानी अपने घर में रोकने के लिए खादर बनाने की बात कर रही है।
बिहार राज्य में ही उन्नीसवीं सदी तक हिमालय से चल कर कोई छह हजार नदियां यहां तक आती थीं जो संख्या आज घट कर बामुश्किल 600 रह गई है।  मधुबनी-सुपौल में बहने वाली नदी तिलयुगाअ भी कुछ दशक पहले तक कोसी से भी बड़ी कहलाती थी, आज यह कोसी की सहायक नदी बन गई है। मध्यप्रदेश में नर्मदा, बेतबा, काली सिंध आदि में लगातार पानी की गहराई घट रही है। दुखद है कि जब खेती, उद्योग और पेयजल की बढ़ती मांग के कारण जल संकट भयावह हो रहा है वहीं जल को सहेज कर शुद्ध रखने वाली नदियां उथली, गंदी और जल-हीन हो रही हैं।
तनिक ध्यान दें देष में जहां-जहां नदियों की अविरल धारा को बांध बना कर रोका गया, वहां इस साल के अच्छी बरसात ने जल-मग्न कर दिया । सनद रहे इस साल अभी तक बाढ़ की चपेट मे आ कर 1422 लोग जान गंवा चुके हैं और इनमें सबसे ज्यादा महाराष्ट्र 317 में हैं। मध्य प्रदेश में मौत का आंकड़ा 200 पर है।  ये मौतें असल में पानी के बस्ती में घुसने या तेज धार में फंसने के कारण हुई हैं। अभी तक  बाढ़ के कारण संपत्ति के नुकसान का सटीक आंकड़ा नहीं आया है लेकिन सार्वजनिक संपत्ति जैसे सउ़क आदि,खेतों में खड़ी फसल, मवेशी, मकान आदि की तबाही करोड़ो में ही है। जिस सरदार सरोवर को देश के विकास का प्रतिमान कहा जा रही है, उसे अपनी पूरी क्षमता से भरने की जिद में उसके दरवाजे खाले नहीं गए और मध्यप्रदेश के बड़वानी और धार जिले के कोई 45 गांव पूरी तरह नष्ट हो गए। निसरपुर, राजघाट, चिखल्दा आदि तो बड़े कस्बे हैं और उनमें कई दिनों से आठ से दस फुट पानी भरा है।
राजस्थान के 810 बांधों में से 388 लबालब हो गए और जैसे ही उनके दरवाजे खोले गए तो नगर-कस्बे जलमग्न थे। राज्य के 5 बड़े बांध कोटा बैराज, राणाप्रताप सागर, जवाहर सागर और माही बजाज के सभी गेट खोलने पड़े हैं। बीसलपुर बांध के भी 18 में से पहली बार 17 गेट खोले गए। कोटा, बारां, बूंदी, चित्तौड़गढ, झालावाड़ में बाढ़ के हालात बने हुए हैं। बारां, झालावाड़ में कई दिन स्कूल बंद रहे। कोटा में पानी चंबल नदी से करीब 100 फीट ऊपर बने मकानों तक पहुंच गया। हर जगह पानी के प्रकोप का कारण बांध थे। मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी का जल स्तर बढ़ते ही होशंगाबाद के तवा बांध सभी 13 गेटों को 14-14 फुट खोल दिया गया और इसी के साथ कोई साढ़े तीन सौ किलोमीटर इलाके के खेत-बस्ती, सड़क सबकुछ पानी में डूब गए। मालवा अंचल के नीमच, मंदसौर में कई कस्बों की जल-समाधि का कारण गांधी सागर बांध के सभी दरवाजों को खोलने से उपजी लाखों क्यूसिक जल की बेकाबू गति था। इस बांध का जल-स्तर 1312 फुट को पार कर गया था गांधीसागर डेम का लेवल 1312 फीट तक पहुंच गया था और इसके सभी 19 दरवाजे खोलने से  4.76 लाख क्यूसेक पानी निकला। मप्र के ही जबलपुर के बरगी बांध का जलस्तर 422.90 मीटर पहुंच गया इसके सभी 21 गेटों से . एक बार में 7498 क्यूसेक पानी छोड़ा गया और कोई सात जिलों मे बाढ़ आ गई। मध्यप्रदेश के तो 35 जिलों में छोटे-बड़े बांधों के दरवाजे खुलने से तबाही हुई। आजाद भारत के पहले बड़े बांध ,बिलासपुर जिले में स्थित भाखड़ा बांध के फ्लड गेट खोल कर जैसे ही करीब 63 हजार क्यूसेक पानी छोड़ा गया पंजाब व हिमाचल के कई इलाकों में बाढ़ आ गई। खासतौर पर सतलुज के किनारे बसे इलाकांमें ज्यादा पानी भरा। दक्षिणी राज्यों, खासतौर पर केरल में  लगातार दूसरे साल बाढ़ के हालात के लिए पर्यावरणीय कारकों के अलावा बेतहाशा बांधों की भूमिका अब सामने आ रही है। उ.प्र में गंगा व यमुना को जहां भी बांधने के प्रयास हुए, वहां इस बार जल-तबाही हे। दिल्ली में इस बार पानी बरसा नहीं लेकिन हथिनि कुड बेराज में पानी की आवक बढ़ते ही दरवाजे खाले जाते हैं व दिल्ली में हजारों लोगों को विस्थापित करना पड़ता है।  हमारी नदियां उथली हैं और उनको अतिक्रमण केा कारण संकरा किया गया। नदियों का अतिरिक्त पानी  सहेजने वाले तालाब-बावली-कुएं नदारद हैं।  फिर पानी सहेजने व उसके बहुउद्देषीय इस्तेमाल के लिए बनाए गए बांध, अरबों की लगात,  दषकों के समय, विस्थापन  के बाद भी थोडाी सी बरसात को समेट नहीं पा रहे हैं।
असल में हम अपने मानसून के मिजाज, बदलते मौसम में बदलती बरसात, बरसात के जल को सहेज कर रखने के प्राकृतिक खजानों की रक्षा के प्रति ना तो गंभीर हैं और ना ही कुछ नया सीखना चाहते हैं।  पूरा जल तंत्र महज भूजल पर टिका है जबकि यह सर्वविविदत तथ्य है कि भूजल पेयजल का सुरक्षित साधन नहीं है।  हर घर तक नल से जल पहुंचाने की योजना का सफल क्रियान्वयन केवल मानूसन को सम्मान देने से ही संभव होगा। मानसून अब केवल भूगोल या मौसम विज्ञान नहीं हैं- इससे इंजीनियरिंग, सेनिटेषन, कृशि, सहित बहुत कुछ जुड़ा है। मानसून-प्रबंधन का गहन अध्ययन हमारे स्कूलों से ले कर  इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में हो , जिसके तहत केवल मानसून से पानी ही नहीं, उससे जुड़ी फसलों, सड़कों, षहरों में बरसाती पानी के निकासी के माकूल प्रबंधों व संरक्षण जैसे अध्याय हों।

बुधवार, 25 सितंबर 2019

Ramlila the cultural identity of India

भारतीय अस्मिता की पहचान है रामलीला


देश की राजधानी दिल्ली में नवरात्र के दौरान लगभग एक हजार स्थानों पर रामलीला आयोजित की जाती है। हालांकि रामलीला का मंचन सदियों पहले से होता आ रहा है, लेकिन डिजिटल दौर में इसका प्राचीन स्वरूप कहीं-न-कहीं प्रभावित हो रहा है। यदि हम बात करें पुराने रामलीला आयोजनों की तो दिल्ली के अलावा भी देश के अनेक हिस्सों में ऐसे स्थान हैं जहां की रामलीला मशहूर है।
बनारस के रामनगर की रामलीला को अपने तरह का विलक्षण नाट्य मंचन कहा जाता है। रामनगर में वर्ष 1783 में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने की थी। यहां पर बनाए गए स्टेज देखने योग्य होते हैं। रामनगर की रामलीला की खास बात यह है कि इसके प्रधान पात्र एक ही परिवार के होते हैं। उनके परिवार के सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी रामलीला में अपनी भूमिका अदा करते आ रहे हैं। यहां आज भी न तो चमचमाती रोशनी वाले लट्टू होते हैं, और न ही ध्वनिविस्तारक यंत्र, कोई सजा-धजा मंच या चमक-दमक वाली ड्रेस भी नहीं होती। खुला मंच और दूर-दूर तक फैले एक दर्जन कच्चे-पक्के मंच व झोपड़े। इनमें से कोई अयोध्या तो कोई लंका तो कोई अशोक वाटिका हो जाता है। परंपरानुसार काशी नरेश हाथी पर आते हैं और उसी के बाद रामलीला प्रारंभ होती है। इस मंचन का आधार रामचरितमानस है, सो दर्शक भी अपने साथ पाटी पर रख कर रामचरितमानस लाते हैं व साथ-साथ पाठ करते हैं।
प्रयागराज यानी इलाहाबाद में तो कई रामलीलाएं एक साथ होती हैं, और सभी का अपना इतिहास है। लेकिन वहां की रामलीला मंचन पर टीवी की रामलीलाओं का प्रभाव सर्वाधिक हुआ और अब चुटिले संवाद, चमकीले सेट और चटकीले वस्त्र आदि का दिखावा यहां बढ़ गया है। यहां सौ से अधिक स्थानों पर रामलीला होती है। कहीं रावण इलेक्ट्रॉनिक चेहरे से आवाज निकालता, आंखे दिखाता है तो कहीं हनुमान को लिफ्ट से ऊपर उठा कर हवा में उड़ाया जाता है। करोड़ों का बजट, फिर भी भीड़ जुटाने को नर्तकियों का सहारा लिया जाता है। यहां रामलीला शुरू होने से एक दिन पहले कर्ण-अश्व की आकर्षक शोभायात्र निकाली जाती है।
सरकारी रिकार्ड के मुताबिक 19वीं सदी की शुरुआत में प्रयागराज में चार स्थानों पर रामलीला का मंचन होता था। एक अंग्रेज अधिकारी फैनी पार्क्‍स ने अपने संस्मरण में वर्ष 1829 में फौजियों द्वारा चेथम लाइन्स में संचालित व अभिनीत रामलीला का उल्लेख किया है। मुगल बादशाह अकबर ने भगवत गोसाईं को कमोरिन नाथ महादेव के पास की भूमि रामलीला के लिए दान में दी थी जिस पर वर्षो रामलीला होती रही थी। पथरचट्टी यानी बेनीराम की रामलीला की शुरुआत वर्ष 1799 में कही जाती है जिसे अंग्रेज शासक खुल कर मदद करते थे। श्रीराम की जन्म स्थली अयोध्या की रामलीला बेहद विशिष्ट है जिसमें कत्थक नृत्य में पारंगत कलाकार एकल व सामूहिक नृत्य और पारंपरिक ताल, धुान, टप्पों के आधार पर संपूर्ण रामलीला को एक विशाल मंच पर प्रस्तुत करते हैं।
तुलसीदास से जुड़े स्थल चित्रकूट में रामलीला का मंचन फरवरी के अंतिम सप्ताह में सिर्फ पांच दिनों के लिए ही होता है। यहां गीत-संगीत-अभिनय को और सशक्त बनाने के लिए समय के साथ आए तकनीकी उपकरणों का खुल कर इस्तेमाल होता है।
जब देश-दुनिया की रामलीलाओं का विमर्श हो तो गढ़वाल व कुमाऊं की रामभक्ति के रंग को याद करना अनिवार्य है। अभी कुछ दशक पहले तक वहां सड़कें थी नहीं, बिजली व संचार के साधन भी नहीं, ऐसे में लोगों के आपस में मेल-जोल, मनोरंजन और अपनी कला-प्रतिभा के प्रदर्शन का सबसे प्रामाणिक मंच रामलीलाएं ही थी। यहां की रामलीला की खासियत है, संवादों में छंद और रागनियों का प्रयोग। इनमें चौपाई, दोहा, गजल, लावणी, सोरठा जैसी विधाओं के वैविध्य का प्रयोग होता है। कुमाऊं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर में हुई जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर और पिथौरागढ़ में क्रमश: वर्ष 1880, 1890 और 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारंभ हुआ। मध्य प्रदेश में होशंगाबाद, जबलपुर, इंदौर और छतरपुर में रामलीलाओं का इतिहास एक सदी पुराना है। इन सभी में स्थानीय बोलियों- बुंदेली, मालवी आदि का पुट स्पष्ट दिखता है।
एशिया के कई अन्य देशों- मलेशिया, इंडोनेशिया, नेपाल, थाईलैंड आदि में उनकी अपनी परंपराओं के अनुसार सदियों से रामलीला मंचन होता रहा है। फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और अब अमेरिका में भी रामलीला का मंचन होता है। इंडोनेशिया और मलेशिया में मुखौटा रामलीला का प्रचलन है। दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। जावा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने एक बार नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया। म्यांमार के राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदर्शन होने का उल्लेख मिलता है। कंबोडिया में रामलीला का अभिनय ‘ल्खोनखोल’ के माध्यम के होता है। ‘ल्खोन’ का इंडोनेशियाई भाषा में नाटक और कंबोडिया की भाषा में ‘ खोल’ का अर्थ बंदर होता है। कंबोडिया के राजभवन में रामायण के प्रमुख प्रसंगों का अभिनय होता था।
शेडो ड्रामा के जरिये मलेशिया के वेयांग का विशिष्ट स्थान है। वेयांग का अर्थ छाया है। इसके अंतर्गत सफेद पर्दे पर रोशनी डाली जाती है और बीच में चमड़े की विशाल पुतलियों को कौशलता के साथ नचाते हुए उसकी छाया से राम कथा को देखा जाता है।
भारत में रामकथा के रूप में रामलीला का मंचन सदियों से होता आ रहा है। भारतीय अस्मिता की एक बड़ी पहचान के रूप में इसकी महत्ता आज भी कायम है। एशिया के कई अन्य देशों में भी प्रत्येक वर्ष रामलीला का मंचन होता है
पंकज चतुर्वेदी

