My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 25 जुलाई 2021

To save the world climate change has to be controlled

 

 दुनिया को बचाना है तो  जलवायु बदलाव को रोकना होगा

पंकज चतुर्वेदी


इस साल जुलाई के पहले हफ्ते में दिल्ली-एनसीआर में भयंकर गर्मी से जैसे आग लगी हुई थी| 90 साल के बाद जुलाई में दिल्ली में सबसे ज्यादा गर्म दिन 43.1 डिग्री रिकॉर्ड किया गया. रूस का साइबेरिया क्षेत्र जिसे बर्फीला रेगिस्तान कहा जाता है , में वरखोयांस्क नामक जगह में पिछले महीने 37 डिग्री तापमान हो गया। जबकि ये जगह आर्कटिक सर्किल के ऊपर की सबसे ठंडी जगह है और यहां 1892 में तापमान माइनस 90 डिग्री हुआ करता था।
यह गर्मी कनाडा और अमेरिका प्रशांत-उत्तर पश्चिम में भी कहर बन कर टूटी | कनाडा के ओटावा में तापमान 47.9 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था। रॉयल कैनेडियन माउंटेड पुलिस (आरसीएमपी) के मताबिक अकेले वैंकूवर में कम से कम 69 लोगों की मौत दर्ज की गईं । वैंकूवर के बर्नाबी और सरे शहर में मरनेवालों में ज्यादातर बुजुर्ग या गंबीर बीमारियों से ग्रस्त लोग थे।

जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव अब सारी दुनिया में हर स्तर पर देखा जा रहा है – मौसम का अचानक , बेमौसम चरम पर आ जाना , चक्रवात, तूफ़ान या बिजली गिरने जैसे आपदाओं की संख्या में इजाफा  और खेती- पशु पालन, भोजन में  पोष्टिकता की कमी सहित कई अनियमितताएं उभर कर आ रही हैं , पहले विकसित देखों को लगता था की भले ही ग्रीन  हॉउस गैस उत्सर्जन में उनकी भागीदारी ज्यादा है लेकिन इससे उपजी त्रासदी को पिछड़े या विकासशील देश अधिक भोगेंगे, लेकिन आज यूरोप और अमेरिका भ धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों से अछूते नहीं हैं |

इस बात पर संयुक्त राष्ट्र भी चिंता जता चुका है कि 2019 में पूरी दुनिया का औसत तापमान सर्वाधिक दर्ज किया गया | सबसे गर्म दर्ज की गई थी। हाल ही में  ब्रिटिश कोलंबिया के प्रीमियर जॉन होर्गन ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनके लोगों ने अब तक का सबसे गर्म सप्ताह देखा लिया जो कई परिवारों और समुदायों के लिए विनाशकारी रहा है।

वर्ल्ड वेदर एट्रीब्युशन इनीशिएटिव (डब्लूडब्लूए) के 27 वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय टीम की एक त्वरित स्टडी के मुताबिक ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते उत्तरी अमेरिका की गर्म लहरों के सबसे ज्यादा गरम दिन, 150 गुना अपेक्षित थे और दो डिग्री सेल्सियस ज्यादा गरम थे. अमेरिका के ओरेगन और वॉशिंगटन में तापमान के रिकॉर्ड टूटे और कनाडा के ब्रिटिश कोलम्बिया में भी. 49.6 डिग्री सेल्सियस की अधिकतम सीमा तक  तापमान पहुंच गया और यह  जलवायु परिवर्तन का ही कुप्रभाव है |

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि अभूतपूर्व स्तर की जलवायु अव्यवस्था से बचने के लिए  दुनिया को अपनी अर्थ व्यवस्था और सामजिक गतिविधियों में आमूल चूल बदलाव लाने होंगे | रिपोर्ट में कहा था की वर्ष २०३० से २०३५ के बीच धरती का तापमान १.५ डिग्री बढ़ सकता है | जलवायु परिवर्तन के कारणों का दुनिया भर की इंसानी आबादी के स्वास्थ्य पर भी भारी असर पड़ रहा है: रिपोर्ट दिखाती है कि वर्ष 2019 में तापमान में अत्यधिक वृद्धि के कारण जापान में 100 से ज़्यादा और फ्रांस में 1462 लोगों की मौतें हुईं | वर्ष 2019 में तापमान वृद्धि के कारण डेंगु वायरस का फैलाव भी बढ़ा जिसके कारण मच्छरों को कई दशकों से बीमारियों का संक्रमण फैलाना आसान रहा है| कोरोना वायरस के समाज में इस स्तर पर  संहारी होने का मूल कारण भी जैव विविधता से छेड़छाड़ और जलवायु परिवर्तन ही है | भुखमरी में अनेक वर्षों तक गिरावट दर्ज किए जाने के बाद अब इसमें बढ़ोत्तरी देखी गई है और इसका मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन व चरम मौसम की घटनाएँ हैं: वर्ष 2018 में भुखमरी से लगभग 82 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे|

हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के देश वर्ष 2019 में विशेष रूप में ज़्यादा प्रभावित हुए, जहाँ की ज़्यादातर आबादी पर जलावायु संबंधी चरम घटनाओं, विस्थापन, संघर्ष व हिंसा का बड़ा असर पड़ा | उस क्षेत्र में भीषण सूखा पड़ा और उसके बाद वर्ष के आख़िर में भारी बारिश हुई| इसी कारण टिड्डियों का भी भारी संकट पैदा हुआ जो पिछले लगभग 25 वर्षों में सबसे भीषण था|

दुनिया भर में लगभग 67 लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं के कारण अपने घरों से विस्थापित हुए, इनमें विशेष रूप से तूफ़ानों और बाढ़ों का ज़्यादा असर था.

विशेष रूप से ईरान, फ़िलीपीन्स और इथियोपिया में आई भीषण बाढ़ों का ज़िक्र करना ज़रूरी होगा. रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2019 में लगभग दो करोड़ 20 लाख लोगों के देश के भीतर ही विस्थापित होना पड़ा जोकि वर्ष 2018 ये संख्या लगभग एक करोड़ 72 लाख थी.

यह बहुत भयानक चेतावनी है कि यदि तापमान में वृध्धि  दो डिगरी हो गई तो कोलकता हो या कराची , जानलेवा गर्मी मने इंसान का जीवन संकट में होगा | गर्मी से ग्लेशियर के गलने, समुद्र का जल स्तर बढ़ने  और इससे तटीय शहरों में तबाही तय हैं | खासकर उत्तरी ध्रुव के करीबी देशों में इसका असर व्यापक होगा |

यह चेतावनी कोई नई नहीं है कि जलवायु परिवर्तन से उपजी त्रासदियों की सर्वाधिक मार महानगरों, खासकर समुद्र तट के करीब बस्तियों पर पड़ेगी।  अचानक चरम बरसात , ठंड या गरमी या फिर बेहद कम बरसात या फिर असामयक मौसम में तब्दीली, इस काल की स्वाभाविक त्रासदी है। इससे निबटने के तरीकों में सबसे अव्वल नंबर अधिक से अधिक प्राकृतिक संरचनाओं को सहेजना, उसे उसके पारंपरिक रूप में ले जाना ही है। पेड़ हों तो पारंपरिक , नदी-तालाब-झील के जल ग्रहण क्षेत्र, उनके बीते 200 साल के रास्ते , उनके सागत से मिलने के मार्गों से अक्रिमण समाप्त करने, मेग्रोव जैसी संरचनाओं को जीवतं रखने के त्वरित प्रयास ही कारगर हैं। यदि महानगरों की रौनक बनए रखना हैं, उन्हें अंतरराश्ट्रीय बाजार के रूप में स्थापित रखना है तो अपनी जड़ों की ओर लौटने की दीर्घकालीक योजना बनानी ही होगी ।

