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बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

Only traditional tricks can save the rain water

पारंपरिक तरीकों से ही संभव सूखे का निदान!


मध्य प्रदेश के बुरहानपुर शहर की आबादी तीन लाख के आसपास है। निमाड़ का यह इलाका पानी की कमी के कारण कुख्यात है, लेकिन आज भी शहर में कोई 18 लाख लीटर पानी प्रतिदिन एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से वितरित होता है जिसका निर्माण वर्ष 1615 में किया गया था। यह प्रणाली जल संरक्षण और वितरण की मिसाल है, जिसे ‘भंडारा’ कहा जाता है। यहां की पहाड़ियों से एक-एक बूंद जल जमा करना और उसे नहरों के माध्यम से लोगों के घरों तक पहुंचाने की यह व्यवस्था मुगल काल में फारसी जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने तैयार की थी। समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह नष्ट हो गए हैं।
हमारे पूर्वजांे ने देश-काल परिस्थिति के अनुसार बारिश को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये आमतौर पर वर्षा-जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘पाट’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘नाड़ा या बंधा’ अब देखने को नहीं मिल रही है। कुंड और बावड़ियां महज जल संरक्षण के साधन नहीं, बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं। आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए योजना बनाई जाए व इसकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज की हो।
पानी एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्पवर्षा, मरुस्थल जैसी विषमताएं प्रकृति में विद्यमान रही हैं। यह तो बीते 200 वर्षो में ही हुआ कि लोग भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी इलाकों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज तो हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। अभी हमारे देखते-देखते घरों के आंगन, गांव के पनघट व सार्वजनिक स्थानों से कुएं गायब हुए हैं। बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। हमारा समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना व उसे किफायत से खर्च करने को अपनी संस्कृति मानता था। वह अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती-संरचना, पानी की मांग व आपूर्ति का गणित भी जानता थ। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी को और कितने में कंठ तर हो जाएगा। भले ही उसे बीते जमाने की तकनीक कहा जाए, लेकिन आज भी कस्बे-शहर में बनने वाली जन योजनाओं में पानी की खपत व आवक का वह गणित कोई नहीं आंक पाता है जो हमारा पुराना समाज जानता था।
राजस्थान में तालाब, बावड़ियां और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नागालैंड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और अब जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बांध बनाने की जुगत असफल होती दिख रही है तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। उस इलाके में बारिश बहुत कम होती है।
पारंपरिक प्रणाली जरूरी
एक वक्त हमारे देश में समय और परिस्थितियों के अनुसार बारिश के पानी को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की गई थीं, जिनमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनी लोग कुएं बनवाते थे जिनका लाभ सभी जन उठाते थे।
जमीन सोखती है सर्वाधिक पानी
जल पर्यावरण का जीवनदायी तत्व है। पारिस्थितिकी के निर्माण में जल आधारभूत कारक है। वनस्पति से लेकर जीव-जंतु अपने पोषक तत्वों की प्राप्ति जल के माध्यम से करते हैं। जब जल में भौतिक या मानवीय कारणों से कोई बाह्य सामग्री मिलकर जल के स्वाभाविक गुण में परिवर्तन लाती है, तो इसका कुप्रभाव जीवों के स्वास्थ्य पर प्रकट होता है। इन दिनों ऐसे ही प्रदूषित जल की मात्र बढ़ रही है, फलस्वरूप पृथ्वी पर पानी की पर्याप्त मात्र मौजूद होने के कारण दुनिया के अधिकांश हिस्से में पेयजल की त्रहि-त्रहि मची दिखती है। भारत में हर साल करीब 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिलता है। उसका खर्च तीन प्रकार से होता है- सात करोड़ हेक्टेयर मीटर भाप बन कर उड़ जाता है, करीब 11.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर नदियों आदि से बहता है, शेष 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर जमीन सोख लेती है। फिर इन तीनों में लेन-देन चलता रहता है। जमीन द्वारा सोखे जाने वाले कुल 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी में से 16.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिट्टी की नमी बनाए रखता है और बाकी भूमिगत जल संसाधनों में जा मिलता है। पिछले कुछ वर्षो के दौरान पेड़ों की कटाई अंधाधुंध हुई, सो बारिश का पानी सीधे जमीन पर गिरता है और मिट्टी की ऊपरी परत को काटते हुए बह निकलता है। इससे नदियों में मिट्टी अधिक पहुंचने से वे उथली हो रही हैं, साथ ही भूमिगत जल का भंडार भी प्रभावित हुआ है।
समाज स्वयं बने ‘पानीदार’
कागजों पर आंकडों में देखें तो हर जगह पानी दिखता है, लेकिन हकीकत में पानी की एक-एक बूंद के लिए लोग पानी-पानी हो रहे हैं। जहां पानी है, वह इस्तेमाल के काबिल नहीं है। आज जलनिधि को बढ़ता खतरा बढ़ती आबादी से कतई नहीं है। खतरा है तो बढ़ते औद्योगिक प्रदूषण, दैनिक जीवन में बढ़ रहे रसायनों के प्रयोग और मौजूद जल संसाधनों के अनियोजित उपयोग से। धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है। यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए तो पांच सौ लाख हेक्टेयर पानी को जमा किया जा सकता है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी पूरे देश में दिया जा सकता है और इस तरह पानी जुटाने के लिए यह आवश्यक है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियों की तलाश की जाए, और उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए और एक बार फिर समाज को ‘पानीदार’ बनाया जाए।
बुंदेलखंड में पहाड़ी के नीचे तालाब
पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बुंदेलखंड में भी पहाड़ी के नीचे तालाब, पहाड़ी पर हरियाली वाला जंगल और एक तालाब के ‘ओने’ से नाली निकाल कर उसे उसके नीचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोड़ने व ऐसे पांच-पांच तालाबों की कतार बनाने की परंपरा नौवीं सदी में चंदेल राजाओं के काल से रही है। वहां तालाबों के आंतरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के बंधान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी फोड़ी गई, पेड़ उजाड़ दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रूठे तो पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किए गए। सभी उपाय जब नाकामयाब होते दिख रहे हैं, तो आज फिर से तालाबों की याद आ रही है।
तमिलनाडु में अनूठी परंपरा
तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई तालाबों की सीरीज में मोड़कर हर बूंद को बड़ी नदी और वहां से उसे समुद्र में जाकर अनुपयोगी होने से रोकने की अनूठी परंपरा थी। तमिलनाडु के उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिये इस ‘पद्धति तालाब’ प्रणाली में 317 तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों का जुड़ाव भी बेहद विस्मयकारी है।
तालाबों को लील गए शहर
वर्ष 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। यह रिपोर्ट कहीं दब गई और देश की आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख तो दूर, उनकी दुर्दशा शुरू हो गई। कालाहांडी हो या बुंदेलखंड या तेलंगाना, देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है ।

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