My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

Yes India loves to read books

लोग पढ़ते भी हैं और गढ़ते भी हैं!
पंकज चतुर्वेदी

दिल्ली में जनवरी के पहले सप्ताह में भीषण ठंड थी, इसके बावजूद विश्व पुस्तक मेले के 27वें संस्करण के समाप्त होने के एक दिन पहले कोई डेढ़ लाख लोग वहां पहुंच गए। शब्दोत्सव की गर्माहट में निर्माणाधीन प्रगति मैदान की अव्यवस्थाएं, प्रतिकूल मासम आर पार्किंग-जाम जैसी बाधाएं कतई आड़े नहीं आईं। सबसे बड़ी बात इस बार सबसे ज्यादा भीड़ हिंदी वाले हॉल 12 ए में थी और यहां आए पुस्तक प्रेमियों में बड़ी संख्या 18 से 35 साल वाले युवाओं की थी जो साहित्य भी खरीद रहे थे और कथेतर पुस्तकें भी। नेशनल बुक ट्रस्ट ने एक दिन में छह लाख तो प्रकाशन विभाग ने एक लाख और भोपाल से आए ‘साईकिल व प्लूटो; बाल पत्रिकाओं के प्रकाशक ने 97 हजार की बिक्री की। इस साल जगह की दिक्कत थी और कोई 600 प्रकाशकों ने 1300 स्टालों में लाखों पुस्तकें सजाई थीं। इस बार 5 से 13 जनवरी के बीच लगभग  चार हजार पुस्तकों का विमोचन हुआ। जाहिर है कि इतने लेखक भी थे और उनके हजारों-हजार पाठक भी। आखिरी दो दिनों में भीड़ इतनी कि कई-कई बार मेट्रो व प्रगति मैदान के दरवाजे बंद करने पड़े।

प्रगति मैदान में बहुत से मेले लगते हैं, गाड़ियों का खाने-पीने का, प्लास्टिक व इंजीनियरिंग का.... और भी बहुत से लेकिन भले ही इसे नाम मेला का दिया गया हो, असल में यह पुस्तकों के साथ जीने, उसे महसूस करने का उत्सव है। जिसमें गीत-संगीत हैं, आलेाचना है, मनुहार है, मिलन है, असहमतियां हैं और सही मायने में देश की विविधतापूर्ण भाषायी एकता की प्रदर्शनी भी है। अक्सर लोग कहते मिलते हैं कि दुनियाभर के पुस्तक मेलों से तुलना करें तो अब वार्षिक बन गए विश्व पुस्तक मेले में अधिकांष वही प्रकाशक , विक्रेता अपनी दुकान लगा लेते हैं जो सालभर दरियागंज में होते हैं। इस बार का पुस्तक मेला  पांच से 13 जनवरी 2019 तक था और इसका थीम विकलांगजनों के लिए पठन सामग्री थां व अतिथि देश शारजाह।
बीते दो दषकेां से, जबसे सूचना प्रौद्योगिकी का प्रादुर्भाव हुआ है , मुद्रण तकनीक से से जुड़ी पूरी दुनिया एक ही भय में जीती रही है कि कहीं कंप्यूटर, टीवी सीडी की दुनिया छपे हुए काले अक्षरों को अपनी बहुरंगी चकाचौंध में उदरस्थ ना कर ले।
जैसे-जैसे चिंताएं बढ़ीं,  पुस्तकों का बाजार भी बढ़ता गया। उसे बढ़ना ही था- आखिर साक्षरता दर बढ़ रही है, ज्ञान पर आधारित जीवकोपार्जन करने वालो की संख्या बढ़ रही है। जो प्रकाषक बदलते समय में पाठक के बदलते मूड को भांप गया , वह तो चल निकला, बांकी के पाठकों की घटती संख्या का स्यापा करते रहे।
बौद्धिक-विकास, ज्ञान- प्रस्फुटन और शिक्षा के प्रसार के इस युग में यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि देश की बात क्या करें ,दिल्ली में भी पुस्तकें सहजता से उपलब्ध नहीं हैं। गली-मुहल्लों में जो दुकाने हैं, वे पाठ्य पुस्तकों की आपूर्ति कर ही इतना कमा लेते हैं कि दीगर पुस्तकों के बारे में सोच नहीं पाते।  कुछ जगह ‘‘बुक स्टोर’’ हैं तो वे एक खास सामाजिक-आर्थिक वर्ग की जरूरतों को भले ही पूरी करते हों, लेकिन आम मध्यवर्गीय लोगों को वहां मनमाफिक पुस्तकें मिलती नहीं हैं  लेाग उदाहरण देते हें कि इरान जैसे देश में स्थाई तौर पर पुस्तकों का मॉल है, लेकिन भारत में सरकार इस पर सोच नहीं रही है। गौर तलब है कि भारत में पुस्तक व्यवसाय की सालान प्रगति 20 फीसदी से ज्यादा है, वह भी तब जब कि कागज के कोटे, पुस्तकों को डाक से भेजने पर छूट ना मिलने, पुस्तकों के व्यवसाय में सरकारी सप्लाई की गिरोहबंदी से यह उद्योग  हर कदम पर लड़ता है। यह कहने वाले प्रकाशक  भी कम नहीं है जो इसे घाटे का सौदा कहते हैं, लेकिन जब प्रगति मैदान के पुस्तक मेला में छुट्टी के दिन किसी हॉल में घुसो और वहां की गहमा-गहमी के बीच आधी बांह का स्वेटर भी उतार फैंकने की मन हो तो जाहिर हो जाता है कि लोग अभी भी पुस्तकों के पीछे दीवानगी रखते हैं। तो फिर इतना व्यय कर पुस्तक मेला का सालाना आयोजन क्यों? इसकी जगह गली-मुहल्लों में पुस्तकों की दुकाने क्यों नहीं, यह स्वाभविक सा सवाल सभी के मन में आता है।

