यह राष्ट्रवाद तो नहीं है !
पंकज चतुर्वेदी
पुलवामा में पांच दिन में 46 जवानों की शहादत ने पूरे देश को गमगीन कर दिया, गुस्से में ला दिया लाजिमी है ऐसा होना। आखिर सुरक्षा बलों की कर्मठता, लगन व सर्मपण के बदौलत ही सारा मुल्क चैन से जी पाता है। अपने दुश्मन के प्रति रोष एक मानवीय प्रवृति है लेकिन किसी घटना के होने के बाद खुद ही अपने स्तर पर कुछ को दुश्मन बना लेना, अपनी राष्ट्रभक्ति को सर्वोपरि जताने के लिए किसी अन्य के प्रश्नों को देशद्रोही बता देना, निजी हमले, अफवाह और गालियां देना .. यह असल में राष्ट्रवाद का एक सस्ता चैहरा है जिसमें देश की संकल्पना गौण है। यह भी जान लें कि इस तरह की देशभक्ति विविधता वाले देश में कहीं विग्रह, अविश्वास उपजाने का माध्यम न बन जाए। यह समझना होगा कि राष्ट्रवाद फैशन नहीं है ,एक हाथ में मोमबतती और दूसरे से मोबाईल पर सैल्फी वीडियों बना कर फेसबुक पर लाईव करना भावनओं को जगत का पहुंचाने का जरिया तो है लेकिन देशभक्ति आपके दैनिक जीवन की अविभाज्य अंग होना चाहिए।
यह कैसी विडंबना है कि हमारा राष्ट्रवाद केवल 26 जनवरी, 15 अगस्त या पाकिस्तान के नाम पर ही जाग्रत होता हे। अभी दो साल पहले पूर्वोत्तर में हमारी सेना के 17 जवान आतंकवादियों के हाथों शहीद हुए थे, उनकी चर्चा मीडिया में 24 घंटे भी नहीं रही। इसमें कोई शक नहीं कि पाकस्तिान और उसकी शैतान खुफिया एजेंसी आईएसआई भारत में अशंति के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन उनका असल उद्देश्य तो भारत की एकता, अखंडता और विविधता को नुकसान पहुंचाना ही है। देश के विभिन्न हिस्सों में कश्मीरी छात्रों या व्यापारियों पर हमले ना तो आतंकवादियों को सबक सिखाने वाला कदम है और ना ही इससे पाकिस्तान की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है। अमुक ने पाकिस्तान जिंदाबाद बोलया या अमुक कश्मीरी ने खुशी मनाई ये सभी बातें सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के लिए उड़ाई गईं थीं और उससे ही इतना बड़ा नरसंहार हुआ था। कश्मीर के जो छात्र देश के विभिन्न हिस्सों में भय के कारण अपने घर लौट रहें हैं , जान लें उनके मन में भारत के लिए नफरत के बीज बोना बेहद सरल होगा। आज कश्मीर के आम लोगों के दिल में जगह बनाने की जरूरत है ना कि उन्हें अलग-थलग कर पाकिस्तान की साजिशों को सहज बनाने की।
इस बात को भली भांति समझना होगा कि अपने देशभक्ति के जज्बे को जिंदा रखने के लिए हमारे किसी जवान की शहादत का इंतजार करना बेमानी है। वहीं केवल सीमा पर जा कर लड़ना ही देशभक्ति नहीं है। सड़क पर वाहन चलाते समय कानून का पालन न करना, कर चोरी, मिलावट, किसी को जाित-धर्म- वर्ण से जुड़ी गाली देना, रिश्वत लेना व देना, चुनाव में वोट देने के लि जाति-धर्म या घूस को आधार बनाना-- ऐसे ही कई ऐसे कृत्य हैं जिनमें आप लिप्त हैं और इसे बावजूद आप तिरंगा हाथ में ले कर नारे लगा रहे हैं तो आपकी देश के प्रति निष्ठा संदिग्ध ही जानें। आज प्रश्न उठाने को देशद्रेाह बताने वाले भी कम नहीं हैं, खासतौर पर सोशल मीडिया पर बाकायदा ‘ट्रौल-बिरादरी’’ है, जो प्रश्न या असहमति को देशद्रोह बता कर सामने वाले की मां-बहन को गालियां, नंगी तस्वीरें, माार्फ या फेक खबर व चित्र के जरिये खुद को देशभक्त सिद्ध करने पर तुले हैं। एक बात जान लें कि लोकतंत्र भारत की आत्मा है और लोकतंत्र में प्रश्न उठाना या प्रतिरोध के स्वर को जीवतं रखना अनिवार्य है। असमतियों के स्वर ही वाद-विाद के जरिये एक बेहतर नीति, वक्तव्य, प्रशसन को तैयार करते हैं, लेकिन यदि असहमतियों को गाली, हिंसा और धमकी से दबा कर कोई देश भक्त बनना चाहता ै तो वह जान ले कि वह देश की आत्मा को चोट पहुंचा रहा है।
