My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

rat hole mining is eating ecology of Meghalya

मेघों की धरती को चट कर जाएगी ‘रेट होल माईनिंग’
पंकज चतुर्वेदी


 उन पंद्रह युवओं की लाशं भले ही पहचानी नहीं जा रही हों, लेकिन मेधालय में इन असामयिक मौतों से कुछ नहीं बदला। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी  के बाद भी जमीन से कोयला निकालने का अवैध, भयानक और असुरक्षित कार्य यथावत जारी है।  गत 13 दिसंबर को जमीन के भीतर अथाह जल-धार में गुम गए श्रमिकों के लिए अब राज्य प्रशासन ने मान लिया है कि मासूमों की लाशें इस लायक भी नहीं हैं कि उनको बाहर निकाल कर उनका अंतिम संस्कार किया जा सके। चमड़ी व मांस पूरी तरह गल गया है और उन लोथउ़ों में पहचानना मुश्किल है कि किसका शव कौनसा है।
जहां मेघों का डेरा रहता है, वहां पेट पालना इतना जटल है कि 14-15 साल के बच्चों को कोयले की ऐसी खदानों में उतार दिया जाता है जो ना केवल अवैध हैं, बल्कि ना तो उनके पास सुरक्षा के कोई साधन होते हैं और ना ही जिंदगी का कोई भरोसा। चूहे के बिल जैसी इन संकरी खदानों में बच्चों को खोदने का एक उपकरण ले कर उतार दिया जाता है। यही नहीं इस अवैध खनन से नदी दूषित हो रही हैं, हवा-जमीन भी नष्ट हो रही है। राष्ट्रीय हरित अभिकरण एनजीटी ने सन 2014 में ही ऐसी ‘रेट होल माईनिंग’  पर पाबंदी लगा दी थी लेकिन अभी भी वहां का कोयला उप्र के बागपत के ईंट भट्टों तक कागजों में हेर फेरी कर आ रहा है।
मेघालय से हजरों किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के बागपत के कुछ ईंट भट्टा व्यापारी अभी भी मेघालय की जेलों में केवल इस लिए सड़ रहे हैं कि उन्होंने कोयला खरीदने के कुछ कागजों पर शक किया था। कोयले के व्यापारी या खदानों के मालिक सियासत में रसूख रखते हैं व वे खोदो हुए कोयले को सन 2014 से पहले का खनन दिखा कर देशभर में परिवहन करते हैं। पिछले दिनो मेघालय की सिविल सोसायटी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत रिपोर्ट के प्रत्येक शब्द भ्रष्टाचार, अराजकता, इंसान की जिंदगी पर पैसे की होड़ की घिनौनी तस्वीर प्रस्तुत करता है।  रिपेार्ट बताती है कि एनजीटी द्वारा पाबंदी लगाने के बाद भी 65 लाख 81 हजार 147 मेट्रीक टन कोयले का खनन कर दिया गया।

मेघालय एक पर्वतीय क्षेत्र है और दुनिया में सबसे ज्यादा बरसात वाला इलाका कहलाता है। यहां छोटी-छोटी नदियां व सरिताएं है जो यहां के लोगों के जीवकोपाजैन के लिए फल-सब्जी व मछली का साधन होती हैं। मेघालय राज्य जमीन के भीतर छुपी प्राकृतिक संपदाओं के मामले में बहुत संपन्न है। यहां चूना है, कोयला है और यूरेनियम भी है। शायद यही नैसर्गिक वरदान अब इसके संकटों का कारण बन रहा है। सन 2007 में ही जब पहली बार लुका व मिंतदु नदियों का रंग नीला हुआ था, तब इसकी जांच प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने की थी। मेघालय राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2012 की अपनी रिपोर्ट में इलाके में जल प्रदूषण के लिए कोयला खदानों से निकलने वाले अम्लीय अपशिष्ट और अन्य रासायनिकों को जिम्मेदार ठहराया था।

जान लें कि राज्य में प्रत्येक एक वर्ग किलोमीटर में 52 रेट होल खदाने हैं। अकेले जयंबतिया हिल्स पर इनकी संख्या 24,626 है। असल में ये खदानें दो तरह की होती हैं।  पहली किस्म की खदान बामुश्किल तीन से चार फभ्ट कीह ोती है।  इनमें श्रमिक रेंग कर घुसते हैं।  साईड कटिंग  के जरिए मजूदर को भीतर भ्ेाजा जाता है और वे  तब तक भीतर जाते हैं जब तक उन्हें कोयले की परत नहीं मिल जाती। सनद रहे मेघालय में कोयले की परत बहुत पतली  हैं, कहीं-कहीं तो महज दो मीटर मोटी। इसमें अधिकांा बच्चे ही घुसते हैं। दूसरे किस्म की खदान में आयाताकार आकार में 10 से 100 वर्गमीटर आमाप में जमीन को काटा जाता है और फिर उसमें 400 फीट गहराई तक मजदूर जाते हैं।  यहां मिलने वाले कोयले में गंधक की मात्रा ज्यादा है और इसे दोयम दजे।ं का कोयला कहा जाता है। तभी यहां कोई बड़ी कंपनियां खनन नहीं करतीं। ऐसी खदानों के मालिक राजनीति में  लगभग सभी दलों के लोग हैं और इनके श्रमिक बांग्लादेश, नेपाल  या असम से आए अवैध घुसपैठिये होते हैं।
एनजीटी द्वारा रोक लगाने के बाद मेघालय की पछिली सरकार ने स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय आदिवासियों के अधिकार के कानून के तहत  इस तरह के खनन को वैध रूप देने का प्रयास किया था लेकिन केायला खदान(राष्ट्रीयकरण) अधिनियम 1973 की धारा 3 के तहत  कोयला खनन के अधिकार, वामित्व आदि हित केंद्र सरकार के पास सुरक्षित हैं सो राज्य सरकार इस अवैध खनन को वैध का अमली जामा नहीं पहना पाया। लेकिन गैरकानूनी खनाा, संकलन और पूरे देश में इसका परिवहन चलता रहा। वह तो दिसंबर के दूसरे सप्ताह में शिलांग से कोई 80 किलोमीटर दूर जयंतिया हिल्स की लुमथारी गांव की ऐसी ही अवैध खदान में 15 नबालिक मजदूर फंस गए व उनको निकालने के आपरेशन में उड़िस, बंगाल की सरकारें , आपदा प्रबंधन विभाग और नौसेना ने आपरेशन चलाया व उसी समय एक जनहित याचिका में मामला सुप्रीम कोर्ट में आया , सो दिल्ली के इसकी भनक लगी। वरना इस खून से सने कोयले के बल पर जीत कर आए जन प्रतिनिधि कभी  इसकी चर्चा तक नहीं करते।
रेट होल खनन न केवल अमानवीय है बल्कि इसके चलते यहां से बहने वाली कोपिली नदी का अस्तित्व ही मिट सा गया है। एनजीटी ने अपने पाबंदी के आदेश में साफ कहा था कि खनन इलाकों के आसपास सड़कों पर कोयले का ढेर जमा करने से वायु, जल और मिट्टी  के पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। भले ही कुछ लोग इस तरह की खदानों पर पाबंदी से आदिवासी अस्मिता का मसला जोड़ते हों, लेकिन हकीकत  तो सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत नागरिक समूह की रिपेार्ट बायान करती है। रिपोर्ट बताती है कि  इस अवैधखनन में प्रशासन, पुलिस और बाहर के राज्यों के धनपति नेताओं की हिस्सेदारी है और स्थानीय आदिवासी तो केवल शेाषित श्रमिक ही है।
सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि कोयले की कालिख राज्य की जल निधियों की दुश्मन बन गई है। लुका नदी पहाड़ियों से निकलने वाली कई छोटी सरिताओं से मिल कर बनी है,इसमें लुनार नदी मिलने के बाद इसका प्रवाह तेज होता है। इसके पानी में गंधक की उच्च मात्रा, सल्फेट, लोहा व कई अन्य जहरीली धातुओं की उच्च मात्रा, पानी में आक्सीजन की कमी पाई गई है। ठीक यही हालत अन्य नदियों की भी है जिनमें सीमेंट कारखाने या कोयला खदानों का अवशेष आ कर मिलता है। लुनार नदी के उदगम स्थल सुतुंगा पर ही कोयले की सबसे ज्यादा खदाने हैं। यहां यह भी जानना जरूरी है कि जयंतिया पहाड़ियों  के गैरकानूनी खनन से कटाव बढ़ रहा हे। नीचे दलदल बढ रहा है और इसी के चलते वहां मछलियां कम आ रही हैं।  ऊपर से जब खनन का मलवा इसमें मिलता है तो जहर और गहरा हो जाता हें । मेघालय ने गत दो दशकों में कई नदियों को नीला होते, फिर उसके जलचर मरते और आखिर में जलहीन होते देखा है। विडंबना है कि यहां प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से ले कर एनजीटी तक सभी विफल हैं। समाज चिल्लाता है, गुहार लगता है और स्थानीय निवासी  आने वाले संकट की ओर इशारा भी करते हैं लेकिन स्थानीय  निर्वाचित स्वायत्त परिषद खदानों से ले कर नदियों तक निजी हाथों में सौंपने के फैसलों पर मनन नहीं करती हे। अभी तो मेघालय से बादलों की कृपा भी कम हो गई है, चैरापूंजी अब सर्वाधिक बािरश वाला  गांव रह नहीं गया है, यदि नदियां खो दीं तो दुनिया के इस अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य वाली धरती पर मानव जीवन भी संकट ंमें होगा।


सोमवार, 21 जनवरी 2019

Reducing the crowd in Delhi is only solution of air pollution

भीड़ का दबाव कम किए बगैर नहीं बचेंगे हमारे महानगर

शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

Where the missing children has gone ?