जलवायु परिवर्तन पर 2019 में जारी इंटर गवमेंट समूह (आईपीसीसी) की विशेष रिपोर्ट ओशन एंड क्रायोस्फीयर इन ए चेंजिंग क्लाइमेट के अनुसार,  सरी दुनिया के महासागर 1970 से ग्रीनहाउस गैस  उत्सर्जन से उत्पन्न 90 फीसदी अतिरिक्त गर्मी को अवशोषित कर चुके है। इसके कारण महासागर  गर्म हो रहे हैं और इसी से चक्रवात को जल्दी-जल्दी और खतरनाक चेहरा सामने आ रहा है।  निवार तूफान के पहले बंगाल की खाड़ी में जलवायु परिवर्तन के चलतेे समुद्र जल  सामान्य से अधिक गर्म हो गया था। उस समय समुद्र की सतह का तापमान औसत से लगभग 0.5-1 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म था, कुछ क्षेत्रों में यह सामान्य से लगभग 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया था। जान लें समुद्र का 0.1 डिग्री तापमान बढ़ने का अर्थ है चक्रवात को अतिरिक्त ऊर्जा मिलना। हवा की विशाल मात्रा के तेजी से गोल-गोल घूमने पर उत्पन्न तूफान उष्णकटिबंधीय चक्रीय बवंडर कहलाता है।

पूरी दुनिया में बार-बार और हर बार पहले से घातक तूफान आने का असल कारण इंसान द्वारा किये जा रहे प्रकृति के अंधाधुध शोषण से उपजी पर्यावरणीय त्रासदी जलवायु परिवर्तनभी है। इस साल के प्रारंभ में ही अमेरिका की अंतरिक्ष शोध संस्था नेशनल एयरोनाटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन नासा ने चेता दिया था कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रकोप से चक्रवाती तूफान और खूंखार होते जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण उष्णकटिबंधीय महासागरों का तापमान बढ़ने से सदी के अंत में बारिश के साथ भयंकर बारिश और तूफान आने की दर बढ़ सकती है। यह बात नासा के एक अध्ययन में सामने आई है। अमेरिका में नासा के ‘‘जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी’’ (जेपीएल) के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया। इसमें औसत समुद्री सतह के तापमान और गंभीर तूफानों की शुरुआत के बीच संबंधों को निर्धारित करने के लिए उष्णकटिबंधीय महासागरों के ऊपर अंतरिक्ष एजेंसी के वायुमंडलीय इन्फ्रारेड साउंडर (एआईआरएस) उपकरणों द्वारा 15 सालों तक एकत्र आकंड़ों के आकलन से यह बात सामने आई। अध्ययन में पाया गया कि समुद्र की सतह का तापमान लगभग 28 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर गंभीर तूफान आते हैं। जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स’(फरवरी 2019) में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि के कारण हर एक डिग्री सेल्सियस पर 21 प्रतिशत अधिक तूफान आते हैं। जेपीएलके हार्टमुट औमन के मुताबिक गर्म वातावरण में गंभीर तूफान बढ़ जाते हैं। भारी बारिश के साथ तूफान आमतौर पर साल के सबसे गर्म मौसम में ही आते हैं। लेकिन जिस  तरह ठंड के दिनो में समुद्र में ऐसे तूफान के हमले बढ़ रहे हैं, यह दुनिया के लिए गंभीर चेतावनी है।

जरूरत है कि हम  प्रकृति के मूल स्वरुप को नुकसान पहुँचाने वाली गतिविधिओं से परहेज करें , भोजन हो या परिवहन ,  पानी हो या औषधी , जितना नैसर्गिक होगा, धरती उतनी ही दिन अधिक सुकून से  जीवित रह पाएगी . वायुमंडल में  कार्बन की मात्रा कम करना, प्रदूषण स्तर में कमी हमारा लक्ष्य होना चाहिए|

 

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

we have invited flood in our local

 देश की अर्थ व्यवस्था को पीछे ढकेल देता है सैलाब
पंकज चतुर्वेदी



अजीब विडंबना है कि आंकड़ों में देखें तो अभी तक देश के बड़े हिस्से में मानसून नाकाफी रहा है, लेकिन जहां जितना भी पानी बरसा है, उसने अपनी तबाही का दायरा बढ़ा दिया है। पिछले कुछ सालों में बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ौतरी हुई है । कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। असल में बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा ही नहीं है, बल्कि यह देश के गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गया है। हमारे पास बाढ़ से निबटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बांध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन,  बढ़ती गरमी, रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई मलवे का नदी में बढ़ना, जमीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों-दिन गंभीर होते जा रहे हैं। जिन हजारों करोड़ की सड़क, खेत या मकान बनाने में सरकार या समाज को दशकों लग जाते हैं, उसे बाढ़ का पानी पलक झपकते ही उजाड़ देता है। हम नए कार्याे के लिए बजट की जुगत लगाते हैं और जीवनदायी जल उसका काल बन जाता है। 

जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय  के ताजा आंकड़े बताते हैं कि भारत देश में पिछले छह दशकों के दौरान बाढ़ के कारण लगभग 4.7 लाख करोड़ का नुकसान हुआ और 1.07 लाख लोगों की मौत हुई, आठ करोड़ से अधिक मकान नष्ट हुए और 25.6 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में 109202 करोड़ रूपये मूल्य की फसलों को नुकसान पहुंचा है। इस अवधि में बाढ़ के कारण देश में 202474 करोड़ रूपये मूल्य की सड़क, पुल जैसी सार्वजनिक संपत्ति पानी में मिल गई। मंत्रालय बताता है कि बाढ़ से प्रति वर्ष औसतन 1654 लोग मारे जाते हैं, 92763 पशुओं का नुकसान होता है। लगभग 71.69 लाख हेक्टेयर क्षेत्र जल प्लावन से बुरी तरह प्रभावित होता है जिसमें 1680 करोड़ रूपये मूल्य की फसलें बर्बाद हुईं और 12.40 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं। 

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 में भारत की बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी । 1960 में यह बढ़ कर ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर हो गई । 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी आज देश के कुल 329 मिलियन(दस लाख) हैक्टर में से चार करोड़ हैक्टर इलाका नियमित रूप से बाढ़ की चपेट में हर साल बर्बाद होता है।  सन 2016 में 70 लाख हैक्टर जमीन को बाढ़ ने बर्बाद किया, जिससे 2.4 करोड़ आबादी प्रभावित हूई। संपत्ति के नुकसान का सरकारी अनुमान 5675 करोड़ था। वहीं सन 2018 में नुकसान की राशि बढ़ कर 95737 करोड़ हो गई व इसकी चपेट में आई आबादी की संख्या 7.9 करोड़ थी। बिहार राज्य का 73 प्रतिशत हिस्सा आधे साल बाढ़ और शेष दिन सुखाड़ की दंश झेलता है और यही वहां के पिछड़ेपन, पलायन और परेशानियों का कारण है। यह विडंबना है कि राज्य का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पस्त रहता है। यहां कोशी, गंड़क, बूढ़ी गंड़क, बाधमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं । इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केन्दª सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा हैं । यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं । ‘‘बिहार का शोक’’ कहे जाने वाली कोशी के उपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है । लेकिन इसके रखरखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रूपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है । हालांकि तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं । कोशी के तटबंधों के कारण उसके तट पर बसे 400 गांव डूब में आ गए हैं । कोशी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सील्ट (गाद) के भराव से उंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती हैं । फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मंुगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है । विदित हो आजादी से पहले अंग्रेज सरकार व्दारा बाढ़ नियंत्रण में बड़े बांध या तटबंधों को तकनीकी दृष्टि से उचित नहीं माना था । तत्कालीन गवर्नर हेल्ट की अध्यक्षता में पटना में हुए एक सम्मेलन में डा. राजेन्द्र प्रसाद सहित कई विद्वानों ने बाढ़ के विकल्प के रूप में तटबंधों की उपयोगिता को नकारा था । इसके बावजूद आजादी के बाद हर छोटी-बड़ी नदी को बांधने का काम अनवरत जारी है ।  बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों के कई उदाहरण पूरे देश में देखने को मिल रहे हैं। वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे है । 

असम में इन दिनों 23 जिलों के कोई साढ़े सात लाख लोग नदियों के रौद्र रूप के चलते घर-गांव से पलायन कर गए है और ऐसा हर साल होता है। यहां अनुमान है कि सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें - मकान, सड़क, मवेशी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि षामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं , जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानि असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है।  

