My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

water can not be a solution of pak sponsored terrorism


आसान नहीं पाक का पानी रोकना


                                                                                      पंकज चतुर्वेदी


पाक सरकार पोषित आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारत ने पाकिस्तान को जाने वाली नदियों का पानी रोकने पर विचार की घोषणा क्या की, कुछ लोग मान बैठे कि यह रातों-रात संभव है। भारतीय वायुसेना द्वारा हाल के बालाकोट हवाई हमले से स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान लातों का भूत है, वह पानी या टमाटर से मानने वाला है नहीं। वैसे भी पानी रोकने का काम कोई बटन दबाने वाला है नहीं और पाकिस्तान को तत्काल जवाब देकर ही सुधारा जा सकता है। दुनिया की सबसे बड़ी नदी-घाटी प्रणालियों में से एक सिंधु नदी की लंबाई कोई 2880 किलोमीटर है। सिंधु नदी का इलाका करीब 11.2 लाख किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। ये इलाका पाकिस्तान (47 प्रतिशत), भारत (39 प्रतिशत), चीन (8 प्रतिशत) और अफ़गानिस्तान (6 प्रतिशत) में है। अनुमान है कि कोई 30 करोड़ लोग सिंधु नदी के आसपास के इलाकों में रहते हैं। सिंधु नदी तंत्र की छह नदियों में कुल 168 मिलियन एकड़ की जल निधि है। इसमें से भारत अपने हिस्से का 95 फीसदी पानी इस्तेमाल कर लेता है। शेष पांच फीसदी पानी रोकने के लिए अभी कम से कम छह साल लगेंगे और इसकी कीमत आएगी 8327 करोड़।

तिब्बत में कैलाश पर्वत शृंखला से बोखार-चू नामक ग्लेशियर (4164 मीटर) के पास से अवतरित सिंधु नदी भारत में लेह क्षेत्र से ही गुजरती है। लद्दाख सीमा को पार करते हुए जम्मू-कश्मीर में गिलगित के पास दार्दिस्तान क्षेत्र में इसका प्रवेश पाकिस्तान में होता है। पंजाब का जिन पांच नदियों राबी, चिनाब, झेलम, ब्यास और सतलुज के कारण नाम पड़ा, वे सभी सिंधु की जल-धारा को समृद्ध करती हैं। सतलुज पर ही भाखड़ा-नंगल बांध हैं।
सन‍् 1947 में आजादी के बाद से ही दोनों देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय नदियों के जल बंटवारे को लेकर विवाद चलता रहा। दस साल तक बातचीत के बाद 19 सितंबर, 1960 को कराची में दोनों देशों के बीच जल बंटवारे को लेकर समझौता हुआ। भारत-पाकिस्तान के बीच इस समझौते की नजीर सारी दुनिया में दी जाती है कि तीन-तीन युद्ध और लगातार तनावग्रस्त ताल्लुकातों के बावजूद दोनों में से किसी भी देश ने कभी इस संधि को नहीं तोड़ा। इस समझौते के मुताबिक सिंधु नदी की सहायक नदियों को दो हिस्सों— पूर्वी और पश्चिमी नदियों में बांटा गया। सतलुज, ब्यास और रावी नदियों को पूर्वी जबकि झेलम, चेनाब और सिंधु को पश्चिमी क्षेत्र की नदी कहा गया। पूर्वी नदियों के पानी का पूरा हक भारत के पास है तो पश्चिमी नदियों का पाकिस्तान के पास। बिजली, सिंचाई जैसे कुछ सीमित मामलों में भारत पश्चिमी नदियों के जल का भी इस्तेमाल कर सकता है।

पुलवामा हमले के बाद सिंधु नदी का पानी रोकने की बात भी हुई है। दरअसल, पानी की बात केवल सिंधु नदी की नहीं होती, इसके साथ असल में पंजाब की पांच नदियों के पानी का मसला है। सनद रहे कि भारत रावी नदी पर शाहपुर कंडी बांध बनाना चाहता था, लेकिन इस परियोजना को सन‍् 1995 से रोका गया है। ठीक इसी तरह से समय-समय पर भारत ने अपने हिस्से की पूर्वी नदियों का पानी रोकने के प्रयास किए लेकिन सामरिक दृष्टि से ऐसी योजनाएं परवान नहीं चढ़ पाईं। लेकिन अब शाहपुर कंडी के अलावा सतलुज-व्यास लिंक योजना और कश्मीर में उझा बांध पर भी काम हो रहा है। इससे भारत अपने हिस्से का सारा पानी इस्तेमाल कर सकेगा।
वैसे भी भारत-पाक की जल-संधि में विश्व बैंक आदि कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं शामिल हैं और उन्हें नजरअंदाज कर पाकिस्तान का पानी रोकना कठिन होगा। हां, पाकिस्तान की सरकार का आतंकवादी गतिविधियों में सीधी भागीदारी सिद्ध करने के बाद ही यह संभव होगा। यदि हम नदी का पानी रोकते हैं तो उसे सहेज कर रखने के लिए बड़े जलाशय, बांध चाहिए और वहां जमा पानी के लिए नहरें भी। सिंधु घाटी के नदी तंत्र को गांगेय नदी तंत्र अर्थात गंगा-यमुना से जोड़ना तकनीकी रूप से संभव ही नहीं है। यदि पानी रोकने का प्रयास किया गया तो जम्मू, कश्मीर, पंजाब आदि में जलाभाव हो जाएगा।