आखिर कहां गुम हो रहे बच्चे

भारत सरकार के राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़े गवाह हैं कि राजधानी दिल्ली से बीते चार सालों में बच्चों के गुम होने की 27,356 रिपोर्ट दर्ज की गई जिनमें से 19,565 बच्चों को ही तलाशा जा सका। लगभग आठ हजार बच्चों का कुछ पता नहीं चल पाया है। देश में हर साल औसतन 90,000 बच्चों के गुम होने की रिपोर्ट थानों तक पहुंचती हैं जिनमें से 30,000 से ज्यादा का पता नहीं लग पाता है। संसद में पेश आंकड़े के मुताबिक वर्ष 2011 से 2014 के बीच सवा तीन लाख बच्चे लापता हो गए। भारत में करीब 900 संगठित गिरोह हैं जो बच्चे चुराने के काम में नियोजित रूप से सक्रिय हैं जिनके नेटवर्क में कई हजार लोग शामिल हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल वर्क के डॉ. केके मुखोपाध्याय के एक शोध-पत्र में लिखा है कि बाल वेश्यावृत्ति का असल कारण विकास से जुड़ा हुआ है और इसे अलग से आर्थिक या सामाजिक समस्या नहीं माना जा सकता। इस शोध में यह भी बात स्पष्ट हुई है कि छोटी उम्र में ही वेश्यावृत्ति के लिए बेची-खरीदी गई बच्चियों में से दो-तिहाई अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों या बेहद पिछड़ी जातियों से आती हैं। केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने कुछ साल पहले एक सर्वेक्षण करवाया था जिसमें बताया गया था कि देश में लगभग एक लाख वेश्याएं हैं जिनमें से 15 प्रतिशत 15 साल से भी कम उम्र की हैं। हालांकि गैर सरकारी संगठनों का दावा है कि ये आंकड़े हकीकत से कई गुणा कम हैं।
इस संदर्भ में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट बेहद डरावनी है जिसमें कहा गया है कि देश में हर साल दर्ज होने वाली 45 हजार से ज्यादा बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट में से तकरीबन 11 हजार बच्चों का कोई नामोनिशान तक नहीं मिल पाता है। इनमें से आधे जबरन देह व्यापार में धकेल दिए जाते हैं, शेष से बंधुआ मजदूरी कराई जाती है या फिर उन्हें भीख मांगने पर मजबूर किया जाता है। दो लाख बच्चे तस्करी कर विदेश भेजे जाते हैं जहां उनसे जानवरों की तरह काम लिया जाता है। मानवाधिकर आयोग और यूनिसेफ की एक रिपोर्ट को मानें तो गुम हुए बच्चों में से 20 फीसद बच्चे विरोध के कारण मार दिए जाते हैं। कुछ बच्चे अंग तस्करों के हाथों भी फंसते हैं। भारत में अक्सर गरीब, पिछड़े और अकाल ग्रस्त इलाकों में लड़कियों को उनके पालकों को लालच में फंसा कर शहरों में लाया जाता है और उन्हें देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। कई बार शादी के झांसे में भी लड़कियों को फंसाया जाता है।
अभी एक साल पहले ही दिल्ली पुलिस ने राजधानी से लापता बच्च्यिों की तलाश में एक ऐसे गिरोह को पकड़ा था जो बहुत छोटी बच्चियों को उठाता था, फिर उन्हें राजस्थान की पारंपरिक वेश्यावृत्ति के लिए बदनाम एक जाति को बेचा जाता था। फिर दलाल लोग ही बच्चियों के परिवारजन बन कर उन्हें महिला सुधार गृह से छुड़वाते हैं और सुदूर किसी मंडी में फिर उन्हें बेच देते हैं।
इस बात को लेकर सरकार बहुत कम गंभीर है कि भारत, बांग्लादेश, नेपाल जैसे पड़ोसी देशों की गरीब बच्चियों की तिजारत का अतंरराष्ट्रीय बाजार बन गया है। जघन्य तरीके से पेट पालने वाले हर बच्चे के जीवन का अतीत बेहद दर्दनाक होता है। भले ही मुफलिसी को बाल वेश्यावृत्ति के लिए प्रमुख कारण माना जाए, लेकिन इसके और भी कई कारण हैं जो समाज में मौजूद विकृत मन और मस्तिष्क के साक्षी हैं। एक तो एड्स के भूत ने यौनाचारियों को भयभीत कर रखा है लिहाजा वे इसकी आशंका से बचने के लिए छोटी बच्चियों की मांग ज्यादा करते हैं। इसके अलावा देश में कई सौ लोग इन मासूमों का इस्तेमाल पोर्न वीडियो व फिल्में बनाने में कर रहे हैं। अरब देशों में भारत की गरीब मुस्लिम लड़कियों को बाकायदा निकाह करवा कर सप्लाई किया जाता है। यह बात समय-समय पर सामने आती रहती है कि गोवा, पुष्कर जैसे अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों के आकर्षण केंद्र बच्चियों की खपत के बड़े केंद्र हैं।
कहने को सरकारी रिकार्ड में कई बड़े दावे व नारे हैं- जैसे वर्ष 1974 में संसद ने बच्चों के संदर्भ में एक राष्ट्रीय नीति पर मुहर लगाई थी जिसमें बच्चों को देश की अमूल्य धरोहर घोषित किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 372 में नाबालिग बच्चों की खरीद-फरोख्त करने पर 10 साल तक सजा का प्रवधान है। असल में इस धारा में अपराध को सिद्ध करना बेहद कठिन है, क्योंकि अभी हमारा समाज बाल-वेश्यावृत्ति जैसे कलंक से निकली किसी भी बच्ची के पुनर्वास के लिए सहजता से राजी नहीं है। एक बार जबरिया ही सही इस फिसलन में जाने के बाद खुद परिवार वाले बच्ची को अपनाने को तैयार नहीं होते, ऐसे में भुक्तभोगी से किसी के खिलाफ गवाही की उम्मीद नहीं की जा सकती है। दुनिया के 174 देशों जिसमें भारत भी शामिल है, के संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 34 में उल्लेख है कि बच्चों को सभी प्रकार के यौन उत्पीड़न से बचाने की जिम्मेदारी सरकार पर है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह बात किताबों से आगे नहीं है। कहने को तो देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के बच्चों की देखभाल, विकास और अब तो शिक्षा की भी गारंटी देता है, लेकिन इसे नारे से आगे बढ़ाने के लिए न तो इच्छाशक्ति है और न ही धन, जबकि गरीबी, बेराजगारी, पलायन, सामाजिक कुरीतियों, रूढ़िवादी लोगों के लिए बच्चियों को देह व्यापार के ध्ांधे में धकेलने के लिए उनका आर्थिक और आपराधिक तंत्र बेहद ताकतवर है। आज बच्चों, खासकर बालिकाओं को केवल जीवित रखना ही नहीं, बल्कि उन्हें इस तरह की त्रसदियों से बचाना भी जरूरी है और इसके लिए सरकार की सक्रियता, समाज की जागरूकता और पारंपरिक लोक की सोच में बदलाव जरूरी है।

लोक आस्था और पर्यावरण - पुस्तक समीक्षा

पुस्तक समीक्षाः 'लोक, आस्था और पर्यावरण', ताकि बची रहे धरती

'लोक, आस्था और पर्यावरण' में हमारे पर्व, समाज की मान्यताओं में छिपे पर्यावरण संरक्षण के सूत्र और पर्वों के बाज़ार बनने से नष्ट उनकी मूल आत्मा जैसे मसलों को तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया है