देश में सबसे ज्यादा सांसद व प्रधानमंत्री देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश की उर्वरा धरती, कर्मठ लोग, अयस्क व अन्य संसाधन उपलब्ध होनेे के बावजूद विकास की सही तस्वीर ना उभर पाने का सबसे बड़ा कारण हर साल आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान हैं।  बीते एक दशक के दौरान राज्य में बाढ़ के कारण 45 हजार करोड़ रूपए कीमत की तो महज खड़ी फसल नष्ट हुई है। सड़क, सार्वजनिक संपत्ति, इंसान, मवेशी आदि के नुकसान अलग हैं। राज्य सरकार की रपट को भरोसे लायक मानें तो सन 2013 में राज्य में नदियों के उफनने के कारण 3259.53 करोड़ का नुकसान हुआ था जो कि आजादी के बाद का सबसे बड़ा नुकसान था। सन 2016 में राज्य की 5.6 लाख हैक्टर जमीन बाढ़ से नष्ट हुई , 20 लाख लोग प्रभावित हुए और 123 करोड़ की संपत्ति को नुकसान हुआ। । सन 2018 में 59 लाख लोग प्रभावित हुए और नुकसान का आकलन 547 करोड़ का था। सन 2019 में सैलाब ें 1357 जानें गईं।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकार (एनडीएमए) के पूर्व सचिव नूर मोहम्मद का मानना है कि देश में समन्वित बाढ़ नियंत्रण व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया गया। नदियों के किनारे स्थित गांव में बाढ़ से बचाव के उपाए नहीं किये गए। आज भी गांव में बाढ़ से बचाव के लिये कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं है। उन्होंने कहा कि उन क्षेत्रों की पहचान करने की भी जरूरत है जहां बाढ़ में गड़बड़ी की ज्यादा आशंका रहती है। आज बारिश का पानी सीधे नदियों में पहुंच जाता है। वाटर हार्वेस्टिंग की सुनियोजित व्यवस्था नहीं है ताकि बारिश का पानी जमीन में जा सके। शहरी इलाकों में नाले बंद हो गए हैं और इमारतें बन गई हैं। ऐसे में थोड़ी बारिश में शहरों में जल जमाव हो जाता है। अनेक स्थानों पर बाढ़ का कारण मानवीय हस्तक्षेप है।  जलवायु परिवर्तन एक ऐसा कारक है जो अचानक ही बेमौसम बहुत तेज बरसात की जड़ है और इससे सबसे ज्यादा नुकसान होता है। 

मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है । अतएव बाढ़ के बढ़ते सुरसा-मुख पर अंकुश लगाने के लिए शीघ्र्र कुछ करना होगा । कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विशयों का हमारे यहां कभी निश्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठा कर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी , नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेउ़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीशण विभीशिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।



गुरुवार, 22 जुलाई 2021

Khori is not only encroachment on Arwali

 अरावली तो अतिक्रमण से उजड़ गई फिर खोरी ही क्यों उजाड़ा!

पंकज चतुर्वेदी


सात जून 2021 को सुप्रीम कोर्ट के  आदेश  के बाद फरीदाबाद नगर निगम क्षेत्र में सूरजकुड से सटे खोरी गांव की कोई साठ हजार आबादी का सोना-खाना सबकुछ छूट गया है। वहां बस डर है, अनिश्चितता  है और भविष्य  का अंदेशा है। मानवीय नजरिये से भले ही यह बहुत मार्मिक लगे कि एक झटके में 80 एकड़ में फैले शहरी गांव के कोई दस हजार मकान तोडे जाने हैं व उसमें रहने वालों को कोई वैकल्पिक आवास व्यवस्था के अनुरोध को भी कोर्ट ने ठुकरा दिया। लेकिन यह भी कड़वा सच है कि राजस्थान के बड़े हिस्से, हरयाणा, दिल्ली और पंजाब को सदियों से रेगिस्तान बनने से रोकने वाले अरावली पर्वत को बचाने को यदि अदालत सख्त नाहो तो नेता-अफसर और जमीन माफिया अभी तक समूचे पहाड़ को ही चट कर गया होता। कैसी विडंबना है कि जिस पहाड़ के कारण हजारों किलोमीटर में भारत का अस्तित्व बचा हुआ है उसको बचाने के लिए अदालत को बार-बार आदेश  देने होते हैं। जान लें सन 2016 में ही पंजाब -हरियाणा हाई कोर्ट अरावली पर अवैध कब्जा कर बनाई कालोनियों को ध्वस्त करने के आदेश  दे चुका था, उसके बाद फरवरी-2020 में सुप्रीम कोर्ट ने भी उस ओदष को मोहर लगाई थी। प्रशासनिक अमला कुछ औपचारिकता करता लेकिन इस बार अदालत ने छह सप्ताह में वन भूमि पर से पूरी तरह कब्जा हटा कर उसकी अनुपालन रिपोर्ट अदालत में पेश  करने का सख्त आदेश देते हुए इसके लिए ुपलिस अधीक्षक को जिम्मेदार अफसर निरूपित किया है। 


यह भी समझना होगा कि अरावली के जंगल में अवैध कब्जा केवल खेरी गांव ही नहीं है, फरीदाबाद में ही हजारों फार्म हाउस भी हैं। पिछले साल लॉक डाउन के दौरान गुरूग्राम के घाटा गांव में किला नंबर 92 पर कई डंपर मलवा डाल कर कुछ झुग्गियां डाल दी गई थीं। अरावली के किनारे समूचे मेवात में - नगीना, नूह, तावड़ू से तिजारा तक अरावली के तलहटी पर लोगों के अवैध कब्ज हैं और जहां कभी वन्य जीव देखे जाते थे अब वहा खेत-भवन हैं। वैसे तो भूमाफिया की नजर दक्षिण हरियाणा की पूरी अरावली पर्वत श्रृंखला पर है लेकिन सबसे अधिक नजर गुरुग्राम, फरीदाबाद एवं नूंह इलाके पर है। अधिकतर भूभाग भूमाफिया वर्षों पहले ही खरीद चुके हैं। वन संरक्षण कानून के कमजोर होते ही सभी अपनी जमीन पर गैर वानिकी कार्य शुरू कर देंगे। 

खोरी गांव में जहां कुछ दिनों पहले तक जिंदगी थी, आज वीराना, आषंका, भय और मौत नाच रही है।  खोरीगांव के दस हजार घरों में रहने वाले कोई एक लाख लोगों को  उजाड़ने का सुप्रीम कोर्ट का आदेष कानून के हिसाब से भले ही सटीक है, लेकिन भरी बरसात में बीस हजार बच्चों के साथ सीधे सड़क पर आ गए लोगों के सामने खड़े अनिष्चितता के सवाल के जवाब भी तो समाज को ही देने होंगे न ! सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जिस तंत्र की लापरवाही से यह अवैध कब्जे का साम्राज्य खड़ा होता है, वह ऐसी मानवीय त्रासदी में निरापद कैसे रह जाता है।  षायद भारत के इतिहास में इतना बड़ा अतिक्रमणरोधी अभियान कभी नहीं चला होगा जिसमें 35 धार्मिक स्थल, पांच स्कूल, दो अस्पताल, बड़ा सा बाजार सहित समूची बस्ती को उजाड़ा जा रहा है, वह भी  विस्थापितों के लिए बगैर किसी वैक्लिपक व्यवस्था के।  यदि बारिकी से देखें तो समूची कार्यवाही उसी सुप्रीम कोर्ट के आदेष पर हो रही है जिसके पहले भी कई ऐसे आदेषों पर राज्य सरकारें कुडली मार कर बैठी रही हैं।  यह विचार करने का समय है कि यदि देष से सरकारी जमीन से सभी अवैध कब्जे हटा दिए जाएं तो भारत का स्वरूप कैसा होगा?