सोमवार, 23 सितंबर 2019

lachen an example for no plastic


सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध, रास्ता दिखाता लाचेन


लाचेन से क्यों ना सीखें ‘ष्ूान्य-प्लास्टिक’ व्यवस्था
पंकज चतुर्वेदी 
एक छोटा सा गांव, जिसकी पूरी आजीविका, समृद्धि और अर्थ व्यवस्था, पर्यटन के जरिये चलती हो, वहां के लेागों ने यह मान लिया कि यदि प्रकृति है तो उनका जीवन है और उसके लिए जरूरी है कि वैष्विक रूप से हो रहे मौसमी बदलाव के अनुसार अपनी जीन षैली में सुधार लाएं। ना तो कोई सरकारी आदेष और ना ही सजा का डर, एक साथ पूरा गांव खड़ा होग या कि उनके यहां ना तो बोतलबंद पानी की बोतल आएगी और ना ही डिस्पाजेबल थर्माकोल या प्लास्टिक के बर्तन। पूरा गांव कचरे को छोटने व निबटाने में एकजुट रहता है। यह कहानी है उत्तरी सिक्किम के लाचेन की । तिब्बत (चीन) से लगते उत्तरी सिक्किम जिले में समु्रद तल से 6600 फुट की ऊंचाई पर लाचेन व लाचुंग नदियों के संगम पर स्थित इस कस्बे का प्राकृतिक सौंदर्य किसी कल्पना की तरह अप्रतीम है। राजधानी गंगटोक से 125 किमी कि दूरी पर स्थित इस गांव को ब्रिटिश घुमक्कड़ जोसेफ डॉल्टन हुकर ने सन 1855 में द हिमालयन जर्नल लिखे अपने आलेख में दुनिया का सबसे सुंदर गांव घोशित किया था। कहा जाता है कि गुरूनानकदेव तिब्बत की यात्रा के दौरान इसी रास्ते से गुजते थे और लाचेन से कोई 68 किलोमीटर दूर अपनी प्यास बुझाने को बरफ में अपनी छड़ी  घुसा कर पानी निकाला था।  मान्यता है कि तभी से वहां एक झील बन गई जिसे गुरूडांेगमार कहते हैं। जब तापमान षून्य से बहुत नीचे हो, तब भी इस झील का पानी बरफ नहीं बनता। गुरूडोंगमार जाने वले यात्रियों को ठहरने के लिए लाचेन ही आना होता है। 
इस गांव का मौसम हर समय ठंडा रहा करता था। लोग पूरे साल रजाई ले कर सोते थे। सिक्किम से कोई 125 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव तक पहुंचने में जीप से  पांच घंटे लगते हैं। भारत-चीन के बीच सीमा व्यापार शुरू होने के बाद से इस क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही भी बढी है। इससे पहले 1950 में तिब्बत पर चीन के अधिकार से पहले भी लाचुंग सिक्किम व तिब्बत के बीच व्यापारिक चौकी का काम करता था। बाद में यह क्षेत्र लंबे समय तक आम लोगों के लिए बंद रहा। अब सीमा पर स्थिति सामान्य होने के साथ ही पर्यटक यहां फिर से जाने लगे हैं। राज्य सरकार ने इसे ‘‘हेरीटेज विलेज’’ घोशित किय व कुछ अफसरों ने घरों में ठहराने की येाजना बना दी। परिणामस्वरुप यहां कई होटल भी बने हैं। सस्ते व महंगे, दोनों प्रकार के होटल मिल जाएंगे।  पहले पहल तो स्थानीय लेागों को बहुत अच्छा लगा कि इतने पर्यटक पहुंच रहे हैं। घरों में भी लोगों को ठहराने लगे। पैसे की गरमी के बीच लोगों को पता ही नहीं चला कि कब उनके बीच गरमी एक मौसम के रूप में आ कर बैठ गई। पूरे साल भयंकर मच्छर होने लगे। बरसात में पानी नहीं बरसता और बैमौसम ऐसी बारिष होती कि खेत- घर उजड़ जाते। पिछले साल तो वहां जंगल में आग लगने के बाद बढ़े तपमान से लेागों का जीना मुहाल हो गया। यह गांव ग्लेषियर के करीब बनी झील षाको-चो से निकलने वाली कई सरिताओं का रास्ता रहा है। डीजल वाहनों के अंधाधुंध आगमन से उपजे भयंकर  धुएं से सरिताओं पर असर होने लगा है। अभी पांच साल पहले यहां दो फुट बरफ पड़ती थी जो इस बार दो फुट रह गई। जाहिर है कि स्थानीय समाज को पानी के संकट का अंदेषा भी लगा। वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि किसी भी समय षाको चो फट सकती है। गांव की संरक्षक झील गुरूडोंगमर की धारा कब सिकुड़ गई लेागों को पता नहीं चला। वहां पहाड़ों से  क्षरण भी बड़ी चेतावनी बन गई। यहां के कई परिवार आर्गेनिक खेती करते हैं और बढ़ते प्लास्टिक व अन्य कचरे से उनकी फसल पर विपरीत असर पड़ रहा था, कीट का असर, अन्न कम होना जैसी दिक्कतों ने खेती को घेर लिया।
जब हालात असहनीय हो गए तो समाज को ही अपनी गलतियां याद आईं। उन्होनंे महसूस किया कि यह वैष्विक जलवायु परिवर्तन का स्थानीय असर है और जिसके चलते उनके गांव व समाज पर अस्तित्व का संकट कभी भी खड़ा हो सकता हे। सन 2012 में सबसे पहले गांव में प्लास्टिक की पानी की बोतलों पर पाबंदी लगाई गई। समाज ने जिम्मा लिया कि लोगों को साफ पेय जल वे उपलब्ध कराएंगे। उसके बाद खाने की चीजें डिस्पोजेबल पर परोसने पर पाबंदी हुई। अब लोग बायाग्रिडेबल  कचरा स्वयं अलग करते हैं व उसका निबटान भी खुद करने लगे। यह सब कुछ हुआ यहां के मूल निवासियों की पारंपरिक निर्वाचित पंचायत ‘जूमसा’ के नेतृत्व में ।  जूमसा यहां का अपना प्रषासनिक तंत्र है जिसके मुखिया को ‘पिपॉन’ कहते हैं और उसका निर्णय सभी को मानना ही होता है। गुरूडोंगमर झील सिक्किम का सबसे बड़ा ‘‘ग्लेषियर-वेटलैंड’’ है। यह दुनिया में एक दुर्लभ जैवविविधता का उदाहरण है। इस झील तक आने वाले सभी पर्यटक रात में लासेन में रूकते हैं व अगली सुबह इस मनोरम झील के लिए पैदल यात्रा करते हैं। गांव वालों ने पहले इस झील के चारों ओर सफाई की और अब वहां किसी भी तरह का कचरा फैंकना दंडनीय अपराध है। इसकी निगरानी, गांव वाले व प्रषासन करता है। गांव के प्रत्येक होटल व दुकनों को स्वच्छ आरओ वाला पानी उपलब्ध करवाया जा रहा है और पैक्ड पानी बेचने को अपराध घोशित किया गया हे। गांव में आने से पूर्व पर्यटकों को बैरियर पर ही इस बाबत सूचना के पर्चे दिए जाते हैं व उनके वाहनों पर स्टीकर लगा कर इस पाबंदी को मानने का अनुरोध होता हे। स्थानीय समाज पुलिस प्रत्येक वाहन की तलाषी लेती है,ताकि कोई प्लास्टिक बोतल यहां घुस न पाए। यह व्यवस्था चलते अब सात साल हो गए है।। यहां के बच्चे भी अब पर्यावरण के प्रति संवेदनषील हो गए हैं।
यह सभी जानते हैं किप् लास्टिक बोतलों का जो अंबार जमा हो रहा है उसका महज बीस फीसदी ही पुनर्चक्रित होता है, कीमतें तो ज्यादा हैं ही; इसके बावजूद जो जल परोसा जा रहा है, वह उतना सुरक्षित नहीं है, जिसकी अपेक्षा उपभोक्ता करता है। कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके संपर्क में आ कर सबकुछ पवित्र हो जाता हे। विडंबना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फंस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। ऐसे में लासेन गांव एक आषा और उम्मीद की किरण जगाता है। 