यथावत पत्रिका जनवरी १९ 

विकास और प्रदूषण साथ-साथ चलते हैं. समस्या तब होती है जब हम तरक्की की चकाचौंध में उससे जुड़ी समस्याओं को भूल जाते हैं. जिस तरह से 'विकास' एक नई अवधारणा है, ठीक उसी तरह पर्यावरण संरक्षण भी नए जमाने की एक समस्या है. विकास, प्रगति का उत्प्रेरक तत्व है, लेकिन इसका मूल महज आर्थिक तत्व नहीं है, बल्कि गुणात्मक उन्नति है. मुल्क के हर बाशिंदे, चाहे वो इंसान हों या फिर जीव-जंतु, साफ हवा में सांस लेने के इच्छुक हैं. पर मनुष्यों ने नदी, तालाब, झरने, समुद्र सबको नष्ट किया है.
आज का पर्यावरण लाखों-लाख किस्म के पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, जानवर-पक्षी इनसान किसी के लिए नैसर्गिक नहीं रह गया है. क्या जनभावनाओं में ऐसे ही विकास संकल्पना की गई थी? जिस तरह से 'विकास'- वैश्वीकरण के बाद, मानवीय सहअस्तित्व की भावना से परे, पूंजी के प्रभुत्व से उपजी नई अवधारणा है; ठीक उसी तरह पर्यावरण संरक्षण भी नए जमाने की चुनौती है.
वास्तव में पर्यावरण एक एकीकृत शब्द है, जिसमें सूर्य-चंद्र, आकाश-पृथ्वी, जल- वायु के साथ-साथ लोक-इनसान व जीव सभी कुछ शामिल हैं. ये सभी एक साथ सुखद परिवेश में अपना निर्धारित जीवन संपन्न करें, यही पर्यावरण है. सनद रहे कि विकास एक सापेक्षिक अवधारणा है और समानअर्थी प्रतीत होने के बावजूद इसके मायने ‘प्रगति’ से भिन्न हैं.
विकास, प्रगति का उत्प्रेरक तत्व है, लेकिन इसका मूल महज आर्थिक तत्व नहीं है, बल्कि गुणात्मक उन्नति है. सभी के जीवन में सकारात्मक बदलाव. विडंबना है कि भौतिक सुख की बढ़ती लालसा और कथित विकास की अवधारणा ने एक भयानक समस्या को उपजाया और फिर उसके निराकरण के नाम पर अपनी सारी उर्जा, संचय शक्ति व धन व्यय कर रहा है. इससे ठीक उलट हमारी लोक संस्कृति और आध्यात्म का मूल आधार ही सहअस्तित्व की भावना रही है.
हमारे प्राचीनतम ग्रंथ और सदियों से आदिवासी व लोक में प्रचलित धारणाओं को गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि हमारे पुरखों की सीख, पर्व, उत्सव और जीवन शैली उसी तरह की थी कि सारा विश्व और उसके प्राणी सहजता से जीवन जी सकें. ना तो कोई बीमार हो, ना ही कोई भूखा. इसके लिए अनिवार्य था कि जल, वायु और भोजन निरापद हो.
पंकज चतुर्वेदी की पुस्तक 'लोक, आस्था और पर्यावरण' हमारे पर्व-त्योहारों की मूल भावना और उसमें आए परिवर्तनों से उपजते सामाजिक व पर्यावरणीय विग्रह की बात तो करती है, हमारे गांव- जंगलों में रहने वाले पुरखों की ऐसी पंरपरा पर भी विमर्ष करती है, जिसे आज का कथित साक्षर समाज भले ही पिछड़ापन कहे, असल में उसके पीछे गूढ़ वैज्ञानिक चेतना और तार्किक अनुभव थे.
'लोक, आस्था और पर्यावरण' में हमारे पर्व, समाज की मान्यताओं में छिपे पर्यावरण संरक्षण के सूत्र और पर्वों के बाज़ार बनने से नष्ट उनकी मूल आत्मा जैसे मसलों को तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया है.
दीपावली, होली या छठ पर्व ये सभी वास्तव में प्रकृति की पूजा और उसको सहेजने के पर्व थे, जो आज बाजारवाद की चपेट में समूचे पर्यावरण को नष्ट करने का माध्यम बन गए हैं. इस पुस्तक में इस पर्व-त्योहारों की मूल भावना और आज उनके विद्रूप रूप से उपज रही त्रासदियों पर विमर्श है.
इस पुस्तक में पर्यावरण संरक्षण की सीख, हमारे लोग और आदिवासी समाज की पीढ़ियों से चली आ रही प्रकृति संरक्षण की परम्पराओं और धरती पर जीव-जंतुओं की अनिवार्यता पर जोर देकर यह साबित करने की कोशिश की गई है कि हमारे हर्ष-आयोजन, हमारी परम्पराएं वास्तव में नैसर्गिक व्यवस्था के हनन की नहीं, बल्कि उसको सहेजने की हैं ताकि यह धरती और उसके निवासी लम्बे समय तक निरापद जीवन जी सकें.
पुस्तकः लोक, आस्था और पर्यावरण
लेखकः पंकज चतुर्वेदी
पृष्ठ संख्याः 128
मूल्यः हार्ड बाउंड रु 325
प्रकाशकः परिकल्पना प्रकाशनपुस्तक समीक्षाः 'लोक, आस्था और पर्यावरण', ताकि बची रहे धरती
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'लोक, आस्था और पर्यावरण' में हमारे पर्व, समाज की मान्यताओं में छिपे पर्यावरण संरक्षण के सूत्र और पर्वों के बाज़ार बनन...

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

Yes India loves to read books

लोग पढ़ते भी हैं और गढ़ते भी हैं!
पंकज चतुर्वेदी

दिल्ली में जनवरी के पहले सप्ताह में भीषण ठंड थी, इसके बावजूद विश्व पुस्तक मेले के 27वें संस्करण के समाप्त होने के एक दिन पहले कोई डेढ़ लाख लोग वहां पहुंच गए। शब्दोत्सव की गर्माहट में निर्माणाधीन प्रगति मैदान की अव्यवस्थाएं, प्रतिकूल मासम आर पार्किंग-जाम जैसी बाधाएं कतई आड़े नहीं आईं। सबसे बड़ी बात इस बार सबसे ज्यादा भीड़ हिंदी वाले हॉल 12 ए में थी और यहां आए पुस्तक प्रेमियों में बड़ी संख्या 18 से 35 साल वाले युवाओं की थी जो साहित्य भी खरीद रहे थे और कथेतर पुस्तकें भी। नेशनल बुक ट्रस्ट ने एक दिन में छह लाख तो प्रकाशन विभाग ने एक लाख और भोपाल से आए ‘साईकिल व प्लूटो; बाल पत्रिकाओं के प्रकाशक ने 97 हजार की बिक्री की। इस साल जगह की दिक्कत थी और कोई 600 प्रकाशकों ने 1300 स्टालों में लाखों पुस्तकें सजाई थीं। इस बार 5 से 13 जनवरी के बीच लगभग  चार हजार पुस्तकों का विमोचन हुआ। जाहिर है कि इतने लेखक भी थे और उनके हजारों-हजार पाठक भी। आखिरी दो दिनों में भीड़ इतनी कि कई-कई बार मेट्रो व प्रगति मैदान के दरवाजे बंद करने पड़े।

प्रगति मैदान में बहुत से मेले लगते हैं, गाड़ियों का खाने-पीने का, प्लास्टिक व इंजीनियरिंग का.... और भी बहुत से लेकिन भले ही इसे नाम मेला का दिया गया हो, असल में यह पुस्तकों के साथ जीने, उसे महसूस करने का उत्सव है। जिसमें गीत-संगीत हैं, आलेाचना है, मनुहार है, मिलन है, असहमतियां हैं और सही मायने में देश की विविधतापूर्ण भाषायी एकता की प्रदर्शनी भी है। अक्सर लोग कहते मिलते हैं कि दुनियाभर के पुस्तक मेलों से तुलना करें तो अब वार्षिक बन गए विश्व पुस्तक मेले में अधिकांष वही प्रकाशक , विक्रेता अपनी दुकान लगा लेते हैं जो सालभर दरियागंज में होते हैं। इस बार का पुस्तक मेला  पांच से 13 जनवरी 2019 तक था और इसका थीम विकलांगजनों के लिए पठन सामग्री थां व अतिथि देश शारजाह।
बीते दो दषकेां से, जबसे सूचना प्रौद्योगिकी का प्रादुर्भाव हुआ है , मुद्रण तकनीक से से जुड़ी पूरी दुनिया एक ही भय में जीती रही है कि कहीं कंप्यूटर, टीवी सीडी की दुनिया छपे हुए काले अक्षरों को अपनी बहुरंगी चकाचौंध में उदरस्थ ना कर ले।
जैसे-जैसे चिंताएं बढ़ीं,  पुस्तकों का बाजार भी बढ़ता गया। उसे बढ़ना ही था- आखिर साक्षरता दर बढ़ रही है, ज्ञान पर आधारित जीवकोपार्जन करने वालो की संख्या बढ़ रही है। जो प्रकाषक बदलते समय में पाठक के बदलते मूड को भांप गया , वह तो चल निकला, बांकी के पाठकों की घटती संख्या का स्यापा करते रहे।
बौद्धिक-विकास, ज्ञान- प्रस्फुटन और शिक्षा के प्रसार के इस युग में यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि देश की बात क्या करें ,दिल्ली में भी पुस्तकें सहजता से उपलब्ध नहीं हैं। गली-मुहल्लों में जो दुकाने हैं, वे पाठ्य पुस्तकों की आपूर्ति कर ही इतना कमा लेते हैं कि दीगर पुस्तकों के बारे में सोच नहीं पाते।  कुछ जगह ‘‘बुक स्टोर’’ हैं तो वे एक खास सामाजिक-आर्थिक वर्ग की जरूरतों को भले ही पूरी करते हों, लेकिन आम मध्यवर्गीय लोगों को वहां मनमाफिक पुस्तकें मिलती नहीं हैं  लेाग उदाहरण देते हें कि इरान जैसे देश में स्थाई तौर पर पुस्तकों का मॉल है, लेकिन भारत में सरकार इस पर सोच नहीं रही है। गौर तलब है कि भारत में पुस्तक व्यवसाय की सालान प्रगति 20 फीसदी से ज्यादा है, वह भी तब जब कि कागज के कोटे, पुस्तकों को डाक से भेजने पर छूट ना मिलने, पुस्तकों के व्यवसाय में सरकारी सप्लाई की गिरोहबंदी से यह उद्योग  हर कदम पर लड़ता है। यह कहने वाले प्रकाशक  भी कम नहीं है जो इसे घाटे का सौदा कहते हैं, लेकिन जब प्रगति मैदान के पुस्तक मेला में छुट्टी के दिन किसी हॉल में घुसो और वहां की गहमा-गहमी के बीच आधी बांह का स्वेटर भी उतार फैंकने की मन हो तो जाहिर हो जाता है कि लोग अभी भी पुस्तकों के पीछे दीवानगी रखते हैं। तो फिर इतना व्यय कर पुस्तक मेला का सालाना आयोजन क्यों? इसकी जगह गली-मुहल्लों में पुस्तकों की दुकाने क्यों नहीं, यह स्वाभविक सा सवाल सभी के मन में आता है।

असल में नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला केवल किताब खरीदने-बेचने की जगह नहीं है, यह केवल पुस्तक प्रेमियों की जरूरत को एक स्थान पर पूरा करने का बाजार  भी नहीं है। केवल किताब खरीदने के लिए तो  दर्जनों वेबसाईट उपलब्ध हैं जिस पर घर बैठे आदेश दो और घर बैठे डिलेवरी लो। असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह होती है जिससे जब तक बात ना करो, रूबरू ना हो, हाथ से स्पर्ष ना करो, अपनत्व का अहसास देती नहीं हे। फिर तुलनात्मकता के लिए एक ही स्थान पर एक साथ इनते सजीव उत्पाद मिलना एक बेहतर विपणन विकल्प व मनोवृति भी है। फिर दिल्ली का पुस्तक मेला तो एक त्योहार है, पाठकों, लेखकों, व्यापारियों , बच्चों का।  हर दिन कई सौ पुस्तकों का लोकार्पण, कम से कम बीस गोष्ठी-विमर्श, दस-पंदह लेखकों से बातचीतेां के सत्र, बच्चों की गतिविधियां। खासतौर पर विशेष अतिथि देश शारजाह से आए 250 से ज्यादा लेखकों, चित्रकारों , प्रकाशकों से मिलने के कई फायदे थे । उनके यहां के लेखन, पाठक, और व्यापार से काफी कुछ सीखने को मिल जाता है। देष के आंचलिक क्षेत्रांे से दूर-दूर से आते पाठक-लेखक- आम लोग।