 आंचलिक क्षेत्रों की बात दूर की राजधानी दिल्ली  में ही अवैध कालोनियों को नियमित करने, झुग्गी बस्ती बसाने व विस्थापन पर नए स्थान पर जमीन देने, मुआवजा बांटने के तमाषे सालों से हर सरकार करती रही है। खोरीगांव  अरावली पहाड़ की तली पर  अस्सी के दषक में तब बसना षरू हुआ था जब यहां खनन षुरू हुआ। पहले खदानों में काम करने वाले मजदूरों की कुछ झुग्गियां बसीं, फिर इसका विस्तार लकड़पुर गांव से दिल्ली की सीमा तक होता रहा। फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेष पर अरावली में खान पूरी तरह पाबंद कर दिया गया और यह बस्ती मेहनत-मजदूरी करने वालों से आबाद होती चली गई। अधिकांष उप्र-बिहार के श्रमिक। पावर आफ अटार्नी पर गरीब-श्रमिक  जमीन खरीदते रहे और अपनी सारी कमाई लगा कर अध-पक्के ढांचे खड़े करते रहे। इधर दिल्ली सुरसा मुख सी फैल रही थी तो उधर फरीदाबाद-गुरूग्राम सड़क आने के बाद सारा इलाका  नगर निगम क्षेत्र में अधिसूचित हो गया।  जान कर आष्चर्य होगा कि इस एक लाख आबादी की रिहाईष भले ही हरियाणा में हो लेकिन दिल्ली से तार खींच कर यहां घर-घर बिजली दी जाती थी। बाकायदा साढ़े तेरह रूपए यूनिट की वसूली ठेकेदार करते थे । पानी के लिए टैंकर का सहारा। हर घर में बड़ी-बड़ी टंकियां थीं जिसमें एक हजार रूपए प्रति टैंकर की दर से माफिया पानी भरता था। एक घर का काम महीने भर में दे टैकर से चल जाता। वहीं पीने के लिए बीस रूपए की बीस लीटर वाली बोतल की घर-घर सप्लाई की व्यवस्था यहां थी। जाहिर है कि यहां हर महीने अकेले बिजली-पानी का कारोबार  बीस करोड़ से कम का ना था और इतने बड़े व्यापार तंत्र का संचालन बगैर सरकारी मिलीभगत से हो नहीं सकता। यहां हर एक वाषिंदे के पास मतदाता पहचान पत्र है और इस बस्ती के लिए बाकायदा चार मतदाता केंद्र स्थापित किए जाते थे। 

असल में खोड़ी-लकड़पुर की कोई 100 एकड़ जमीन नगर निगम की है। पंजाब भू संरक्षण अधिनियम- 1900 के तहत  यह जमीन वन विकसित करने के लिए अधिसूचित है और यहां कोई भीगैरवानिकी कार्य वर्जित है।  अरावली क्षेत्र से अवैध कब्जे हटाने के लिए दायर एक जनहित याचिका पर फरवरी और अपगैल 2020 में सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार को खोरीका अवैध कब्जा हटाने के आदेष दे चुका था लेकिन राज्य सरकार जनाक्रोष और हिंसा के डर की आड़ में  अतिक्रमण हटाने से बच रहे थ्े। सात जून 2021 को सुप्रीम केर्ट ने फरीदाबाद के उपायुक्त और पुलिस प्रमुख को अतिक्रमण ना हटा पाने की दषा में व्यक्तिगत जिम्मेदार निरूपित करते हुए छह हफ्ते में  आदेष के पालन के आदेष दिए।  एक अन्य जनहित याचिका में सुप्रीम केर्ट ने स्पश्ट कह दिया कि जमीन पर कब्जा कर गैरकाननी काम करने वालों को वह कोई छूट नहीं दे सकती। खोरीगांव  अरावली पहाड़ की तली पर  अस्सी के दषक में तब बसना षरू हुआ था जब यहां खनन षुरू हुआ। पहले खदानों में काम करने वाले मजदूरों की कुछ झुग्गियां बसीं, फिर इसका विस्तार लकड़पुर गांव से दिल्ली की सीमा तक होता रहा। फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेष पर अरावली में खान पूरी तरह पाबंद कर दिया गया और यह बस्ती मेहनत-मजदूरी करने वालों से आबाद होती चली गई। अधिकांष उप्र-बिहार के श्रमिक। पावर आफ अटार्नी पर गरीब-श्रमिक  जमीन खरीदते रहे और अपनी सारी कमाई लगा कर अध-पक्के ढांचे खड़े करते रहे। इधर दिल्ली सुरसा मुख सी फैल रही थी तो उधर फरीदाबाद-गुरूग्राम सड़क आने के बाद सारा इलाका  नगर निगम क्षेत्र में अधिसूचित हो गया।  


 अदालती आदेष के बाद इसके बाद खोरी खंडहर हो रहा है। लोग खुद ही मकान तोड़ रहे हैं। जो ईंट बाजार में आठ रूपए की एक है, खोरी में एक रूपए में बिक रही है। हरियाणा सरकार ने यहां से उजड़ै लोगों को डबुआ में बने ईडब्लू एस फ्लेट देने की घोशणा की है, लेकिन यह इतना सरल नहीं है। एक तो मतदाता सूची में नाम हो, दूसरा सालाना आय साढ़ै तीन लाख से कम का प्रमाणपत्र और तीसरा कि याची का टूटा मकान हरियाणा की सीमा में हो। जान लें कि इनमें अधसे मकान दिल्ली-सीमा में हैं। यहां कई प्रदर्षन, धरने, हिंसा भी , तीन लोग आत्महत्या कर चुके हैं- लेकिन यह सवाल अनुत्तरित रहा कि यहां से उजाड़े गए एक लाख लोग आखिर जाएं कहां ? इतनी बड़ी आबादी के लिए तत्काल घर तलाषना , वह भी अपने कार्य-स्थल के आसपास, लगभग असंभव है। 

खोरी के इतने बड़े विस्थापन पर राजनीतिक रूप से कोई बड़ा बवाल ना होना जताता है कि इतनी बड़ी बस्ती को बसा कर अपने महल खड़े करने वालों में हर दल के लोग समान भागीदार होते हैं।वैसे यह भी जानना जरूरी है कि  देष में कुल वन भूमि के दो प्रतिषत अर्थात 13 हजार वर्ग किलोमीटर पर अवैध कब्जे होने की बात केंद्र सरकार ने एक ‘सूचना के अधिकार’ की अर्जी में स्वीकार की है। इससे पहले पांच जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने देषभर में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर बने धार्मिक स्थलों की सूची मांगी थी और  सन 2016 में आदेष दिया था कि ऐसे बीस लाख से ज्याद कब्जे हटाए जाएं।  सुप्रीम केर्ट में राज्य सरकारों ने ही बताया था कि तमिलनाडु में 77450, राजस्थान में 58253, मध्यप्रदेष में 52923, उप्र में 45152 ऐसे धार्मिक स्थल है जो सरकारी जमीन पर बलात कब्जा कर बनाए गए हैं। आदेष को पांच साल से अधिक हो गया। इसका क्रियान्वन हुआ नहीं। 


आजादी के समय देष के हर गांव में एक परती या चरागाह की जमीन होती थी। हर गांव में मवेषियों के चरने के लिए बड़े हरियाली चक को छोड़ा जाता था। आज षायद ही किसी गांव में चरागाह की जमीन बची हो। देष का कोई भी षहर कस्बा ऐसा नहीं है जहां बाजार या दुकान के नाम पर कुछ फुट  सरकारी जमीन पर कारोबार आगे ना बढ़ाया गया हो। पैल चलने वालों के लिए बने फुटपाथ पर दुकान सजाना तो अधिकार में षांमिल है। पॉष कहलाने वाली हर कालोनी में घर के आगे की कुछ जमीन पर क्यारी लगाने, गाडी खउ़ करने का चबूतरा या षेड बनाने में किसी को कोई लज्जा नहीं आती। दिल्ली  की सीमाओं पर सार्वजनिक सड़क पर कब्जे कर पक्की संरचनाएं खड़ी कर सात महीने से  धरना  दे रहे किसानों पर कोई कानून लागू नहीं होता।  जाहिर है ऐसे ‘अतिक्रमण-प्रधान देष’ में खोरी को बगैर विकल्प के उजाड़ देना, भले ही वैधानिक है लेकिन नैतिक या मानवीय कतई नहीं।  


मंगलवार, 20 जुलाई 2021

poor road maintenance causing path hole

 गड्ढा मुक्त सड़क योजना में गड्ढे ?