दरअसल, अपने हिस्से की नदियों का पूरा पानी इस्तेमाल करने के लिए बांध आदि न बना पाने का असल कारण सुरक्षा व प्रतिरक्षा नीतियां हैं। सीमा के पार साझा नदी पर कोई भी विशाल जल-संग्रह दुश्मनी के हालात में पाकिस्तान के लिए ‘जल-बम’ के रूप में काम आ सकता है। यह जानना जरूरी है कि भारत में ये नदियां ऊंचाई से पाकिस्तान में जाती हैं। इनके प्राकृतिक जल-प्रवाह पर कोई भी रोक समूचे उत्तरी भारत के लिए बड़ा संकट हो जाएगा।
इसके अलावा भारत से पाकिस्तान जाने वाली नदियों पर चीन के निवेश से कई बिजली परियोजनाएं हैं। यदि उन पर कोई विपरीत असर पड़ा तो चीन ब्रह्मपुत्र के प्रवाह के माध्यम से हमारे समूचे पूर्वोत्तर राज्यों को संकट में डाल सकता है। अरुणाचल व मणिपुर की कई नदियां चीन की हरकतों के कारण अचानक बाढ़, प्रदूषण और सूखे को झेल रही हैं।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

this is not a real nationalism

यह राष्ट्रवाद  तो नहीं है !


