सावधान ! पूर्वोत्तर सुलग रहा है
पंकज चतुर्वेदी
संसद में प्रस्तुत नागरिकता बिल के विरोध में गत मंगलवार को समूचे पूर्वोत्तर राज्यों में जो बंद हुआ, वह एक बानगी मात्र है कि यदि विदेश से अवैध तरीके से आ कर भारत में बसे लोगों को धर्म-जाति के आधार पर बांटा गया तो यह एक बड़ी अशांति का कारण हो सकता है। उल्ल्ेखनीय है कि नए नागरिकता बिल में मुसलमानों के अलावा अन्य किसी भी धर्म के ऐसे विदेशी जो कि छह साल से भारत में रह रहे हैं उन्हें यहां की नागरिकता की पात्रता का प्रावधान है। षायद नई युवा पीढ़ी की याददाश्त में न हो कि किस तरह अभी से 28 साल पहले अवैध आव्रजकों के मामले में असल सुलगता रहा था और उसके बाद हुएए समझौते के बाद वहां षांति आई थी। हाल ही कि एनआरसी यानि नागरिकता रजिस्टर की कवायद में भी धर्म-जाति के आधार पर विदेशियों के नाम नहीं रखे गए थे। आज तो यही लगता है कि भड़कती अंगारों पर यदि राख जम जाए तो उन्हें षंात नहीं माना जा सकता। असम , मणिपुर, अरूणाचल, त्रिपुरा और मेघालय की असली समस्या घुसपैठियों की बढ़ती संख्या है, असल में यह पूर्वोत्तर ही नहीं पूरे देश की समस्या है। तभी मेघालय सरकार ने नागरिकता बिल पर विरोध दर्ज किया है। जान लें कि यदि अब और चूक हो गई तो तो आने वाले दो दशकों में असम सहित पूर्वोत्तर के कई राज्य भी कश्मीर की तरह देश के लिए नासूर बना जाएंगे। यह इलाका ना केवल संवेदनशील सीमावर्ती है, बल्किं वनोपज, तेल जैसे बेशकीमती भंडार भी हैं। यहां किसी भी तरह की अशांति पूरे देश के लिए बेहद खतरनाक है।
असम के मूल निवासियों की बीते कई दशकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वहां से वापिस भेजा जाए। इस मांग को ले कर आल असम स्टुडंेट यूनियन(आसू) की अगुवाई में सन 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था, जिसमें सत्याग्रह, बहिष्कार, धरना और गिरफ्तारियां दी गई थीं। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्यवाही के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया। चुनाव के बाद जम कर हिंसा शुरू हो गई। इस हिंसा का अंत केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार जनवरी-1966 से मार्च- 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि सन 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापिस अपने देश जाना होगा। इसके बाद आसू की सरकार भी बनीं। लेकिन इस समझौते को पूरे 28 साल बीत गए हैं और विदेशियों- बांग्लादेशी व म्यांमार से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं ये विदेशी बाकायदा अपनी भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं। एनआरसी रस्टिर के पहले मसौदे में जिस तरह बड़े स्तर पर गड़बड़ियों हुई और फिर धर्म के आधार पर नागरिकता तय करने का कानून आया, वह मूल असम समझौते की आत्मा के पूरी तरह खिलाफ है। असम के मूल निवासी बोड़े भी नए नागरिकता कानून के खिलाफ हैं , जबकि सभी बोड़ो हिंदू नहीं, कई ईसाई हैं।
यह एक विडंबना है कि बांग्लादेश को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसी का फायदा उठा कर बांग्लादेश के लोग बेखौफ यहां आ रहे हैं, बस रहे हैं और अपराध भी कर रहे हैं। हमारा कानून इतना लचर है कि अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेशी घोशित कर देती है, लेकिन बांग्लादेश की सरकार यह कह कर उसे वापिस लेने से इंकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं हैं। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से पुरानी समस्या है। सन 1901 से 1941 के बीच भारत(संयुक्त) की आबादी में बृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिशत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसदी दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेशी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, सिबसागर जिलो में म्यांमार व अन्य देशों से लोगों की भीड़ आना षुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी 30 सालों में असम में केवल सिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां असम मूल के लोगों की बहुसंख्यक आबादी होगी।