दिन चढ़ते ही प्रगति मैदान के लंबे-चौड़े लॉन में लोगों के टिफिन खुल जाते, खाने के स्टॉल खचाखच भरे होते ं, लेाग कंधे छीलती भीड़ में उचक-उचक कर लेखकों को  पहचानने-चीन्हने का प्रयास करते ं। उसी के बीच कुछ मंत्री, कुछ वीआईपी, कुछ फिल्मी सितारे भी आ जाते हैं और भीड़ उनकी ओर निहारने लगती है। कहीं कविता पाठक चलता है तो कही व्यंग व कहानी पेश करने के आयोजन। अंधेरा होते ही अस्थाई बने हंसध्वनि थियेटर पर  गीत-संगीत की महफिल सज जाती । इस बार तो भारत की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाते देश के अलग-अलग हिस्सों के कई मशहूर कलाकार यहां अपनी कला का प्रदर्शन किया । दूर दराज से आए और नए लेखक अपनी पांडुलिपियां ले कर प्रकाशकों को तलाशते दिखे तो कुछ एक अपनी पुस्तकों को मित्रों को बांट कर सुख पाते थे।
खेमेबाजी, वैचारिक मतभेद के बीच 35 से ज्यादा भाषाओं की पुस्तकें, हजारों लेखक व प्रकाशक लाखेंा पाठकों को पुस्तकों की यह नवरात्रि बांधे रखती हैं। जाहिर है कुछ चिंताएं भी हैं, कुछ सरोकार भी, कुछ भाशाओं  को ले कर तो कुछ पुस्तक बिक्री को ले कर। देषभर के सरकारी प्रकाषन संस्थान भी यहां होते हैं तो जाहिर है कि यह भीड़ उन्हें कुछ सबक दे कर जाती है, अपने प्रकाषन की दषा-दिषा के बारे में। विदेषी मंडप में अधिकांष पुस्तकें केवल प्रदर्षन के लिए होती हैं और गंभीर किस्म के लेखक  इनसे आईडिया का सुराख लगाते दिखते हैं।
केवल पढ़ने-लिखने वाले ही नहीं, मुद्रण व्ययवसाय से जुडे लोग- मुद्रक, टाईपसेटर, चित्रकार, बाईंडर, से ले कर प्रगति मैदान में खाने-पीने की दुकाने चलाने वालों, कूड़ा बीनने वालों और भी कई लेागों के लिए यह मेला ‘‘दीवाली’ की तरह होता है। ट्रेड फेयर के बाद सबसे भीड़भरा मेला होता है यह प्रगति मैदान में , जहां हर आयु वर्ग, प्रत्येक सामाजिक-आर्थिक स्थिति , सभी विचारधाराओं के लोगों की समान भागीदारी होती है। इतना सबकुछ महज व्यावसायिक नहीं होता, इसमें दिल व दिमाग दोनों पुस्तक के साथ धड़कते-मचलते हैं । इस बार नौ दिनों में कोई 12 लाख लोग पुस्तकों के साथ समय बिताने पहुंचे। यह प्रगति मैदान में लगने वाले किसी भी मेले की सबसे बड़ी आगंतुक-संख्या है। तभी यह मेला नहीं है, आनंदोत्सव है पुस्तकों की नवरात्रि या शिशिरोत्सव।

सोमवार, 14 जनवरी 2019

Hindon River pollution starts from origin

हिंडन नदी : एक मरती नदी, तंद्रा में हम

हिंडन को लेकर अब एक नया जुमला उछाला जा रहा है कि हिंडन कभी नदी थी ही नहीं, यह तो महज बरसाती नाला थी, और इसमें जल-प्रवाह पहले से ही कारखानों से उत्सर्जित जल का ही परिणाम था। यहां तीन पीढ़ी के लोग अभी भी साक्षी हैं कि पुश्तों से उनका घर, रसोई, खेत, मवेशी सब कुछ इसी हिंडन पर निर्भर थे, जबकि कारखाने बामुश्किल चार दशक पहले के हैं। जिस नदी का पौराणिक कथाओं से ले कर इतिहास तक में उल्लेख है, यह हाल उसके उद्गम स्थल के जिले का है। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार हिंडन उप्र के सहारनपुर जिले में शिवालिक पहाड़ियों से निकलती है। विडंबना है कि अपने शुरुआती मार्ग में ही इसमें ऑक्सीजन की मात्रा लगभग समाप्त हो जाती है, और इसमें कोई जलीय-जीव नहीं मिलते। मिलता है तो बस जानलेवा काईरोनॉस लार्वा। दस किमी. रास्ता पार करते ही नदी में जीवनदायी जल की जगह आर्सेनिक, सायनाइड, क्रोमियम, लोहा, सीसा, पारा जैसे जहर खतरनाक मात्रा को पार कर देते हैं। यह बात एनजीटी में हलफनामे में बताई गई है कि जिले के कुतबा माजरा, अंबेहटा, ढायकी, महेशपुर, शिमलाना आदि गांवों में गत पांच सालों में कैंसर से 200 से ज्यादा मौतें हुई हैं। 2011 में शिमलाना में बाबा मंगल गिरि ने हिंडन बचाने के लिए 11 दिन का अनशन किया था। पूरे इलाके के गांव वाले जुटे थे । तब सरकार ने कई वायदे कर अनशन तुड़वाया था, छह साल बाद भी वायदों का एक भी शब्द क्रियान्वयन के स्तर पर नहीं आया। पहाड़ से उतर कर हिंडन हर आम नदी की तरह स्वच्छ जल और जीवन ले कर उतरती है। इसका सबसे पहला सामना स्टार पेपर मिल के नाले से होता है। यहां से कागजों पर चलने वाले जल-स्वच्छता संयत्र से निकले पानी के चलते नदी में लेड की मात्रा 0.34 और क्रोमियम की मात्रा 1.84 मिग्रा. प्रति लीटर के खतरनाक स्तर पर आ जाती है। 

गौरतलब है कि कई सौ किमी. चल कर जब हिंडन ग्रेटर नाएडा के पास मोमनाथल में यमुना से मलती है, तो वहां भी इन दो जहर की मात्रा लगभग इतनी ही होती है। सहारनपुर जिले में ही इतना जहर या तो सीधे या फिर सहायक नदी-नालों के जरिए हिंडन में मिल जाता है कि यह ‘‘रीवर’ की जगह ‘‘सीवर’ बन जाती है। सरसावा किसान सहकारी चीनी मिल और पिलखनी केमिकल्स एंड डिस्टलरीज का गैरशोधित पानी सेंधली नदी में आता है, और उससे हिंडन में। ननौता की चीनी मिल, गंगेश्वरी लिमिटेड, देवबंद का पीले रंग का पानी और एसएमसी फूड लिमिटेड का बदबूदार पानी सीधे कृणा नदी में जाता है, जो कि कुछ ही दूर पर हिंडन में मिल जाती है। यूसुफपुर टपरी का शराब कारखाना तो बगैर किसी मध्यस्थ माध्यम के हिंडन में अपना जहर घोलता है। शाकुंभरी शुगर मिल का जहरीला पानी बूढ़ी यमुना के जरिए इसमें आता है। इसी तरह काली नदी के जरिए भी चार कारखाने अपनी गंदगी का योगदान इसमें करते हैं। अदालतें, सरकारी रिपोर्ट सब कुछ कहानी बयां करते हैं, लेकिन विकास और पर्यावरण के बीच प्राथमिकता और सामंजस्य के अभाव में एक नदी लगभग मर जाती है, वह भी अपने प्रारंभिक चरण में ही। सहारनपुर जिले के गावों में अच्छी खेती होती है और उससे संपन्नता भी है, लेकिन जागरूकता का अभाव भी है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यहां नदी के जहर होने का पूरा ठीकरा केवल कारखानों पर नहीं फोड़ा जा सकता क्योंकि पानी में डीडीटी, मेलाथियान जैसे कई ऐसे तत्व जानलेवा स्तर पर मिले हैं, जो किसी कारखाने से नहीं निकलते। इन दिनों यहां खेत में दवा और फसल बढ़ाने के केमिकल के नाम पर कई ऐसे रासायन बिक रहे हैं, जो असल में चीन से आए हैं, और यहां शक्तिमान या ऐसे ही नाम से सहजता से उपलब्ध हैं। इनमें कौन से रासायन हैं, इनका क्या असर फसल, जमीन या खेती पर है, इसका कोई अता-पता नहीं है। यहां कुछ दशकों के दौरान धान की खेती होने लगी जबकि यह गेहूं और चने या गन्ने का इलाका था, इससे खेतों में जमकर रासायन डाले गए और पानी भी भरा गया, बरसात के दिनों में यहीं का जल बह कर हिंडन में जुड़ा और अपने साथ रासायनों का जहर भी ले गया। सहारनपुर में ही हिंडन की इतनी दुर्गति हो जाती है कि आगे मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद में इसे एक गंदगी ढोने वाला नाला ही मान लिया जाता है। कहीं सड़क, पुल, मेट्रो के नाम पर इसकी धारा को संकरा या काट दिया जाता है, तो कहीं सीवर को इसमें जोड़ा जाता है, कहीं कारखाने का ठोस कचरा इसके किनारे डाला जाता है, तो कहीं पशु-वध केंद्रों का खून और मज्जा इसमें डालने में किसी को संकोच नहीं होता। पावन यमुना यमुना की पवित्र धारा तभी संभव है, जब हिंडन जैसी नदियों का जीवन मिले। 

