My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 22 जुलाई 2021

Khori is not only encroachment on Arwali

 अरावली तो अतिक्रमण से उजड़ गई फिर खोरी ही क्यों उजाड़ा!

पंकज चतुर्वेदी


सात जून 2021 को सुप्रीम कोर्ट के  आदेश  के बाद फरीदाबाद नगर निगम क्षेत्र में सूरजकुड से सटे खोरी गांव की कोई साठ हजार आबादी का सोना-खाना सबकुछ छूट गया है। वहां बस डर है, अनिश्चितता  है और भविष्य  का अंदेशा है। मानवीय नजरिये से भले ही यह बहुत मार्मिक लगे कि एक झटके में 80 एकड़ में फैले शहरी गांव के कोई दस हजार मकान तोडे जाने हैं व उसमें रहने वालों को कोई वैकल्पिक आवास व्यवस्था के अनुरोध को भी कोर्ट ने ठुकरा दिया। लेकिन यह भी कड़वा सच है कि राजस्थान के बड़े हिस्से, हरयाणा, दिल्ली और पंजाब को सदियों से रेगिस्तान बनने से रोकने वाले अरावली पर्वत को बचाने को यदि अदालत सख्त नाहो तो नेता-अफसर और जमीन माफिया अभी तक समूचे पहाड़ को ही चट कर गया होता। कैसी विडंबना है कि जिस पहाड़ के कारण हजारों किलोमीटर में भारत का अस्तित्व बचा हुआ है उसको बचाने के लिए अदालत को बार-बार आदेश  देने होते हैं। जान लें सन 2016 में ही पंजाब -हरियाणा हाई कोर्ट अरावली पर अवैध कब्जा कर बनाई कालोनियों को ध्वस्त करने के आदेश  दे चुका था, उसके बाद फरवरी-2020 में सुप्रीम कोर्ट ने भी उस ओदष को मोहर लगाई थी। प्रशासनिक अमला कुछ औपचारिकता करता लेकिन इस बार अदालत ने छह सप्ताह में वन भूमि पर से पूरी तरह कब्जा हटा कर उसकी अनुपालन रिपोर्ट अदालत में पेश  करने का सख्त आदेश देते हुए इसके लिए ुपलिस अधीक्षक को जिम्मेदार अफसर निरूपित किया है। 


यह भी समझना होगा कि अरावली के जंगल में अवैध कब्जा केवल खेरी गांव ही नहीं है, फरीदाबाद में ही हजारों फार्म हाउस भी हैं। पिछले साल लॉक डाउन के दौरान गुरूग्राम के घाटा गांव में किला नंबर 92 पर कई डंपर मलवा डाल कर कुछ झुग्गियां डाल दी गई थीं। अरावली के किनारे समूचे मेवात में - नगीना, नूह, तावड़ू से तिजारा तक अरावली के तलहटी पर लोगों के अवैध कब्ज हैं और जहां कभी वन्य जीव देखे जाते थे अब वहा खेत-भवन हैं। वैसे तो भूमाफिया की नजर दक्षिण हरियाणा की पूरी अरावली पर्वत श्रृंखला पर है लेकिन सबसे अधिक नजर गुरुग्राम, फरीदाबाद एवं नूंह इलाके पर है। अधिकतर भूभाग भूमाफिया वर्षों पहले ही खरीद चुके हैं। वन संरक्षण कानून के कमजोर होते ही सभी अपनी जमीन पर गैर वानिकी कार्य शुरू कर देंगे। 

खोरी गांव में जहां कुछ दिनों पहले तक जिंदगी थी, आज वीराना, आषंका, भय और मौत नाच रही है।  खोरीगांव के दस हजार घरों में रहने वाले कोई एक लाख लोगों को  उजाड़ने का सुप्रीम कोर्ट का आदेष कानून के हिसाब से भले ही सटीक है, लेकिन भरी बरसात में बीस हजार बच्चों के साथ सीधे सड़क पर आ गए लोगों के सामने खड़े अनिष्चितता के सवाल के जवाब भी तो समाज को ही देने होंगे न ! सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जिस तंत्र की लापरवाही से यह अवैध कब्जे का साम्राज्य खड़ा होता है, वह ऐसी मानवीय त्रासदी में निरापद कैसे रह जाता है।  षायद भारत के इतिहास में इतना बड़ा अतिक्रमणरोधी अभियान कभी नहीं चला होगा जिसमें 35 धार्मिक स्थल, पांच स्कूल, दो अस्पताल, बड़ा सा बाजार सहित समूची बस्ती को उजाड़ा जा रहा है, वह भी  विस्थापितों के लिए बगैर किसी वैक्लिपक व्यवस्था के।  यदि बारिकी से देखें तो समूची कार्यवाही उसी सुप्रीम कोर्ट के आदेष पर हो रही है जिसके पहले भी कई ऐसे आदेषों पर राज्य सरकारें कुडली मार कर बैठी रही हैं।  यह विचार करने का समय है कि यदि देष से सरकारी जमीन से सभी अवैध कब्जे हटा दिए जाएं तो भारत का स्वरूप कैसा होगा?