असम में विदेशियों के षरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है - 1971 की लड़ाई या बांग्लादेश बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 से 1971 के बीच 37 लाख सत्तावन हजार बांग्लादेशी , जिनमें अधिकांश मुसलमान हैं, अवैध रूप से अंसम में घुसे व यहीं बस गए। सन 70 के आसपास अवैध षरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के 33 मुस्लिम विधायाकें ने देवकांत बरूआ की अगवाई में मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। षुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत सी है, जिस पर ख्ेाती नहीं होती है और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देश का भला कर रहे हैं। लेकिन आज हालात इतने बदतर है कि कांजीरंगा नेशनल पार्क को छूती कई सौ किलोमीटर के नेशनल हाईवे पर दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। इनके कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि कोई चार साल पहले राज्य के राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी रहे ले.ज. एस.के. सिन्हा ने राश्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेशियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसे तलाशना व फिर वापिस भेजने के लायक हमारे पास मशीनरी नहीं है।
बाहरी लोगों के स्थानीय संसाधन पर कब्जे की समस्या मणिपुर और त्रिपुरा में भी गंभीर है। यहां हिंदीू और बैोद्ध चकमा, हजोंग जैसे बाहरी गैर-मुस्लिम की संख्या लाखों में है और इनको ले कर पूर्वोत्त राज्यों में बड़े आंदोलन व हिंसा होती रही है। वहीं रोहंगिया भी बड़ी संख्या में है। नए कानून के मुताबिक रोहंगिया तो बाहर होंगे लेकिन अन्य धर्म के षरणार्थी नहीं।
हमारे पूर्वोत्तार राज्य बेहद संवेदनशील हैं। यहां कई छोटे-छोटे जनजातियों के कबीले हैं और वे अपनी लोक-परंपराओं में बाहरी दखल पसंद नहीं करते। याद होगा कि त्रिपुरा में बसे कोई 33 हजार ब्रू आदिवासियों को वापसि उनके राज्यमिजोरम भेजने की तनातननी चलती रहती है। ऐसे में जिन लोगों को वे बाहरी मान कर रखे हुए थे, वे यदि अब केवल धर्म के आधर पर नागरिक बन रहे हैं तो उनसे आदिवासियों में घोर असंतोश है।
जब-जब राज्य के मूल बाशिंदों को बिजली, पानी व अन्य मूलभूत जरूरतों की कमी खटकेगी, उन्हें महसूस होगा कि उनकी सुविधाओं पर डाका डालने वाले देश के अवैध नागरिक हैं, आंदोलन फिर होंगे, हिंसा फिर होगी; आखिर यह एक संस्कृति-सभ्यता के अस्तित्व का मामला जो है। सरकार में बैठे लोगों को भी यह विचारना होगा कि किसी समझौते को लागू करने में 28 साल का समय कम नहीं हाता है और यह वादा-खिलाफी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं। एक बात और , दिल्ली या राश्ट्रीय मीडिया के लिए पूर्वोत्तर की इस तरह की खबरें गैरजरूरी सी प्रतीत होती है- वहां होने वाली हिंसा की खबरें जरूर यदा-कदा सुर्खियों में रहती हैं, लेकिन हिंसा के क्या कारण हैं उसे जानने के लिए कभी कोई हकीकत को कुरेदने कूा प्रयास नहीं करता है। यही कारण है कि एकबारगी दवाब बना कर सरकार कुछ संगठनों को हिंसा त्यागने पर मजबूर करती है तो वादाखिलाफी से त्रस्त कोई दूसरे युवा हथियार उठा लेते हैं। लब्बोलुवाब यह है कि यदि वहां स्थाई षांति चाहिए तो घुसपैठियों की समस्या का इलाज जाति-धर्म से परे जा कर सोचना होगा।
पंकज चतुर्वेदी
संपर्क 9891928376
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