पंकज चतुर्वेदी


पुलवामा में पांच दिन में 46 जवानों की शहादत ने पूरे देश को गमगीन कर दिया, गुस्से में ला दिया लाजिमी है ऐसा होना। आखिर सुरक्षा बलों की कर्मठता, लगन व सर्मपण  के बदौलत ही सारा मुल्क चैन से जी पाता है। अपने दुश्मन के प्रति रोष  एक मानवीय प्रवृति है लेकिन किसी घटना के होने के बाद खुद ही अपने स्तर पर कुछ को दुश्मन बना लेना, अपनी राष्ट्रभक्ति को सर्वोपरि जताने के लिए किसी अन्य के प्रश्नों को देशद्रोही बता देना, निजी हमले, अफवाह और गालियां देना .. यह असल में राष्ट्रवाद का एक सस्ता चैहरा है जिसमें देश की संकल्पना गौण है। यह भी जान लें कि इस तरह की देशभक्ति विविधता वाले देश में कहीं विग्रह, अविश्वास उपजाने का माध्यम न बन जाए। यह समझना होगा कि राष्ट्रवाद फैशन नहीं है ,एक हाथ में मोमबतती और दूसरे से मोबाईल पर सैल्फी वीडियों बना कर फेसबुक पर लाईव करना भावनओं को जगत का पहुंचाने का जरिया तो है लेकिन देशभक्ति आपके दैनिक जीवन की अविभाज्य अंग होना चाहिए।
यह कैसी विडंबना है कि हमारा राष्ट्रवाद केवल 26 जनवरी, 15 अगस्त या पाकिस्तान के नाम पर ही जाग्रत होता हे। अभी दो साल पहले पूर्वोत्तर में हमारी सेना के 17 जवान आतंकवादियों के हाथों शहीद हुए थे, उनकी चर्चा मीडिया में 24 घंटे भी नहीं रही। इसमें कोई शक नहीं कि पाकस्तिान और उसकी शैतान खुफिया एजेंसी आईएसआई भारत में  अशंति के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन उनका असल उद्देश्य तो भारत की एकता, अखंडता और विविधता को नुकसान पहुंचाना ही है। देश के विभिन्न हिस्सों में कश्मीरी छात्रों या व्यापारियों पर हमले ना तो आतंकवादियों को सबक सिखाने वाला कदम है और ना ही इससे पाकिस्तान की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है। अमुक ने पाकिस्तान जिंदाबाद बोलया या अमुक कश्मीरी ने खुशी मनाई ये सभी बातें सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के लिए उड़ाई गईं थीं और उससे ही इतना बड़ा नरसंहार हुआ था। कश्मीर के जो छात्र देश के विभिन्न हिस्सों में भय के कारण अपने घर लौट रहें हैं , जान लें उनके मन में भारत के लिए नफरत के बीज बोना बेहद सरल होगा। आज कश्मीर के आम लोगों के दिल में जगह बनाने की जरूरत है ना कि उन्हें अलग-थलग कर पाकिस्तान की साजिशों को सहज बनाने की।
इस बात को भली भांति समझना होगा कि अपने देशभक्ति के जज्बे को जिंदा रखने के लिए हमारे किसी जवान की शहादत का इंतजार करना बेमानी है। वहीं केवल सीमा पर जा कर लड़ना ही देशभक्ति नहीं है। सड़क पर वाहन चलाते समय कानून का पालन न करना, कर चोरी, मिलावट, किसी को जाित-धर्म- वर्ण से जुड़ी गाली देना, रिश्वत लेना व देना, चुनाव में वोट देने के लि जाति-धर्म या घूस को आधार बनाना-- ऐसे ही कई ऐसे कृत्य हैं जिनमें आप लिप्त हैं और इसे बावजूद आप तिरंगा हाथ में ले कर नारे लगा रहे हैं तो आपकी देश के प्रति निष्ठा संदिग्ध ही जानें। आज प्रश्न उठाने को देशद्रेाह बताने वाले भी कम नहीं हैं, खासतौर पर सोशल मीडिया पर बाकायदा ‘ट्रौल-बिरादरी’’ है, जो प्रश्न या असहमति को देशद्रोह  बता कर सामने वाले की मां-बहन को गालियां, नंगी तस्वीरें, माार्फ या फेक खबर व चित्र के जरिये खुद को देशभक्त सिद्ध करने पर तुले हैं। एक बात जान लें कि लोकतंत्र भारत की आत्मा है और लोकतंत्र में प्रश्न उठाना या प्रतिरोध के स्वर को जीवतं रखना अनिवार्य है। असमतियों के स्वर ही वाद-विाद के जरिये एक बेहतर नीति, वक्तव्य, प्रशसन को तैयार करते हैं, लेकिन यदि असहमतियों को गाली, हिंसा और धमकी से दबा कर कोई देश भक्त बनना चाहता ै तो वह जान ले कि वह देश की आत्मा को चोट पहुंचा रहा है।
इन दिनों गली-गली में सीमा पर जा कर छक्के छुड़ा देने की भावनाओं का दौर है। लेकिन यह जानना जरूरी है कि केवल सेना ही देश नहीं है। सेना को सम्मानजनक तरीके से संचालित करने के लिए देश का अर्थतृत्र व लोकतांत्रिक मूल्य संपन्न होना बेहद जरूरी है। देश की मजबूती के लिए  वर्दीघारी के साथ-साथ एक शिक्षक, लेखक, मजदूर, इंजीनियर, किसान सभी बेहद जरूरी हैं। यदि हम जिस स्थान पर जो काम कर रहे हैं, वह ईमानइदारी व निष्ठा से कर रहे हैं तो सेना को सशक्त ही अना रहे हैं। देश में अशंाति, दंगा, संहार कर हम सशस्त्र बलों का कार्य और चुनौती को ही बढ़ाते हैं । हमारी सेना व उसके नीति-निर्धारक भलीभांति जानते हें कि अपने दुश्मन को किस तरह से मजा चखाना है, वे इसके लिए जरूरी तैयारी, योजना और क्रियान्वयन के लिए विश्व स्तर के प्रोफेशनल हैं, उन्हें हमारे-आपे सुझाव  की जरूरत नहीं है। उन्हें जरूरत है कि चुनौती की घड़ी में देश एकसाथ खड़ा रहे। घरेलू मोर्चें  पर दंगे-फसाद न हों।
आतंकवाद अब अंतरराश्ट्रीय त्रासदी है। देष-दुनिया का कोई भी हिस्सा इससे अछूता नहीं है। भारत में यह अब महानगर ही नहीं छोटे षहर वाले भी महसूस करने लगे हैं कि ना जाने कौन से दिन कोई अनहोनी घट जाए। लेकिन इसके लिए तैयारी के नाम पर हम कागजों से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। ट्रॉमा सेंटर अभी दिल्ली में भी भली-भांति काम नहीं कर रहे हैं, तो अन्य राज्यों की राजधानी की परवाह कौन करे। क्या यह जरूरी नहीं है कि संवेदनषील इलाकों में सचल अस्पताल, बड़े अस्पतालों में सदैव मुस्तैद विषेशज्ञ हों। आम सर्जन बीमारियों के लिए आपरेषन करने में तो योग्य होते हैं, लेकिन गोली या बम के छर्रे निकालने में उनके हाथ कांपते हैं। बारूद के धुंए या धमाकों की दहषत से बेहोष हो गए लोगों को ठीक करना, डरे-सहमें बच्चों या अपने परिवार के किसी करीबी को खो देने के आतंक से घबराए लोगों को सामान्य बनाना जैसे विशयों को यदि चिकित्सा की पढ़ाई में इस किस्म के मरीजों के त्वरित इलाज के विषेश पाठ्यक्रम को षामिल किया जाए तो बेहतर होगा।
आतंकवादी घटनाओं के षिकार हुए लोगों को आर्थिक मदद और उनके जीवनयापन की स्थाई व्यवस्था या पुनर्वास का काम अभी भी तदर्थवाद का षिकार है। कोई घटना होने के बाद तत्काल स्थानीय या कतिपय संस्थाएं अभियान चलाती हैं, कुछ लोग भाव विभोर हो कर दान देते हैं ओर असमान किस्म की इमदाद लोगों तक पहुंचती है। महानगरों या सीमा पर धमाके देष पर हमला मान लिए जाते हैं तो उन पर ज्यादा आंसू, ज्यादा बयान और ज्यादा मदद की गुहार होती है। उत्तर-पूर्वी राज्यों या बस्तर या झारखंड की घटनाएं अखबारों की सुर्खिया ही नहीं बन पाती हैं। ऐसे में वहंा के पीड़ितों को आर्थिक मदद की संभावनाएं भी बेहद क्षीण होती हैं। सषस्त्र बलों या अन्य सरकारी कर्मचारियों को सरकारी कायदे-कानून के मुताबिक कुछ मिल भी जाता है, लेकिन आम लोग इलाज के लिए भी अपने बर्तन-जमीन बेचते दिखते हैं।
आतंकवाद की अराजक स्थिति में टीवी के चैनल बदल-बदल कर आंसू बहाने वालों के असली राश्ट्रप्रेम की परीक्षा के लिए सशस्त्र बलों का बहुत छोटे समय के लिए प्रशिक्षण का अयोजन हो सकता है। ऐसी संस्था की निषुल्क सेवा या संकट के समय कुछ समय देने वालों को एकत्र किया जा सकता है,यह नए महकमे के खर्चों को कम करने में सहायक कदम होगा। सबसे बड़ी बात  सरकारी सेवा करने वाले सभी लोगों को फौज व राहत अभियान का प्राथमिक प्रषिक्षण देना और समय-समय पर उनके लिए ओरिएंटेषन कैंप आयोजित करना समय की मांग है। लोगों को प्राथमिक उपचार, सामान्य लिखा-पढ़ी के काम भी दिए जा सकते हैं।

यदि आम लोग इस विशय में सोचते हैं तो इससे आम आदमी की देष व समाज के प्रति संवेदनषीलता तो बढ़ेगी ही, आतंकवाद के नाम पर राजनीति करने वालों की दुकानें भी बंद हो जाएंगी।
आज जरूरत इस बात की भी है कि देषभर के इंजीनियरों, डाक्टरों, प्रषासनिक अधिकारियों,प्रबंधन गुरूओं और जनप्रतिनिधियों को ऐसी विशम परिस्थितियों से निबटने की हर साल बाकायदा ट्रैनिंग दी जाए। साथ ही होमगार्ड, एनसीसी, एनएसएस व स्वयंसेवी संस्थाओं को ऐसे हालातों में विषेशाधिकार दे कर दूरगामी योजनाओं पर काम करने के लिए सक्षम बनाया जाए।

पंकज चतुर्वेदी
संपर्क- 9891928376

बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

Only traditional tricks can save the rain water

पारंपरिक तरीकों से ही संभव सूखे का निदान!