 आंचलिक क्षेत्रों की बात दूर की राजधानी दिल्ली  में ही अवैध कालोनियों को नियमित करने, झुग्गी बस्ती बसाने व विस्थापन पर नए स्थान पर जमीन देने, मुआवजा बांटने के तमाषे सालों से हर सरकार करती रही है। खोरीगांव  अरावली पहाड़ की तली पर  अस्सी के दषक में तब बसना षरू हुआ था जब यहां खनन षुरू हुआ। पहले खदानों में काम करने वाले मजदूरों की कुछ झुग्गियां बसीं, फिर इसका विस्तार लकड़पुर गांव से दिल्ली की सीमा तक होता रहा। फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेष पर अरावली में खान पूरी तरह पाबंद कर दिया गया और यह बस्ती मेहनत-मजदूरी करने वालों से आबाद होती चली गई। अधिकांष उप्र-बिहार के श्रमिक। पावर आफ अटार्नी पर गरीब-श्रमिक  जमीन खरीदते रहे और अपनी सारी कमाई लगा कर अध-पक्के ढांचे खड़े करते रहे। इधर दिल्ली सुरसा मुख सी फैल रही थी तो उधर फरीदाबाद-गुरूग्राम सड़क आने के बाद सारा इलाका  नगर निगम क्षेत्र में अधिसूचित हो गया।  जान कर आष्चर्य होगा कि इस एक लाख आबादी की रिहाईष भले ही हरियाणा में हो लेकिन दिल्ली से तार खींच कर यहां घर-घर बिजली दी जाती थी। बाकायदा साढ़े तेरह रूपए यूनिट की वसूली ठेकेदार करते थे । पानी के लिए टैंकर का सहारा। हर घर में बड़ी-बड़ी टंकियां थीं जिसमें एक हजार रूपए प्रति टैंकर की दर से माफिया पानी भरता था। एक घर का काम महीने भर में दे टैकर से चल जाता। वहीं पीने के लिए बीस रूपए की बीस लीटर वाली बोतल की घर-घर सप्लाई की व्यवस्था यहां थी। जाहिर है कि यहां हर महीने अकेले बिजली-पानी का कारोबार  बीस करोड़ से कम का ना था और इतने बड़े व्यापार तंत्र का संचालन बगैर सरकारी मिलीभगत से हो नहीं सकता। यहां हर एक वाषिंदे के पास मतदाता पहचान पत्र है और इस बस्ती के लिए बाकायदा चार मतदाता केंद्र स्थापित किए जाते थे। 

असल में खोड़ी-लकड़पुर की कोई 100 एकड़ जमीन नगर निगम की है। पंजाब भू संरक्षण अधिनियम- 1900 के तहत  यह जमीन वन विकसित करने के लिए अधिसूचित है और यहां कोई भीगैरवानिकी कार्य वर्जित है।  अरावली क्षेत्र से अवैध कब्जे हटाने के लिए दायर एक जनहित याचिका पर फरवरी और अपगैल 2020 में सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार को खोरीका अवैध कब्जा हटाने के आदेष दे चुका था लेकिन राज्य सरकार जनाक्रोष और हिंसा के डर की आड़ में  अतिक्रमण हटाने से बच रहे थ्े। सात जून 2021 को सुप्रीम केर्ट ने फरीदाबाद के उपायुक्त और पुलिस प्रमुख को अतिक्रमण ना हटा पाने की दषा में व्यक्तिगत जिम्मेदार निरूपित करते हुए छह हफ्ते में  आदेष के पालन के आदेष दिए।  एक अन्य जनहित याचिका में सुप्रीम केर्ट ने स्पश्ट कह दिया कि जमीन पर कब्जा कर गैरकाननी काम करने वालों को वह कोई छूट नहीं दे सकती। खोरीगांव  अरावली पहाड़ की तली पर  अस्सी के दषक में तब बसना षरू हुआ था जब यहां खनन षुरू हुआ। पहले खदानों में काम करने वाले मजदूरों की कुछ झुग्गियां बसीं, फिर इसका विस्तार लकड़पुर गांव से दिल्ली की सीमा तक होता रहा। फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेष पर अरावली में खान पूरी तरह पाबंद कर दिया गया और यह बस्ती मेहनत-मजदूरी करने वालों से आबाद होती चली गई। अधिकांष उप्र-बिहार के श्रमिक। पावर आफ अटार्नी पर गरीब-श्रमिक  जमीन खरीदते रहे और अपनी सारी कमाई लगा कर अध-पक्के ढांचे खड़े करते रहे। इधर दिल्ली सुरसा मुख सी फैल रही थी तो उधर फरीदाबाद-गुरूग्राम सड़क आने के बाद सारा इलाका  नगर निगम क्षेत्र में अधिसूचित हो गया।  