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

citizen amendment bill is sparking North East

सावधान ! पूर्वोत्तर सुलग रहा है
पंकज चतुर्वेदी

संसद में प्रस्तुत नागरिकता बिल के विरोध में गत मंगलवार को समूचे पूर्वोत्तर राज्यों में जो बंद हुआ, वह एक बानगी मात्र है कि यदि विदेश से अवैध तरीके से आ कर भारत में बसे लोगों को धर्म-जाति के आधार पर बांटा गया तो यह एक बड़ी अशांति का कारण हो सकता है। उल्ल्ेखनीय है कि नए नागरिकता बिल में मुसलमानों के अलावा अन्य किसी भी धर्म के ऐसे विदेशी जो कि छह साल से भारत में रह रहे हैं उन्हें यहां की नागरिकता की पात्रता का प्रावधान है। षायद नई युवा पीढ़ी की याददाश्त में न हो कि किस तरह अभी से 28 साल पहले अवैध आव्रजकों के मामले में असल सुलगता रहा था और उसके बाद हुएए समझौते के बाद वहां षांति आई थी। हाल ही कि एनआरसी यानि नागरिकता रजिस्टर की कवायद में भी धर्म-जाति के आधार पर विदेशियों के नाम नहीं रखे गए थे। आज तो यही लगता है कि भड़कती अंगारों पर यदि राख जम जाए तो उन्हें षंात नहीं माना जा सकता। असम , मणिपुर, अरूणाचल, त्रिपुरा और मेघालय की असली समस्या घुसपैठियों की बढ़ती संख्या है, असल में यह पूर्वोत्तर ही नहीं पूरे देश की समस्या है। तभी मेघालय सरकार ने नागरिकता बिल पर विरोध दर्ज किया है। जान लें कि यदि अब और चूक हो गई तो तो आने वाले दो दशकों में असम सहित पूर्वोत्तर के कई राज्य भी कश्मीर की तरह देश के लिए नासूर बना जाएंगे। यह इलाका ना केवल संवेदनशील सीमावर्ती है, बल्किं वनोपज, तेल जैसे बेशकीमती भंडार भी हैं। यहां किसी भी तरह की अशांति पूरे देश के लिए बेहद खतरनाक है।

असम के मूल निवासियों की बीते कई दशकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वहां से वापिस भेजा जाए। इस मांग को ले कर आल असम स्टुडंेट यूनियन(आसू) की अगुवाई में सन 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था, जिसमें सत्याग्रह, बहिष्कार, धरना और गिरफ्तारियां दी गई थीं। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्यवाही के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया।  चुनाव के बाद जम कर हिंसा शुरू हो गई।  इस हिंसा का अंत केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार जनवरी-1966 से मार्च- 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि सन 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापिस अपने देश जाना होगा। इसके बाद आसू की सरकार भी बनीं। लेकिन इस समझौते को पूरे 28 साल बीत गए हैं और विदेशियों- बांग्लादेशी व म्यांमार से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं ये विदेशी बाकायदा अपनी भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं। एनआरसी रस्टिर के पहले मसौदे में जिस तरह बड़े स्तर पर गड़बड़ियों हुई और फिर धर्म के आधार पर नागरिकता तय करने का कानून आया, वह मूल असम समझौते की आत्मा के पूरी तरह खिलाफ है। असम के मूल निवासी बोड़े भी नए नागरिकता कानून के खिलाफ हैं , जबकि सभी बोड़ो हिंदू नहीं, कई ईसाई हैं।

यह एक विडंबना है कि बांग्लादेश को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसी का फायदा उठा कर बांग्लादेश के लोग बेखौफ यहां आ रहे हैं, बस रहे हैं और अपराध भी कर रहे हैं। हमारा कानून इतना लचर है कि अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेशी घोशित कर देती है, लेकिन बांग्लादेश की सरकार यह कह कर उसे वापिस लेने से इंकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं हैं। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से पुरानी समस्या है।  सन 1901 से 1941 के बीच भारत(संयुक्त) की आबादी में बृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिशत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसदी दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेशी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, सिबसागर जिलो में म्यांमार व अन्य देशों से लोगों की भीड़ आना षुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी 30 सालों में असम में केवल सिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां असम मूल के लोगों की बहुसंख्यक आबादी होगी।
असम में विदेशियों के षरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है - 1971 की लड़ाई या बांग्लादेश बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 से 1971 के बीच 37 लाख सत्तावन हजार बांग्लादेशी , जिनमें अधिकांश मुसलमान हैं, अवैध रूप से अंसम में घुसे व यहीं बस गए। सन 70 के आसपास अवैध षरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के 33 मुस्लिम विधायाकें ने देवकांत बरूआ की अगवाई में मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। षुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत सी है, जिस पर ख्ेाती नहीं होती है और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देश का भला कर रहे हैं। लेकिन आज हालात इतने बदतर है कि कांजीरंगा नेशनल पार्क को छूती कई सौ किलोमीटर के नेशनल हाईवे पर दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। इनके कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि कोई चार साल पहले राज्य के राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी रहे ले.ज. एस.के. सिन्हा ने राश्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेशियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसे तलाशना व फिर वापिस भेजने के लायक हमारे पास मशीनरी नहीं है।
बाहरी लोगों के स्थानीय संसाधन पर कब्जे की समस्या मणिपुर और त्रिपुरा में भी गंभीर है। यहां हिंदीू और बैोद्ध चकमा, हजोंग जैसे बाहरी गैर-मुस्लिम की संख्या लाखों में है और इनको ले कर पूर्वोत्त राज्यों में बड़े आंदोलन व हिंसा होती रही है। वहीं रोहंगिया भी बड़ी संख्या में है। नए कानून के मुताबिक रोहंगिया तो बाहर होंगे लेकिन अन्य धर्म के  षरणार्थी नहीं।
हमारे पूर्वोत्तार राज्य बेहद संवेदनशील हैं। यहां कई छोटे-छोटे जनजातियों के कबीले हैं और वे अपनी लोक-परंपराओं में बाहरी दखल पसंद नहीं करते। याद होगा कि त्रिपुरा में बसे कोई 33 हजार ब्रू आदिवासियों को वापसि उनके राज्यमिजोरम भेजने की तनातननी चलती रहती है। ऐसे में जिन लोगों को वे बाहरी मान कर रखे हुए थे, वे यदि अब केवल धर्म के आधर पर नागरिक बन रहे हैं तो उनसे आदिवासियों में घोर असंतोश है।
जब-जब राज्य के मूल बाशिंदों को बिजली, पानी व अन्य मूलभूत जरूरतों की कमी खटकेगी, उन्हें महसूस होगा कि उनकी सुविधाओं पर डाका डालने वाले देश के अवैध नागरिक हैं, आंदोलन फिर होंगे, हिंसा फिर होगी; आखिर यह एक संस्कृति-सभ्यता के अस्तित्व का मामला जो है। सरकार में बैठे लोगों को भी यह विचारना होगा कि किसी समझौते को लागू करने में 28 साल का समय कम नहीं हाता है और यह वादा-खिलाफी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं। एक बात और , दिल्ली या राश्ट्रीय मीडिया के लिए पूर्वोत्तर की इस तरह की खबरें गैरजरूरी सी प्रतीत होती है- वहां होने वाली हिंसा की खबरें जरूर यदा-कदा सुर्खियों में रहती हैं, लेकिन हिंसा के क्या कारण हैं उसे जानने के लिए कभी कोई हकीकत को कुरेदने कूा प्रयास नहीं करता है। यही कारण है कि एकबारगी दवाब बना कर सरकार कुछ संगठनों को हिंसा त्यागने पर मजबूर करती है तो वादाखिलाफी से त्रस्त कोई  दूसरे युवा हथियार उठा लेते हैं। लब्बोलुवाब यह है कि यदि वहां स्थाई षांति चाहिए तो घुसपैठियों की समस्या का इलाज जाति-धर्म से परे जा कर सोचना होगा।
पंकज चतुर्वेदी

संपर्क 9891928376

सोमवार, 7 जनवरी 2019

Book fair a place of prayer to words




पुस्तकोत्सव का पर्याय है यह मेला




जनवरी के आरंभिक दौर में कड़ाके की ठंड के बावजूद लेखक-प्रकाशक-पुस्तक प्रेमी उत्साहित हैं। वैसे तो नई दिल्ली के प्रगति मैदान में व्यापार मेले समेत बहुत से मेले लगते रहते हैं, लेकिन नाम भले ही इसे पुस्तक मेला दिया गया हो, पर असल में यह पुस्तकों के साथ जीने और उसे महसूस करने का उत्सव है, जिसमें गीत-संगीत है, आलोचना है, मिलन है, असहमतियां हैं और सही मायने में देश की विविधतापूर्ण भाषाई एकता की प्रदर्शनी भी है। अक्सर लोग यह कहते पाए जाते हैं कि दुनिया भर के पुस्तक मेलों से तुलना करें तो अब वार्षिक बन गए दिल्ली में आयोजित ‘विश्व पुस्तक मेला’ में अधिकांश वही प्रकाशक, विक्रेता अपनी दुकान लगाते हैं जो साल भर दरियागंज में होते हैं। इस बार पुस्तक मेला का थीम ‘विकलांगजनों के लिए पठन सामग्री’ है और अतिथि देश शारजाह है।
बीते दो दशकों से, जबसे सूचना प्रौद्योगिकी का प्रादुर्भाव हुआ है, मुद्रण तकनीक से जुड़ी पूरी दुनिया एक ही भय में जीती रही है कि कहीं कंप्यूटर और अब स्मार्टफोन की दुनिया छपे हुए काले अक्षरों को अपनी बहुरंगी चकाचौंध में उदरस्थ न कर ले। जैसे-जैसे चिंताएं बढ़ीं, पुस्तकों का बाजार भी बढ़ता गया। उसे बढ़ना ही था- आखिर साक्षरता दर बढ़ रही है, ज्ञान पर आधारित जीविकोपार्जन करने वालों की संख्या बढ़ रही है। जो प्रकाशक बदलते समय में पाठक के बदलते मूड को भांप गया, वह तो चल निकला, बाकी पाठकों की घटती संख्या का स्यापा करते रहे।