पंकज चतुर्वेदी



अभी आठ जुलाई को ही केंद्र सरकार के सड़क परिवहन मंत्रालय ने पूरे देश की राज्य सरकारों को सड़क से गड्ढों को पूरी तरह मिटाने के निर्देश दिए। उप्र में तो हर साल हर जिले में ऐसे अभियान चलते हैं व औसतन पचास करोड़ प्रति जिले की दर से खर्चें होते हैं। एक बरसात के बाद ही पुराने गड्ढे नए आकार में सड़क पर बिछे दिखते हैं। राजधानी दिल्ली हो या फिर दूरस्थ गांवों तक, आम आदमी इस बात से सदैव रुष्ट  मिलता है कि उसके यहां की सड़क टूटी है, संकरी है, या काम की ही नहीं है। लेकिन समाज कभी नहीं समझता कि सड़कों की दुर्गति करने में उसकी भी भूमिका कम नहीं है। अब देशभर में बाईस लाख करोड़ खर्च कर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है । श्वेत  क्रांति व हरित क्रांति के बाद अब देश सड़क-क्रांति की ओर अग्रसर है । चालू वित्त वर्ष  में केंद्र ने विभिन्न राज्यों को केंद्रीय सड़क फंड के 7000 करोड़ रूपए दिए हैं जिसमें सर्वाधिक उप्र को 616.29 करोड़ मिला है। इतनी बड़ी राशि खर्च कर तैयार सड़कों का रखरखाव भी महंगा होगा। 

इतनी बड़ी रशि से नई सउ़क बनने के साथ पुरानी सउ़कों का रखरखाव व मरम्मत अनिवार्य कार्य होता है। पर्याटन नगरी आगरा में पिछले साल अक्तूबर में ढाई करोड से सारे षहर को गड्ढा मुक्त बनाया जाना था, जनवरी की बरसात में ही भरे गए  छेद और बउ़े हो कर उभरे। अमेठी में शा रदा सहायक  28 से जौनपुर तक की 41 किमी सड़क को पांच करोड़, 10 लाख 88 हजार और 650 रूपए ख्खर्च कर गड्ढा मुक्त का प्रचार होने के तीनम हीने बाद ही  पूरी सड़क की गड्ढा बन गई।  लखनऊ श हर में कई सउ़कें  बजट की कमी के चलते बरसात में गहरे तालबा में तब्दील हो जाती हैं। यह बानगी है कि  किस तरह सडक मरम्मत का कार्य कोताही और   कमाई की देन चढ़ जाता है। 

यह दुर्भाग्य है कि हमारे देश में एक भी सड़क ऐसी नहीं है, जिस पर कानून का राज हो । गोपीनाथ मुंडे, राजेश पायलेट, साहिब सिंह वर्मा जैसे कद्दावर नेताओं को हम सड़क की साधारण लापरवाहियों के कारण गंवा चुके हैं। सीमा से अधिक गति से वाहन चलाना, क्षमता से अधिक वजन लादना, लेन में चालन नहीं करना, सड़क के दोनेा तरफ अतिक्रमण व दुकानें -ऐसे कई मसले हैं जिन पर माकूल कानूनों के प्रति बेपरवाही है और यही सड़क की दुर्गति के कारक भी हैं।  

सड़कों पर इतना खर्च हो रहा है, इसके बावजूद सड़कों को निरापद रखना मुश्किल है। दिल्ली से मेरठ के सोलह सौ करोड़ के एक्सप्रेस वे का पहली ही बरसात में जगह-जगह धंस जाना व दिल्ली महानगर के उसके हिस्से में जलभराव बानगी है कि सड़कों के निर्माण में नौसिखियों व ताकतवर नेताओें की मौजूदगी कमजोर सड़क की नींव खोेद देती है । यह विडंबना है कि देशभर में सड़क बनाते समय उसके सुपरवीजन का काम कभी कोई तकनीकी विशेशज्ञ नहीं करता है । सड़क ढ़ालने की मशीन के चालक व एक मुंशी, सड़क बना डालता है । यदि कुछ विरले मामलों को छोड़ दिया जाए तो सड़क बनाते समय डाले जाने वाले बोल्डर, रोड़ी, मुरम की सही मात्रा कभी नहीं डाली जाती है । षहरों में तो सड़क किनारे वाली मिट्टी उठा कर ही पत्थरों को दबा दिया जाता है । कच्ची सड़क पर वेक्यूम सकर से पूरी मिट्टी साफ कर ही तारकोल डाला जाना चाहिए, क्योंकि मिट्टी पर गरम तारकोल वैसे तो चिपक जाता है, लेकिन वजनी वाहन चलने पर वहीं से उधड़ जाता है । इस तरह के वेक्यूम-सकर से कच्ची सड़क की सफाई कहीं भी नहीं होती है । हालांकि इसे बिल जरूर फाईलों में होते है।  

इसी तरह सड़क बनाने से पहले पक्की सड़क के दोनों ओर कच्चे में मजबूत खरंजा तारकोल या सीमेंट को फैलने से रोकता है । इसमें रोड़ी मिल कर खरंजे के दवाब में सांचे सी ढ़ल जाती है । आमतौर पर ऐसे खरंजे कागजों में ही सिमटे होते हैं, कहीं ईंटें बिछाई भी जाती हैं तो उन्हें मुरम या सीमेंट से जोड़ने की जगह महज वहां से खोदी मिट्टी पर टिका दिया जाता है । इससे थोड़ा पानी पड़ने पर ही ईंटें ढ़ीली हो कर उखड़ आती हैं । यहां से तारकोल व रोढ़ी के फैलाव व फटाव की शुरूआत होती है ।

सड़क का ढलाव ठीक न होना भी सड़क कटने का बड़ा कारण है । सड़क बीच में से उठी हुई व सिरों पर दबी होना चाहिए, ताकि उस पर पानी पड़ते ही किनारों की ओर बह जाए । लेकिन षहरी सड़कों का तो कोई लेबल ही नहीं होता है । बारिश का पानी यहां-वहां बेतरतीब जमा होता है और पानी सड़क का सबसे बड़ा दुश्मन है । नालियों का बह कर आया पानी सड़क के किनारों को काटता रहता है । एक बार सड़क कटी तो वहां से गिट्टी, बोल्डर का निकलना रुकता नहीं है । 

सड़कों की दुर्गति में हमारे देश का उत्सव-धर्मी चरित्र भी कम दोषी  नहीं है । महानगरों से ले कर सुदूर गांवों तक घर में षादी हो या राजनैतिक जलसा ; सड़क के बीचों-बीच टैंट लगाने में कोई रोक नहीं होती और इसके लिए सड़कों पर चार-छर्ह इंच गोलाई व एक फीट गहराई के कई छेद करे जाते हैं । बाद में इन्हें बंद करना कोई यादरखता नहीं । इन छेदों में पानी भरता है और सड़क गहरे तक कटती चली जाती है । 

नल, टेलीफोन, सीवर , पाईप गैस जैसे कामों के लिए सरकारी मकहमे भी सड़क को चीरने में कतई दया नहीं दिखाते हैं । सरकारी कानून के मुताबिक इस तरह सड़क को नुकसान पहुंचाने से पहले संबंधित महकमा स्थानीय प्रशासन के पास सड़क की मरम्मत के लिए पैसा जमा करवाता है । नया मकान बनाने या मरम्मत करवाने के लिए सड़क पर ईंटें, रेत व लोहे का भंडार करना भी सड़क की आयु घटाता है । कालेानियों में भी पानी की मुख्य लाईन का पाईप एक तरफ ही होता है, यानी जब दूसरी ओर के बाशिंदे को अपने घर तक पाईप लाना है तो उसे सड़क खोदना ही होगा । एक बार खुदी सड़क की मरम्मत लगभग नामुमकिन हेाती है । 

सड़क पर घटिया वाहनोें का संचालन भी उसका बड़ा दुश्मन है । यह दुनिया में शायद भारत में ही देखने को मिलेगा कि सरकारी बसें हों या फिर डग्गामारी करती जीपें, निर्धारित से दुगनी तक सवारी भरने पर रोक के कानून महज पैसा कमाने का जरिया मात्र हाते हैं । ओवरलोड वाहन, खराब टायर, दोयम दर्जे का ईंधन ये सभी बातें भी सरकार के चिकनी रोड के सपने को साकार होने में बाधाएं हैं । 

सवाल यह खड़ा होता है कि सड़क-संस्कार सिखाएगा कौन ? ये संस्कार सड़क निर्माण में लगे महकमों को भी सीखने होगंे और उसकी योजना बनाने वाले इंजीनियरों को भी । संस्कार से सज्जित होने की जरूरत सड़क पर चलने वालों को भी है और यातायात व्यवस्था को ठीक तरह से चलाने के जिम्मेदार लोगों को भी । 

वैसे तो यह समाज व सरकार दोनों की साझा जिम्मेदारी है कि सड़क को साफ, संुदर और सपाट रखा जाए । लेकिन हालात देख कर लगता है कि कड़े कानूनों के बगैर यह संस्कार आने से रहे ।