रविवार, 22 सितंबर 2019

Not raining , dams are main cause of flood

बाढ नहीं बांध मचा रहे हैं तबाही 
पंकज चतुर्वेदी

अजीब विडंबना है कि जो मध्यप्रदेश अभी दो महीने पहले तक सूखे की आशंका से कांप रहा था, अब बरसात से हो रही तबाही से टूट रहा है। प्रदेश की जल कुडली बांचे तो लगता है कि प्रकृति चाहे जितनी वर्षा कर दे, यहां की जल -निधियां इन्हें सहेजने में सक्षम हैं। लेकिन अंधाधुध रेत-उत्खनन, नदी क्षेत्र में अतिक्रमण, तालाबों  के गुम होने के चलते ऐसा हो नहींे पा रहा है और राज्य के चालीस  फीसदी हिस्से में शहरों  में नदियां घुस गई हैं। इससे बदतर हालात तो रेगिस्तानी राज्य राजस्थान के हैं।  कोटा जैसे शहरों में नावें चल रही हैं। पंजाब, हिमाचल प्रदेश से ले कर केरल और उत्तर प्रदेश तक कुदरत की नियामत कहलाने वाला पानी अब कहर बना हुआ है। जरा बारिकी से देखें तो इस बाढ़ का असल कारण वे बांध हैं  जिन्हें भविष्य  के लिए जल-संरक्षण या बिजली उत्पापन के लिए अरबों रूपए खर्च कर बनाया गया था। किन्हीं बांधें की उम्र पूरी हो गईग् तो कही सिल्टेज है और कई जगह जलवायु परिवर्तन जैसे खतरे के चलते अचानक तेज बरसात के अंदाज के मुताबिक उसकी संरचना ही नहीं रखी गई।  जहां-जहां बांध के दरवाजे खेले जा रहे हैं या फिर ज्यादा पानी जमा करने के लालच में खोले नहीं जा रहे, पानी बस्तियोंमें घुस रहा है। संपत्ति का नुकसान और लोगों की मौत का आकलन करें तो पाएंगे कि बांध महंगा सौदा रहे हैं।
सनद रहे इस साल अभी तक बाढ़ की चपेट मे आ कर 1422 लोग जान गंवा चुके हैं और इनमें सबसे ज्यादा महाराष्ट्र 317 में हैं। मध्य प्रदेश में मौत का आंकड़ा 200 पर है।  ये मौतें असल में पानी के बस्ती में घुसने या तेज धार में फंसने के कारण हुई हैं। अभी तक  बाढ़ के कारण संपत्ति के नुकसान का सटीक आंकड़ा नहीं आया है लेकिन सार्वजनिक संपत्ति जैसे सउ़क आदि,खेतों में खड़ी फसल, मवेशी, मकान आदि की तबाही करोड़ो में ही है। जिस सरदार सरोवर को देश के विकास का प्रतिमान कहा जा रही है, उसे अपनी पूरी क्षमता से भरने की जिद में उसके दरवाजे खाले नहीं गए और मध्यप्रदेश के बड़वानी और धार जिले के कोई 45 गांव पूरी तरह नष्ट हो गए। निसरपुर, राजघाट, चिखल्दा आदि तो बड़े कस्बे हैं और उनमें कई दिनों से आठ से दस फुट पानी भरा है।
राजस्थान के 810 बांधों में से 388 लबालब हो गए और जैसे ही उनके दरवाजे खोले गए तो नगर-कस्बे जलमग्न थे। राज्य के 5 बड़े बांध कोटा बैराज, राणाप्रताप सागर, जवाहर सागर और माही बजाज के सभी गेट खोलने पड़े हैं। बीसलपुर बांध के भी 18 में से पहली बार 17 गेट खोले गए। कोटा, बारां, बूंदी, चित्तौड़गढ, झालावाड़ में बाढ़ के हालात बने हुए हैं। बारां, झालावाड़ में कई दिन स्कूल बंद रहे। कोटा में पानी चंबल नदी से करीब 100 फीट ऊपर बने मकानों तक पहुंच गया। हर जगह पानी के प्रकोप का कारण बांध थे। मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी का जल स्तर बढ़ते ही होशंगाबाद के तवा बांध सभी 13 गेटों को 14-14 फुट खोल दिया गया और इसी के साथ कोई साढ़े तीन सौ किलोमीटर इलाके के खेत-बस्ती, सड़क सबकुछ पानी में डूब गए। मालवा अंचल के नीमच, मंदसौर में कई कस्बों की जल-समाधि का कारण गांधी सागर बांध के सभी दरवाजों को खोलने से उपजी लाखों क्यूसिक जल की बेकाबू गति था। इस बांध का जल-स्तर 1312 फुट को पार कर गया था गांधीसागर डेम का लेवल 1312 फीट तक पहुंच गया था और इसके सभी 19 दरवाजे खोलने से  4.76 लाख क्यूसेक पानी निकला। मप्र के ही जबलपुर के बरगी बांध का जलस्तर 422.90 मीटर पहुंच गया इसके सभी 21 गेटों से . एक बार में 7498 क्यूसेक पानी छोड़ा गया और कोई सात जिलों मे बाढ़ आ गई। मध्यप्रदेश के तो 35 जिलों में छोटे-बड़े बांधों के दरवाजे खुलने से तबाही हुई। आजाद भारत के पहले बड़े बांध ,बिलासपुर जिले में स्थित भाखड़ा बांध के फ्लड गेट खोल कर जैसे ही करीब 63 हजार क्यूसेक पानी छोड़ा गया पंजाब व हिमाचल के कई इलाकों में बाढ़ आ गई। खासतौर पर सतलुज के किनारे बसे इलाकांमें ज्यादा पानी भरा। दक्षिणी राज्यों, खासतौर पर केरल में  लगातार दूसरे साल बाढ़ के हालात के लिए पर्यावरणीय कारकों के अलावा बेतहाशा बांधों की भूमिका अब सामने आ रही है। उ.प्र में गंगा व यमुना को जहां भी बांधने के प्रयास हुए, वहां इस बार जल-तबाही हे। दिल्ली में इस बार पानी बरसा नहीं लेकिन हथिनि कुड बेराज में पानी की आवक बढ़ते ही दरवाजे खाले जाते हैं व दिल्ली में हजारों लोगों को विस्थापित करना पड़ता है।
जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय  के ताजा आंकड़े बताते हैं कि भारत देश में पिछले 65 वर्षाे के दौरान बाढ़ के कारण 1.07 लाख लोगों की मौत हुई, आठ करोड़ से अधिक मकान नष्ट हुए और 25.6 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में 109202 करोड़ रूपये मूल्य की फसलों को नुकसान पहुंचा है। इस अवधि में बाढ़ के कारण देश में 202474 करोड़ रूपये मूल्य की सड़क, पुल जैसी सार्वजनिक संपत्ति पानी में मिल गई। मंत्रालय बताता है कि बाढ़ से प्रति वर्ष औसतन 1654 लोग मारे जाते हैं, 92763 पशुओं का नुकसान होता है। लगभग 71.69 लाख हेक्टेयर क्षेत्र जल प्लावन से बुरी तरह प्रभावित होता है जिसमें 1680 करोड़ रूपये मूल्य की फसलें बर्बाद हुईं और 12.40 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 में भारत की बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी । 1960 में यह बढ़ कर ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर हो गई । 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी आज देश के कुल 329 मिलियन(दस लाख) हैक्टर में से चार करोड़ हैक्टर इलाका नियमित रूप से बाढ़ की चपेट में हर साल बर्बाद होता है। वर्ष 1995-2005 के दशक के दौरान बाढ़ से हुए नुकसान का सरकारी अनुमान 1805 करोड़ था जो अगल दशक यानि 2005-2015 में 4745 करोड़ हो गया हे। यह आंकड़ा ही बानगी है कि बाढ़ किस निर्ममता से हमारी अर्थ व्यवस्था को चट कर रही है। 
मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है । कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विशयों का हमारे यहां कभी निश्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठा कर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी , नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीशण विभीशिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।
पानी इस समय विष्व के संभावित संकटों में षीर्श पर है । पीने के लिए पानी, उद्योग , खेेती के लिए पानी, बिजली पैदा करने को पानी । पानी की मांग के सभी मोर्चों पर आषंकाओं व अनिष्चितता के बादल मंडरा रहे हैं । बरसात के पानी की हर एक बूंद को एकत्र करना व उसे समुद्र में मिलने से रोकना ही इसका एकमात्र निदान है। इसके लिए बनाए गए बड़े भारी भरकम बांध कभी विकास के मंदिर कहलाते थे । आज यह स्पश्ट हो गया है कि लागत उत्पादन, संसाधन सभी मामलों में ऐसे बांध घाटे का सौदा सिद्ध हो रहे हैं । विष्व बांध आयोग  के एक अध्ययन के मुताबिक समता, टिकाऊपन, कार्यक्षमता, भागीदारीपूर्ण निर्णय प्रक्रिया और जवाबदेही जैसे पांच मूल्यों पर आधारित है और इसमें स्पश्ट कर दिया गया है कि ऐसे निर्माण उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे हैं ।  यदि पानी भी बचाना है और तबाही से भी बचना है तो नदियां को अविरल बहने दें और उसे बीते दो सै साल के मार्ग पर कोई निर्माण न करें।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

Hindi - language of folk or official ?

हिंदी: राजभाषा या लोकभाषा
पंकज चतुर्वेदी

दिल्ली के एक नामचीन पब्लिक स्कूल के कक्षा तीन के बच्चे को गृह-कार्य डॉयरी में में लिख कर भेजा गया कि बच्चे का ‘श्रुत लेखन’ का टेस्ट होगा। अब बच्चे के माता-पिता दोनों अंग्रेजी माध्यम से पढे हुए और कारपोरेट में नौकरी करने वाले। वे अपने परिचितों को फोन कर पूछते रहे कि यह श्रुत लेख क्या होता है ?

लखनऊ महानगर की सीमा से सटे फैजाबाद मार्ग पर स्थित चिन्हट के एक माध्यमिक स्कूल की कक्षा आठ की एक घटना राज्य में शिक्षण  व्यवस्था की दयनीय हालत की बानगी है । स्कूल शुरू  होने के कई महीने बाद विज्ञान की किताब के पहले पाठ पर चर्चा हो रही थी । पाठ था पौघों के जीवन का । दूसरे या तीसरे पृष्ठ  पर लिखा था कि पौध्ेा श्वसन  क्रिया करते हैं । बच्चों से पूछा कि क्या वे भी शवसन  करते हैं तो कोई बच्चा यह कहने को तैयार नहीं हुआ कि वे भी शवसन  करते है। । यानि जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है उसे व्यावहारिक धरातल पर समझाने के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं, महज तोता रटन को ही षिक्षा मान लिया जा रहा है ।

मध्य प्रदेश के भोपाल में अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय का प्रारंभ इस उद्देश्य  से किया गया कि वहां सभी तकनीकी विषयों की शिक्षा हिंदी में दी जाएगी। इसमें कुल 231 पाठ्यक्रम हैं। पिछले साल इसमें से 170 में एक भी प्रवेश नहीं हुआ। 14 कोर्स में केवल एक-एक छात्र है तो 46 पाठ्यक्रम ऐसे हें जिनमें पढ़ने वालों की संख्या दस से भी कम है। जरा गौर करें कि वे बच्चे जो उच्च शिक्षा में अंग्रेी को व्यवधान मानते रहे हैं, बेहद कम फीस के साथ जब हिंदी में शिक्ष की व्यवस्था हुई तो भी वे क्यों नहीं आए ? इसके लिए विश्वविद्यालय की वेबसाईट पर कुछ हिंदी शब्द गौररतलब हैं - भेषज विज्ञान(फार्मेसी), भ्रमणभाष(मोबाईल), अंतरताना(वेबसाईट)। यही कारण है कि यहां पिछले साल अभियांत्रिकी यानि इंजीनियरिंग में सात छात्र थे जो इस साल घट कर दो रह गए हैं।
ये तीन घटनां बानगी हैं कि जब हम हिंदी में संप्रेशण के किसी माध्यम की चर्चा करते हैं, उस पर प्रस्तुत सामग्री पर विमर्ष करते हैं तो सबसे पहले गौर करना होता है कि समीचित माध्यम को पढ़ने- देखने वाले कौन हैं , उनकी पठन क्षमता कैसी है और वे किस उद््ेष्य से इस माध्यम का सहारा ले रहे हैं। जैसे कि अखबार का पाठक अलग होता है जबकि खेती किसानी की पुस्तकों के खरीदार का नजरिया भिन्न। वहीं आफिस की नोटिंग, पत्र का पाठक, लेखक और उसका उद्देश्य अलग होता है। विडंबना है कि हिंदी को राजकाज की भाषा बनाने के सरकारी प्रयासों ने हिंदी को अनुवाद की, और वह भी भाव-विहीन शाब्दीक-संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ऊबाउ भाषा बना कर रख दिया है।
सन 1857 के आसपास हमारी जनगणना में महज एक प्रतिशत लोग साक्षर पाए गए थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उससे पहले भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आयुर्वेद ज्योतिष अंतरिक्ष का ज्ञान हमारे पास नहीं था। वह था- देश की बोलियों में, संस्कृत , उससे पहले प्राकृत या पालि में जिसे सीमित लोग समझते थे, सीमित उसका इस्तेमाल करते थे । फिर अमीर खुसरो के समय आई हिंदी, हिंद यानि भारत के गोबर पट्टी के संस्कृति, साहित्य व ज्ञान की भाषा, उनकी बोलियों का एक समुच्चय। इधर भक्ति काल का दौर था । । हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 ई. से 1700 ई. तक माना जाता है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।
दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे -सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु।इसके अलावा कई मुस्लिम लेखक भी सूफी या साझा संस्कृति की बात कर रहे थे । इस तरह से हिंदी के उदय ने ज्ञान को आम लोगों तक ले जाने का रास्ता खोला और इसी लिए हिंदी को प्रतिरोध या  पंरपराएं तोडने वाली भाषा कहा जाता हैं।  भाषा का अपना स्वभाव होता है अैर हिंदी के इस विद्रोही स्वभाव के विपरीत जब इसे लोक से परे हट कर राजकाज की या राजभाषा बनाने का प्रयास होता है तो उसमें सहज संप्रेषणीय शब्दों का टोटा प्रतीत होता है।
आज जिस हिंदी की स्थापना के लिए पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा  मनाया जाता है उसकी सबसे बडी दुविधा है मानक हिंदी यानि संस्कृतनिष्ठ हिंदी। सनद रहे संस्कृत की स्वभाव शास्त्रीय है और दरबारी, जबकि हिंदी का स्वभाव लोक है और विद्रोही । ऐसा नहीं कि आम लेागांे की हिंदी में संस्कृत से कोई परहेज है। उसमें संस्कृत से यथावत लिए गए तत्सम शब्द भी हैं तो संस्कृत से परिशोधित हो कर आए तत्दव शब्द जैसे अग्नि से आग, उष्ट से ऊंट आदि । इसमें देशज शब्द भी थे, यानि बोलियों से आए स्थानीय शब्द और विदेशज भी जो अंग्रेजी, फारसी व अन्य भाषाओं से आए।
अब राजभाषा में सिखाया जाता है अमुक पंजी के आलेाक में प्रस्तुत आख्या में निर्दिष्ट है  इसे ना तोलिखने वाला और ना ही पढने वाला और ना ही जिसके लिए है, वह समझ रहा है, यदि कोई ऐसी नोटिंग सूचना के अधिकार के तहत मांग भी ले तो उसके पल्ले इसका अर्थ नहीं पड़ेगा। यदि आंकड़ो पर भरेसा करें तो हिंदी में अखबार  व अन्य पठन सामग्री के पाठक हर साल बढ़ रहे हें लेकिन जब हिंदी में शिखा की बात आती है तो उसके हाल ‘अ.बि. हिंदी विश्वविद्यालय’ जैसे हो जाते हैं। यह जानना और समझना अनिवार्य है कि हिंदी की मूल आत्मा उसकी बोलियां हैं और विभिन्न बोलियों को संविधान सम्मत भाषाओं में शािमल करवाने , बोलियों के लुप्त होने पर बेपरवाह रहने से हिंदी में विदेशी और अग्रहणीय शब्दों का अंबार लग रहा है। भारतीय भाषाओं और बोलियों को संपन्न, समृद्ध करे बगैर हिंदी में काम करने को प्रेरित करना मुश्किल है।
संचार माध्यमों की हिंदी आज कई भाषाओं से प्रभावित है। विशुद्ध हिंदी बहुत ही कम माध्यमों में है। दृश्य और श्रव्य माध्यमों में हिंदी की विकास-यात्रा बड़ी लंबी है। हिंदी के इस देश में जहां की जनता गांव में बसती है, हिंदी ही अधिकांश लोग बोलते-समझते हैं, इन माध्यमों में हिंदी विकसित एवं प्रचारित हुई है। इसके लिए मानक हिंदी कुछ बनी हैं। ध्वनि-संरचना, शब्द संरचना में उपसर्ग-प्रत्यय, संधि, समास, पद संरचना, वाक्य संरचना आदि में कुछ मानक प्रयोग, कुछ पारंपरिक प्रयोग इन दृश्य-श्रव्य माध्यमों में हुए है, किंतु कुछ हिंदीतर शब्दों के मिलने से यहाँ विशुद्ध खड़ी बोली हिंदी नहीं है, मिश्रित शब्द, वाक्य प्रसारित, प्रचारित हो रहे हैं।
यह चिंता का विश्य है कि समाचार पत्रों ने अपने स्थानीय संस्करण निकालने तो षुरू किए लेकिन उनसे स्थानीय भाशा गायब हो गई। जैसे कुछ दषक पहले कानपुर के अखबारों में गुम्मा व चुटैल जैसे षब्द होते थे, बिहार में ट्रेन-बस से ले कर जहाज तक के प्रारंभ होने के समय को ‘‘खुलने’ का समय कहा जाता था। महाराष्ट्र के अखबारों में जाहिरा, माहेती जैसे षब्द होते थे। अब सभी जगह एक जैसे षब्द आ रहे हैं। लगता है कि हिंदी के भाशा-समृद्धि के आगम में व्यवधान सा हो गया है।  तिस पर सरकारी महकमे हिंदी के मानक रूप को तैयार करने में संस्कृतिनिश्ठ हिंदी ला रहे हैं। असल में वे जो मानक हिंदी कहते हैं असल में वह सीसे के लेटर पेस की हिंदी थी जिसमें कई मात्राओं, आधे षब्दों के फाँट नहीं होते थे। आज कंप्यूटर की प्रकाषन-दुनिया में लेड-प्रेस के फाँट की बात करने वाले असल में हिंदी को थाम रहे हैं।
असल में कोई भी भाषा ‘बहता पानी निर्मला’ होती है, उसमें समय के साथ शब्दों का आना-जाना, लेन-देन, नए प्रयोग आदि लगे रहते है।  यदि हिंदी को वास्तव में एक जीवंत भाषा बना कर रखना है तो शब्दों का यह लेन-देन पहले अपनी बोलियों व फिर भाषाओं से हो, वरना हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी। जान लें कि हिंदी का आज का मानक रूप से बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि बोलियों से ही उभरा है और इसकी श्री-वृद्धि के लिए इन बोलियों को ही हिंदी की पालकी संभालनी होगी।
कुछ लोग हिंदी में से उर्दू के शब्द बीनते दिखते हैं, असल में उर्दू हिंदी से ही उपजी भाषा है जिसका व्याकरण, हिज्जे, सबकुछ एक है-बस लिपि दीगर है। उर्दू भी भारतीय  या हिंदुसतानी की तरह विद्रोह की भाषा रही है- 1857 की कं्राति के दौर में र्दउ अखबारों व नज्मों ने अलख जगा दी थी। सनद रहे सन 1905 तक देश में उर्दू में शानदार विज्ञान की किताबें मौजूद थीं। अंग्रेजों ने इसके विद्रेही स्वभाव के चलते इसे दबाना शुरू किया। तभी पंउित नेहरू ने अपने भाषणो में उर्दू के नफीस व सलीकेदार मिश्रण के साथ अपनी तकरीरों को तराशा था। यही कारण है कि उर्दू व हिंदी के शब्दों का आपस में आदान-प्रदान चलता रहता हहै और हिंदी को बहदत संप्रेषित करने में उर्दू के लफ्ज जादुई असर करते हैं। हिंदी को लोकभाषा ही रहने दें उसेे सरकारी ना बनाएं।

