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सोमवार, 11 फ़रवरी 2019

Manufacturer should bear the responsibility garbage from there there


पर्यावरण

उत्पादक का उत्तरदायित्व जरूरी

पंकज चतुर्वेदी 
भारत में हर साल कोई 4.4 खरब लीटर पानी को प्लास्टिक की बोतलों में पैक कर बेचा जाता है। यह बाजार 7040 करोड़ रुपये सालाना का है। जमीन के गर्भ से या फिर बहती धारा से प्रकृति के आशीर्वाद स्वरूप निशुल्क मिले पानी को कुछ मशीनों से गुजार कर बाजार में लागत के 160 गुणा ज्यादा भाव से बेच कर मुनाफे का पहाड़ खड़ा करने वाली ये कंपनियां हर साल देश में पांच लाख टन प्लास्टिक बोतलों का अंबार भी जोड़ती हैं। शीतल पेय का व्यापार तो इससे भी आगे है, और उससे उपजा प्लास्टिक कूड़ा भी यूं ही इधर-उधर पड़ा रहता है। ये बोतलें इस किस्म की प्लास्टिक से बनती हैं जिसका पुनर्चकण हो नहीं सकता। या तो यह टूट-फूट कर धरती को बंजर बनाता है, या इसे एकत्र कर ईट भट्ठों या ऐसी ही भट्ठियों में झोंक दिया जाता है, जिससे निकलने वाला धुआं दूर-दूर तक लेगों का दम घोंटता है। यही हाल कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों, दूध की थैलियों, चिप्स आदि के पैकेटों का है। 
विडंबना है कि कुछ लोग कहते नहीं अघाते कि प्लास्टिक के आने से पेड़ बच गए। हकीकत यह है कि पेड़ से मिलने वाले उत्पाद, चाहे वे रस्सी हों या जूट या कपड़ा या कागज, इस्तेमाल के बाद प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाते। खाने-पीने की वस्तुओं से ले कर हर तरह के सामान की पैकिंग में प्लास्टिक या थर्मोकोल का इस्तेमाल बेधड़क जारी है, लेकिन कोई भी निर्माता जिम्मेदारी नहीं लेता कि इस्तेमाल होने वाली वस्तु के बाद उससे निकलने वाले इस जानलेवा कचरे का उचित निबटान करेगा। मोबाइल, कंप्यूटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की कंपनियों का मुनाफा असल उत्पादन लागत का कई सौ गुणा होता है, लेकिन करोड़ों-करोड़ विज्ञापनों में खर्च करने वाली कंपनियां इसे उपजने वाले ई-कचरे की जिम्मेदारी लेने को राजी नहीं होतीं। एक कंप्यूटर में 1.90 किग्रासीसा, 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांश सामग्री गलती-सड़ती नहीं। जमीन में जज्ब हो कर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करती है। 
इसी तरह का जहर बैटरियों और बेकार मोबाइलों से भी उपज रहा है। रंगीन टीवी, माईक्रोवेव ओवन, मेडिकल उपकरण, फैक्स मशीन, टेबलेट, सीडी, एयर कंडीशनर आदि को भी जोड़ लें तो हर दिन ऐसे उपकरणों में से कई हजार खराब होते हैं, या पुराने होने के कारण कबाड़ में डाल दिए जाते हैं। ऐसे उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैं, जो जल, जमीन, वायु, इंसान और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उससे उबरना लगभग नामुमकिन है। इस कबाड़ को भगवान भरोसे प्रकृति को नष्ट करने के लिए छोड़ दिया जाता है। यही नहीं, इन उपकरण की खरीद के दौरान पैकिंग और सामान की सुरक्षा के नाम पर कई किलो थर्मोकोल और पॉलीथीन का इस्तेमाल होता है, जिसे उपभोक्ता कूड़े में ही फेंकता है। क्या अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए कि ऐसे पैकेजिंग मैटीरियल कंपनी खुद तत्काल उपभोक्ता से वापस ले? इन दिनों जोर-शोर से ई-रिक्शे को पर्यावरण-मित्र बता कर प्रचरित किया जा रहा हैं। लेकिन यह नहीं बताया जा रहा कि ई-रिक्शे के महत्त्वपूर्ण तत्व बैटरी के कारण देश का जल और जमीन तेजी से बंजर हो रहे हैं। औसतन हर साल एक रिक्शे की बैटरी के चलते दो लीटर तेजाब वाला पानी या तो जमीन पर या फिर नालियों के जरिए नदियों तक जा रहा है। ई-रिक्शा बेचकर खासी कमाई करने वाले उस रिक्शे की चार्जिग, बैटरी की पर्यावरण-मित्र देखभाल की कहीं जिम्मेदारी नहीं लेते। यही हाल ‘‘ऑटोमोबाइल क्षेत्र’ का है। कंपनियां जम कर वाहन बेच रही हैं, लेकिन ईधन से उपजने वाले प्रदूषण, खराब या पुराने वाहनों को चलने से प्रतिबंधित करने जैसे कायरे के लिए कोई कदम नहीं उठातीं। बेकार टायर जलाए जाते हैं, उनका जहरीला धुआं परिवेश को दूषित कर रहा है, लेकिन कोई भी टायर कंपनी पुराने टायरों के सही तरीके से निबटान को आगे नहीं आती। किसी से छिपा नहीं है कि विभिन्न सरकारों ने पर्यावरण बचाने के लिए करों से अपना खजाना जरूर भरा हो, कभी पर्यावरण संरक्षण के ठोस कदम नहीं उठाए। भारत दिन-दुगनी रात चैागुनी प्रगति से उपभोक्तावादी देश बनता जा रहा है। जरूरी है कि प्रत्येक सामान के उत्पादक या निर्यातक को जिम्मेदारी लेने को बाध्य किया जाए कि उसके उत्पाद से उपजे कबाड़ या प्रदूषण के निबटारे की तकनीकी और जिम्मेदारी वह स्वयं लेगा।

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