मध्य प्रदेश के बुरहानपुर शहर की आबादी तीन लाख के आसपास है। निमाड़ का यह इलाका पानी की कमी के कारण कुख्यात है, लेकिन आज भी शहर में कोई 18 लाख लीटर पानी प्रतिदिन एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से वितरित होता है जिसका निर्माण वर्ष 1615 में किया गया था। यह प्रणाली जल संरक्षण और वितरण की मिसाल है, जिसे ‘भंडारा’ कहा जाता है। यहां की पहाड़ियों से एक-एक बूंद जल जमा करना और उसे नहरों के माध्यम से लोगों के घरों तक पहुंचाने की यह व्यवस्था मुगल काल में फारसी जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने तैयार की थी। समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह नष्ट हो गए हैं।
हमारे पूर्वजांे ने देश-काल परिस्थिति के अनुसार बारिश को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये आमतौर पर वर्षा-जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘पाट’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘नाड़ा या बंधा’ अब देखने को नहीं मिल रही है। कुंड और बावड़ियां महज जल संरक्षण के साधन नहीं, बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं। आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए योजना बनाई जाए व इसकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज की हो।
पानी एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्पवर्षा, मरुस्थल जैसी विषमताएं प्रकृति में विद्यमान रही हैं। यह तो बीते 200 वर्षो में ही हुआ कि लोग भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी इलाकों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज तो हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। अभी हमारे देखते-देखते घरों के आंगन, गांव के पनघट व सार्वजनिक स्थानों से कुएं गायब हुए हैं। बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। हमारा समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना व उसे किफायत से खर्च करने को अपनी संस्कृति मानता था। वह अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती-संरचना, पानी की मांग व आपूर्ति का गणित भी जानता थ। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी को और कितने में कंठ तर हो जाएगा। भले ही उसे बीते जमाने की तकनीक कहा जाए, लेकिन आज भी कस्बे-शहर में बनने वाली जन योजनाओं में पानी की खपत व आवक का वह गणित कोई नहीं आंक पाता है जो हमारा पुराना समाज जानता था।
राजस्थान में तालाब, बावड़ियां और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नागालैंड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और अब जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बांध बनाने की जुगत असफल होती दिख रही है तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। उस इलाके में बारिश बहुत कम होती है।
पारंपरिक प्रणाली जरूरी
एक वक्त हमारे देश में समय और परिस्थितियों के अनुसार बारिश के पानी को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की गई थीं, जिनमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनी लोग कुएं बनवाते थे जिनका लाभ सभी जन उठाते थे।
जमीन सोखती है सर्वाधिक पानी
जल पर्यावरण का जीवनदायी तत्व है। पारिस्थितिकी के निर्माण में जल आधारभूत कारक है। वनस्पति से लेकर जीव-जंतु अपने पोषक तत्वों की प्राप्ति जल के माध्यम से करते हैं। जब जल में भौतिक या मानवीय कारणों से कोई बाह्य सामग्री मिलकर जल के स्वाभाविक गुण में परिवर्तन लाती है, तो इसका कुप्रभाव जीवों के स्वास्थ्य पर प्रकट होता है। इन दिनों ऐसे ही प्रदूषित जल की मात्र बढ़ रही है, फलस्वरूप पृथ्वी पर पानी की पर्याप्त मात्र मौजूद होने के कारण दुनिया के अधिकांश हिस्से में पेयजल की त्रहि-त्रहि मची दिखती है। भारत में हर साल करीब 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिलता है। उसका खर्च तीन प्रकार से होता है- सात करोड़ हेक्टेयर मीटर भाप बन कर उड़ जाता है, करीब 11.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर नदियों आदि से बहता है, शेष 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर जमीन सोख लेती है। फिर इन तीनों में लेन-देन चलता रहता है। जमीन द्वारा सोखे जाने वाले कुल 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी में से 16.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिट्टी की नमी बनाए रखता है और बाकी भूमिगत जल संसाधनों में जा मिलता है। पिछले कुछ वर्षो के दौरान पेड़ों की कटाई अंधाधुंध हुई, सो बारिश का पानी सीधे जमीन पर गिरता है और मिट्टी की ऊपरी परत को काटते हुए बह निकलता है। इससे नदियों में मिट्टी अधिक पहुंचने से वे उथली हो रही हैं, साथ ही भूमिगत जल का भंडार भी प्रभावित हुआ है।
समाज स्वयं बने ‘पानीदार’
कागजों पर आंकडों में देखें तो हर जगह पानी दिखता है, लेकिन हकीकत में पानी की एक-एक बूंद के लिए लोग पानी-पानी हो रहे हैं। जहां पानी है, वह इस्तेमाल के काबिल नहीं है। आज जलनिधि को बढ़ता खतरा बढ़ती आबादी से कतई नहीं है। खतरा है तो बढ़ते औद्योगिक प्रदूषण, दैनिक जीवन में बढ़ रहे रसायनों के प्रयोग और मौजूद जल संसाधनों के अनियोजित उपयोग से। धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है। यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए तो पांच सौ लाख हेक्टेयर पानी को जमा किया जा सकता है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी पूरे देश में दिया जा सकता है और इस तरह पानी जुटाने के लिए यह आवश्यक है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियों की तलाश की जाए, और उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए और एक बार फिर समाज को ‘पानीदार’ बनाया जाए।
बुंदेलखंड में पहाड़ी के नीचे तालाब
पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बुंदेलखंड में भी पहाड़ी के नीचे तालाब, पहाड़ी पर हरियाली वाला जंगल और एक तालाब के ‘ओने’ से नाली निकाल कर उसे उसके नीचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोड़ने व ऐसे पांच-पांच तालाबों की कतार बनाने की परंपरा नौवीं सदी में चंदेल राजाओं के काल से रही है। वहां तालाबों के आंतरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के बंधान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी फोड़ी गई, पेड़ उजाड़ दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रूठे तो पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किए गए। सभी उपाय जब नाकामयाब होते दिख रहे हैं, तो आज फिर से तालाबों की याद आ रही है।
तमिलनाडु में अनूठी परंपरा
तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई तालाबों की सीरीज में मोड़कर हर बूंद को बड़ी नदी और वहां से उसे समुद्र में जाकर अनुपयोगी होने से रोकने की अनूठी परंपरा थी। तमिलनाडु के उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिये इस ‘पद्धति तालाब’ प्रणाली में 317 तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों का जुड़ाव भी बेहद विस्मयकारी है।
तालाबों को लील गए शहर
वर्ष 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। यह रिपोर्ट कहीं दब गई और देश की आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख तो दूर, उनकी दुर्दशा शुरू हो गई। कालाहांडी हो या बुंदेलखंड या तेलंगाना, देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है ।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2019