polluted ground water

जहरीला होता भूजल
पंकज चतुर्वेदी

जमीन की गहराईयों में पानी का अकूत भंडार है । यह पानी का सर्वसुलभ और  स्वच्छ जरिया है, लेकिन यदि एक बार दूशित हो जाए तो इसका परिश्करण लगभग असंभव होता है । भारत में जनसंख्या बढ़ने के साथ घरेलू इस्तेमाल, खेती और औद्योगिक उपयोग के लिए भूगर्भ जल पर निर्भरता साल-दर-साल बढ़ती जा रही है । पाताल से  पानी निचोड़ने की प्रक्रिया में सामाजिक व सरकारी कोताही के चलते भूजल खतरनाक स्तर तक जहरीला होता जा रहा है ।ं भारत में दुनिया की सर्वाधिक खेती होती है । यहां 50 मिलियन हेक्टर से अधिक जमीन पर जुताई होती है, इस पर 460 बी.सी.एन. पानी खर्च होता है । खेतों की जरूरत का 41 फीसदी पानी सतही स्त्रोतों से व 51 प्रतिशत भूगर्भ से मिलता है । गत् 50 सालों के दौरान भूजल के इस्तेमाल में 115 गुणा का इजाफा हुआ है । भूजल के बेतहाशा इस्तेमाल से एक तो जल स्तर बेहद नीचे पहंुच गया है, वहीं लापरवाहियों के चलते प्रकृति की इस अनूठी सौगात जहरीली होती जा रही है ।

सनद रहे कि देश के 360 जिलों को भूजल स्तर में गिरावट के लिए खतरनाक स्तर पर चिन्हित किया गया है । भूजल रिचार्ज के लिए तो कई प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन खेती, औद्योगिकीकरण और षहरीकरण के कारण जहर होते भूजल को ले कर लगभग निश्क्रियता का माहौल है ।  बारिश, झील व तालाब, नदियों और भूजल के बीच यांत्रिकी अंतर्संबंध है । जंगल और पेड़ रिचार्ज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । इसी प्रक्रिया में कई जहरीले रसायन जमीन के भीतर रिस जाते हैं । ऐसा ही दूशित पानी पीने के कारण देश के कई इलाकों में अपंगता, बहरापन, दांतों का खराब होना, त्वचा के रोग, पेट खराब होना आदि महामारी का रूप ले चुका है । ऐसे अधिकांश इलाके आदिवासी बाहुल्य हैं और वहां पीने के पानी के लिए भूजल के अलावा कोई विकल्प उपलब्ध नहीं हैं ।
दुनिया में चमड़े के काम का 13 फीसदी भारत में और भारत के कुल चमड़ा उद्योग का 60 फीसदी तमिलनाडु में है । मद्रास के आसपास पलार और कुंडावानुर नदियों के किनारे चमड़े के परिश्करण की अनगिनत इकाईयां हैं । चमड़े की टैनिंग की प्रक्रिया से निकले रसायनों के कारण राज्य के आठ जिलों के भूजल में नाईट्रेट की मात्रा का आधिक्य पाया गया है । दांतों व हड्डियों का दुश्मन फलोराईड सात जिलों में निर्धारित सीमा से कहीं अधिक है । दो जिलों में आर्सेनिक की मात्रा भूजल में बेतहाशा पाई गई है ।
एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक आंध्रप्रदेश के 10 जिलों के भूजल में नाईट्रेट की मात्रा  45 मिलीग्राम से भी अधिक फ्लोराईड की मात्रा 1.5 मिलीग्राम के खतरनाक स्तर से अधिक पाई गई है। कर्नाटक में बंगलूरू और झीलों की नगरी कहलाने वाले धारवाड़ सहित 12 जिलों के भूजल में नाईट्रेट का स्तर 45 मिग्रा से अधिक है । सर्वाधिक साक्षर व जागरूक कहलाने वाले केरल का भूजल भी जहर होने से बच नहीं पाया है । यहां के पालघाट, मल्लापुरम, कोट्टायम सहित पांच जिले नाईट्रेट की अधिक मात्रा के शिकर हैं ।

पश्चिम बंगाल के नौ जिलों में नाईट्रेट और तीन जिलों में फ्लोराईड की अधिकता है ।  बर्धमान, 24 परगना, हावड़ा, हुगली सहित आठ जिलों में जहरीला आर्सेनिक पानी में बुरी तरह घुल चुका है ।  राज्य के 10 जिलों का भूजल भरी धातुओं के कारण बदरंग, बेस्वाद हो चुका है । ओडिशा के 14 जिलों में नाईट्रेट के आधिक्य के कारण पेट के रोगियों की संख्या लाखों में पहुंच चुकी है । जबकि बोलांगिर, खुर्दा और कालाहांडी जिलों फ्लोराईड के आधिक्य के कारण गांव-गांव में पैर टेढ़े होने का रोग फैल चुका है ।
अहमदनगर से वर्धा तक लगभग आधे महाराश्ट्र के 23 जिलों के जमीन के भीतर के पानी में नाईट्रेट की मात्रा 45 मिलीग्राम के स्तर से कहीं आगे जा चुकी है । इनमें मराठवाड़ा क्षेत्र के लगभग सभी तालुके षामिल हैं । भंडारा, चंद्रपुर, औरंगाबाद और नांदेड़ जिले के गांवों में हैंडपंप का पानी पीने वालों में दांत के रोगी बढ़ रहे हैं, क्योंकि इस पानी में फ्लोराईड की बेइंतिहरा मात्रा है । तेजी से हुए औद्योगिकीकरण व षहरीकरण का खामियाजा गुजरात के भूजल को चुकाना पड़ रहा है । यहां के आठ जिलों में नाईट्रेट और फ्लोराईड का स्तर जल को जहर बना रहा है ।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के बड़े हिस्से के भूजल में यूनियन कार्बाइड कारखाने के जहरीले रसायन घुल जाने का मुद्दा अंतरराश्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहा है । बावजूद इसके लोग हैंडपंपों का पानी पी रहे हैं औरर बीमार हो रहे हैं । राज्य के ग्वालियर सहित 13 जिलों के भूजल में नाईट्रेट का असर निर्धारित मात्रा से कई गुणा अधिक पाया गया है । फ्लोराईड के आधिक्य की मार झेल रहे जिलों की संख्या हर साल बढ़ रही है । इस समय ऐसे जिलों की संख्या नौ दर्ज है । नागदा, रतलात, रायसेन, षहडोल आदि जिलों में विभिन्न कारखानों से निकले अपशिश्ठ के रसायन जमीन में कई कई किलोमीटर गहराई तक घर कर चुके हैं और इससे पानी अछूता नहीं है । उत्तरप्रदेश का भूजल पदिृश्य तो बेहद डरावना बन गया है । यहां लखनऊ, इलाहबाद, बनारस सहित 21 जिलों में फ्लोराईड का आधिक्य दर्ज किया गया है । जबकि बलिया का पानी आर्सेनिक की अधिकता से जहर हो चुका है ।  गाजियाबाद, कानपुर आदि औद्योगिक जिलों में नाईट्रेट व भारी धातुओं की मात्रा निर्धारित मापदंड से कहीं अधिक है  ।
देश की राजधानी दिल्ली , उससे सटे हरियाणा व पंजाब की जल कुंुंडली में जहरीले गृहों का बोलबाला है । यहां का भूजल खेतों में अंधाधुंध रासायनिक खादों के इस्तेमाल और कारखानों की गंदी निकासी के जमीन में रिसने से दूशित हुआ है । दिल्ली में नजफगढ् के आसपास के इलाके के भूजल को तो इंसानों के इस्तेमाल के लायक नहीं करार दिया गया है । राजस्थान के कोई 20 हजार गांवेंा में जल की आपूर्ति का एकमात्र जरिया भूजल ही है और उसमें नाईट्रेट व फ्लोराईड की मात्रा खतरनाक स्तर पर पाई गई है । एक तरफ प्यास है तो दूसरी ओर जहरीला पानी । लोग ट्यूबवेल का पानी पी रहे हैं और बीमार हो रहे हैं ।
गौरतलब है कि खेती में रासायनिक खादों व दवाईयों के बढ़ते प्रचलन ने जमीन की नैसर्गिक क्षमता और उसकी परतों के नीचे मौजूद पानी को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है । उर्वरकों में मौजूद नाईट्रोजन, मिट्टी के अवयवों से मिल कर नाईट्रेट के रूप में परिवर्तित हो कर भूजल में घुल जाते हैं ।
दिल्ली सहित कुछ राज्यों में भूजल के अंधाधुंध इस्तेमाल को रोकने के लिए कानून बनाए गए हैं, लेकिन भूजल को दूशित करने वालों पर अंकुश के कानून किताबों से बाहर नहीं आ पाए हैं । यह अंदेशा सभी को है कि आने वाले दशकों में पानी को ले कर सरकार और समाज को बेहद मशक्कत करनी होगी । ऐसे में प्रकृतिजन्य भूजल का जहर होना मानव जाति के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा सकता है ।

