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रविवार, 15 सितंबर 2019

Change in food habit can change water too

भोजन बदलने से बच सकते हैं बेपानी होने से
पंकज चतुर्वेदी


जून-2019 में  हरियाणा सरकार ने घोषणा  की है कि जो किसान धान की जगह अन्य कोई फसल बोएगा उसे पांच हजार रूपए हैक्टर का अनुदान दिया जाएगा। बीते कुछ दशकों में खेत से ज्यादा मुनाफा कमाने की फिराक में किसानों को ऐसी फसलें बोने को प्रेरित कर दिया गया जो ना तो उनके जलवायु के अनुकूल हैं और ना ही स्थानीय भोजन। बात पंजाब की हो या फिर हरियाणा या गंगा-यमुना के दोआब के बीच बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सदियों से यहां के समाज के भोजन में कभी चावल था ही नहीं, सो उसकी पैदावार भी यहां नहीं होती थी। ठीक इसी तरह ज्वालामुखी के लावे से निर्मित बेहद उपजाउ जमीन के स्वामी मप्र के मालवा सोयाबीन की ना तो खपत थी और ना ही खेती। हरित क्रांति के नाम पर कतिपय रायायनिक खाद-दवा और बीज की तिजारत करने वाली कंपनियों ने बस जल की उपलब्धता देखी और वहां ऐसी फसलों को प्रोत्साहित करना षुरू कर दिया जिसने वहां की जमीन बंजर की, भूजल सहित पानी के स्त्रोत खाली कर दिए, खेती में इस्तेमाल रासायनों से आसपस की नदी-तालाब व भूजल दूषित  कर दिया। हालात ऐसे हो गए कि पेयजल का संकट भयंकर हो गया। यह सभी जानते हैं कि हमारे पास उपलब्ध कुल जल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल खेती में होता है।


यह सच है कि खेती-किसानी भारत की अर्थ वयवस्था का सुद्ढ आधार है और इस पर ज्यादा पानी खर्च हो तो चिंता नहीं करना चाहिए। लेकिन हमें यदि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना है तो जल सुरक्षा की बात भी करनी होगी। दक्षिणी भारत में अच्छी बरसात होती है। वहां खेत में बरसात का पानी भरा जा सकता है सो पारंपरिक रूप से वहीं धान की खेती होती थी और वहीं के लोगों का मूल भोजन चावल था। पंजाब-हरियाणा अािद इलाकों में नदियों का जाल रहा है, वहां की जमीन में नमी रहती थी, सो चना, गेहूं, राजमा, जैसी फसल यहां होती थीं। यूंकि यहां दो और तीन फसल हो जाती थीं सो किसान को कड़ी मेहनत की जरूरत होती थी और उसी की आपूर्ति के लिए उसके भोजन में उच्च प्रोटीन के चना, छोले, राजमा आदि होते थे।  मालवा में गेंहू, चना के साथ मोटी फसल व तेल के लिए सरसो और अलसी का प्रचलन था और वहीं उनकी भोजन-अभिरूचि का हिस्सा था। यदि समूचे भारत को बारिकी से देखें तो प्रकृति ने स्थानीय परिवेश, आवश्यकता  और मौसम को देखते हुए वहां के भोजन को विकसित किया और वही उस इलाके के खेतों का उत्पादन हुआ करता था।