Manufacturer should bear the responsibility garbage from there there


पर्यावरण

उत्पादक का उत्तरदायित्व जरूरी

पंकज चतुर्वेदी 
भारत में हर साल कोई 4.4 खरब लीटर पानी को प्लास्टिक की बोतलों में पैक कर बेचा जाता है। यह बाजार 7040 करोड़ रुपये सालाना का है। जमीन के गर्भ से या फिर बहती धारा से प्रकृति के आशीर्वाद स्वरूप निशुल्क मिले पानी को कुछ मशीनों से गुजार कर बाजार में लागत के 160 गुणा ज्यादा भाव से बेच कर मुनाफे का पहाड़ खड़ा करने वाली ये कंपनियां हर साल देश में पांच लाख टन प्लास्टिक बोतलों का अंबार भी जोड़ती हैं। शीतल पेय का व्यापार तो इससे भी आगे है, और उससे उपजा प्लास्टिक कूड़ा भी यूं ही इधर-उधर पड़ा रहता है। ये बोतलें इस किस्म की प्लास्टिक से बनती हैं जिसका पुनर्चकण हो नहीं सकता। या तो यह टूट-फूट कर धरती को बंजर बनाता है, या इसे एकत्र कर ईट भट्ठों या ऐसी ही भट्ठियों में झोंक दिया जाता है, जिससे निकलने वाला धुआं दूर-दूर तक लेगों का दम घोंटता है। यही हाल कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों, दूध की थैलियों, चिप्स आदि के पैकेटों का है। 
विडंबना है कि कुछ लोग कहते नहीं अघाते कि प्लास्टिक के आने से पेड़ बच गए। हकीकत यह है कि पेड़ से मिलने वाले उत्पाद, चाहे वे रस्सी हों या जूट या कपड़ा या कागज, इस्तेमाल के बाद प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाते। खाने-पीने की वस्तुओं से ले कर हर तरह के सामान की पैकिंग में प्लास्टिक या थर्मोकोल का इस्तेमाल बेधड़क जारी है, लेकिन कोई भी निर्माता जिम्मेदारी नहीं लेता कि इस्तेमाल होने वाली वस्तु के बाद उससे निकलने वाले इस जानलेवा कचरे का उचित निबटान करेगा। मोबाइल, कंप्यूटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की कंपनियों का मुनाफा असल उत्पादन लागत का कई सौ गुणा होता है, लेकिन करोड़ों-करोड़ विज्ञापनों में खर्च करने वाली कंपनियां इसे उपजने वाले ई-कचरे की जिम्मेदारी लेने को राजी नहीं होतीं। एक कंप्यूटर में 1.90 किग्रासीसा, 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांश सामग्री गलती-सड़ती नहीं। जमीन में जज्ब हो कर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करती है। 
इसी तरह का जहर बैटरियों और बेकार मोबाइलों से भी उपज रहा है। रंगीन टीवी, माईक्रोवेव ओवन, मेडिकल उपकरण, फैक्स मशीन, टेबलेट, सीडी, एयर कंडीशनर आदि को भी जोड़ लें तो हर दिन ऐसे उपकरणों में से कई हजार खराब होते हैं, या पुराने होने के कारण कबाड़ में डाल दिए जाते हैं। ऐसे उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैं, जो जल, जमीन, वायु, इंसान और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उससे उबरना लगभग नामुमकिन है। इस कबाड़ को भगवान भरोसे प्रकृति को नष्ट करने के लिए छोड़ दिया जाता है। यही नहीं, इन उपकरण की खरीद के दौरान पैकिंग और सामान की सुरक्षा के नाम पर कई किलो थर्मोकोल और पॉलीथीन का इस्तेमाल होता है, जिसे उपभोक्ता कूड़े में ही फेंकता है। क्या अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए कि ऐसे पैकेजिंग मैटीरियल कंपनी खुद तत्काल उपभोक्ता से वापस ले? इन दिनों जोर-शोर से ई-रिक्शे को पर्यावरण-मित्र बता कर प्रचरित किया जा रहा हैं। लेकिन यह नहीं बताया जा रहा कि ई-रिक्शे के महत्त्वपूर्ण तत्व बैटरी के कारण देश का जल और जमीन तेजी से बंजर हो रहे हैं। औसतन हर साल एक रिक्शे की बैटरी के चलते दो लीटर तेजाब वाला पानी या तो जमीन पर या फिर नालियों के जरिए नदियों तक जा रहा है। ई-रिक्शा बेचकर खासी कमाई करने वाले उस रिक्शे की चार्जिग, बैटरी की पर्यावरण-मित्र देखभाल की कहीं जिम्मेदारी नहीं लेते। यही हाल ‘‘ऑटोमोबाइल क्षेत्र’ का है। कंपनियां जम कर वाहन बेच रही हैं, लेकिन ईधन से उपजने वाले प्रदूषण, खराब या पुराने वाहनों को चलने से प्रतिबंधित करने जैसे कायरे के लिए कोई कदम नहीं उठातीं। बेकार टायर जलाए जाते हैं, उनका जहरीला धुआं परिवेश को दूषित कर रहा है, लेकिन कोई भी टायर कंपनी पुराने टायरों के सही तरीके से निबटान को आगे नहीं आती। किसी से छिपा नहीं है कि विभिन्न सरकारों ने पर्यावरण बचाने के लिए करों से अपना खजाना जरूर भरा हो, कभी पर्यावरण संरक्षण के ठोस कदम नहीं उठाए। भारत दिन-दुगनी रात चैागुनी प्रगति से उपभोक्तावादी देश बनता जा रहा है। जरूरी है कि प्रत्येक सामान के उत्पादक या निर्यातक को जिम्मेदारी लेने को बाध्य किया जाए कि उसके उत्पाद से उपजे कबाड़ या प्रदूषण के निबटारे की तकनीकी और जिम्मेदारी वह स्वयं लेगा।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