रविवार, 15 सितंबर 2019

Hindi has to supported by her dialects

बोली को इज्जत दिए बगैर नहीं संवरेगी हिंदी
पंकज चतुर्वेदी

एक ग्रामीण बच्चा, जो स्कूल जाने या अक्षर ज्ञान लेने वाली अपने कुनबे की पहली पीढ़ी है, अक्सर भाषा  को ले कर भटका सा रहता है - एक घर की भाषा जिसमें उसकी वह मां बोलती व समझती है, जिसने उसे पहली बार बोलना-सुनना-समझना सिखाया। दूसरे उस समाज की भाषाजो कि उसके घर से स्कूल के रास्ते में पर है। तीसरी वह भाषा जिसमें उसकी स्कूल की पाठ्य पुस्तकें हैं और जिसमें से निकले प्रश्न उसकी बुद्धिमत्ता का प्रमाण पत्र हैं। अब मालवी या कई अन्य भाषा-बोली में ष  को स या ष को ह तक कहा जाता है। अब बच्चा तो अपने स्कूल के चार घंटे के अलावा यही देख-सुन और बोल रहा है, लेकिन जैसे ही उसकी लोक या व्यवहार की भाशा स्कूल के सवाल-जवाब में आई, उसे असफल, फैल , मूर्ख तक करार दिया जाता है। मामला केवल स्कूल तक ही नहीं है। देशभर के हिंदी समाचार पत्रों ने अपने स्थानीय संस्करण निकालने तो शुरू  किए, लेकिन उनसे स्थानीय भाषा गायब हो गई। जैसे कुछ दशक पहले कानपुर के अखबारों में गुम्मा व चुटैल जैसे शब्द  होते थे, बिहार में ट्रेन-बस से ले कर जहाज तक के प्रारंभ होने के समय को ‘‘खुलने’ का समय कहा जाता था।  अब सभी जगह एक जैसे शब्द  आ रहे हैं।
बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर में आंध््रा प्रदेश से सटे सुकमा जिले में देारला जनजाति की बड़ी संख्या है। उनकी बोली हैं दोरली। बोली के मामले में बड़ा विचित्र है बस्तर, वहां द्रविड परिवार की बोलिसां भी है, आर्य कुल की भी और मुंडारी भी। उनके बीच इतना विभेद है कि एक इलाके का गोंडी बोलने वाला दूसरे इलाके की गोंडी को भी समझने में दिक्क्त महसूस करता है। दोरली बोलने वाले बहुत कम हुआ करते थे, पिछली जनगणना में शायद  बीस हजार । फिर खून खराबे का दौर चला, पुलिस व नक्सली दोनेा तरफ से पिसने वाले आदिवासी पलायन कर आंध्रप्रदेश के वारंगल जिले में चले गए। जब वे लौटे तो उनके बच्चों की दोरली में तेलुगू का घालमेल हो चुका था। एक तो बड़ी मुश्किल से दोरली बोलने वाला शिक्षक मिला था और जब उसने देखा कि उसके बच्चों की दोरली भी अपभ्रंष हो गई है तो उसकी चिंता असीम हो गई कि अब पढाई कैसे आगे बढ़ाई जाए। यह चिंता है कोटां गांव के शिक्षक कट्टम सीताराम की।
ठेठ गंाव के बच्चों को पढाया जाता है कि ‘अ’ ‘अनार’ का, ना तो उनके इलाके में अनार होता है और ना ही उन्होंने उसे देखा होता है, और ना ही उनके परिवार की हैसियत अनार को खरीदने की होती है। सारा गांव जिसे गन्ना कहता है, उसे ईख के तौर पर पढ़ाया जाता है। यह स्कूल में घुसते ही बच्चे को दिए जाने वाले अव्यावहारिक ज्ञान की बानगी है। असल में रंग-आकृति- अंक-शब्द की दुनिया में बच्चे का प्रवेश ही बेहद नीरस और अनमना सा होता है। और मन और सीखने के बीच की खाई साल दर साल बढती जाती है।
संप्रेषणीयता की दुनिया में बच्चे के साथ दिक्कतों का दौर स्कूल में घुसते से ही से शुरू हुआ- घर पर वह सुनता है मालवी, निमाडी, आओ, मिजो, मिसिंग, खासी, गढवाली,राजस्थानी , बुंदेली, या भीली, गोंडी, धुरबी या ऐसी ही ‘अपनी’ बोली-भाषा। स्कूल में गया तो किताबें खड़ी हिंदी या अंग्रेजी यया राज्य की भाषा में और उसे तभी से बता दिया गया कि यदि असल में पढ़ाई कर नौकरी पाना है तो उसके लिए अंग्रेजी ही एकमात्र जरिया है - ‘आधी छोड़ पूरी को जाए, आधी मिले ना पूरी पाए’’। बच्चा इसी दुरूह स्थिति में बचपना बिता देता है कि उसके ‘पहले अध्यापक’ मां-पिता को सही कहूं या स्कूल की पुस्तकों की भाषा को जो उसे ‘सभ्य‘ बनाने का वायदा करती है या फिर  जिंदगी काटने के लिए जरूरी अंग्रेजी को अपनाऊं।
स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है , अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है।  भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और मात्रभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्यभ बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है।  अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में ‘स‘ का उच्चारण ‘ह‘ होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्य पुस्तक पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता ‘गलत‘ उच्चारण करते हैं।  बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौाथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके पास बेइंतिहां शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।
स्थानीय बोलियों में प्राथमिक शिक्षा का सबसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि बच्चा अपने कुल-परिवार की बोली में जो ज्ञान सीखता है, उसमें उसे अपने मां-बाप की भावनाओं का आस्वाद महसूस होता है। वह भले ही स्कूल जाने वाले या अक्षर ज्ञान वाली पहली पीढ़ी हो, लेकिन उसे पाठ से उसके मां-बाप बिल्कुल अनभिज्ञ नहीं होते। जब बच्चा खुद को अभिव्यक्त करना, भाषा का संप्रेषण सीख ले तो उसे खड़ी बोली या राज्य की बोली में पारंगत किया जाए, फिर साथ में करीबी इलाके की एक भाषा और। अंग्रेेजी को पढ़ाना कक्षा छह से पहले करना ही नहीं चाहिए। इस तरह बच्चे अपनी शिक्षा में कुछ अपनापन महसूस करेंगे। हां, पूरी प्रक्रिया में दिक्कत भी हैं, हो सकता है कि दंडामी गोंडी वाले इलाके में दंडामी गोंडी बोलने वाला शिक्षक तलाशना मुश्किल हो, परंतु जब एकबार यह बोली भी रोजगार पाने का जरिया बनती दिखेगी तो लोग जरूर इसमें पढ़ाई करना पसंद करेंगे। इसी तरह स्थानीय आशा कार्यकर्ता, पंचायत सचिव  जैसे पद भी स्थानीय बोली के जानकारों को ही देने की रीति से सरकार के साथ लोगों में संवाद बढ़ेगा व उन बोलियों में पढ़ाई करने वाले भी हिचकिचांएगे नहीं।
कुछ ‘विकासवादी’ यह कहते नहीं अघाते हैं कि भाषाओं का नश्ट होना या ‘‘ज्ञान’’ की भाषा में शिक्षा देना स्वाभाविक प्रक्रिया है और इस पर विलाप करने वाले या तो ‘‘नास्तेल्जिया’’ ग्रस्त होते हैं या फिर वे ‘‘शुद्ध नस्ल’’ के फासीवादी। जरा विकास के चरम पर पहुंच गए मुल्कों की सामामजिक व सांस्कृतिक दरिद्रता पर गौर करें कि वहां इंसान महज मशीन  बन कर रह गया है मानवीय संवेदनाएं शून्य  हैं और अब वे शांति , आध्यात्म के लिए ‘‘पूर्व’’ की ओर देख रहे हैं। यदि कोई समाज अपने अनुभवों से सीखता नहीं है और वही रास्ता अपनाता है जो संवेदना-शून्य समाज का निर्माण करे तो जाहिर है कि यह एक आत्मघाती कदम ही होगा। इंसान को इंसान बना रहने के लिए स्थानीयता पर गर्व का भाव, भाषा-संस्कार का वैवेध्यि महति है। और इस लिए भी प्राथमिक शिक्षा में स्थानीय बोली-भाषा को शामिल करना व उसे जीवंत रखना जरूरी है।
आए रोज अखबारों में छपता रहता है कि यूनेस्को बार-बार चेता रही हे कि भारत में बोली-भाषाएं गुम हो रही है और इनमें भी सबसे बड़ा संकट आदिवासी बोलियों पर है। अंग्रेजीदां-शहरी युवा या तो इस से बेपरवाह रहते हैं या यह सवाल करने से भी नहीं चूकते कि हम क्या करेंगे इन ‘गंवार-बोलियों’ को बचा कर। यह जान लेना जरूरी है कि ‘‘गूगल बाबा‘‘ या पुस्तकों में इतना ज्ञान, सूचना, संस्कृति, साहित्ये उपलब्ध नहीं है जितना कि हमारे पारंपरिक  मूल निवासियों के पास है। उनका ज्ञान निहायत मौखिक है और वह भीली, गोंडी, धुरबी, दोरली, आओ, मिससिंग, खासी, जैसी छोटी-छोटी बोलियों में ही है। उस ज्ञान को जिंदा रखने के लिए उन बोलियों को भी जीवंत रखना जरूरी है और देश की विविधता, लोक जीवन, ज्ञान, गीत, संगीत, हस्त कला, समाज को आने वाली पीढ़ियों तक अपने मूल स्वरूप में पहुंचाने के लिए बोलियों को जिंदा रखना भी जरूरी है। यदि हम चाहते हैं कि स्थानीय समाज स्कूल में हंसते-खेलते आए, उसे वहां अन्यमनस्कता ना लगे तो उसकी अपनी बोली में भाषा का प्रारंभिक पाठ अनिवार्य होगा।
लगता है कि हिंदी के भाषा-समृद्धि के आगम में व्यवधान सा हो गया है। तिस पर सरकारी महकमे हिंदी के मानक रूप को तैयार करने में संस्कृतिनिश्ठ हिंदी ला रहे हैं। इसमें देशज शब्द गायब हो रहे हैं उन्हें लिखने के सलीके को ले कर भी टकराव है। असल में वे जो मानक हिंदी कहते हैं असल में वह सीसे के लेटर पेस की हिंदी थी जिसमें कई मात्राओं, आधे षब्दों के फाँट नहीं होते थे। आज कंप्यूटर की प्रकाशन-दुनिया में लेड-प्रेस के फाँट की बात करने वाले असल में हिंदी को थाम रहे हैं।
यदि हिंदी को वास्तव में एक जीवंत भाषा बना कर रखना है तो शब्दों का यह लेन-देन पहले अपनी बोलियों व फिर भाषाओं से हो, वरना हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी। इसके लिए जरूरी है कि बच्चे की प्राथमिक शिक्षा उसकी अपनी बोली में हो। बच्चा देवनागरी लिपि में लिखना तो सीखे लेकिन उसके पास शब्द भंडार में उसकी अपनी जुबान या बोली के शब्द भी हों। जान लें कि हिंदी का आज का मानक रूप से बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि बोलियों से ही उभरा है और इसकी श्री-वृद्धि के लिए इन बोलियों को ही हिंदी की पालकी संभालनी होगी।

Change in food habit can change water too

भोजन बदलने से बच सकते हैं बेपानी होने से
पंकज चतुर्वेदी


जून-2019 में  हरियाणा सरकार ने घोषणा  की है कि जो किसान धान की जगह अन्य कोई फसल बोएगा उसे पांच हजार रूपए हैक्टर का अनुदान दिया जाएगा। बीते कुछ दशकों में खेत से ज्यादा मुनाफा कमाने की फिराक में किसानों को ऐसी फसलें बोने को प्रेरित कर दिया गया जो ना तो उनके जलवायु के अनुकूल हैं और ना ही स्थानीय भोजन। बात पंजाब की हो या फिर हरियाणा या गंगा-यमुना के दोआब के बीच बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सदियों से यहां के समाज के भोजन में कभी चावल था ही नहीं, सो उसकी पैदावार भी यहां नहीं होती थी। ठीक इसी तरह ज्वालामुखी के लावे से निर्मित बेहद उपजाउ जमीन के स्वामी मप्र के मालवा सोयाबीन की ना तो खपत थी और ना ही खेती। हरित क्रांति के नाम पर कतिपय रायायनिक खाद-दवा और बीज की तिजारत करने वाली कंपनियों ने बस जल की उपलब्धता देखी और वहां ऐसी फसलों को प्रोत्साहित करना षुरू कर दिया जिसने वहां की जमीन बंजर की, भूजल सहित पानी के स्त्रोत खाली कर दिए, खेती में इस्तेमाल रासायनों से आसपस की नदी-तालाब व भूजल दूषित  कर दिया। हालात ऐसे हो गए कि पेयजल का संकट भयंकर हो गया। यह सभी जानते हैं कि हमारे पास उपलब्ध कुल जल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल खेती में होता है।