पंकज चतुर्वेदी



सोमवार, 19 जुलाई 2021

CNG is also eco-friendly fuel

 

सी एन जी भी निरापद ईंधन नहीं है

पंकज चतुर्वेदी



 

 ‘‘ बिहाइंड द स्मोक स्क्रीन : सैटेलाइट डाटा रिवील एयर पॉल्यूशन इन्क्रीज इन इंडियाज एट मोस्ट पॉपुलस स्टेट कैपिटल्स’’ शीर्षक से हाल ही में जारी रिपोर्ट चेतावनी दे रही है कि पिछले साल की तुलना में दिल्ली सहित देश के कई बड़े शहरों में नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा में इजाफा हुआ है . सेटेलाइट डाटा विश्लेषण के आधार पर ग्रीनपीस इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2020 की तुलना में अप्रैल 2021 में दिल्ली में नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा 125 फीसदी तक ज्यादा रही। दरअसल, पिछले साल और इस साल अप्रैल के महीने में अगर मौसम एक जैसा होता तो यह बढ़ोतरी और ज्यादा यानी 146 फीसदी तक हो सकती थी। ग्रामीण क्षेत्रों में तो नाइट्रोजन ऑक्साइड के बढ़ने के कारण खेती में अंधाधुंध राशाय्निक खाद का इअस्तेमाल, मवेशी पालन आदि होता है लेकिन बड़े शहरों में इसका मूल कारण निरापद या ग्रीन फ्यूल कहे जाने वाले सी एन जी वाहनों का उत्सर्जन हैं . जान लें  नाइट्रोजन की ऑक्सीजन के साथ गैसें जिन्हें “आक्साईड आफ नाइट्रोजन “ खाते हैं मानव जीवन और पर्यावरण के लिए उतनी ही नुकसानदेह हैं जितना कारबन आक्साईड या मोनो आक्साईड .

यूरोप में हुए शोध बताते हैं कि सी एन जी वाहनों से निकलने वाले नेनो मीटर(एन एम ) आकार के बेहद बारीक कण  केंसर, अल्ज्माज़र , फेफड़ों  के रोग का खुला न्योता हैं.. पूरे यूरोप में इस समय  सुरक्षित ईंधन के रूप में वाहनों में सी एन जी के इस्तेमाल पर शोध चल रहे हैं . विदित हो यूरो -6 स्तर के  सी एन जी वाहनों के लिए भी कण उत्सर्जन की कोई अधिकतम सीमा तय नहीं है और इसी लिए इससे उपज रहे वायु प्रदुषण और उसके इन्सान के जीवन पर कुप्रभाव और वैश्विक पर्यावरण को हो रहे नुक्सान को नज़रंदाज़ किया जा रहा है . जान लें पर्यवरण मित्र कहे जाने वाले इस इंधन से बेहद सूक्षम लेकिन घातक 2.5 एन एम(नेनो मीटर ) का उत्सर्जन पेट्रोल-डीज़ल वाहनों की तुलना में 100 से 500 गुना अधिक है. खासकर शहरी यातायात में जहां वाहन बहुत धीरे चलते हैं , भारत जैसे चरम गर्मी वाले परिवेश में सी एन जी वाहन उतनी ही मौत बाँट रहे हैं जितनी डीज़ल कार- बसें नुक्सान कर रही थी – बस कार्बन  के बड़े पार्टिकल कम हो गए हैं . यही नहीं ये वाहन प्रति किलोमीटर संचालन में 20 से 66 मिलीग्राम अमोनिया उत्सर्जन  करते हैं जो ग्रीन हॉउस गैस है , जिसकी भूमिका ओजोन छतरी को नष्ट करने में है . 

यह सच है कि सीएनजी वाहनों से अन्य इंधन की तुलना में पार्टिकुलेट मेटर 80 फ़ीसदी और  हाइड्रो कार्बन 35 प्रतिशत कम उत्सर्जित होता है लेकिन इससे कार्बन मोनो आक्साइड उत्सर्जन पांच गुना अधिक है . शहरों में स्मोग और वातावरण में ओजोन परत के लिए यह गैस अधिक घातक है .

परिवेश में “आक्साईड आफ नाइट्रोजन “ गैस अधिक होने का सीधा सर इंसान के स्वसन तंत्र पर पड़ता है . इससे फेंफडों की क्षमता कम होती है , सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि “आक्साईड आफ नाइट्रोजन “ गैस वातावरण में मौजूद पानी और ऑक्सीजन के साथ मिल कर तेजाबी बारिश कर सकती है . केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2011 के एक अध्ययन में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि सीएनजी पर्यावरणीय कमियों के बिना नहीं है, यह कहते हुए कि सीएनजी जलाने से संभावित खतरनाक कार्बोनिल उत्सर्जन की उच्चतम दर पैदा होती है। अध्ययन से पता चला  था कि रेट्रोफिटेड सीएनजी कार इंजन 30 प्रतिशत अधिक मीथेन उत्सर्जित करते हैं।

ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में कॉनर रेनॉल्ड्स और उनके सहयोगी मिलिंद कांडलीकर ने वाहनों में सीएनजी इस्तेमाल के कारण ग्रीनहाउस गैसों – कारबन डाई आक्साइड और मीथेन के प्रभावों पर  शोध किया तो पाया कि इस तरह के उत्सर्जन में 30 प्रतिशत की वृद्धि है । इन गैसों के कारण वायुमंडलीय तापन में। यह जान लें कि  सी एन जी भी पेट्रोल डीज़ल की तरह जीवाश्म इंधन ही है | यह भी स्वीकार करना होगा कि ग्रीनहाउस गैसों की तुलना में एरोसोल (पीएम) अल्पकालिक होते हैं, उनका प्रभाव अधिक क्षेत्रीय होता है और उनके शीतलन और ताप प्रभाव की सीमा अभी भी काफी अनिश्चित है। जबकि ग्रीन हॉउस गैसों सेहोने वाला नुक्सान व्यापक और वैश्विक है |

अब सवाल उठाता है कि जब  डीजल-पेट्रोल भी खतरनाक है और उसका विकल्प बना सी एन जी भी – दुनिया को इस समय अधिक से अधिक ऊर्जा की जरूरत है | आधुनिक विकास  की अवधारणा  बगैर इंजन की तेज गति के संभव नहीं और उसके लिए ईंधन  फूंकना ही होगा | इन दिनों शहरी वाहनों में वैकल्पिक उर्जा के रूप में बेटरी  चालित वाहन लाये जा रहे हैं लेकिन यह याद नहीं रखा जा रहा कि जल , कोयला या  परमाणु से बिजली पैदा करना पर्यावरण के लिए उतना ही जहरीला है जितना डीज़ल पेट्रोल फूंकना – बस जीवाश्म ईंधन की उपलब्धता की सीमा है . यह याद रखना जरुरी है कि ख़राब हो गई  बेटरी से निकला तेज़ाब और सीसा  अकेले वायु ही नहीं बल्कि धरती को भी बाँझ बना देता है , सौर उर्जा को निरापद कहने वाले यह नहीं  बता पा रहे हैं कि बीते दस साल में सारी दुनिया में जो सौर उर्जा के लिए स्थापित परावर्तकों  की उम्र बीत जाने पर उसे कैसे निबटाया जायेगा , चूँकि उसमें केडमियम, सीसा जैसी ऐसी धातु हैं जिन्हें लावारिस  छोड़ना प्रकृति के लिए स्थायी नुकसानदेह होगा लेकिन उस कचरे के निराकरण के कोई उपाय बने नहीं .

सी एन जी  से निकली नाइट्रोजन आक्साईड  अब मानव जीवन के लिए ख़तरा बन कर उभर रही है | दुर्भाग्य है कि हम आधुनिकता के जंजाल में उन खतरों को पहले नज़र अंदाज़  करते   हैं जो आगे चल कर भयानक हो जाते हैं | जान लें  प्रकृति के विपरीत  ऊर्जा, हवा, पानी  किसी का भी कोई विकल्प नहीं हैं . नैसर्गिकता से अधिक पाने का कोई भी उपाय इंसान को दुखा ही देगा . 