gender discrimination may be harmful for cow family

बगैर बछड़े के नहीं बचेगा देहात 
पंकज चतुर्वेदी

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य जहां की अर्थ व्यवस्था या समृद्धि का मूल आधार खेती -किसानी है ; के वर्ष 2019 के सालाना बजट में एक अजब प्रावधान किया गया है- सरकारी स्तर पर ऐसी योजना लागू की जा रही ताकि गाय के बछड़े पैदा हो ही नहीं, बस बछिया ही हो। इसके लिए बजट में पचास करोड़ का प्रावधान रखा गया है ताकि ‘सेक्स सार्टेड सिमेंस’ के जरिये राज्य की देशी गायों का गर्भाधान करवा कर केवल बछिया पैदा होना सुनिश्चित किया जा सके।  इसके पीछे कारण बताया गया है कि इससे आवार पशुओं की समस्या से निजात मिलेगी। कैसी विडंबना है कि जिस देश में मंदिर के बाहर बैठे पाशाण नंदी को पूजने और चढौत के लिए लोग लंबी पंक्तियों में लगते हैं, वहां साक्षात नंदी का जन्म ही ना हो, इसके लिए सरकार भी वचनबद्ध हो रही है। हालांकि यह भारत में कोई सात साल पुरानी योजना है जिसके तहत गाय का गर्भाधान ऐसे सीरम से करवाया जाता है जिससे केवल मादा ही पैदा हो जो दूध दे सके, लेकिन इसे ज्यादा सफलता नहीं मिली है क्योंकि यह देशी गाय पर कारगर नहीं है। महज संकर गाय ही इस प्रयोग से गाभिन हो रही हैं। चूंकि इस कार्य के लिए बीज का संवर्धन और व्यापार में अमेरिका व कनाड़ा की कंपनियां लगी हैं तो जाहिर है कि आज नही ंतो कल इसका बोलबाला होगा। इस तरह के एक ही लिंग के जानवर पैदा करने की योजना बनाने वालों को प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने और ताजा-ताज बीटी कॉटन बीजों की असफलता को भी याद कर लेना चाहिए।

ये कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं हैं, बामुश्किल तीन दशक पहले तक गांव में बछड़ा होना षुभ माना जाता था, दो साल उसकी खिलाई-पिलाई हुई और उसके बाद वह पूरे घर के जीवकोपार्जन का आधार होेता था घर के दरवाजे पर बंधी सुंदर बैल की जोड़ी ही उसकी संपन्न्ता और रूतबे का प्रमाण होती थी। बछड़ा एक महीने का भी हजार रूपए में बिक जाता था, जबकि गैया या बछड़ी को दान करना पड़ता था। चुपके से खेती के मशीनीकरण का प्रपंच चला । इसमें कुछ मशीन बनाने वाली , कुछ ईंधन बेचने वाली और सबसे ज्यादा बैंकिग को विस्तार देने वाले लोग षामिल थे। दुश्परिणाम सामने हैं कि आबादी के लिहाज से खाद्यान की कमी, पहले की तुलना में ज्यादा भंडारण की सुविधा, विपणन के कई विकल्प होने के बावजूद किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई हैं और उसका मूल उसकी लागत बढ़ना है। इसमें कोई षक नहीं है कि इस समय उप्र के आंचलिक क्षेत्रों में आवरा गौवंश आफत बना हुआ है। आए रोज हंगामें-झगड़े हो रहे हैं, लेकिन गंभीरता से देखें तो इन आवरा पशुओं में अधिकांश गाय ही हैं। असल में हम यह मानने को तैयार नहीं है कि हमनें गौवंश का निरादर कर एक तो अपनी खेती की लागत बढ़ाई, दूसरा घर के दरवाजे बंधे लक्ष्मी-कुबेर को कूड़ा खाने को छोड़ दिया। मसला केवल नियोजन का है, ये आवारा पशु करोड़ों की लागत की उर्जा के स्त्रोत और बैशकीमती खाद का जरिया बन सकते हैं।