यह सच है कि खेती-किसानी भारत की अर्थ वयवस्था का सुद्ढ आधार है और इस पर ज्यादा पानी खर्च हो तो चिंता नहीं करना चाहिए। लेकिन हमें यदि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना है तो जल सुरक्षा की बात भी करनी होगी। दक्षिणी भारत में अच्छी बरसात होती है। वहां खेत में बरसात का पानी भरा जा सकता है सो पारंपरिक रूप से वहीं धान की खेती होती थी और वहीं के लोगों का मूल भोजन चावल था। पंजाब-हरियाणा अािद इलाकों में नदियों का जाल रहा है, वहां की जमीन में नमी रहती थी, सो चना, गेहूं, राजमा, जैसी फसल यहां होती थीं। यूंकि यहां दो और तीन फसल हो जाती थीं सो किसान को कड़ी मेहनत की जरूरत होती थी और उसी की आपूर्ति के लिए उसके भोजन में उच्च प्रोटीन के चना, छोले, राजमा आदि होते थे।  मालवा में गेंहू, चना के साथ मोटी फसल व तेल के लिए सरसो और अलसी का प्रचलन था और वहीं उनकी भोजन-अभिरूचि का हिस्सा था। यदि समूचे भारत को बारिकी से देखें तो प्रकृति ने स्थानीय परिवेश, आवश्यकता  और मौसम को देखते हुए वहां के भोजन को विकसित किया और वही उस इलाके के खेतों का उत्पादन हुआ करता था।

यह सभी जानते हैं कि चावल पर प्रति टन उत्पादन जल की खपत सबसे ज्यादा है लेकिन उसकी पौष्टिकता  सबसे कम। वहीं मोटे अनाज अर्थात बाजरा, मक्का ज्वार आदि के पौश्टिक  कीमत ज्यादा है व इन्हें उगाने की पानी की मांग सबसे कम।  अमेरिका के मशहूर विज्ञान जर्नल ‘साईंस एडवांसेस’ में प्रकाशित एक लेख - अल्टरनेटिव सेरिल्स केन इंप्रूव वाटर यूजेस एंड न्यूट्रिन’ में बताया गया है कि किस तरह भारत के लोगों की बदली भोजन-अभिरूचियों के कारण उनके षरीर में पौश्टिक तत्व कम हो रहे हैं और जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव का उनके स्वास्थ्य पर तत्काल विपरीत असर हो रहा है। रिपोर्ट कहती है कि भारत में गत चार दशकों के दौरान अन्न का उत्पादन 230 प्रतिशत तक बढ़ा लेकिन उसमें पौश्टिक तत्वों की मात्रा घटती गई। चावल की तुलना में मक्का ज्यादा पौश्टिक है लेकिन उसकी खेती व मांग लगातार घट रही है। सन 1960 में भारत में गेहूं की मांग 27 किलो प्रति व्यक्ति थी जो आज बढ़ कर 55 किलो के पार हो गई है। वहीं मोटा अनाज ज्वार-बाजरा की मांग इसी अवधि में 32.9 किलो से घट कर 4.2 किलेा रह गई। जयहिर है कि इन फसलों की बुवाई भी कम हो रही है। यह भी जान लें कि जहां मोटी फसल के लिए बरसात या साधारण सिंचाई पर्याप्त थी तो धान के लिए भूजल को पूरा निचोड़ लिया गया। आज देश में भूजल के कुल इस्तेमाल
यह जानना जरूरी है कि भारत में दुनिया के कुल पानी का चार फीसदी है जबकि  आबादी 16 प्रतिशत है।  हमारे यहां एक जिन्स की पैंट के लिए कपास उगाने से ले कर रंगने, धोने आदि में 10 हजार लीटर पानी उड़ा दिया जाता है जबकि समझदार देशो ंमे यह मात्रा बामुश्किल पांच सौ लीटर होती है।  तभी हमारे देश का जल पद चिन्ह सूचकांक 980 क्यूबिक मीटर है जबकि इसका वैश्विक औसत 1243 क्यूबिक मीटर है। नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट में भी पानी के लिए बुरे हालात का मूल कारण खराब जल प्रबंधन बताया है। यह सामने दिख रहा है कि बढ़ती आबादी, उसके  पेट भरने के लिए विस्तार पा रही खेती व पशु पालन,औद्योगिकीकरण आदि के चलते साल दर साल पानी की उपलब्धता घटती जा रही है।
आज जरूरत इस बात के आकलन की है कि हम किस खेती में कितना जल इस्तेमाल कर रहे हैं और असल में उसकी मिल रही कीमत में क्या उस पानी का दाम भी जुड़ा है ?यदि सभी उत्पादों का आकलन इन पद चिन्हों के आधार पर होने लगे तो जाहिर है कि सेवा या उत्पादन में लगी संस्थाओं के जल स्त्रोत , उनके संरक्षण  व किफायती इस्तेमाल, पानी के प्रदूषण जैसे मसलों पर विस्तार से विमर्श शुरू हो सकता है।  हमारी आयात और निर्यात नीति कैसी हो,  हम अपने खेतों में क्या उगाएं, पुनर्चक्रित जल के प्रति अनिवार्यता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे स्वतः ही लोगो के बीच जाएंगे।
उल्लेखनीय है कि इस साल हरियाणा सरकार ने पानी बचाने के इरादे से धान की जगह मक्का की खेती करने वालों को निशुल्क बीज व पांच हजार रूपए के अनुदान की जो घोशणा की है , वह प्रकृति को बचाने का बहुत बड़ा कदम है। इसके साथ ही जरूरत है कि अब लोगों के भेाजन में स्थानीय व मोटे अनाज को फिर से लौटा कर लाने के लिए जागरूकता अभियान, इनके पकवानेां के प्रशिक्षण, जलवायु परिवर्तन के खतरे जैसे मसलों पर व्यापक रूप से काम किया जाए। काश इसी कार्य को अन्य राज्य भी लागू कर पाएं। इसके लिए स्थानीय मौसमय उत्पाद, आदि का सर्वेक्षण कर नीति बनाई जा सकती है। ऐसे ही कई प्रयोग देश को पानीदार बनाने की दिशा में कारगर हो सकते हैं , बस हम खुद यह आंकना शुरू कर दें कि किन जगहों पर पानी का गैर जरूरी  या बेजा इस्तेमाल हो रहा है।

बुधवार, 11 सितंबर 2019

eco friendly ganesha

  • जब प्रशासन ऐसी प्रतिमाओं को जब्त कर रहा है, तो मूर्ति निर्माताओं के गरीब होने व नुकसान की बात हो रही है
  • भारत में पर्व केवल सामाजिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि वे प्रकृति के संरक्षण का संकल्प और कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर होते हैं

पंकज चतुर्वेदी
मध्य प्रदेश सरकार ने पाबंदी लगा रखी थी, फिर भी अकेले भोपाल शहर में प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से अस्सी हजार गणेश प्रतिमाएं बन गईं. 
अब जब प्रशासन ऐसी प्रतिमाओं को जब्त कर रहा है, तो मूर्ति निर्माताओं के गरीब होने व नुकसान की बात हो रही है. साथ ही प्रतिमा बनाने वाले सरकार द्वारा मिट्टी न उपलब्ध होने का बहाना बना रहे हैं. 
बंगलुरु में गणेश उत्सव महाराष्ट्र से ज्यादा लोकप्रिय है. दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा में सड़क पर विशालकाय पीओपी प्रतिमाएं बिकते देखी जा सकती हैं. यह जानना जरूरी है कि पीओपी की प्रतिमाएं पानी ही नहीं, कई अन्य तरीकों से पर्यावरण को जहरीला बनाता है. 
समाज का बड़ा वर्ग यह कड़वा सच जानता है, लेकिन आस्था की आड़ में प्रकृति पर अन्याय को अनदेखा किया जाता है. 
भारत में पर्व केवल सामाजिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि वे प्रकृति के संरक्षण का संकल्प और कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर होते हैं. भारत के सभी त्योहार सूर्य-चंद्रमा, धरती, जल संसाधनों, पशु-पक्षी आदि की आराधना पर केंद्रित हैं. 
बीते कुछ सालों ने भारतीय अध्यात्म को बाजारवाद की ऐसी नजर लगी कि अब पर्व पर्यावरण को दूषित करने का माध्यम बनते जा रहे हैं. 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में अगस्त- 2016 में अपील कर चुके रहे हैं कि देव प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस यानी पीओपी की नहीं बनाएं, मिट्टी की ही बनाए, लेकिन देश के दूरस्थ अंचलों की छोड़ दें, राजधानी दिल्ली में भी इस पर अमल नहीं दिखता है. 
बीते एक दशक के दौरान विभिन्न गैरसरकारी संस्थाओं, राज्यों के प्रदूषण बोर्ड आदि ने गंगा, यमुना, सुवर्णरेखा, गोमती, चंबल जैसी नदियों की जल गुणवत्ता का गणपति या देवी प्रतिमा विसर्जन से पूर्व व पश्चात अध्ययन किया.
अध्ययन में पाया कि आस्था का यह ज्वार नदियों के जीवन के लिए खतरा बना हुआ है. ऐसी सैंकड़ों रिपोर्ट लाल बस्तों में बंधी पड़ी हैं और आस्था के मामले में दखल से अपना वोट-बैंक खिसकने के डर से शासन धरती के अस्तित्व को ही खतरे में डाल रहा है. 
महाराष्ट्र, उससे सटे गोवा, आंध्र प्रदेश व तेलगांना, छत्तीसगढ़, गुजरात व मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है. 
दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियां स्थापित हो रही हैं. पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था. 
आज प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस से बन रही है, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है. गणेशात्सव का समापन होता ही है कि नवरात्रि में दुर्गा पूजा शुरू हो जाती है. 
यह पर्व भी लगभग पूरे भारत में मनाया जाने लगा है. हर गांव-कस्बे में एक से अधिक स्थानों पर सार्वजनिक पूजा पंडाल बनने लगे हैं. बीच में विश्वकर्मा पूजा भी आ जाती है और अब इसी की प्रतिमाएं बनाने की रिवाज शुरू हो गई है. 
एक अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान कई लाख प्रतिमाएं बनती हैं. इनमें से 90 फीसदी प्लास्टर ऑफ पेरिस की होती है. इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर ऑफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिला दी जाती है. 
पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है. प्लास्टर ऑफ पेरिस, कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है जो जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट डीहाइड्रेट) से बनता है. 
चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलने वाले प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी होती है, उन्हें विषैले एवं पानी में न घुलने वाले नॉन बायोडिग्रेडेबेल रंगों में रंगा जाता है. 
इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की बॉयोलॉजिकल आक्सीजन डिमांड तेजी से घट जाती है, जो जलजन्य जीवों के लिए कहर बनता है. 
चंद साल पहले मुम्बई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था जब मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में जुहू किनारे मरी मछलियां पाई गई थीं.
पहले शहरों में कुछ ही स्थान पर सार्वजनिक पंडाल में विशाल प्रतिमाएं रखी जाती थीं, लेकिन अब यह चंदा, दिखावा और राजनीति का माध्यम बन गया है सो, जितने खलीफा, उतनी प्रतिमाएं. 
अंदाजा है कि अकेले मुंबई में कोई डेढ लाख गणपति प्रतिमाएं हर साल समुद्र में विसर्जित की जाती हैं. इसी तरह से कोलकाता की हुबली नदी में ही 15,000 से अधिक बड़ी दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन होता है. 
अनुमान है कि विसर्जित होने वाली प्रतिमाओं में से अधिकांश 15 से 50 फुट ऊंची होती है. बंगाल में तो वसंत पंचमी के अवसर पर सरस्वती पूजा के लिए कोई एक करोड़ प्रतिमाएं स्थापित करने और उनको विसर्जित करने का भी रिवाज है. 
ये पर्व बरसात समाप्त होते ही आ जाते हैं, जुलाई महीने में मछलियों के भी अंडे व बच्चों का मौसम होता है. ऐसे में दुर्गा प्रतिमाओं का सिंदूर, सिंथेटिक रंग, थर्माकोल आदि पानी में घुल कर उसमें निवास करने वाले जलचरों को भी जहरीला करते हैं. 
बाद में ऐसी ही जहरीली मछलियां खाने पर कई गंभीर रोग इंसान के शरीर में घर कर जाते हैं. यह सभी जानते हैं कि रासायनिक रंग में जस्ता, कैडमियम जैसी धातुएं होती हैं. तभी ये धीरे-धीरे भोजन श्रृखंला का हिस्सा बन अनेक बीमारियों यथा मस्तिष्क किडनी और कैंसर का कारण बनती हैं. 
तीन साल पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में गंगा और यमुना नदी में मूर्तियों के विसर्जन पर रोक लगाई थी. उसके बाद जिला प्रशासन प्रयास करता है कि नदी-सरिताओं के करीब ही गहरे कुंड बना कर उसमें प्रतिमाओं का विसर्जन हो. 
भारत सरकार के केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने मूर्तियों के विसर्जन के कारण नदियों तथा जलाशयों में भारी धातुओं तथा प्लास्टर ऑफ पेरिस इत्यादि के कारण होने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए मार्गदर्शिका जारी की है. 
मार्गदर्शिका के प्रावधानों के अनुसार नगरीय निकायों की जिम्मेदारी है कि वे मूर्ति विसर्जन के लिए पृथक स्थान तय करें. लेकिन यह जान लें कि यह तरीका भी धरती की मिट्टी और भूगर्भ जल को इतना दूषित करने वाला है कि इससे बर्बाद जमीन व जल का कोई निदान नहीं है. 
सवाल खड़ा होता है कि तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है? इन्हें मनाना बंद कर देना चाहिए? एक तो हमें प्रत्येक त्योहार की मूल आत्मा को समझना होगा, जरूरी तो नहीं कि बड़ी प्रतिमा बनाने से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे? 
क्या छोटी प्रतिमा बना कर उसका विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीके से करके अपनी आस्था और परंपरा को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता? प्रतिमाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने जैसे प्रयोग तो किए जा सकते हैं. 
पूजा सामग्री में प्लास्टिक या पोलीथीन का प्रयोग वर्जित करना, फूल-ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में जमीन में दबाकर उसका कंपोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल, अन्य सामग्री को जरूरतमंदों को बांटना, बिजली की जगह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साघारण से प्रयोग हैं, जो पर्वो से उत्पन्न प्रदूषण व उससे उपजने वाली बीमारियां पर काफी हद तक रोका जा सकता है. 
पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं. आज इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की चुनौती है.