 अदालती आदेष के बाद इसके बाद खोरी खंडहर हो रहा है। लोग खुद ही मकान तोड़ रहे हैं। जो ईंट बाजार में आठ रूपए की एक है, खोरी में एक रूपए में बिक रही है। हरियाणा सरकार ने यहां से उजड़ै लोगों को डबुआ में बने ईडब्लू एस फ्लेट देने की घोशणा की है, लेकिन यह इतना सरल नहीं है। एक तो मतदाता सूची में नाम हो, दूसरा सालाना आय साढ़ै तीन लाख से कम का प्रमाणपत्र और तीसरा कि याची का टूटा मकान हरियाणा की सीमा में हो। जान लें कि इनमें अधसे मकान दिल्ली-सीमा में हैं। यहां कई प्रदर्षन, धरने, हिंसा भी , तीन लोग आत्महत्या कर चुके हैं- लेकिन यह सवाल अनुत्तरित रहा कि यहां से उजाड़े गए एक लाख लोग आखिर जाएं कहां ? इतनी बड़ी आबादी के लिए तत्काल घर तलाषना , वह भी अपने कार्य-स्थल के आसपास, लगभग असंभव है। 

खोरी के इतने बड़े विस्थापन पर राजनीतिक रूप से कोई बड़ा बवाल ना होना जताता है कि इतनी बड़ी बस्ती को बसा कर अपने महल खड़े करने वालों में हर दल के लोग समान भागीदार होते हैं।वैसे यह भी जानना जरूरी है कि  देष में कुल वन भूमि के दो प्रतिषत अर्थात 13 हजार वर्ग किलोमीटर पर अवैध कब्जे होने की बात केंद्र सरकार ने एक ‘सूचना के अधिकार’ की अर्जी में स्वीकार की है। इससे पहले पांच जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने देषभर में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर बने धार्मिक स्थलों की सूची मांगी थी और  सन 2016 में आदेष दिया था कि ऐसे बीस लाख से ज्याद कब्जे हटाए जाएं।  सुप्रीम केर्ट में राज्य सरकारों ने ही बताया था कि तमिलनाडु में 77450, राजस्थान में 58253, मध्यप्रदेष में 52923, उप्र में 45152 ऐसे धार्मिक स्थल है जो सरकारी जमीन पर बलात कब्जा कर बनाए गए हैं। आदेष को पांच साल से अधिक हो गया। इसका क्रियान्वन हुआ नहीं। 


आजादी के समय देष के हर गांव में एक परती या चरागाह की जमीन होती थी। हर गांव में मवेषियों के चरने के लिए बड़े हरियाली चक को छोड़ा जाता था। आज षायद ही किसी गांव में चरागाह की जमीन बची हो। देष का कोई भी षहर कस्बा ऐसा नहीं है जहां बाजार या दुकान के नाम पर कुछ फुट  सरकारी जमीन पर कारोबार आगे ना बढ़ाया गया हो। पैल चलने वालों के लिए बने फुटपाथ पर दुकान सजाना तो अधिकार में षांमिल है। पॉष कहलाने वाली हर कालोनी में घर के आगे की कुछ जमीन पर क्यारी लगाने, गाडी खउ़ करने का चबूतरा या षेड बनाने में किसी को कोई लज्जा नहीं आती। दिल्ली  की सीमाओं पर सार्वजनिक सड़क पर कब्जे कर पक्की संरचनाएं खड़ी कर सात महीने से  धरना  दे रहे किसानों पर कोई कानून लागू नहीं होता।  जाहिर है ऐसे ‘अतिक्रमण-प्रधान देष’ में खोरी को बगैर विकल्प के उजाड़ देना, भले ही वैधानिक है लेकिन नैतिक या मानवीय कतई नहीं।  


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How National Book Trust Become Narendra Book Trust

  नेशनल बुक ट्रस्ट , नेहरू और नफरत पंकज चतुर्वेदी नवजीवन 23 मार्च  देश की आजादी को दस साल ही हुए थे और उस समय देश के नीति निर्माताओं को ...