गरीबी बढ़ा रही हैं बीमारियां
पंकज चतुर्वेदी
हमारे देश की जनसंख्या सवा सौ करोड़ से ज्यादा है। इसमें करीब 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) जीवनयापन करते हैं। इनमें से शेड्यूल ट्राइब (एसटी) के 45.3 प्रतिशत और शेड्यूल कास्ट (एससी) 31.5 फीसदी के लोग इस रेखा के नीचे आते हैं। इसकी जानकारी केंद्र सरकार ने कुछ महीनों पहले लोकसभा में दी थी। सरकार ने लोगों की जिंदगी में सुधार और गरीबी खत्म करने के लिए कई कदम उठाए हैं लेकिन फिर भी भूख से मौत और गरीबों की संख्या थमना बंद नहीं हो रहा है। असलियत यह है कि जितने प्रयास लोगों को रोजगार या भेजन उपलब्ध करवाने के हो रहे हैं उससे अधिक उनका व्यय दवा-अस्पताल और पैथालाजिकल जांच में हो रहा है। हर दिन सैंकड़ों लोग अपनी जमीन, गहने या जरूरी सामान बेच कर अपने प्रियजनों का इलाज करवाते हैं और अच्छा खाता-पीता परिवार देखते ही देखते गरीब हो जाता है।
अभी बरसात विदा होने वाली है और यह ये मच्छरों के प्रकोप का काल है- दूरदराज के गांव-कस्बों से ले कर महानगरों तक अस्पतालों में डेंगू-मलेरिया के मरीज पटे पड़े हैं। प्लेटलेट्स कम होने ,तेज बुखार या जोड़ों के दर्द का ऐसा खौफ है कि लेराग अपने घर के बर्तन बेच कर भी पचास हजार रूप्ए तक खर्च कर रहे हैं। कुछ सौ रूपए व्यय कर मच्छर नियंत्रण से जिन बीमारियों को रोका जा सकता था , औसतन सालाना बीस लाख लोग इसकी चपेट में आ कर इसके इलाज पर अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई के अरबों रूपए लुटा रहे हैं । स्वास्थ्य के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में षर्मनाक है। यहां तक कि चिकित्सा सेवा के मामले में भारत के हालात श्रीलंका, भूटान व बांग्लादेष से भी बदतर हैं। अंतरराश्ट्रीय स्वास्थ्य पत्रिका ‘ लांसेट’ की ताजातरीन रिपोर्ट ‘ ग्लोबल बर्डन आफ डिसीज’ में बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हमारा देष दुनिया के कुल 195 देषों की सूची में 145वें स्थान पर है। रिपोर्ट कहती है कि भारत ने सन 1990 के बाद अस्पतालों की सेहत में सुधार तो किया है। उस साल भारत को 24.7 अंक मिले थे, जबकि 2016 में ये बढ़ कर 41.2 हो गए हैं।
देष के आंचलिक कस्बों की बात तो दूर राजधानी दिल्ली के एम्स या सफदरजंग जैसे अस्पतालों की भीड़ और आम मरीजों की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। एक तो हम जरूरत के मुताबिक डाक्टर तैयार नहीं कर पा रहे, दूसरा देष की बड़ी आबादी ना तो स्वास्थ्य के बारे में पर्याप्त जागरूक है और ना ही उनके पास आकस्मिक चिकित्सा के हालात में केाई बीमा या अर्थ की व्यवस्था है। हालांकि सरकार गरीबों के लिए मुफ्त इलाज की कई योजनाएं चलाती है लेकिन व्यापक अषिक्षा और गैरजागरूकता के कारण ऐसी योजनाएं माकूल नहीं हैं। पिछले सत्र में ही सरकार ने संसद में स्वीकार किया कि देष में कोई 8.18 लाख डॉक्टर मौजूद हैं , यदि आबादी को 1.33 अरब मान लिया जाए तो औसतन प्रति हजार व्यक्ति पर एक डाक्टर का आंकडा भी बहुत दूर लगता है। तिस पर मेडिकल की पढ़ाई इतनी महंगी कर दी है कि जो भी बच्चा डाक्टर बनेगा, उसकी मजबूरी होगी कि वह दोनों हाथों से केवल नोट कमाए।
पब्लिक हैल्थ फाउंडेषन आफ इंडिया(पीएचएफआई) की एक रिपोर्ट बताती है कि सन 2017 में देष के साढ़े पांच करोड़ लोग के लिए स्वास्थ्य पर किया गया व्यय ओओपी यानी आउट आफ पाकेट या औकात से अधिक व्यय की सीमा से पार रहा। यह संख्या दक्षिण कोरिया या स्पेन या कैन्य की आबादी से अधिक है। इनमें से 60 फीसदी यानि तीन करोड़ अस्सी लाख लोग अस्पताल के खर्चों के चलते बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे आ गए। बानगी के तौर पर ‘इंडिया स्पेंड’ संस्था द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य के 15 जिलों के 100 सरकारी अस्पतालों से केवल एक दिन में लिए गए 1290 पर्चों को लें तो उनमें से 58 प्रतिषत दवांए सरकारी अस्पताल में उपलब्ध नहीं थी। जाहिर है कि ये मरीजों को बाजार से अपनी जेब से खरीदनी पड़ी।