विदेश से आयातित डीप फ्रोजन सीमेन यानि डीएफएस को प्रयोगशाला में इस तैयार किया जाता है कि इसमें केवल एक्स क्रोमोजोम ही हों। इसे नाईट्रोजन बर्फ वाली ठंडक में सहेज कर रखा जाता है। फिलहाल यह जर्सी और होरेस्टिक  फ्रीजियन नस्ल की गायों में ही सफल है। देशी गाय में इसकी सफलता का प्रतिशत तीस से भी कम है। विदेशी नस्ल की गाय की कीमत ज्यादा, उसका रखरखाव महंगा  और इस वैज्ञानिक तरीके से  गर्भाधान के बाद चार साल बाद उसके दूध की मात्रा में कमी आने का कटु सत्य सबके सामने है लेकिन उसे छुपाया जाता है। यही नहीं इस सीमेन के प्रत्यारोपण में पंद्रह सौ रूपए तक का खर्च आता है सो अलग। सबसे बड़ी बात कि किसी भी देश की संपन्न्ता की बड़ी निशानी माने जाने वाले ‘लाईव स्टॉक’ या पशु धन की हर साल घटती संख्या से जूझ रहे देश में अपनी नस्लों का कम होना एक बड़ी चिंता है। यह एक भ्रम है कि भारत की गायें कम दूध देती है। पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान, बरेली में चार किस्म की भारतीय गायों - सिंघी, थारपारकर, वृंदावनी, साहीवाल पर षोध कर सिद्ध कर दिया है कि इन नस्लों की गाये ंना केवल हर दिन 22 से 35 लीटर दूध देती हैं, बल्कि ये संकर या विदेशी गायों से अधिक काल तक यानि 8 से 10 साल तक ब्याहती व दूध देती हैं। एनडीआरआई, करनाल के वैज्ञानिकांे की ताजा रिपोर्ट तो और भी चौंकाने वाली है, जिसमें हो गया है कि ग्लोबल वार्मिग के कारण ज्यादा तपने वाले भारत जैसे देशों में अमेरिकी नस्ल की गायों ना तो जी पाएंगी और ना ही दूधदे पाएंगी। हमारी देशी गायों के चमड़े की मोटाई के चलते इनमें ज्यादा गर्मी सहने, कम भोजन व रखरखाव में भी जीने की क्षमता है।
यदि बारिकी से देखें तो कुछ ही सालों में हमें इन्हीें देशी गायो की षरण में जाना होगा, लेकिन तब तक हम पूरी तरह विदेशी सीमेंस पर निर्भर होंगे और हो सकता हैकि ये ही विदेशी कंपनियां हमें अपने ही देशी सांड का बीज बेचें।
अब जरा हमारे तंत्र में बैल की अनुपयोगिता या उसके आवार होने की हकीकत पर गौर करें तो पाएंगे कि हमने अपनी परंपरा को त्याग कर खेती को ना केवल महंगा किया, बल्कि गुणवत्ता, रोजगार, पलायन, अनियोजित षहरीकरण जैी दिक्कतों का भी बीज बोया। पूरे देश में एक हेक्टेयर से भी कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है। देश में 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 53.1 फीसदी हुआ करता था। संसद में पेश की गई आर्थिक समीक्षा में अब इसे 13.9 फीसदी बताया गया है। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास जीवनयापन का कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है। जरा गौर करें कि जब एक हैक्टेयर से कम रकबे के अधिकांश किसान हैं तो उन्हें ट्रैक्टर की क्या जरूरत थी, उन्हें बिजली से चलने वाले पंप या गहरे ट्यूब वेल की क्या जरूरत थी। उनकी थोड़ी सी फसल के परिवहन के लिए वाहन की जरूरत ही क्या थी। एक बात जान लें कि ट्रैक्ट ने किसान को सबसे ज्यादा उधार में डुबोया, बैल से चलने वाले रहट की जगह नलकूप व बिजली के पंप ने किसान को पानी की बर्बादी और खेती लागत को विस्तार देने पर मजबूर किया। बैल को घर से दूर रखने के चलते कंपोस्ट की जगह नकली खाद की फिराक में किसान बर्बाद हुआ। सरकार ने खूब कजें्र बांट कर पोस्टर में किसान का मुस्कुराता चेहरा दिखा कर उसकर सुख-चैन सब लूट लिया।  खेत मजदूर का रोजगार छिना तो वह षहरों की और दौड़ा।
1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि गोबर को चूल्हे में जलाया जाना एक अपराध है उर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारे देश में गोबर के जरिए 2000 मेगावाट उर्जा उपजाई जा सकती है । यह तथ्य सरकार में बैठे लेाग जानते हैं कि भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है। इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है।  इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है। यह ग्रामीण उर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसदी भी नहीं है । ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता हे। चीन में डेढ करोड परिवारों को घरेलू उर्जा के लिए गोबर गैस की सप्लाई होती है। यदि गोबर का सही इस्तेमाल हो तो हर साल छह करोड़ टन के लगभग लकड़ी को बचाया जा सकता है। साढे तीन करोड़ टन कोयला बच सकता है। इसे कई करोड़ लेागों को रेाजगार  मिल सकता है। बैल को बेकार या आवारा मान कर बेकार कहने वालों के लिए यह आंकड़े विचारणीय है।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपनी ताकत को पहचान नहीं रहे और किसानी, दुग्ध उत्पादन में वृद्धि, बेकार पशुओं के निदान को उन विदशी विकल्पों में तलाश रहे हैं जो कि ना तो हमारे देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप है और ना ही व्याहवारिक।  जान लें कि बगैर बैल के ना तो पर्व-त्योहर हो सकेंगे, ना ही खेती और ना देशी गाय।


मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

olive ridle turtle in trouble



तट पर कराहते 'चमत्कारी' कछुए


बीते एक सप्ताह के दौरान गरियामाथा, ओडिशा के संरक्षित समुद्री तट पर 600 से ज्यादा ओलिव रिडले कछुओं और दो डॉल्फिन के कंकाल बिखरे मिले हंै। हुकीटोला से इकाकूल के बीच ये कंकाल वन विभाग को मिले हैं और सरकारी दावा है कि इन दुर्लभ जल-जीवों की मौत का कारण मछली पकड़ने वाले ट्राले या बड़े जाल हैं। इस पूरे इलाके के 20 किलोमीटर क्षेत्र में मछली पकड़ने पर पूरी तरह पाबंदी है, क्योंकि हर साल नवंबर-दिसंबर से लेकर अप्रैल-मई तक ओडिशा के समुद्र तट एक ऐसी घटना के साक्षी होते हैं, जिसके रहस्य को सुलझाने के लिए दुनिया भर के पर्यावरणविद और पशु प्रेमी बेचैन हैं। हजारों किलोमीटर की समुद्री यात्रा कर ओलिव रिडले नस्ल के लाखों कछुए यहां अंडे देने आते हैं। इन अंडों से निकले कछुए के बच्चे समुद्री मार्ग से फिर हजारों किलोमीटर दूर जाते हैं। यही नहीं, ये शिशु कछुए लगभग 30 साल बाद जब प्रजनन के योग्य होते हैं, तो ठीक उसी जगह पर अंडे देने आते हैं, जहां उनका जन्म हुआ था। ये कुछए विश्व की दुर्लभ प्रजाति ओलिव रिडले के हैं। पर्यावरणविदों की लाख कोशिशों के बावजूद अवैध मछली-ट्रालरों और शिकारियों के कारण हर साल हजारों कछुओं की मौत हो रही है।
यह आश्चर्य ही है कि ओलिव रिडले कछुए हजारों किलोमीटर की समुद्र यात्रा के दौरान भारत में ही गोवा, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश के समुद्री तटों से गुजरते हैं, लेकिन अपनी वंश-वृद्धि के लिए वे अपने घरौंदे बनाने के लिए ओडिशा के समुद्र तटों की रेत को ही चुनते हैं। दुनिया भर में ओलिव रिडले कछुए के घरौंदे महज छह स्थानों पर ही पाए जाते हैं और इनमें से तीन स्थान ओडिशा में हैं। ये कोस्टारिका में दो व मेक्सिको में एक स्थान पर प्रजनन करते हैं। ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले का गरियामाथा समुद्री तट दुनिया का सबसे बड़ा प्रजनन-आशियाना है। इसके अलावा रूसिक्लया और देवी नदी के समुद्र में मिलनस्थल इन कछुओं के दो अन्य प्रिय स्थल हैं।

इस साल ओडिशा के तट पर कछुए के घरौंदों की संख्या शायद अभी तक की सबसे बड़ी संख्या है। अनुमान है कि लगभग सात लाख घरौंदे बन चुके हैं। यह भी आश्चर्य की बात है कि वर्ष 1999 में राज्य में आए सुपर साइक्लोन व वर्ष 2006 के सुनामी के बावजूद कछुओं का ठीक इसी स्थान पर आना अनवरत जारी है। वैसे वर्ष 1996,1997, 2000 और 2008 में बहुत कम कछुए आए थे। ऐसा क्यों हुआ? यह अब भी रहस्य बना हुआ है। ‘ऑपरेशन कच्छप’ चला कर इन कछुओं को बचाने के लिए जागरूकता फैलाने वाले संगठन वाइल्डलाइफ सोसायटी आफ ओडिशा के मुताबिक, यहां आने वाले कछुओं में से मात्र 57 प्रतिशत ही घरौंदे बनाते हैं, शेष कछुए वैसे ही पानी में लौट जाते हैं।
आठ साल पहले ओडिशा हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि कछुओं के आगमन के रास्ते में संचालित होने वाले ट्रालरों में टेड यानी टर्टल एक्सक्लूजन डिवाइस लगाई जाए। ओडिशा में तो इस आदेश का थोड़ा-बहुत पालन हुआ भी, लेकिन राज्य के बाहर इसकी परवाह किसी को नहीं हैं। ‘फैंगशुई’ के बढ़ते प्रचलन ने भी कछुओं की शामत बुला दी है। इसे शुभ मान कर घर में पालने वाले लोगों की मांग बढ़ रही है और इस फिराक में भी इनके बच्चे पकड़े जा रहे हैं। कछुए जल-पारिस्थितिकी के संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं, वैसे भी ओलिव रिडले कछुए प्रकृति की चमत्कारी नियामत हैं। अभी उनका रहस्य अनसुलझा है। मानवीय लापरवाही से यदि इस प्रजाति पर संकट आ गया, तो प्रकृति पर किस तरह की विपदा आएगी? इसका किसी को अंदाजा नहीं है।

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...