 

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

mussoorie can not afford more crowd

 

सुरंग नहीं भीड़ नियंत्रण की जरुरत है मसूरी को

पंकज चतुर्वेदी


कोरोना बंधन में थोड़ी छूट क्या मिली बीते शनिवार-रविवार को देहरादून से मसूरी जाने वाले रास्ते में कोई दस किलोमीटर लंबा जाम लग गया . मौजमस्ती के लिए गए लोग सारा दिन सड़क पर वाहनों का धुआं फैलाते रहे और खुद भी उसमें घुटते रहे .  पिछले ही दिनों मसूरी में सडक जाम से बचने के लिए 2.74 किलोमीटर के लिए लंबी सुरंग के लिए 700 करोड़ रुपये मंजूर कर दिए गए हैं. गंभीरता से देखें तो मसूरी अब बाहरी लोगों का इतना बोझ उठाने की क्षमता खो चुकी है, सरकार की ही रिपोर्ट यह बता चुकी है . इसके बावजूद इस तरह के परियोजनाएं ना केवल निर्माण में बल्कि भीड़ बढाने का कारक बनेगीं और इससे पहाड़ों की रानी कहलाने वाले मसूरी में विकास के नाम पर बन रही योजना , वह कई मायनों पहाड़ के लिए आफतों का न्योता भी है .


वैसे तो सन 2010 में मसूरी की आईएएस अकादमी ने एक शोध में बता दिया था कि मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता चुक चुकी है. इसके बावजूद मसूरी में सडक जाम से बचने के लिए 2.74 किलोमीटर के लिए लंबी सुरंग के लिए 700 करोड़ रुपये मंजूर कर दिए गए हैं, दूसरी तरफ राज्य के वन विभाग से ले कर सार्वजनिक निर्माण विभाग तक तो इसकी कोई जानकारी ही नहीं है . मसूरी की आबादी मात्र तीस हज़ार है और इनमें भी आठ हज़ार लोग ऐसे मकानों में रहते हैं जहां भूस्खलन का ख़तरा है, इतने छोटे से स्थान पर हर साल कोई पचास लाख लोगों का पहुंचना पानी, बिजली, सीवर सभी पर अत्यधिक बोझ का कारक है , ऐसे में सुरंग बना कर अधिक पर्यटक भेजने की कल्पना वास्तव में मसूरी की बर्बादी का दस्तावेज होगा . मॉल रोड, मसूरी शहर और लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी की ओर निर्बाध यातायात के इरादे से प्रस्तावित सुरंग कहीं समूचे पहाड़ के पर्यावरणीय चक्र के लिए खतरा न बन जाए.वैसे मसूरी के लिए सुरंग बनाए के प्रयास पहले भी होते रहे हैं, यहाँ तक कि अंग्रेज शासन में वहाँ ट्रेन लाने  के लिए जब सुरंग की बात आई तो जन विरोध के चलते उस काम को रोकना पड़ा था और आधी अधूरी पटरियां  पड़ीं रह गयी थीं .



हिमालय, भारत के लिए महज एक भोगोलिक संरचना नहीं है, इसे देश की जीवन रेखा खा जाना चाहिए-- नदियों का जल हो या मानसून की गति-- सब कुछ हिमालय के पहाड़ तय करते हैं .भले ही यह कोई सात करोड साल पुराना हो लेकिन दुनिया में यह युवा पहाड़ है और इसमें लगातार आंतरिक गतिविधियां चलती रहती हैं . केदारनाथ त्रासदी से सबक न लेते हुए उत्तराखंड के हिमालय पर बेशुमार सड़कों का जो दौर शुरू हुआ है उससे आये रोज, मलवा खिसकने, जंगल गायब होने जैसी त्रासदियाँ उपज रही हैं . खासकर  जलवायु परिवर्तन की मार से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के पहाड़ जैसे अब अपना संयम खो रहे हैं -देश को सदानीरा गंगा-यमुना जैसे नदिया देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं। ऐसे में बगैर किसी आकलन के महज यातायात के लिए हिमालय की छाती खोदना किसी अनिष्टकारी  त्रासदी का आमंत्रण प्रतीत होता है .

मसूरी के वन विभाग को इस परियोजना की कोई जानकारी ही नहीं है न ही उनसे इस परियोजना के पर्यावरणीय नुक्सान पर कोई आकलन माँगा गया है  . यह  एक ऐसे पहाड़ और वहाँ के वाशिंदों को खतरे में धकेलने जैसा है जिसे जोन-4 स्तर का अति भूकंपीय संवेदनशील इलाका कहा  जाता हो . जाहिर है कि इसके लिए पेड़ भी काटेंगे और हज़ारों जीवों के प्राकृतिक पर्यावास पर भी डाका डाला जायेगा .

यह बात कई सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि मसूरी के आसपास का इलाका भूस्खलन के मामले ने बहुत संवेदनशील है , यहाँ कि भूगर्भ संरचना में छेद करना या कोई निर्माण करना कहीं बड़े स्तर पर पहाड़  का मलवा न गिरा दे . हिमालय के सम्वेदना से परिचित पर्यावरणविद मसूरी में सुरंग बनने को आत्म हत्या निरुपित कर रहे हैं क्योंकि मसूरी के पास पहाड़  में बहुत बड़ी दरारें पहले से हैं , ऐसे में यदि वहाँ भारी मशीनों से ड्रिलिंग हुई तो परिणाम कितने भयावह होंगे? कोई  नहीं कह सकता .



इससे पहले सन 2014 में लोक निर्माण विभाग ने बाईपास पर चार सुरंग बनाने का प्रस्ताव तैयार किया था, जिसमें कार्ट मैकेंजी रोड से कैंपटी फॉल तक सुरंग बनाने की योजना थी . लोंबार्डी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने जांच भी की थी लेकिन पर्यावरणीय कारणों से उस परियोजना को शुरू नहीं किया जा सका था

ब्रितानी सरकार के दौर में हिंदुस्तान के कुछ राजे-रजवाड़ों ने वर्ष 1928  में अंग्रेजों के साथ मिलकर मसूरी-देहरा ट्रॉम-वे कंपनी बनाई थी। इस कंपनी ने 23 लाख रुपये की लागत से मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया था। वर्ष 1924 में एक सुरंग बनाते समय हाद्स्सा हो गया-- फिर स्थानीय किसानों को लगा कि रेल की पटरी से उनके बासमती के खेत और घने जंगल उजाड जायेंगे , बड़ा आंदोलन हुआ और उस परियोजना को अंग्रेजों  ने रोक दिया था .

इतने पुराने कटु अनुभवों के बाद भी सन 2020  में ही  राज्य सरकार ने गुपचुप  सुरंग की योजना पर काम करना शुरू कर दिया था, कोविड की पहली लहर के दौरान  जब सारे देश में काम-काज बंद थे तब इस योजना  की कागज तैयार कर लिए गए लेकिन स्थानीय प्रशासन की जानकारी के बगैर.  .उत्तराखंड में हिमालय की हर गतिविधि  के गहन  शोधरत संस्था वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक और भूस्खलन विशेषज्ञ डॉ. विक्रम गुप्ता का कह्ना है कि जमीन खिसकने के प्रति अति संवेदनशील मसूरी और उसके करीबी पहाड़ों में बगैर किसी जांच पड़ताल के इस तरह की योजना, वह भी बगैर किसी भूगर्भीय पड़ताल के, , बेहद चौंकाने वाली है . श्री गुप्ता  बताते हैं कि देहरादून- मसूरी के इलाके में चूने की चट्टाने हैं जो सदियों से पानी को अवशोषित करती हैं और इन चट्टानों की पानी को ग्रहण करने की अपनी क्षमता होती है। ये चट्टाने कभी भी खिसकने लगती हैं और भूस्खलन की घटनाएं घट जाती हैं। इस लिहाज से तमाम पहलुओं को पहले अध्ययन किए जाने के बाद ही सुरंग पर काम हो . एक मोटा अनुमान है कि यदि यह योजना मूर्तरूप लेती है कि कोई तीन हजार ओक , देवदार जैसे ऐसे पेड़ काटेंगे जिनकी उम्र कई दशक है और जो नैसर्गिक जंगल का हिस्सा हैं .

यह समझना होगा कि मसूरी से थोड़ी भी पर्यावरणीय छेड़छाड़  बन्दर पूछ ग्लेशियर पर असर करेगी और यह अकेले उत्तरांचल ही नहीं देश के लिए भयावह होगा . उत्तरांचल के पहाड़ की नाराजगी का अर्थ होता है सारे देश के पर्यावरणीय तन्त्र पर कुप्रभाव .