बौद्धिक-विकास, ज्ञान-प्रस्फुटन और शिक्षा के प्रसार के इस युग में यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि देश की बात क्या करें, दिल्ली में भी पुस्तकें सहजता से उपलब्ध नहीं हैं। गली-मुहल्लों में जो दुकाने हैं वे पाठ्य पुस्तकों की आपूर्ति करके ही इतना कमा लेते हैं कि अन्य पुस्तकों के बारे में सोच नहीं पाते। कुछ जगह ‘बुक स्टोर’ हैं तो वे एक खास सामाजिक-आर्थिकवर्ग की जरूरतों को भले ही पूरी करते हों, लेकिन आम मध्यवर्गीय लोगों को वहां मनमाफिक पुस्तकें मिलती नहीं हैं। कई लोग उदाहरण देते हैं कि ईरान जैसे देश में स्थाई तौर पर पुस्तकों का मॉल है, लेकिन भारत में सरकार -समाज इस बारे में सोच नहीं रहा है।
भारत में पुस्तक व्यवसाय की सालाना प्रगति 20 फीसद से भी ज्यादा है, वह भी तब जबकि कागज के कोटे, पुस्तकों को डाक से भेजने पर छूट न मिलने, पुस्तकों के व्यवसाय में सरकारी सप्लाई की गिरोहबंदी से यह उद्योग हर कदम पर संघर्षरत है। यह कहने वाले प्रकाशक भी कम नहीं हैं जो इसे घाटे का सौदा बताते हैं, लेकिन जब प्रगति मैदान के पुस्तक मेला में छुट्टी के दिन किसी हॉल में घुसने पर वहां की गहमा-गहमी के बीच कड़ाके की सर्दी में आधे बांह का स्वेटर भी उतार फेंकने का मन हो तो जाहिर है कि लोग अभी भी पुस्तकों के पीछे दीवानगी रखते हैं। तो फिर इतना व्यय कर पुस्तक मेला का सालाना आयोजन क्यों? इसकी जगह गली-मुहल्लों में पुस्तकों की दुकानें क्यों नहीं, यह स्वाभाविक सवाल सभी के मन में आता है।
असल में नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला केवल किताब खरीदने-बेचने की जगह नहीं है, यह केवल पुस्तक प्रेमियों की जरूरत को एक स्थान पर पूरा करने का बाजार भी नहीं है। केवल किताब खरीदने के लिए तो दर्जनों वेबसाइट आज उपलब्ध हैं जिनके जरिये घर बैठे ऑर्डर दिया जा सकता है और घर पर ही उसे हासिल भी किया जा सकता है। असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह है जिससे जब तक बात न करो, हाथ से स्पर्श न करो, तब तक अपनत्व का अहसास नहीं देती है। फिर तुलनात्मकता के लिए एक ही स्थान पर एक साथ इतने सजीव उत्पाद मिलना एक बेहतर विपणन विकल्प व मनोवृत्ति भी है। फिर दिल्ली का पुस्तक मेला तो एक त्योहार है पाठकों, लेखकों, प्रकाशकों और छात्रों का।
पुस्तक मेले में रोजाना कई सौ पुस्तकों का लोकार्पण, कम से कम बीस गोष्ठियों-विमर्श, दस-पंद्रह लेखकों से बातचीत के सत्र, बच्चों की गतिविधियां आदि। खासतौर पर विशेष अतिथि देश चीन से आए 250 से ज्यादा लेखकों, चित्रकारों, प्रकाशकों से मिलने के कई फायदे हैं। उनके यहां के लेखन, पाठक और व्यापार से काफी कुछ सीखने को मिलता है। देश के आंचलिक क्षेत्रंे से दूर-दूर से आते पाठक-लेखक-आम लोग। दिन चढ़ते ही प्रगति मैदान के लंबे-चौड़े लॉन में लोगों के टिफिन खुल जाते हैं, खाने के स्टॉल खचाखच भरे होते हैं, लोग कंधे छीलती भीड़ में उचक-उचक कर लेखकों को पहचानने-देखने का प्रयास करते हैं। उसी के बीच कुछ मंत्री, कुछ वीआइपी, कुछ फिल्मी सितारे भी आ जाते हैं और भीड़ उनकी ओर निहारने लगती है। कहीं कविता पाठ चलता है तो कहीं व्यंग्य व कहानी पेश करने के आयोजन। अंधेरा होते ही हंसध्वनि थिएटर पर गीत-संगीत की महफिल सज जाती है। इस बार तो भारत की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाते देश के अलग-अलग हिस्सों के कई मशहूर कलाकार यहां अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। दूरदराज से आए और नए लेखक अपनी पांडुलिपियां ले कर प्रकाशकों को तलाशते दिखते हैं तो कुछ एक अपनी पुस्तकों को मित्रों को बांट कर सुख पाते हैं। खेमेबाजी, वैचारिक मतभेद के बीच 35 से ज्यादा भाषाओं की पुस्तकें, हजारों लेखक व प्रकाशक लाखों पाठकों को नौ दिन तक बांधे रखते हैं। जाहिर है कुछ चिंताएं भी हैं, कुछ सरोकार भी, कुछ भाषाओं को लेकर तो कुछ पुस्तक बिक्री को लेकर। देश भर के सरकारी प्रकाशन संस्थान भी यहां होते हैं तो जाहिर है कि यह भीड़ उन्हें कुछ सबक दे कर जाती है, अपने प्रकाशन की दशा-दिशा के बारे में। विदेशी मंडप में अधिकांश पुस्तकें केवल प्रदर्शन के लिए होती हैं और गंभीर किस्म के लेखक इनसे आइडिया का अंदाजा लगाते दिखते हैं।
केवल पढ़ने-लिखने वाले ही नहीं, मुद्रण व्यवसाय से जुड़े लोग- मुद्रक, टाइपसेटर, चित्रकार, बाईंडर से लेकर प्रगति मैदान में खाने-पीने की दुकान चलाने वालों के लिए यह मेला ‘दीवाली’ की तरह होता है। ट्रेड फेयर के बाद सबसे भीड़ भरा मेला होता है यह प्रगति मैदान में, जहां हर आयु-वर्ग, प्रत्येक सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सभी विचारधाराओं के लोगों की समान भागीदारी होती है। इतना सबकुछ महज व्यावसायिक नहीं होता, इसमें दिल व दिमाग दोनों पुस्तक के साथ धड़कते-मचलते हैं तभी यह मेला नहीं है, आनंदोत्सव है पुस्तकों का शिशिरोत्सव

शुक्रवार, 4 जनवरी 2019

how to prevent wastage of food



वह अन्न जिससे भरा जा सकता है करोड़ों का पेट
आज के "हिंदुस्तान" में लेख

हम जितना खेतों में उगाते हैं, उसका 40 फीसदी उचित रख-रखाव के अभाव में नष्ट हो जाता है। यह आकलन स्वयं सरकार का है। यह व्यर्थ गया अनाज बिहार जैसे बड़े राज्य का पेट भरने के लिए काफी है। हर साल 92,600 करोड़ रुपये कीमत का 6.7 करोड़ टन खाद्य पदार्थ बर्बाद होता है। वह भी उस देश में, जहां बड़ी आबादी भूखे पेट सोती है। यह बेहद गंभीर मामला है। विकसित कहे जाने वाले ब्रिटेन जैसे देश साल भर में जितना भोजन पैदा नहीं करते, उतना हमारे यहां बेकार हो जाता है। कुछ दिनों पहले ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन की एक रपट में बताया गया कि भारत में करोड़ों लोग भूखे पेट सोते हैं, हालांकि विभिन्न सरकारों के प्रयासों से ऐसे लोगों की संख्या पहले से कम हुई है। 
भारत में सालाना 10 लाख टन प्याज और 22 लाख टन टमाटर खेत से बाजार तक पहुंचने से पहले ही सड़ जाते हैं। वहीं 50 लाख अंडे उचित भंडारण के अभाव में टूट जाते हैं। हमारे यहां गन्ने के कुल उत्पादन का 26.6 प्रतिशत हर साल बेकार हो जाता है। हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना ऑस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नष्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ रुपये होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को साल भर भरपेट खाना दिया जा सकता है। 2़1 करोड़ टन अनाज केवल इसलिए बेकार हो जाता है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। सब्जी, फल का 40 फीसदी कोल्ड स्टोरेज व समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न व अन्य खाद्य पदार्थ बर्बाद करता है। 
जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं, उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं। एक साल में जितना सरकारी खरीद का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छिपा नहीं है। बस जरूरत है, तो इस दिशा में एक प्रयास भर करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक क्विंटल अनाज के आकस्मिक भंडारण और उसे जरूरतमंदों को देने की नीति का पालन हो, तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा। 
जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रखने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों और शादी-ब्याह जैसे पारिवारिक समारोहों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ाघर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं, जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते हैं। बंगाल के बंद हो गए चाय बगानों में आए दिन बेरोजगार मजूदरों के भूख के कारण दम तोड़ने की बात हो या फिर महाराष्ट्र के मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर, या मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चों के 80 फीसदी की उचित खुराक न मिल पाने के कारण होने वाली मौत की खबरें, हमारे लिए ये अब कोई नई बात नहीं है। 
बुंदेलखंड के पिछड़े जिले महोबा के कुछ लोगों ने ‘रोटी बैंक’ बनाया है। बैंक से जुड़े लोग भोजन के समय घरों से ताजा बनी रोटियां एकत्र करते हैं और उन्हें अच्छे तरीके से पैक करके भूखे लोगों तक पहुंचाते हैं। बगैर किसी सरकारी सहायता के चल रहे इस अनुकरणीय और अनूठे प्रयास से हर दिन लगभग 400 लोगों को भोजन मिल रहा है। रोटी बैंक वाले घरों से बासी या ठंडी रोटी नहीं लेते, ताकि खाने वाले का आत्मसम्मान भी जिंदा रहे। यह एक बानगी है कि यदि इच्छाशक्ति हो, तो छोटे से प्रयास भी भूख पर भारी पड़ सकते हैं। ऐसे कुछ प्रयोग देश में कई जगह चल भी रहे हैं। मगर हर जरूरतमंद को अन्न मिले, इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोड़ा चुस्त-दुरुस्त होना ही होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनशील बनना होगा। देश में कहीं एक भी बच्चा कुपोषण का शिकार न हो और अन्न का एक भी दाना बर्बाद न हो- इन दोनों को दो अगल-अलग प्रयास बनाए रखने की बजाय अगर हम एक ही प्रयास बना लें, तो इस समस्या को ज्यादा अच्छी तरह से खत्म करने की ओर बढ़ सकते हैं।