इन दिनों गली-गली में सीमा पर जा कर छक्के छुड़ा देने की भावनाओं का दौर है। लेकिन यह जानना जरूरी है कि केवल सेना ही देश नहीं है। सेना को सम्मानजनक तरीके से संचालित करने के लिए देश का अर्थतृत्र व लोकतांत्रिक मूल्य संपन्न होना बेहद जरूरी है। देश की मजबूती के लिए वर्दीघारी के साथ-साथ एक शिक्षक, लेखक, मजदूर, इंजीनियर, किसान सभी बेहद जरूरी हैं। यदि हम जिस स्थान पर जो काम कर रहे हैं, वह ईमानइदारी व निष्ठा से कर रहे हैं तो सेना को सशक्त ही अना रहे हैं। देश में अशंाति, दंगा, संहार कर हम सशस्त्र बलों का कार्य और चुनौती को ही बढ़ाते हैं । हमारी सेना व उसके नीति-निर्धारक भलीभांति जानते हें कि अपने दुश्मन को किस तरह से मजा चखाना है, वे इसके लिए जरूरी तैयारी, योजना और क्रियान्वयन के लिए विश्व स्तर के प्रोफेशनल हैं, उन्हें हमारे-आपे सुझाव की जरूरत नहीं है। उन्हें जरूरत है कि चुनौती की घड़ी में देश एकसाथ खड़ा रहे। घरेलू मोर्चें पर दंगे-फसाद न हों।
आतंकवाद अब अंतरराश्ट्रीय त्रासदी है। देष-दुनिया का कोई भी हिस्सा इससे अछूता नहीं है। भारत में यह अब महानगर ही नहीं छोटे षहर वाले भी महसूस करने लगे हैं कि ना जाने कौन से दिन कोई अनहोनी घट जाए। लेकिन इसके लिए तैयारी के नाम पर हम कागजों से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। ट्रॉमा सेंटर अभी दिल्ली में भी भली-भांति काम नहीं कर रहे हैं, तो अन्य राज्यों की राजधानी की परवाह कौन करे। क्या यह जरूरी नहीं है कि संवेदनषील इलाकों में सचल अस्पताल, बड़े अस्पतालों में सदैव मुस्तैद विषेशज्ञ हों। आम सर्जन बीमारियों के लिए आपरेषन करने में तो योग्य होते हैं, लेकिन गोली या बम के छर्रे निकालने में उनके हाथ कांपते हैं। बारूद के धुंए या धमाकों की दहषत से बेहोष हो गए लोगों को ठीक करना, डरे-सहमें बच्चों या अपने परिवार के किसी करीबी को खो देने के आतंक से घबराए लोगों को सामान्य बनाना जैसे विशयों को यदि चिकित्सा की पढ़ाई में इस किस्म के मरीजों के त्वरित इलाज के विषेश पाठ्यक्रम को षामिल किया जाए तो बेहतर होगा।
आतंकवादी घटनाओं के षिकार हुए लोगों को आर्थिक मदद और उनके जीवनयापन की स्थाई व्यवस्था या पुनर्वास का काम अभी भी तदर्थवाद का षिकार है। कोई घटना होने के बाद तत्काल स्थानीय या कतिपय संस्थाएं अभियान चलाती हैं, कुछ लोग भाव विभोर हो कर दान देते हैं ओर असमान किस्म की इमदाद लोगों तक पहुंचती है। महानगरों या सीमा पर धमाके देष पर हमला मान लिए जाते हैं तो उन पर ज्यादा आंसू, ज्यादा बयान और ज्यादा मदद की गुहार होती है। उत्तर-पूर्वी राज्यों या बस्तर या झारखंड की घटनाएं अखबारों की सुर्खिया ही नहीं बन पाती हैं। ऐसे में वहंा के पीड़ितों को आर्थिक मदद की संभावनाएं भी बेहद क्षीण होती हैं। सषस्त्र बलों या अन्य सरकारी कर्मचारियों को सरकारी कायदे-कानून के मुताबिक कुछ मिल भी जाता है, लेकिन आम लोग इलाज के लिए भी अपने बर्तन-जमीन बेचते दिखते हैं।
आतंकवाद की अराजक स्थिति में टीवी के चैनल बदल-बदल कर आंसू बहाने वालों के असली राश्ट्रप्रेम की परीक्षा के लिए सशस्त्र बलों का बहुत छोटे समय के लिए प्रशिक्षण का अयोजन हो सकता है। ऐसी संस्था की निषुल्क सेवा या संकट के समय कुछ समय देने वालों को एकत्र किया जा सकता है,यह नए महकमे के खर्चों को कम करने में सहायक कदम होगा। सबसे बड़ी बात सरकारी सेवा करने वाले सभी लोगों को फौज व राहत अभियान का प्राथमिक प्रषिक्षण देना और समय-समय पर उनके लिए ओरिएंटेषन कैंप आयोजित करना समय की मांग है। लोगों को प्राथमिक उपचार, सामान्य लिखा-पढ़ी के काम भी दिए जा सकते हैं।
यदि आम लोग इस विशय में सोचते हैं तो इससे आम आदमी की देष व समाज के प्रति संवेदनषीलता तो बढ़ेगी ही, आतंकवाद के नाम पर राजनीति करने वालों की दुकानें भी बंद हो जाएंगी।
आज जरूरत इस बात की भी है कि देषभर के इंजीनियरों, डाक्टरों, प्रषासनिक अधिकारियों,प्रबंधन गुरूओं और जनप्रतिनिधियों को ऐसी विशम परिस्थितियों से निबटने की हर साल बाकायदा ट्रैनिंग दी जाए। साथ ही होमगार्ड, एनसीसी, एनएसएस व स्वयंसेवी संस्थाओं को ऐसे हालातों में विषेशाधिकार दे कर दूरगामी योजनाओं पर काम करने के लिए सक्षम बनाया जाए।
पंकज चतुर्वेदी
संपर्क- 9891928376
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