यह सभी जानते हैं कि चावल पर प्रति टन उत्पादन जल की खपत सबसे ज्यादा है लेकिन उसकी पौष्टिकता  सबसे कम। वहीं मोटे अनाज अर्थात बाजरा, मक्का ज्वार आदि के पौश्टिक  कीमत ज्यादा है व इन्हें उगाने की पानी की मांग सबसे कम।  अमेरिका के मशहूर विज्ञान जर्नल ‘साईंस एडवांसेस’ में प्रकाशित एक लेख - अल्टरनेटिव सेरिल्स केन इंप्रूव वाटर यूजेस एंड न्यूट्रिन’ में बताया गया है कि किस तरह भारत के लोगों की बदली भोजन-अभिरूचियों के कारण उनके षरीर में पौश्टिक तत्व कम हो रहे हैं और जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव का उनके स्वास्थ्य पर तत्काल विपरीत असर हो रहा है। रिपोर्ट कहती है कि भारत में गत चार दशकों के दौरान अन्न का उत्पादन 230 प्रतिशत तक बढ़ा लेकिन उसमें पौश्टिक तत्वों की मात्रा घटती गई। चावल की तुलना में मक्का ज्यादा पौश्टिक है लेकिन उसकी खेती व मांग लगातार घट रही है। सन 1960 में भारत में गेहूं की मांग 27 किलो प्रति व्यक्ति थी जो आज बढ़ कर 55 किलो के पार हो गई है। वहीं मोटा अनाज ज्वार-बाजरा की मांग इसी अवधि में 32.9 किलो से घट कर 4.2 किलेा रह गई। जयहिर है कि इन फसलों की बुवाई भी कम हो रही है। यह भी जान लें कि जहां मोटी फसल के लिए बरसात या साधारण सिंचाई पर्याप्त थी तो धान के लिए भूजल को पूरा निचोड़ लिया गया। आज देश में भूजल के कुल इस्तेमाल
यह जानना जरूरी है कि भारत में दुनिया के कुल पानी का चार फीसदी है जबकि  आबादी 16 प्रतिशत है।  हमारे यहां एक जिन्स की पैंट के लिए कपास उगाने से ले कर रंगने, धोने आदि में 10 हजार लीटर पानी उड़ा दिया जाता है जबकि समझदार देशो ंमे यह मात्रा बामुश्किल पांच सौ लीटर होती है।  तभी हमारे देश का जल पद चिन्ह सूचकांक 980 क्यूबिक मीटर है जबकि इसका वैश्विक औसत 1243 क्यूबिक मीटर है। नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट में भी पानी के लिए बुरे हालात का मूल कारण खराब जल प्रबंधन बताया है। यह सामने दिख रहा है कि बढ़ती आबादी, उसके  पेट भरने के लिए विस्तार पा रही खेती व पशु पालन,औद्योगिकीकरण आदि के चलते साल दर साल पानी की उपलब्धता घटती जा रही है।
आज जरूरत इस बात के आकलन की है कि हम किस खेती में कितना जल इस्तेमाल कर रहे हैं और असल में उसकी मिल रही कीमत में क्या उस पानी का दाम भी जुड़ा है ?यदि सभी उत्पादों का आकलन इन पद चिन्हों के आधार पर होने लगे तो जाहिर है कि सेवा या उत्पादन में लगी संस्थाओं के जल स्त्रोत , उनके संरक्षण  व किफायती इस्तेमाल, पानी के प्रदूषण जैसे मसलों पर विस्तार से विमर्श शुरू हो सकता है।  हमारी आयात और निर्यात नीति कैसी हो,  हम अपने खेतों में क्या उगाएं, पुनर्चक्रित जल के प्रति अनिवार्यता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे स्वतः ही लोगो के बीच जाएंगे।
उल्लेखनीय है कि इस साल हरियाणा सरकार ने पानी बचाने के इरादे से धान की जगह मक्का की खेती करने वालों को निशुल्क बीज व पांच हजार रूपए के अनुदान की जो घोशणा की है , वह प्रकृति को बचाने का बहुत बड़ा कदम है। इसके साथ ही जरूरत है कि अब लोगों के भेाजन में स्थानीय व मोटे अनाज को फिर से लौटा कर लाने के लिए जागरूकता अभियान, इनके पकवानेां के प्रशिक्षण, जलवायु परिवर्तन के खतरे जैसे मसलों पर व्यापक रूप से काम किया जाए। काश इसी कार्य को अन्य राज्य भी लागू कर पाएं। इसके लिए स्थानीय मौसमय उत्पाद, आदि का सर्वेक्षण कर नीति बनाई जा सकती है। ऐसे ही कई प्रयोग देश को पानीदार बनाने की दिशा में कारगर हो सकते हैं , बस हम खुद यह आंकना शुरू कर दें कि किन जगहों पर पानी का गैर जरूरी  या बेजा इस्तेमाल हो रहा है।

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