बुधवार, 2 जनवरी 2019

When Hindon meets Yamuna

हिंडन-यमुना का एक उपेक्षित , नीरस संगम

पंकज चतुर्वेदी


दूर-दूर तक कोई पेड़ नहीं, कोई पंक्षी नहीं, बस बदबू ही बदबू। आसमान को छूती अट्टालिकाओं को अपनी गोद में समाए नोएडा के सेक्टर-150, ग्रेटर नोएडा से सटा हुआ है। यहीं है एक गांव मोमनथाल। उससे आगे कच्ची, रेतीली पगडंडी पर कोई तीन किलोमीटर चलने के बाद, दूर एक धारा दिखाई देती है। कुछ दूर के बाद दुपहिया वाहन भी नहीं जा सकते। अब पगडंडी भी नहीं है, जाहिर है कि सालों से कभी कोई उस तरफ आया ही नहीं होगा। कुछ  महीने पहले आई बरसात के कारण बना दल-दल और फिर बामुश्किल एक फुट की रिपटन से नीचे जाने पर सफेद पड़ चुकी , कटी-फटी धरती। सीधे हाथ से शांत यमुना का प्रवाह और बाईं तरफ से आता गंदा, काला पानी, जिसमें भंवर उठ रही हैं, गति भी तेज है। यह हैै हिंडन। जहां तक आंखे देख सकती हैं,गाढ़ी हिंडन को खुद में समाने से रेाकती दिखती है यमुना। यह दुखद, चिंतनीय और विकास के प्रतिफल की वीभत्स दृश्य राजधानी दिल्ली की चौखट पर है। इसके आसपास देश की सबसे शानदार सड़क, शहरी स्थापत्य , शैक्षिक संस्थान और बाग-बगीचे हैं। दो महान नदियों का संगम, इतना नीरस, उदास करने वाला और उपेक्षित।
देष की राजधानी दिल्ली के दरवाजे पर खड़े गाजियाबाद में गगनचुंबी इमारतों के नए ठिकाने राजनगर एक्सटेंषन को दूर से देखो तो एक समृद्ध, अत्याधुनिक उपनगरीय विकास का आधुनिक नमूना दिखता है, लेकिन जैसे-जैसे मोहन नगर से उस ओर बढ़ते हैं तो अहसास होने लगता है कि समूची सुंदर स्थापत्यता एक बदबूदार गंदे नाबदान के किनारे है। जरा और ध्यान से देखें तो साफ हो जाता है कि यह एक भरपूर जीवित नदी का बलात गला घोंट कर कब्जाई जमीन पर किया गया विकास है, जिसकी कीमत फिलहाल तो नदी चुका रही है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब नदी के असामयिक काल कवलित होने का खामियाजा समाज को भी भुगतना होगा।  गांव करहेडा के लोगों से बात करें या फिर सिंहानी के, उन सभी ने कोई तीन दषक पहले तक इस नदी के जल से सालभर अपने घर-गांव की प्यास बुझाई है। यहां के खेत सोना उगलते थे और हाथ से खोदने पर जमीन से षीतल-निर्मल पानी निकल आता था।  हिंडन की यह दुर्गति गाजियाबाद में आते ही षुरू हो जाती है और जैसे-जैसे यह अपने प्रयाण स्थल तक पहुंचती है, हर मीटर पर विकासोन्मुख समाज इसकी सांसें हरता जाता है।
हिंडन का पुराना नाम हरनदी या हरनंदी है। इसका उद्गम सहारनपुर जिले में हिमालय क्षेत्र के ऊपरी षिवालिक पहाड़ियों में पुर का टंका गांव से है। यह बारिष पर आधारित नदी है और इसका जल विस्तार क्षेत्र सात हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा है। यह गंगा और यमुना के बीच के देाआब क्षेत्र में मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर और ग्रेटर नोएडा का 280 किलोमीटर का सफर करते हुए दिल्ली से कुछ दूर तिलवाडा में यमुना में समाहित हो जाती है। रास्ते में इसमें कृश्णा, धमोला, नागदेवी, चेचही और काली नदी मिलती हैं। ये छोटी नदिया भीं अपने साथ ढेर सारी गंदगी व रसायन ले कर आती हैं और हिंडन को और जहरीला बनाती हैं। कभी पष्चिमी उत्तर प्रदेष की जीवन रेखा कहलाने वाली हिंडन का पानी इंसान तो क्या जानवरों के लायक भी नहीं बचा है। इसमें आक्सीजन की मात्रा बेहद कम है। लगातार कारखानों का कचरा, षहरीय नाले, पूजन सामग्री और मुर्दों का अवषेश मिलने से मोहन नगर के पास इसमें आक्सीजन की मात्र महज दो तीन मिलीग्राम प्रति लीटर ही रह गई है। करहेडा व छजारसी में इस नदी में कोई जीव-जंतु षेश नहीं हैं, हैं तो केवल काईरोनास लार्वा। सनद रहे दस साल पहले तक इसमें कछुए, मेंढक, मछलियां खूब थे।  बीते सान आईआईटी दिल्ली के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के छात्रों ने यहां तीन महीने षोध किया था और अपनी रिपोर्ट में बताया था कि हिंडन का पानी इस हद तक विशैला होग या है कि अब इससे यहां का भूजल भी प्रभािवत हो रहा है।
कहते हैं कि शहर और उसमें भी ऊंची-ऊची इमारतों में आमतौर पर शिक्षित, जागरूक लेाग रहते हैं। लेकिन गाजियाबाद और नोएडा में पाठ्य पुस्तकों में दशकों से छपे उन शब्दों की प्रामाणिकता पर शक होने लगता है, जिसमें कहा जाता रहा है कि मानव सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ और नदियों के ंसगम स्थल को बेहद पवित्र माना जाता है। धार्मिक आख्यान कहते हैं कि हरनंदी या हिंडन नदी पांच हजार साल पुरानी है। मान्यता है कि इस नदी का अस्तित्व द्वापर युग में भी था और इसी नदी के पानी से पांडवों ने खांडवप्रस्थ को इंद्रप्रस्थ बना दिया था। जिस नदी का पानी कभी लोगों की जिंदगी को खुशहाल करता था, आज उसी नदी का पानी लोगों की जिंदगी के लिए खतरा बन गया है। बीते 20 साल में हिंडन इस कदर प्रदूषित हुई कि उसका वजूद लगभग समाप्त हो गया है। गाजियाबाद जिले के करहेडा गांव से आगे बढ़ते हुए इसमें केवल औद्योगिक उत्सर्जन और विशाल आबादी की गंदगी ही बहती दिखती है।  छिजारसी से आगे पर्थला खंजरपुर के पुल के नीचे ही नदी महज नाला दिखती है। कुलेसरा व लखरावनी गांव पूरी तरह हिंडन के तट पर हैं। इन दो गांवों की आबादी दो लाख पहुंच गई है। अधिकांश सुदूर इलाकों से आए मेहनत-मजदूरी करने वाले। उनको हिंडन घाट की याद केवल दीपाचली के बाद छट पूजा के समय आती है। तब घाट की सफाई होती है, इसमें गंगा का पानी नहर से डाला जाता है। कुछ दिनेां बाद फिर यह नाला बन जाती है, पूरा गांव यहीं शौच जाता है, जिनके घर नाली या शौचालय है , उसका निस्तार भी इसी में है। अपने अंतिम 55 किलोमीटर में सघन आबादी के बीच से गुजरती इस नदी में कोई भी जीव , मछली नहीं है।ं इसकी आक्सीजन की मात्रा शून्य है और अब इसका प्रवाह इसके किनारों के लिए भी संकट बन गया हे।
हिंडन सहारनपुर, बागपत, शामली मेरठ, मुजफ्फरनगर से होते हुए गाजियाबाद के रास्ते नोएडा तक जाती है। कई गांव ऐसे हैं जो हिंडन के प्रदूषित पानी का प्रकोप झेल रहे हैं। कुछ गांव की पहचान तो कैंसर गांव के तौर पर होने लगी है। कोई डेढ सौ गांवों के हर घर में कैंसर और त्वचा के रोगी मौजूद हैं।
पिछले साल राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानि एनजीटी के आदेश पर हिंडन नदी के किनारे बसे गाजियाबाद, मेरठ, बागपत, शामली, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर जनपद के करीब 154 गांवों के 31 हजार हैंडपंपों को 21 अक्तूबर 2017 तक उखाड़ने के निर्देश दिए गए थे। एनजीटी ने अपने एक अध्ययन से पुख्ता किया था कि अधिकांश हैंडपंपों का पानी भारी धातुओं से दूषित है और संदेह है कि सहारनपुर, शामली और मेरठ जिले के लगभग 45 तरह के उद्योग नदी के जल में आर्सेनिक, पारा जैसे जानलेवा रसायन डाल रहे हैं। चूंकि गांवों में  पानी का कोई विकल्प है नहीं सो, हैंडपंप उखाडे नहीं गए और ना ही भूजल को जहर बना रही हिंडन की सूरत बदलने का कोई जमीनी प्रयास हुआ।
यह विडंबना भी है कि हिंडन के तट पर बसा समाज इसके प्रति बेहद उपेक्षित रवैया रखता है। ये अधिकंश लेाग बाहरी है व इस नदी के अस्तित्व से खुद के जीवन को जोड़ कर देख नहीं पा रहे हैं। मोमनाथल, जहां यह यमुना से मिलती है, और जहां इसे नदी कहा ही नहीं जा सकता, गा्रमीणों ने पंप से इसके जहर को अपने खेतों में छोड़ रखा है। अंदाज लगा लें कि इससे उपजने वाला धान और सब्जियों इसका सेवन करने वाले की सेहत के लिए कितना नुकसानदेह होगा।
मई-2017 में दिल्ली में यमुना नदी को निर्मल बनाने के लिए 1969 करोड़ के एक्शन प्लान को मंजूरी दी गई थी, जिसमें यमुना में मिलने वाले सभी सीवरों व नालों पर एसटीपी प्लांट लगाने की बात थी मान भी लिया जाए कि दिल्ली में यह योजना कामयाब हो गई, लेकिन वहां से दो कदम दूर निकल कर ही इसका मिलन जैसे ही हिंडन से होगा, कई हजार करोड़ बर्बाद होते दिखेंगें।
आज जरूरत इस बात की है कि हिंडन के किनारों पर आ कर बस गए लेाग इस नदी को नदी के रूप में पहचानें, इसके जहर होने से उनकी जिंदगी पर होने वाले खतरों के प्रति गंभीर हों, इसके तटों की सफाई व सौंदर्यीकरण पर काम हो। सबसे बड़ी बात जिन दो महान नदियों का ंसंगम बिल्कुल गुमनाम है, वहां कम से कम घाट, पहुंचने का मार्ग,संगम स्थल के दोनेां ओर घने पेड़ जैसे तात्कालिक कार्य किए जाएं। हिंडन की मौत एक नदी या जल-धारा की नहीं, बल्कि एक प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और संस्कार का अवसान होगा।