सोमवार, 9 सितंबर 2019

medical bills making mass below poverty line


गरीबी बढ़ा रही हैं बीमारियां
पंकज चतुर्वेदी

हमारे देश की जनसंख्या सवा सौ करोड़ से ज्यादा है। इसमें करीब 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) जीवनयापन करते हैं। इनमें से शेड्यूल ट्राइब (एसटी) के 45.3 प्रतिशत और शेड्यूल कास्ट (एससी) 31.5 फीसदी के लोग इस रेखा के नीचे आते हैं। इसकी जानकारी केंद्र सरकार ने कुछ महीनों पहले लोकसभा में दी थी। सरकार ने लोगों की जिंदगी में सुधार और गरीबी खत्म करने के लिए कई कदम उठाए हैं लेकिन फिर भी भूख से मौत और गरीबों की संख्या थमना बंद नहीं हो रहा है। असलियत यह है कि जितने प्रयास लोगों को रोजगार या भेजन उपलब्ध करवाने के हो रहे हैं उससे अधिक उनका व्यय दवा-अस्पताल और पैथालाजिकल जांच में हो रहा है। हर दिन सैंकड़ों लोग अपनी जमीन, गहने या जरूरी सामान बेच कर अपने प्रियजनों का इलाज करवाते हैं और अच्छा खाता-पीता परिवार देखते ही देखते गरीब हो जाता है।
अभी बरसात विदा होने वाली है और यह ये मच्छरों के प्रकोप का काल है- दूरदराज के गांव-कस्बों से ले कर महानगरों तक अस्पतालों में डेंगू-मलेरिया के मरीज पटे पड़े हैं। प्लेटलेट्स कम होने ,तेज बुखार या जोड़ों के दर्द का ऐसा खौफ है कि लेराग अपने घर के बर्तन बेच कर भी पचास हजार रूप्ए तक खर्च कर रहे हैं। कुछ सौ रूपए व्यय कर मच्छर नियंत्रण से जिन बीमारियों को रोका जा सकता था , औसतन सालाना बीस लाख लोग इसकी चपेट में आ कर इसके इलाज पर अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई के अरबों रूपए लुटा रहे हैं । स्वास्थ्य के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में षर्मनाक है। यहां तक कि चिकित्सा सेवा के मामले में भारत के हालात श्रीलंका, भूटान व बांग्लादेष से भी बदतर हैं। अंतरराश्ट्रीय स्वास्थ्य पत्रिका ‘ लांसेट’ की ताजातरीन रिपोर्ट ‘ ग्लोबल बर्डन आफ डिसीज’ में बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हमारा देष दुनिया के कुल 195 देषों की सूची में  145वें स्थान पर है। रिपोर्ट कहती है कि भारत ने सन 1990 के बाद अस्पतालों की सेहत में सुधार तो किया है। उस साल भारत को 24.7 अंक मिले थे, जबकि 2016 में ये बढ़ कर 41.2 हो गए हैं।
देष के आंचलिक कस्बों की बात तो दूर राजधानी दिल्ली के एम्स या सफदरजंग जैसे अस्पतालों की भीड़ और आम मरीजों की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। एक तो हम जरूरत के मुताबिक डाक्टर तैयार नहीं कर पा रहे, दूसरा देष की बड़ी आबादी ना तो स्वास्थ्य के बारे में पर्याप्त जागरूक है और ना ही उनके पास आकस्मिक चिकित्सा के हालात में  केाई बीमा या अर्थ की व्यवस्था है।  हालांकि सरकार गरीबों के लिए मुफ्त इलाज की कई योजनाएं चलाती है लेकिन व्यापक अषिक्षा और गैरजागरूकता के कारण ऐसी योजनाएं माकूल नहीं हैं। पिछले सत्र में ही  सरकार ने संसद में स्वीकार किया कि देष में कोई 8.18 लाख डॉक्टर मौजूद हैं , यदि आबादी को 1.33 अरब मान लिया जाए तो औसतन प्रति हजार व्यक्ति पर एक डाक्टर का आंकडा भी बहुत दूर लगता है। तिस पर मेडिकल की पढ़ाई इतनी महंगी कर दी है कि जो भी बच्चा डाक्टर बनेगा, उसकी मजबूरी होगी कि वह दोनों हाथों से केवल नोट कमाए।
पब्लिक हैल्थ फाउंडेषन आफ इंडिया(पीएचएफआई) की एक रिपोर्ट बताती है कि सन 2017 में देष के साढ़े पांच करोड़ लोग के लिए स्वास्थ्य पर किया गया व्यय ओओपी यानी आउट आफ पाकेट या औकात से अधिक व्यय की सीमा से पार रहा। यह संख्या दक्षिण कोरिया या स्पेन या कैन्य की आबादी से अधिक है। इनमें से 60 फीसदी यानि तीन करोड़ अस्सी लाख लोग अस्पताल के खर्चों के चलते बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे आ गए। बानगी के तौर पर ‘इंडिया स्पेंड’ संस्था द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य के 15 जिलों के 100 सरकारी अस्पतालों से केवल एक दिन में लिए गए 1290 पर्चों को लें तो उनमें से 58 प्रतिषत दवांए सरकारी अस्पताल में उपलब्ध नहीं थी। जाहिर है कि ये मरीजों को बाजार से अपनी जेब से खरीदनी पड़ी।
भारत में  लेागों की जान और जेब पर सबसे भारी पड़ने वाली बीमारियों में ‘दिल और दिमागी दौरे’ सबसे आगे हैं। भारत के पंजीयक और जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि सन 2015 में दर्ज 53 लाख 74 हजार आठ सौ चौबीस मौतों में से 32.8 प्रतिषत इस तरह के दौरों के कारण हुई।। एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन का अनुमान है कि भारत में उच्च रक्तचाप से ग्रस्त लोगों की संख्या सन 2025 तक 21.3 करोड़ हो जाएगी, जो कि सन 2002 में 11.82 करोड़ थी। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्  (भा आ अ प) के सर्वेक्षण के अनुसार पूरी संभावना है कि यह वृद्धि असल में ग्रामीण इलाकों में होगी।  भारत में हर साल करीब 17,000 लोग उच्च रक्तचाप की वजह से मर रहे हैं। यह बीमारी मुख्यतया बिगड़ती जीवन शैली, शारीरिक गतिविधियों का कम होते जाना और खानपान में नमक की मात्रा की वजह से होती है। इसका असर अधेड़़ अवस्था में जाकर दिखता रहा है, पर हाल के कुछ सर्वेक्षण बता रहें है कि 19-20 साल के युवा भी इसका शिकार हो रहे हैं। इलाज में सबसे अधिक खर्चा दवा पर होता है। भारत में इस बीमारी के इलाज में एक व्यक्ति को दवा पर अच्छा खासा खर्च करना पड़ता है और यह एक आम आदमी के लिए तनाव का विषय है। इस तरह के रोग पर करीब डेढ हजार रुपये हर महीना दवा पर खर्च होता ही हैं। उच्च रक्तचाप और उससे व्यव की चिंता इसांन को मधुमेह यानि डायबीटिज और हाइपर  थायरायड का भी षिकार बना देती है। पहले ही गरीबी, विशमता और आर्थिक बोझ से दबा हुआ ग्रामीण समाज, उच्च रक्तचाप जैसी नई बीमारी की चपेट में और लुट-पिट रहा है।  पैसा तो ठीक इससे उनका षारीरिक श्रम भी प्रभावित हो रहा है।
डायबीटिज देष में महामारी की तरह फैल रही है। इस समय कोई 7.4 करोड़ लेाग मधुमेह के विभिन्न स्तर पर षिकार हैं और इनमें बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी हैं। सरकार का अनुमान है कि इस पर हर साल मरीज  सवा दो लाख करोड़ की दवाएं खा रहे हैं जो देष के कुल स्वास्थ्य बजट का दस फीसदी से ज्यादा है। बीते 25 सालों में भारत में डायबीटिज के मरीजों की संख्या में 65 प्रतिषत की वृद्धि हुई। एक तो अमेरिकी मानक संस्थाओं ने भारत में रक्त में चीनी की मात्रा को कुछ अधिक दर्ज करवाया है जिससे प्री-डायबीटिज वाले भी इसकी दवाओं के फेर में आ जाते हैं और औसतन प्रति व्यक्ति साढ़े सात हजार रूपए साल इसकी दवा पर व्यय होता हे। अब डायबीटिज खुद में तो कोई रोग है नहीं, यह अपने साथ किडनी, त्वचा, उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारियां साथ ले कर आता है। और फिर एक बार दवा षुरू कर दे ंतो इसकी मात्रा बढ़ती ही जाती है।
स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानि केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है जिसके तहत पत्रकार, पूर्व सांसद आदि आते हैं। इस योजना के तहत पंजीकृत लोगों में चालीस फीसदी डायबीटिज के मरीज हैं और वे हर महीने केवल नियमित दवा लेने जाते हैं। एक मरीज की औसतन हर दिन की पचास रूपए की दवा। वहीं स्टेम सेल से डायबीटिज के स्थाई इलाज का व्यय महज सवा से दो लाख है लेकिन सीजीएचएस में यह इलाज षामिल नहीं है। ऐसे ही कई अन्य रोग है जिनकी आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध है लेकिन सीजीएचएस में उसे षामिल ही नहीं किया गया।विभिन्न राज्यों मे गरीबों को कार्ड दे कर निजी अस्पताल में मुफ्त इलाज की अधिकांश योजनाएं निजी अस्पतालों का खजाना भरने का जरिया बनी हैं, इसके विपरीत गरीब  कंगाल हो रहा है। महज पान मसाला-गुटखे या शराब के कारण देश में हजारेंा परिवार फटेहाल होते है। लेकिन सरकार राजस्व के लालच में इस पर पाबंदी लगाने से डरती है। गंभीरता से देखें तो इन व्यसनों से उपजी बीमारियों के इलाज में लगा धन व संसाधन राजस्व से हुई कमाई से ज्यादा ही होते हैं।