असल में नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला केवल किताब खरीदने-बेचने की जगह नहीं है, यह केवल पुस्तक प्रेमियों की जरूरत को एक स्थान पर पूरा करने का बाजार  भी नहीं है। केवल किताब खरीदने के लिए तो  दर्जनों वेबसाईट उपलब्ध हैं जिस पर घर बैठे आदेश दो और घर बैठे डिलेवरी लो। असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह होती है जिससे जब तक बात ना करो, रूबरू ना हो, हाथ से स्पर्ष ना करो, अपनत्व का अहसास देती नहीं हे। फिर तुलनात्मकता के लिए एक ही स्थान पर एक साथ इनते सजीव उत्पाद मिलना एक बेहतर विपणन विकल्प व मनोवृति भी है। फिर दिल्ली का पुस्तक मेला तो एक त्योहार है, पाठकों, लेखकों, व्यापारियों , बच्चों का।  हर दिन कई सौ पुस्तकों का लोकार्पण, कम से कम बीस गोष्ठी-विमर्श, दस-पंदह लेखकों से बातचीतेां के सत्र, बच्चों की गतिविधियां। खासतौर पर विशेष अतिथि देश शारजाह से आए 250 से ज्यादा लेखकों, चित्रकारों , प्रकाशकों से मिलने के कई फायदे थे । उनके यहां के लेखन, पाठक, और व्यापार से काफी कुछ सीखने को मिल जाता है। देष के आंचलिक क्षेत्रांे से दूर-दूर से आते पाठक-लेखक- आम लोग।

दिन चढ़ते ही प्रगति मैदान के लंबे-चौड़े लॉन में लोगों के टिफिन खुल जाते, खाने के स्टॉल खचाखच भरे होते ं, लेाग कंधे छीलती भीड़ में उचक-उचक कर लेखकों को  पहचानने-चीन्हने का प्रयास करते ं। उसी के बीच कुछ मंत्री, कुछ वीआईपी, कुछ फिल्मी सितारे भी आ जाते हैं और भीड़ उनकी ओर निहारने लगती है। कहीं कविता पाठक चलता है तो कही व्यंग व कहानी पेश करने के आयोजन। अंधेरा होते ही अस्थाई बने हंसध्वनि थियेटर पर  गीत-संगीत की महफिल सज जाती । इस बार तो भारत की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाते देश के अलग-अलग हिस्सों के कई मशहूर कलाकार यहां अपनी कला का प्रदर्शन किया । दूर दराज से आए और नए लेखक अपनी पांडुलिपियां ले कर प्रकाशकों को तलाशते दिखे तो कुछ एक अपनी पुस्तकों को मित्रों को बांट कर सुख पाते थे।
खेमेबाजी, वैचारिक मतभेद के बीच 35 से ज्यादा भाषाओं की पुस्तकें, हजारों लेखक व प्रकाशक लाखेंा पाठकों को पुस्तकों की यह नवरात्रि बांधे रखती हैं। जाहिर है कुछ चिंताएं भी हैं, कुछ सरोकार भी, कुछ भाशाओं  को ले कर तो कुछ पुस्तक बिक्री को ले कर। देषभर के सरकारी प्रकाषन संस्थान भी यहां होते हैं तो जाहिर है कि यह भीड़ उन्हें कुछ सबक दे कर जाती है, अपने प्रकाषन की दषा-दिषा के बारे में। विदेषी मंडप में अधिकांष पुस्तकें केवल प्रदर्षन के लिए होती हैं और गंभीर किस्म के लेखक  इनसे आईडिया का सुराख लगाते दिखते हैं।
केवल पढ़ने-लिखने वाले ही नहीं, मुद्रण व्ययवसाय से जुडे लोग- मुद्रक, टाईपसेटर, चित्रकार, बाईंडर, से ले कर प्रगति मैदान में खाने-पीने की दुकाने चलाने वालों, कूड़ा बीनने वालों और भी कई लेागों के लिए यह मेला ‘‘दीवाली’ की तरह होता है। ट्रेड फेयर के बाद सबसे भीड़भरा मेला होता है यह प्रगति मैदान में , जहां हर आयु वर्ग, प्रत्येक सामाजिक-आर्थिक स्थिति , सभी विचारधाराओं के लोगों की समान भागीदारी होती है। इतना सबकुछ महज व्यावसायिक नहीं होता, इसमें दिल व दिमाग दोनों पुस्तक के साथ धड़कते-मचलते हैं । इस बार नौ दिनों में कोई 12 लाख लोग पुस्तकों के साथ समय बिताने पहुंचे। यह प्रगति मैदान में लगने वाले किसी भी मेले की सबसे बड़ी आगंतुक-संख्या है। तभी यह मेला नहीं है, आनंदोत्सव है पुस्तकों की नवरात्रि या शिशिरोत्सव।

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