भारत में लेागों की जान और जेब पर सबसे भारी पड़ने वाली बीमारियों में ‘दिल और दिमागी दौरे’ सबसे आगे हैं। भारत के पंजीयक और जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि सन 2015 में दर्ज 53 लाख 74 हजार आठ सौ चौबीस मौतों में से 32.8 प्रतिषत इस तरह के दौरों के कारण हुई।। एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन का अनुमान है कि भारत में उच्च रक्तचाप से ग्रस्त लोगों की संख्या सन 2025 तक 21.3 करोड़ हो जाएगी, जो कि सन 2002 में 11.82 करोड़ थी। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् (भा आ अ प) के सर्वेक्षण के अनुसार पूरी संभावना है कि यह वृद्धि असल में ग्रामीण इलाकों में होगी। भारत में हर साल करीब 17,000 लोग उच्च रक्तचाप की वजह से मर रहे हैं। यह बीमारी मुख्यतया बिगड़ती जीवन शैली, शारीरिक गतिविधियों का कम होते जाना और खानपान में नमक की मात्रा की वजह से होती है। इसका असर अधेड़़ अवस्था में जाकर दिखता रहा है, पर हाल के कुछ सर्वेक्षण बता रहें है कि 19-20 साल के युवा भी इसका शिकार हो रहे हैं। इलाज में सबसे अधिक खर्चा दवा पर होता है। भारत में इस बीमारी के इलाज में एक व्यक्ति को दवा पर अच्छा खासा खर्च करना पड़ता है और यह एक आम आदमी के लिए तनाव का विषय है। इस तरह के रोग पर करीब डेढ हजार रुपये हर महीना दवा पर खर्च होता ही हैं। उच्च रक्तचाप और उससे व्यव की चिंता इसांन को मधुमेह यानि डायबीटिज और हाइपर थायरायड का भी षिकार बना देती है। पहले ही गरीबी, विशमता और आर्थिक बोझ से दबा हुआ ग्रामीण समाज, उच्च रक्तचाप जैसी नई बीमारी की चपेट में और लुट-पिट रहा है। पैसा तो ठीक इससे उनका षारीरिक श्रम भी प्रभावित हो रहा है।
डायबीटिज देष में महामारी की तरह फैल रही है। इस समय कोई 7.4 करोड़ लेाग मधुमेह के विभिन्न स्तर पर षिकार हैं और इनमें बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी हैं। सरकार का अनुमान है कि इस पर हर साल मरीज सवा दो लाख करोड़ की दवाएं खा रहे हैं जो देष के कुल स्वास्थ्य बजट का दस फीसदी से ज्यादा है। बीते 25 सालों में भारत में डायबीटिज के मरीजों की संख्या में 65 प्रतिषत की वृद्धि हुई। एक तो अमेरिकी मानक संस्थाओं ने भारत में रक्त में चीनी की मात्रा को कुछ अधिक दर्ज करवाया है जिससे प्री-डायबीटिज वाले भी इसकी दवाओं के फेर में आ जाते हैं और औसतन प्रति व्यक्ति साढ़े सात हजार रूपए साल इसकी दवा पर व्यय होता हे। अब डायबीटिज खुद में तो कोई रोग है नहीं, यह अपने साथ किडनी, त्वचा, उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारियां साथ ले कर आता है। और फिर एक बार दवा षुरू कर दे ंतो इसकी मात्रा बढ़ती ही जाती है।
स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानि केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है जिसके तहत पत्रकार, पूर्व सांसद आदि आते हैं। इस योजना के तहत पंजीकृत लोगों में चालीस फीसदी डायबीटिज के मरीज हैं और वे हर महीने केवल नियमित दवा लेने जाते हैं। एक मरीज की औसतन हर दिन की पचास रूपए की दवा। वहीं स्टेम सेल से डायबीटिज के स्थाई इलाज का व्यय महज सवा से दो लाख है लेकिन सीजीएचएस में यह इलाज षामिल नहीं है। ऐसे ही कई अन्य रोग है जिनकी आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध है लेकिन सीजीएचएस में उसे षामिल ही नहीं किया गया।विभिन्न राज्यों मे गरीबों को कार्ड दे कर निजी अस्पताल में मुफ्त इलाज की अधिकांश योजनाएं निजी अस्पतालों का खजाना भरने का जरिया बनी हैं, इसके विपरीत गरीब कंगाल हो रहा है। महज पान मसाला-गुटखे या शराब के कारण देश में हजारेंा परिवार फटेहाल होते है। लेकिन सरकार राजस्व के लालच में इस पर पाबंदी लगाने से डरती है। गंभीरता से देखें तो इन व्यसनों से उपजी बीमारियों के इलाज में लगा धन व संसाधन राजस्व से हुई कमाई से ज्यादा ही होते हैं।
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