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बुधवार, 11 सितंबर 2019

eco friendly ganesha

  • जब प्रशासन ऐसी प्रतिमाओं को जब्त कर रहा है, तो मूर्ति निर्माताओं के गरीब होने व नुकसान की बात हो रही है
  • भारत में पर्व केवल सामाजिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि वे प्रकृति के संरक्षण का संकल्प और कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर होते हैं

पंकज चतुर्वेदी
मध्य प्रदेश सरकार ने पाबंदी लगा रखी थी, फिर भी अकेले भोपाल शहर में प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से अस्सी हजार गणेश प्रतिमाएं बन गईं. 
अब जब प्रशासन ऐसी प्रतिमाओं को जब्त कर रहा है, तो मूर्ति निर्माताओं के गरीब होने व नुकसान की बात हो रही है. साथ ही प्रतिमा बनाने वाले सरकार द्वारा मिट्टी न उपलब्ध होने का बहाना बना रहे हैं. 
बंगलुरु में गणेश उत्सव महाराष्ट्र से ज्यादा लोकप्रिय है. दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा में सड़क पर विशालकाय पीओपी प्रतिमाएं बिकते देखी जा सकती हैं. यह जानना जरूरी है कि पीओपी की प्रतिमाएं पानी ही नहीं, कई अन्य तरीकों से पर्यावरण को जहरीला बनाता है. 
समाज का बड़ा वर्ग यह कड़वा सच जानता है, लेकिन आस्था की आड़ में प्रकृति पर अन्याय को अनदेखा किया जाता है. 
भारत में पर्व केवल सामाजिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि वे प्रकृति के संरक्षण का संकल्प और कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर होते हैं. भारत के सभी त्योहार सूर्य-चंद्रमा, धरती, जल संसाधनों, पशु-पक्षी आदि की आराधना पर केंद्रित हैं. 
बीते कुछ सालों ने भारतीय अध्यात्म को बाजारवाद की ऐसी नजर लगी कि अब पर्व पर्यावरण को दूषित करने का माध्यम बनते जा रहे हैं. 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में अगस्त- 2016 में अपील कर चुके रहे हैं कि देव प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस यानी पीओपी की नहीं बनाएं, मिट्टी की ही बनाए, लेकिन देश के दूरस्थ अंचलों की छोड़ दें, राजधानी दिल्ली में भी इस पर अमल नहीं दिखता है. 
बीते एक दशक के दौरान विभिन्न गैरसरकारी संस्थाओं, राज्यों के प्रदूषण बोर्ड आदि ने गंगा, यमुना, सुवर्णरेखा, गोमती, चंबल जैसी नदियों की जल गुणवत्ता का गणपति या देवी प्रतिमा विसर्जन से पूर्व व पश्चात अध्ययन किया.
अध्ययन में पाया कि आस्था का यह ज्वार नदियों के जीवन के लिए खतरा बना हुआ है. ऐसी सैंकड़ों रिपोर्ट लाल बस्तों में बंधी पड़ी हैं और आस्था के मामले में दखल से अपना वोट-बैंक खिसकने के डर से शासन धरती के अस्तित्व को ही खतरे में डाल रहा है. 
महाराष्ट्र, उससे सटे गोवा, आंध्र प्रदेश व तेलगांना, छत्तीसगढ़, गुजरात व मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है. 
दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियां स्थापित हो रही हैं. पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था. 
आज प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस से बन रही है, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है. गणेशात्सव का समापन होता ही है कि नवरात्रि में दुर्गा पूजा शुरू हो जाती है. 
यह पर्व भी लगभग पूरे भारत में मनाया जाने लगा है. हर गांव-कस्बे में एक से अधिक स्थानों पर सार्वजनिक पूजा पंडाल बनने लगे हैं. बीच में विश्वकर्मा पूजा भी आ जाती है और अब इसी की प्रतिमाएं बनाने की रिवाज शुरू हो गई है. 
एक अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान कई लाख प्रतिमाएं बनती हैं. इनमें से 90 फीसदी प्लास्टर ऑफ पेरिस की होती है. इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर ऑफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिला दी जाती है. 
पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है. प्लास्टर ऑफ पेरिस, कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है जो जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट डीहाइड्रेट) से बनता है. 
चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलने वाले प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी होती है, उन्हें विषैले एवं पानी में न घुलने वाले नॉन बायोडिग्रेडेबेल रंगों में रंगा जाता है. 
इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की बॉयोलॉजिकल आक्सीजन डिमांड तेजी से घट जाती है, जो जलजन्य जीवों के लिए कहर बनता है. 
चंद साल पहले मुम्बई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था जब मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में जुहू किनारे मरी मछलियां पाई गई थीं.
पहले शहरों में कुछ ही स्थान पर सार्वजनिक पंडाल में विशाल प्रतिमाएं रखी जाती थीं, लेकिन अब यह चंदा, दिखावा और राजनीति का माध्यम बन गया है सो, जितने खलीफा, उतनी प्रतिमाएं. 
अंदाजा है कि अकेले मुंबई में कोई डेढ लाख गणपति प्रतिमाएं हर साल समुद्र में विसर्जित की जाती हैं. इसी तरह से कोलकाता की हुबली नदी में ही 15,000 से अधिक बड़ी दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन होता है. 
अनुमान है कि विसर्जित होने वाली प्रतिमाओं में से अधिकांश 15 से 50 फुट ऊंची होती है. बंगाल में तो वसंत पंचमी के अवसर पर सरस्वती पूजा के लिए कोई एक करोड़ प्रतिमाएं स्थापित करने और उनको विसर्जित करने का भी रिवाज है. 
ये पर्व बरसात समाप्त होते ही आ जाते हैं, जुलाई महीने में मछलियों के भी अंडे व बच्चों का मौसम होता है. ऐसे में दुर्गा प्रतिमाओं का सिंदूर, सिंथेटिक रंग, थर्माकोल आदि पानी में घुल कर उसमें निवास करने वाले जलचरों को भी जहरीला करते हैं. 
बाद में ऐसी ही जहरीली मछलियां खाने पर कई गंभीर रोग इंसान के शरीर में घर कर जाते हैं. यह सभी जानते हैं कि रासायनिक रंग में जस्ता, कैडमियम जैसी धातुएं होती हैं. तभी ये धीरे-धीरे भोजन श्रृखंला का हिस्सा बन अनेक बीमारियों यथा मस्तिष्क किडनी और कैंसर का कारण बनती हैं. 
तीन साल पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में गंगा और यमुना नदी में मूर्तियों के विसर्जन पर रोक लगाई थी. उसके बाद जिला प्रशासन प्रयास करता है कि नदी-सरिताओं के करीब ही गहरे कुंड बना कर उसमें प्रतिमाओं का विसर्जन हो. 
भारत सरकार के केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने मूर्तियों के विसर्जन के कारण नदियों तथा जलाशयों में भारी धातुओं तथा प्लास्टर ऑफ पेरिस इत्यादि के कारण होने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए मार्गदर्शिका जारी की है. 
मार्गदर्शिका के प्रावधानों के अनुसार नगरीय निकायों की जिम्मेदारी है कि वे मूर्ति विसर्जन के लिए पृथक स्थान तय करें. लेकिन यह जान लें कि यह तरीका भी धरती की मिट्टी और भूगर्भ जल को इतना दूषित करने वाला है कि इससे बर्बाद जमीन व जल का कोई निदान नहीं है. 
सवाल खड़ा होता है कि तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है? इन्हें मनाना बंद कर देना चाहिए? एक तो हमें प्रत्येक त्योहार की मूल आत्मा को समझना होगा, जरूरी तो नहीं कि बड़ी प्रतिमा बनाने से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे? 
क्या छोटी प्रतिमा बना कर उसका विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीके से करके अपनी आस्था और परंपरा को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता? प्रतिमाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने जैसे प्रयोग तो किए जा सकते हैं. 
पूजा सामग्री में प्लास्टिक या पोलीथीन का प्रयोग वर्जित करना, फूल-ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में जमीन में दबाकर उसका कंपोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल, अन्य सामग्री को जरूरतमंदों को बांटना, बिजली की जगह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साघारण से प्रयोग हैं, जो पर्वो से उत्पन्न प्रदूषण व उससे उपजने वाली बीमारियां पर काफी हद तक रोका जा सकता है. 
पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं. आज इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की चुनौती है.

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