देश की अर्थ व्यवस्था को पीछे ढकेल देता है सैलाबपंकज चतुर्वेदी
अजीब विडंबना है कि आंकड़ों में देखें तो अभी तक देश के बड़े हिस्से में मानसून नाकाफी रहा है, लेकिन जहां जितना भी पानी बरसा है, उसने अपनी तबाही का दायरा बढ़ा दिया है। पिछले कुछ सालों में बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ौतरी हुई है । कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। असल में बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा ही नहीं है, बल्कि यह देश के गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गया है। हमारे पास बाढ़ से निबटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बांध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गरमी, रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई मलवे का नदी में बढ़ना, जमीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों-दिन गंभीर होते जा रहे हैं। जिन हजारों करोड़ की सड़क, खेत या मकान बनाने में सरकार या समाज को दशकों लग जाते हैं, उसे बाढ़ का पानी पलक झपकते ही उजाड़ देता है। हम नए कार्याे के लिए बजट की जुगत लगाते हैं और जीवनदायी जल उसका काल बन जाता है।
जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय के ताजा आंकड़े बताते हैं कि भारत देश में पिछले छह दशकों के दौरान बाढ़ के कारण लगभग 4.7 लाख करोड़ का नुकसान हुआ और 1.07 लाख लोगों की मौत हुई, आठ करोड़ से अधिक मकान नष्ट हुए और 25.6 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में 109202 करोड़ रूपये मूल्य की फसलों को नुकसान पहुंचा है। इस अवधि में बाढ़ के कारण देश में 202474 करोड़ रूपये मूल्य की सड़क, पुल जैसी सार्वजनिक संपत्ति पानी में मिल गई। मंत्रालय बताता है कि बाढ़ से प्रति वर्ष औसतन 1654 लोग मारे जाते हैं, 92763 पशुओं का नुकसान होता है। लगभग 71.69 लाख हेक्टेयर क्षेत्र जल प्लावन से बुरी तरह प्रभावित होता है जिसमें 1680 करोड़ रूपये मूल्य की फसलें बर्बाद हुईं और 12.40 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 में भारत की बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी । 1960 में यह बढ़ कर ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर हो गई । 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी आज देश के कुल 329 मिलियन(दस लाख) हैक्टर में से चार करोड़ हैक्टर इलाका नियमित रूप से बाढ़ की चपेट में हर साल बर्बाद होता है। सन 2016 में 70 लाख हैक्टर जमीन को बाढ़ ने बर्बाद किया, जिससे 2.4 करोड़ आबादी प्रभावित हूई। संपत्ति के नुकसान का सरकारी अनुमान 5675 करोड़ था। वहीं सन 2018 में नुकसान की राशि बढ़ कर 95737 करोड़ हो गई व इसकी चपेट में आई आबादी की संख्या 7.9 करोड़ थी। बिहार राज्य का 73 प्रतिशत हिस्सा आधे साल बाढ़ और शेष दिन सुखाड़ की दंश झेलता है और यही वहां के पिछड़ेपन, पलायन और परेशानियों का कारण है। यह विडंबना है कि राज्य का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पस्त रहता है। यहां कोशी, गंड़क, बूढ़ी गंड़क, बाधमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं । इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केन्दª सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा हैं । यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं । ‘‘बिहार का शोक’’ कहे जाने वाली कोशी के उपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है । लेकिन इसके रखरखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रूपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है । हालांकि तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं । कोशी के तटबंधों के कारण उसके तट पर बसे 400 गांव डूब में आ गए हैं । कोशी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सील्ट (गाद) के भराव से उंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती हैं । फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मंुगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है । विदित हो आजादी से पहले अंग्रेज सरकार व्दारा बाढ़ नियंत्रण में बड़े बांध या तटबंधों को तकनीकी दृष्टि से उचित नहीं माना था । तत्कालीन गवर्नर हेल्ट की अध्यक्षता में पटना में हुए एक सम्मेलन में डा. राजेन्द्र प्रसाद सहित कई विद्वानों ने बाढ़ के विकल्प के रूप में तटबंधों की उपयोगिता को नकारा था । इसके बावजूद आजादी के बाद हर छोटी-बड़ी नदी को बांधने का काम अनवरत जारी है । बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों के कई उदाहरण पूरे देश में देखने को मिल रहे हैं। वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे है ।
असम में इन दिनों 23 जिलों के कोई साढ़े सात लाख लोग नदियों के रौद्र रूप के चलते घर-गांव से पलायन कर गए है और ऐसा हर साल होता है। यहां अनुमान है कि सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें - मकान, सड़क, मवेशी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि षामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं , जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानि असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है।
देश में सबसे ज्यादा सांसद व प्रधानमंत्री देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश की उर्वरा धरती, कर्मठ लोग, अयस्क व अन्य संसाधन उपलब्ध होनेे के बावजूद विकास की सही तस्वीर ना उभर पाने का सबसे बड़ा कारण हर साल आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान हैं। बीते एक दशक के दौरान राज्य में बाढ़ के कारण 45 हजार करोड़ रूपए कीमत की तो महज खड़ी फसल नष्ट हुई है। सड़क, सार्वजनिक संपत्ति, इंसान, मवेशी आदि के नुकसान अलग हैं। राज्य सरकार की रपट को भरोसे लायक मानें तो सन 2013 में राज्य में नदियों के उफनने के कारण 3259.53 करोड़ का नुकसान हुआ था जो कि आजादी के बाद का सबसे बड़ा नुकसान था। सन 2016 में राज्य की 5.6 लाख हैक्टर जमीन बाढ़ से नष्ट हुई , 20 लाख लोग प्रभावित हुए और 123 करोड़ की संपत्ति को नुकसान हुआ। । सन 2018 में 59 लाख लोग प्रभावित हुए और नुकसान का आकलन 547 करोड़ का था। सन 2019 में सैलाब ें 1357 जानें गईं।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकार (एनडीएमए) के पूर्व सचिव नूर मोहम्मद का मानना है कि देश में समन्वित बाढ़ नियंत्रण व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया गया। नदियों के किनारे स्थित गांव में बाढ़ से बचाव के उपाए नहीं किये गए। आज भी गांव में बाढ़ से बचाव के लिये कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं है। उन्होंने कहा कि उन क्षेत्रों की पहचान करने की भी जरूरत है जहां बाढ़ में गड़बड़ी की ज्यादा आशंका रहती है। आज बारिश का पानी सीधे नदियों में पहुंच जाता है। वाटर हार्वेस्टिंग की सुनियोजित व्यवस्था नहीं है ताकि बारिश का पानी जमीन में जा सके। शहरी इलाकों में नाले बंद हो गए हैं और इमारतें बन गई हैं। ऐसे में थोड़ी बारिश में शहरों में जल जमाव हो जाता है। अनेक स्थानों पर बाढ़ का कारण मानवीय हस्तक्षेप है। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा कारक है जो अचानक ही बेमौसम बहुत तेज बरसात की जड़ है और इससे सबसे ज्यादा नुकसान होता है।
मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है । अतएव बाढ़ के बढ़ते सुरसा-मुख पर अंकुश लगाने के लिए शीघ्र्र कुछ करना होगा । कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विशयों का हमारे यहां कभी निश्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठा कर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी , नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेउ़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीशण विभीशिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।
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