हिंडन नदी : एक मरती नदी, तंद्रा में हम
हिंडन को लेकर अब एक नया जुमला उछाला जा रहा है कि हिंडन कभी नदी थी ही नहीं, यह तो महज बरसाती नाला थी, और इसमें जल-प्रवाह पहले से ही कारखानों से उत्सर्जित जल का ही परिणाम था। यहां तीन पीढ़ी के लोग अभी भी साक्षी हैं कि पुश्तों से उनका घर, रसोई, खेत, मवेशी सब कुछ इसी हिंडन पर निर्भर थे, जबकि कारखाने बामुश्किल चार दशक पहले के हैं। जिस नदी का पौराणिक कथाओं से ले कर इतिहास तक में उल्लेख है, यह हाल उसके उद्गम स्थल के जिले का है। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार हिंडन उप्र के सहारनपुर जिले में शिवालिक पहाड़ियों से निकलती है। विडंबना है कि अपने शुरुआती मार्ग में ही इसमें ऑक्सीजन की मात्रा लगभग समाप्त हो जाती है, और इसमें कोई जलीय-जीव नहीं मिलते। मिलता है तो बस जानलेवा काईरोनॉस लार्वा। दस किमी. रास्ता पार करते ही नदी में जीवनदायी जल की जगह आर्सेनिक, सायनाइड, क्रोमियम, लोहा, सीसा, पारा जैसे जहर खतरनाक मात्रा को पार कर देते हैं। यह बात एनजीटी में हलफनामे में बताई गई है कि जिले के कुतबा माजरा, अंबेहटा, ढायकी, महेशपुर, शिमलाना आदि गांवों में गत पांच सालों में कैंसर से 200 से ज्यादा मौतें हुई हैं। 2011 में शिमलाना में बाबा मंगल गिरि ने हिंडन बचाने के लिए 11 दिन का अनशन किया था। पूरे इलाके के गांव वाले जुटे थे । तब सरकार ने कई वायदे कर अनशन तुड़वाया था, छह साल बाद भी वायदों का एक भी शब्द क्रियान्वयन के स्तर पर नहीं आया। पहाड़ से उतर कर हिंडन हर आम नदी की तरह स्वच्छ जल और जीवन ले कर उतरती है। इसका सबसे पहला सामना स्टार पेपर मिल के नाले से होता है। यहां से कागजों पर चलने वाले जल-स्वच्छता संयत्र से निकले पानी के चलते नदी में लेड की मात्रा 0.34 और क्रोमियम की मात्रा 1.84 मिग्रा. प्रति लीटर के खतरनाक स्तर पर आ जाती है।गौरतलब है कि कई सौ किमी. चल कर जब हिंडन ग्रेटर नाएडा के पास मोमनाथल में यमुना से मलती है, तो वहां भी इन दो जहर की मात्रा लगभग इतनी ही होती है। सहारनपुर जिले में ही इतना जहर या तो सीधे या फिर सहायक नदी-नालों के जरिए हिंडन में मिल जाता है कि यह ‘‘रीवर’ की जगह ‘‘सीवर’ बन जाती है। सरसावा किसान सहकारी चीनी मिल और पिलखनी केमिकल्स एंड डिस्टलरीज का गैरशोधित पानी सेंधली नदी में आता है, और उससे हिंडन में। ननौता की चीनी मिल, गंगेश्वरी लिमिटेड, देवबंद का पीले रंग का पानी और एसएमसी फूड लिमिटेड का बदबूदार पानी सीधे कृणा नदी में जाता है, जो कि कुछ ही दूर पर हिंडन में मिल जाती है। यूसुफपुर टपरी का शराब कारखाना तो बगैर किसी मध्यस्थ माध्यम के हिंडन में अपना जहर घोलता है। शाकुंभरी शुगर मिल का जहरीला पानी बूढ़ी यमुना के जरिए इसमें आता है। इसी तरह काली नदी के जरिए भी चार कारखाने अपनी गंदगी का योगदान इसमें करते हैं। अदालतें, सरकारी रिपोर्ट सब कुछ कहानी बयां करते हैं, लेकिन विकास और पर्यावरण के बीच प्राथमिकता और सामंजस्य के अभाव में एक नदी लगभग मर जाती है, वह भी अपने प्रारंभिक चरण में ही। सहारनपुर जिले के गावों में अच्छी खेती होती है और उससे संपन्नता भी है, लेकिन जागरूकता का अभाव भी है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यहां नदी के जहर होने का पूरा ठीकरा केवल कारखानों पर नहीं फोड़ा जा सकता क्योंकि पानी में डीडीटी, मेलाथियान जैसे कई ऐसे तत्व जानलेवा स्तर पर मिले हैं, जो किसी कारखाने से नहीं निकलते। इन दिनों यहां खेत में दवा और फसल बढ़ाने के केमिकल के नाम पर कई ऐसे रासायन बिक रहे हैं, जो असल में चीन से आए हैं, और यहां शक्तिमान या ऐसे ही नाम से सहजता से उपलब्ध हैं। इनमें कौन से रासायन हैं, इनका क्या असर फसल, जमीन या खेती पर है, इसका कोई अता-पता नहीं है। यहां कुछ दशकों के दौरान धान की खेती होने लगी जबकि यह गेहूं और चने या गन्ने का इलाका था, इससे खेतों में जमकर रासायन डाले गए और पानी भी भरा गया, बरसात के दिनों में यहीं का जल बह कर हिंडन में जुड़ा और अपने साथ रासायनों का जहर भी ले गया। सहारनपुर में ही हिंडन की इतनी दुर्गति हो जाती है कि आगे मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद में इसे एक गंदगी ढोने वाला नाला ही मान लिया जाता है। कहीं सड़क, पुल, मेट्रो के नाम पर इसकी धारा को संकरा या काट दिया जाता है, तो कहीं सीवर को इसमें जोड़ा जाता है, कहीं कारखाने का ठोस कचरा इसके किनारे डाला जाता है, तो कहीं पशु-वध केंद्रों का खून और मज्जा इसमें डालने में किसी को संकोच नहीं होता। पावन यमुना यमुना की पवित्र धारा तभी संभव है, जब हिंडन जैसी नदियों का जीवन मिले।
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