How ChandraYan-2 get partial sucsess



यह असफलता नहीं  बड़ी सफलता हैं 

चंद्रमा के दक्षिणी हिस्से तक पहुंचना हमारे वैज्ञानिकों की अद्भुद सफलता है . एक तो विज्ञानं प्रयोग सतत चलते रहते हैं और इनका किसी सरकार के आने और जाने से कोई सम्बन्ध नहीं होता- फिर दुनिया के अधिकांश देशों में इस तरह के स्पेस साइंस के प्रयोग बेहद गोपनीय होते हैं --- जब कार्य पूर्ण हो जाता है तब उसकी घोषणा होती हैं , विकसित देश अपनी तकनीक और प्रयोगों को यथासंभव गोपनीय रखते हैं . हालांकि चन्द्र यान जैसे प्रयोग पूरी तरह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गोपनीय रखना संभव नहीं होता लेकिन फिर भी इसे जनता के बीच बेवजह सस्ती लोकप्रियता से बचना चाहिए था .
यह भी जान लें कि भले ही हमारे उपकरण चाँद की सतह पर पहुँचने में अभी सफल होते प्रतीत नहीं हो रहे, लेकिन इस अभियान के नब्बे प्रतिशत परिणाम तो हमें मिलेंगे ही . भारत के चंद्रमा कि सतह को छूने वाले "विक्रम" के भविष्य और उसकी स्थिति के बारे में भले ही कोई जानकारी नहीं है कि यह दुर्घटनाग्रस्त हो गया या उसका संपर्क टूट गया, लेकिन 978 करोड़ रुपये लागत वाला चंद्रयान-2 मिशन का सबकुछ खत्म नहीं हुआ है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने के अनुरोध के साथ बताया, 'मिशन का सिर्फ पांच प्रतिशत -लैंडर विक्रम और प्रज्ञान रोवर- नुकसान हुआ है, जबकि बाकी 95 प्रतिशत -चंद्रयान-2 ऑर्बिटर- अभी भी चंद्रमा का सफलतापूर्वक चक्कर काट रहा है।'
अभी पूरी सम्भावना है कि ऑर्बिटर एक साल तक चंद्रमा की कई तस्वीरें लेकर इसरो को भेज सकता है। ये तस्वीरें भी हमारे अन्तरिक्ष विज्ञान के लिए बहुत बड़ी सीख व उपलब्धि होंगी .
यह तो आप जानते हीन हैं कि चंद्रयान-2 अंतरिक्ष यान में तीन खंड हैं -ऑर्बिटर (2,379 किलोग्राम, आठ पेलोड), विक्रम (1,471 किलोग्राम, चार पेलोट) और प्रज्ञान (27 किलोग्राम, दो पेलोड)। विक्रम दो सितंबर को आर्बिटर से अलग हो गया था। चंद्रयान-2 को इसके पहले 22 जुलाई को भारत के हेवी रॉकेट जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हिकल-मार्क 3 (जीएसएलवी एमके 3) के जरिए अंतरिक्ष में लांच किया गया था।
इसरो के टेलीमेट्री, ट्रैकिंग एंड कमांड नेटवर्क केंद्र के स्क्रीन पर देखा गया कि विक्रम अपने निर्धारित पथ से थोड़ा हट गया और उसके बाद संपर्क टूट गया। लैंडर बड़े ही आराम से नीचे उतर रहा था, और इसरो के अधिकारी नियमित अंतराल पर खुशी जाहिर कर रहे थे। लैंडर ने सफलतापूर्वक अपना रफ ब्रेकिंग चरण को पूरा किया और यह अच्छी गति से सतह की ओर बढ़ रहा था। आखिर अंतिम क्षण में ऐसा क्या हो गया? इसरो के एक वैज्ञानिक के अनुसार, लैंडर का नियंत्रण उस समय समाप्त हो गया होगा, जब नीचे उतरते समय उसके थ्रस्टर्स को बंद किया गया होगा और वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया होगा, जिसके कारण संपर्क टूट गया।
यह एक छोटी सी निराशा है लेकिन विज्ञान का सिद्धांत है कि हर असफलता भी अपने-आप में एक प्रयोग होती हैं बिजली बल्ब बनाने वाले थॉमस अल्वा एडिशन ने तीन सौ से ज्यादा बार असफल हो कर बल्ब बनाया, तब एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि मेरे शोध का परिणाम है कि इन तीन सौ तरीकों से बल्ब नहीं बनता .
यह भी जानना जरुरी है कि जान लें कि भारत के अंतरिक्ष विज्ञान विभाग की यह उपलब्धि कोई एक-दो साल का काम नहीं है . इसका महत्वपूर्ण पहला पायदान कोई ग्यारह साल पहले सफलता से सम्पूर्ण हुआ था . भारत ने 22 अक्तूबर, 2008 को पहले चंद्र मिशन के तहत चंद्रयान-1 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया था। इस मिशन से पृथ्वी के एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह चंद्रमा के रहस्यों को जानने में न सिर्फ भारत को मदद मिली बल्कि दुनिया के वैज्ञानिकों के ज्ञान में भी विस्तार हुआ। प्रक्षेपण के सिर्फ आठ महीनों में ही चंद्रयान-1 ने मिशन के सभी लक्ष्यों और उद्देश्यों को हासिल कर लिया। आज भी इस मिशन से जुटाए आँकड़ों का अध्ययन दुनिया के वैज्ञानिक कर रहे हैं। इस मिशन से दुनिया भर में भारत की साख बढ़ीथी .
भारत सरकार ने नवंबर 2003 में पहली बार भारतीय मून मिशन के लिये इसरो के प्रस्ताव चंद्रयान -1 को मंज़ूरी दी।चन्द्र्रयान-1 को पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल, यानी PSLV-C 11 रॉकेट के ज़रिये सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र श्री हरिकोटा से लॉन्च किया गया था .पाँच दिन बाद 27 अक्तूबर, 2008 को चंद्रमा के पास पहुँचा था। वहाँ पहले तो उसने चंद्रमा से 1000 किलोमीटर दूर रहकर एक वृत्ताकार कक्षा में उसकी परिक्रमा की। उसके बाद वह चंद्रमा के और नज़दीक गया और 12 नवंबर, 2008 से सिर्फ 100 किलोमीटर की दूरी पर से हर 2 घंटे में चंद्रमा की परिक्रमा पूरी करने लगा।
हमारे वैज्ञानिक बधाई के पात्र हैं . काश इसे चुनाव किस्म की गतिविधि बनाने से बचा जाता . सफलता के बाद सारा देश जश्न मनाता ही . हमारा विज्ञानं और वैज्ञानिक विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं, हमें जल्द ही सफलता मिलेगी .
चित्र में जो संयत्र संभावित सफलता का दिखाया गया है उससे हम महज सवा दो किलोमीटर दूर रह गये
मीडिया और उससे प्रभावित-प्रेरित आम लोग चंद्रयान-२ को ले कर आमतौर पर विमर्श ऐसा करते हैं जैसे कि किसी महाबली ने चाँद को धरती पर लाने के लिए कुछ ऐसा किया हो जो-- न भूतो न भाविश्य्तो ." भक्त उन्मादी हैं और विरोधी छिद्रान्वेषण कर रहे हैं . सोचा क्यों न थोड़ा सा इस अभियान की जानकारी सरल शब्दों में दे दूँ -- विज्ञानं का विद्यार्थी होने और सात साल से ज्यादा एक डिग्री कालेज में गणित पढ़ने के दौरान मैंने कोशिश की कि विज्ञानं को सहज कर सकूँ .
यह तो पहले भी बताया था कि सन २००९ में चंद्रयान का सफल प्रयोग हुआ था , हालांकि वह अभियान भी कोई एक साल बाद समाप्त घोषित कर दिया गया था .
इस पोस्ट में मैंने चंद्रयान -२ में उपयुक्त संयंत्र और उनके बारे में केवल आम लोगों के काम की बातों को शामिल करने का प्रयास किया हैं . यह तो हम सभी जानते हैं कि चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक ऐसी लौकिक संरचना है जो समूचे सौर मंडल और अन्तरिक्ष के बारे में जानकारी के द्वार खोलती हैं .चन्द्रमा की दूरी धरती से तीन लाख चौरासी हज़ार चार सौ किलोमीटर है . इसका व्यास १७३७.१ वर्ग किलोमीटर है यानी धरती से कोई तीस गुना छोटा -- अर्थात30 चन्द्रमा समूची पृथ्वी में समा सकते है .
चन्द्रमा का दक्षिणी ध्रुव वैज्ञानिकों के लिए बेहद अछूता है यहाँ बहुत गहरे गड्ढे और पहाड़ हैं एवरेस्ट के आकार के , सं २००९ के चंद्रयान-१ ने चंद्रमा पर जल कि मौजूदगी की संभावना के कुछ प्रमाण तलाशे थे , यहाँ सौर मंडल के प्रारंभ के जीवाश्म यानी फॉसिल भी हैं .
अभी तक भारत ने चंद्रमा की साथ के स्थान पर उससे मिले चित्र व् एनी प्रयोगों से चंद्रमा को जाना था . चंद्रयान-२ का मकसद चंद्रमा के सतह पर उतर कर सीधे वहां के चित्र आदि भेजना था .
यह अभियान हमारे लिए इस लिए महत्वपूर्ण और अनूठा था क्योंकि यह पहले पूरी तरह स्वदेशी अभियान था . इसे अलावा दुनिया का ऐसा चौथा देश भारत बना जिसने दक्षिणी ध्रुव पर उतरने या सॉफ्ट लेंडिंग का प्रयोग किया . और भारत का ऐसा पहला प्रयोग तो था ही .
इसरो चंद्रयान-2 को पहले अक्टूबर 2018 में लॉन्च करने वाला था। बाद में इसकी तारीख बढ़ाकर 3 जनवरी और फिर 31 जनवरी कर दी गई। बाद में अन्य कारणों से इसे 15 जुलाई तक टाल दिया गया। इस दौरान बदलावों की वजह से चंद्रयान-2 का भार भी पहले से बढ़ गया। ऐसे में जीएसएलवी मार्क-3 में भी कुछ बदलाव किए गए थे।15 जुलाई की रात मिशन की शुरुआत से करीब 56 मिनट पहले इसरो ने ट्वीट कर लॉन्चिंग आगे बढ़ाने का ऐलान कर दिया गया था।चंद्रयान-2 की लॉन्चिंग 22 जुलाई को दोपहर 2.43 बजे हुई .
इस लांचिंग का माध्यम था जिओसिन्क्रोनस सेटेलाईट लांच व्हीकल -तीन Geosynchronous Satellite Launch Vehicle Mark-III (GSLV Mk-III). इसके तीन हिस्से थे . यह तीन टन तक वजन के उपग्रह या सेटेलाईट को अपनी कक्षा में स्थापित करने कि ताकत रखता था . इसके मुख्य तीन भाग थे - S-200सॉलिड रोकेट बूस्टर , L-110 लिक्विड स्टेज और C-25 उपरी हिस्सा .
उपरी हिस्से में सबसे महत्वपूर्ण है आर्बिटर - इसका वजन २३७९ किलो और इसकी खुद बिजली या उर्जा उत्पादन कि क्षमता १००० वाट है . इस यंत्र का मुख्य कम IDSN अर्थात इंडियन डीप स्पेस नेटवर्क से सम्पर्क रख कर अपने घूमने के मार्ग के चित्र व् सूचना धरती पर भेजना है, यह अभी बिलकुल ठीक काम कर अहा है और इसी ने चंद्रमा की सतह पर गिरे विक्रम के चित्र भी भेजे हैं , यह यंत्र चंद्रमा के ध्रुव की कक्षा में सौ गुना सौ किलोमीटर क्षेत्र में चक्कर लगा रहा हैं .
अब बात अक्र्ते हैं विक्रम लेंडर की- जिसके कारण हमारा चन्द्र अभियान अनूठा था और इसी के कारण हमें असफलता मिली- इस यंत्र का नाम भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान के जंक कहे जाने वाले विक्रम साराभाई के नाम पर रखा गया था इसका वजन १४७१ किली था और यह ६५० वाट उर्जा का स्वयम उत्पादन की क्षमता रखता था इसे एक चंद्रमा -दिवस अर्थात धरती के १४ दिन के बराबर काम करने के लिए बनाया गया था . इसका असल मकसद चंद्रमा की सतह पर धीरे से उतरना और वहां अपने भीतर रखे चलायमान घुमंतू रोबोट यंत्र को सतह पर उतार देना था
अब अगला हिस्सा है - रोवर प्रज्ञान - यानी घुमंतू प्रज्ञान .
चूँकि विक्रम का सहज उतराव या सॉफ्ट लेंडिंग हो नहीं पायी सो यह घुमंतू काम काम कर नहीं रहा हैं . इसका वजन २७ किलो मात्र है और यह छह पहियों वाली रोबोटिक गाडी है यह ५० वात उर्जा उत्पादन खुद करने में सक्षम है और यह महज आधा किलोमीटर ही चल एकता हैं . इससे मिली सूचनाएं लेंडर अर्थात विक्रम को आनी थी और विक्रम के जरिये आर्बिटर के माध्यम से धरती तक
ऐसा माना जा रहा है कि विक्रम के चंद्रमा की सतह पर उतरते समय उसकी या तो गति नियंत्रित नहीं हो पायी या फिर उतरने के स्थान पर किसी ऊँचे पहाड़ के कारण उसकी दिशा भ्रमित हुई और वह सीधा नहीं उतर पाया .
सनद रहे विक्रम को ७० डिग्री अक्षांश अर्थात latitude पर दो क्रेटर अर्थात गहरे खड्ड - मेनेजेनस -सी और सिंथेलीयस -एन के बीच उतरना था . ये क्रेटर एवरेस्ट जैसे गहरे हैं . यदि विक्रम सही तरीके से उतर जाता ओ हमारा घुमंतू प्रज्ञान भी काम करने लगता
अब आपको लांचर , आर्बिटर , विक्रम और घुमन्तु के वास्तविक चित्र भी दे रहा हूँ जो इसरो ने ही उपलब्ध करवाए हैं
यह पोस्ट हर उस इन्सान के लिए है जो अपने बच्चों को वैज्ञानिक उपक्रमों को सियासती नहीं वैज्ञानिक के रूप में बता कर वैज्ञानिक वृति के विकास की सोच रखता है वर्ना लोग केवल अन्तरिक्ष विज्ञानं के मुखिया को रोता देख महज भावनातम टिप्पणिया करेंगे .
कोई तकनीकी गलती हो तो सुझाव भी देना ,

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...