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

 

जलवायु परिवर्तन का दुष्परिणाम है आकाशीय बिजली का गिरना

पंकज चतुर्वेदी


मानसून की आमद होते ही बीते एक महीने के दौरान देश के आठ राज्यों आकाशीय बिजली गिरने से सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं . यह आंकड़ा अभी तक किसी भी एक महीने में तड़ित- आपदा से मौत का सर्वाधिक है . वैसे झारखण्ड, बंगाल या उत्तर प्रदेश में आकाशीय बिजली से जान-माल का नुकसान कोई नयी बात नहीं है लेकिन इस बार राजस्थान में एक ही पल में बीस लोगों की मौत ने इस त्रासदी के विस्तार की चेतावनी दे दी है. एक ही दिन में देश में 67 लोगों का बिजली गिरने से मारा जाना एक असामान्य घटना है .

सनद  रहे बिजली के शिकार आमतौर पर दिन में ही होते हैं , यदि तेज बरसात हो रही हो और बिजली  कडक रही हो तो ऐसे में पानी भरे खेत के बीच में, किसी पेड़ के नीचे , पहाड़ी स्थान पर जाने से बचना चाहिए . मोबाईल का इस्तेमाल भी खतरनाक होता है . पहले लोग अपनी इमारतों में ऊपर एक त्रिशूल जैसी आकृति लगाते थे- जिसे तड़ित-चालक कहा जाता था , उससे बिजली गिरने से काफी बचत होती थी , असल में उस त्रिशूल आकृति से एक धातु का मोटा तार या पट्टी जोड़ी जाती थी और उसे जमीन में गहरे गाडा जाता था ताकि आकाशीय बिजली उसके माध्यम से नीचे उतर जाए और इमारत को नुक्सान न हो .

वैसे आकाशीय बिजली वैश्विक रूप से बढ़ती आपदा है . जहाँ अमेरिका में हर साल बिजली गिरने से तीस, ब्रिटेन में औसतन तीन लोगों की मृत्यु होती है , भारत में यह आंकडा बहुत अधिक है- औसतन दो हज़ार . इसका मूल कारण है कि हमारे यहाँ आकाशीय बिजली के पूर्वानुमान और चेतावनी देने की व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है .

यह समझना होगा कि इस तरह बहुत बड़े इलाके में एक साथ घातक बिजली गिरने का असल कारण धरती का लगातार बदल रहा तापमान है . यह बात सभी के सामने है कि आषाढ़ में पहले कभी बहुत भारी बरसात नहीं होती थी लेकिन अब ऐसा होने लगा है, बहुत थोड़े से समय में अचानक भारी बारिश हो जाना और फिर सावन-भादों सूखा जाना- यही जलवायु परिवर्तन की त्रासदी  है और इसी के मूल में बेरहम बिजली गिरने के कारक भी हैं । जैसे-जैसे जलवायु बदल रही है, बिजली गिरने की घटनाएँ ज्यादा हो रही हैं ।

एक बात और बिजली गिरना जलवायु परिवर्तन का दुष्परिणाम तो है लेकिन अधिक बिजली गिरने से जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को भी गति मिलती है । सनद रहे बजली गिरने के दौरान नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है और यह एक घातक ग्रीनहाउस गैस है।हालांकि अभी दुनिया में बिजली गिरने और उसके जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव के शोध बहुत सीमित हुए हैं लेकिन कई महत्वपूर्ण शोध इस बात को स्थापित करते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने बजली गिरने के खतरे को बढ़ाया है इस दिशा  में और गहराई से कम करने के लिए ग्लोबल क्लाइमेट ऑब्जर्विंग सिस्टम (GCOS) - के वैज्ञानिकों ने  विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO)  के साथ मिल कर एक विशेष शोध दल (टीटीएलओसीए) का गठन  किया है ।

धरती के प्रतिदिन बदलते तापमान का सीधा असर वायुमंडल पर होता है और इसी से भयंकर तूफ़ान भी बनते हैं । बिजली गिरने का सीधा सम्बन्ध धरती के तापमान से है जाहिर है कि जैसे-जैसे धरती गर्म हो रही है , बिजली की लपक उस और ज्यादा हो रही है । यह भी जान लें कि बिजली गिरने का सीधा सम्बन्ध बादलों के उपरी ट्रोपोस्फेरिक या क्षोभ-मंडल जल वाष्प, और ट्रोपोस्फेरिक ओजोन परतों से हैं और दोनों ही खतरनाक ग्रीनहाउस गैस हैं। जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से पता चलता है कि भविष्य में यदि जलवायु में अधिक गर्माहट हुई तो गरजदार तूफ़ान कम लेकिन तेज आंधियां ज्यादा आएँगी और हर एक डिग्री ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती तक बिजली की मार की मात्रा 10% तक बढ़ सकती है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के वैज्ञानिकों ने मई 2018 में वायुमंडल को प्रभावित करने वाले अवयव और बिजली गिरने के बीच सम्बन्ध पर एक शोध किया जिसका आकलन था कि आकाशीय बिजली के लिए दो प्रमुख अवयवों की आवश्यकता होती है: तीनो अवस्था (तरल, ठोस और गैस) में  पानी और बर्फ बनाने से रोकने वाले घने बादल । वैज्ञानिकों ने 11 अलग-अलग जलवायु मॉडल पर प्रयोग किये और पाया कि भविष्य में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में गिरावट आने से रही और इसका सीधा  परिणाम होगा कि आकाशीय बिजली गिरने की घटनाएँ बढेंगी ।

एक बात गौर करने की है कि हाल ही में जिन इलाकों में बिजली गिरी उमे से बड़ा हिस्सा धान की खेती का है और जहां धान के लिए पानी को एकत्र किया जता है, वहां से ग्रीन हॉउस गैस जैस मीथेन का उत्सर्जन अधिक होता है । जितना मौसम अधिक गर्म होगा, जितनी ग्रीन हॉउस गैस उत्सर्जित होंगी, उतनी ही अधिक बिजली, अधिक ताकत से धरती पर गिरेगी ।

“जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स” नामक ऑनलाइन जर्नल के मई-2020  अंक में प्रकाशित एक अध्ययन में अल नीनो-ला नीना, हिंद महासागर डाय  और दक्षिणी एन्यूलर मोड के जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव और उससे दक्षिणी गोलार्ध में बढ़ते तापमान के कुप्रभाव स्वरुप  अधिक आकाशीय विद्धुत-पात की संभावना पर प्रकाश डाला गया है ।

विदित हो मानसून में बिजली चमकना बहुत सामान्य बात है। बिजली तीन तरह की होती है- बादल के भीतर कड़कने वाली, बादल से बादल में कड़कने वाली और तीसरी बादल से जमीन पर गिरने वाली। यही सबसे ज्यादा नुकसान करती है। बिजली उत्पन्न करने वाले बादल आमतौर पर लगभग 10-12 किमी. की ऊँचाई पर होते हैं, जिनका आधार पृथ्वी की सतह से लगभग 1-2 किमी. ऊपर होता है। शीर्ष पर तापमान -35 डिग्री सेल्सियस से -45 डिग्री सेल्सियस तक होता है। स्पष्ट है कि जितना तापमान बढेगा , बिजली भी उतनी ही बनेगी व् गिरेगी

फिलहाल तो हमारे देश में बिजली गिरने के प्रति लोगों को जागरूक बनाना, जैसे कि किस मौसम में, किन स्थानों पर यह आफ़ात आ सकती है , यदि संभावित अवस्था हो तो कैसे और कहाँ शरण लें , तदित चालक का अधिक से अधिक इस्तेमाल आदि कुछ ऐसे कदम हैं, जिससे इसके नुक्सान को कम किया जा सकता है. सबसे बड़ी बात दूरस्थ अंचल तक आम आदमी की भागीदारी पर विमर्श करना अनिवार्य है कि कैसे ग्रीन हॉउस गैसों पर नियंत्रण हो और जलवायु में अनियंत्रित परिवर्तन पर काबू किया जा सके , वरना, समुद्री तूफ़ान, बिजली गिरना, बादल फटना जैसी भयावह त्रासदियाँ हर साल बढेंगी ।

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...