Cow creating social conflict

आफत बनते आवारा मवेशी

पंकज चतुर्वेदी

इलाहबाद, प्रतापगढ़ से ले कर जौनपुर तक के गांवों में देर रात लेागों के टार्च  चमकते दिखते हैं। इनकी असल चिंता वे लावरिस गोवंश होता है जो झुंड में खेतों में आते हैं व कुछ घंटे में किसान की महीनों की मेहनत उजाड़ देते हैं। जब से बूढे पशुओं को बेचने को ले कर उग्र राजनीति हो रही है, किसान अपने बेकार हो गए मवेशियों को नदी के किनारे ले जाता है, वहां उसकी पूजा की जाती है फिर उसके पीछे कुछ रसायन लगाया जाता है , जिससे मवेशी बकाबू हो कर बेतहाश भागता है। यहां तक कि वह अपने घर का रास्ता भी भूल जाता हे। ऐसे सैंकड़ों मवेशी जब बड़े झुंड में आ जाते हैं तो तबाही मचा देते हैं। भूखे, बेसहारा गौ वंश  के बेकाबू होने के चलते उत्तर प्रदेष में तो आए रोज झगड़े हो रहे हैं। ऐसी गायों का आतंक राजस्थान, हरियाणा,मप्र, उप्र में इन दिनों चरम पर है। कुछ गौशालाएं तो हैं लेकिन उनकी संख्या आवारा पशुओं की तुलना में नगण्य हैं और जो हैं भी तो भयानक अव्यवस्था की शिकार , जिसे गायों का कब्रगाह कहा जा सकता है।

अलीगढ़ में आवार मवेषियों की समस्या से कैसे निबटें, इससे हताष प्रषासनीक अमले ने कुछ जिंदा गायो को ही दफना दिया। मथुरा में कई सरकारी स्कूलों में हजारों गायों को खदेड़ कर बंद कर दिया गया ताकि वे खेत में मुंह न मारें। इनमें कई गायें खाना-पीना ना मिलने से मर गईं। देश के जिन इलाकांे मे आमतौर पर सूखा दस्तक देता रहता है , जहां रोजगार के लिए पलायन ज्यादा हो रहा है, वहां छुट्टा मवेशियों की तादात सबसे ज्यादा है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। इसके अलावा मुस्लिम गौ पालक भयवष अपने मवेषी आवार छोड़ रहे हैं।  आए रोज गांव-गांव में कई-कई दिन से चारा ना मिलने या पानी ना मिलने या फिर इसके कारण भड़क कर हाईवे पर आने से होनें वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेषी मर रहे हैं। कड़ाके की पूस की सर्दी में जहां किसान रातभर अपने खेतों की रखवाली कर परेषान है तो मवेषी भूख से बेहाल।

बुंदेलखंड की मषहूर ‘‘अन्ना प्रथा’’ यानी लोगों ने अपने मवेषियों को खुला छोड़ दिया हैं क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते । सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। दो पांच हजार गायों की रेवड़ जिस दिषा में निकलती है किसान लाठी ले कर उन्हें खदेड़ने में लग जाते हैं। कई जगह पुलिस लगानी पड़ती है। प्रशासन के पास इतना बजट नहीं है कि हजारों गायों के लिए हर दिन चारे-पानी की व्यवस्था की जाए। एक मोटा अनुमान है कि हर दिन प्रत्येक गांव में लगभग 10 से 100 तक मवेषी खाना-पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। भूखे -प्यासे जानवर हाईवे पर बैठ जाते हैं और इनमें से कई सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रहे हैं। किसानों के लिए यह परेषानी का सबब बनी हुई हैं क्योंकि उनकी फसलों को मवेषियों का झुंड चट कर जाता है।
पिछले दो दशकों से मध्य भारत का अधिकांश हिस्सा तीन साल में एक बार अल्प वर्शा का षिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेषियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दषक से ही है। ‘‘ अन्ना प्रथा’’ यानि दूध ना देने वाले मवेषी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनेां पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान है। जिनके पास अपने जल ससांधन हैं लेकिन वे अन्ना पषुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है तो अचानक ही हजारों अन्ना गायों का रेवड़ आता है व फसल चट कर जाता है। यदि गाय को मारो तो धर्म-रक्षक खड़े हो जाते हैं और खदेड़ों तो बगल के खेत वाला बंदूक निकाल लेता है। गाय को बेच दो तो उसके व्यापारी को रास्ते मंे कहीं भी बजरंगियों द्वारा पिटाई का डर। दोनों ही हालात में खून बहता है और कुछ पैसे के लिए खेत बोने वाले किसान को पुलिस-कोतवाली के चक्क्र लगाने पड़ते हैं। यह बानगी है कि हिंदी पट्टी में एक करोड़ से ज्यादा चौपाये किस तरह मुसीबत बन रहे हैं और साथ ही उनका पेट भरना भी मुसीबत बन गया है।
यहां जानना जरूरी है कि अभी चार दषक पहले तक हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी। षायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व ख्षतम कर दिया। हैंड पंप या ट्यूबवेल की मृगमरिचिका में कुओं को बिसरा दिया।  जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी नहीं बची है व वन विभाग के डिपो ती सौ किलोमीटर दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे हैं वहां मवेषी के चरने पर रोक है।
यह समझना जरूरी है कि गौषाला खोलना सामाजिक विग्रह का कारक बने बेसहारा पषुओं का इलाज नहीं है। वहां केवल बूढ़े या अपाहिज जानवरों को ही रखा जाना चाहिए।  गाय या बैल से उनकी क्षमता के अनुरूप् कार्य लेना अनिवार्य है। इससे एक तो उर्जा की बचत होती है, दूसरा खेती-किसानी की लागत भी कम होती है। जान लें कि छोटी जोत में ट्रैक्टर या बिजली के पंप का खर्चा बेमानी है। इसके अलावा गोबर और गौमूत्र खेती में रासायनिक खाद व दवा की लागत कम करने में सहायक  हैं। यह काम थोड़े से चारे और देखभाल से चार बैलों से लिया जा सकता है।  आज आवार घूम कर आफत बने पषुओं की अस्स्ी फीसदी संख्या काम में लाए जाने वाले मवेषियों की है।
आज जरूरत है कि आवारा पषुओं के इस्तेमाल, उनके कमजोर होने पर गौषाला में रखने और मर जाने पर उनकी खाल,, सींग आदिके पारंपरिक तरीके से इस्तेमाल की स्पश्ट नीति बने। आज जिंदा जानवर से ज्यादा खौफ मृत गौ-वंष का है, भले हीी वह अपनी मौत मरा हो। तभी बड़ी संख्या में गौपालक गाय पालने से मुंह मोड़ रहे हैं।
देष व समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पषु-धन को सहेजने के प्रति दूरंदेशी नीति व कार्य योजना आज समय की मांग है। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पषु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगें। हो सकता है कि इस पर भी कुछ कागजी घोड़े दौड़े लेकिन जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनषील लोग नहीं होंगे, मवेषी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।

Why was the elephant not a companion?

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