पुस्तकोत्सव का पर्याय है यह मेला
जनवरी के आरंभिक दौर में कड़ाके की ठंड के बावजूद लेखक-प्रकाशक-पुस्तक प्रेमी उत्साहित हैं। वैसे तो नई दिल्ली के प्रगति मैदान में व्यापार मेले समेत बहुत से मेले लगते रहते हैं, लेकिन नाम भले ही इसे पुस्तक मेला दिया गया हो, पर असल में यह पुस्तकों के साथ जीने और उसे महसूस करने का उत्सव है, जिसमें गीत-संगीत है, आलोचना है, मिलन है, असहमतियां हैं और सही मायने में देश की विविधतापूर्ण भाषाई एकता की प्रदर्शनी भी है। अक्सर लोग यह कहते पाए जाते हैं कि दुनिया भर के पुस्तक मेलों से तुलना करें तो अब वार्षिक बन गए दिल्ली में आयोजित ‘विश्व पुस्तक मेला’ में अधिकांश वही प्रकाशक, विक्रेता अपनी दुकान लगाते हैं जो साल भर दरियागंज में होते हैं। इस बार पुस्तक मेला का थीम ‘विकलांगजनों के लिए पठन सामग्री’ है और अतिथि देश शारजाह है।
बीते दो दशकों से, जबसे सूचना प्रौद्योगिकी का प्रादुर्भाव हुआ है, मुद्रण तकनीक से जुड़ी पूरी दुनिया एक ही भय में जीती रही है कि कहीं कंप्यूटर और अब स्मार्टफोन की दुनिया छपे हुए काले अक्षरों को अपनी बहुरंगी चकाचौंध में उदरस्थ न कर ले। जैसे-जैसे चिंताएं बढ़ीं, पुस्तकों का बाजार भी बढ़ता गया। उसे बढ़ना ही था- आखिर साक्षरता दर बढ़ रही है, ज्ञान पर आधारित जीविकोपार्जन करने वालों की संख्या बढ़ रही है। जो प्रकाशक बदलते समय में पाठक के बदलते मूड को भांप गया, वह तो चल निकला, बाकी पाठकों की घटती संख्या का स्यापा करते रहे।
बौद्धिक-विकास, ज्ञान-प्रस्फुटन और शिक्षा के प्रसार के इस युग में यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि देश की बात क्या करें, दिल्ली में भी पुस्तकें सहजता से उपलब्ध नहीं हैं। गली-मुहल्लों में जो दुकाने हैं वे पाठ्य पुस्तकों की आपूर्ति करके ही इतना कमा लेते हैं कि अन्य पुस्तकों के बारे में सोच नहीं पाते। कुछ जगह ‘बुक स्टोर’ हैं तो वे एक खास सामाजिक-आर्थिकवर्ग की जरूरतों को भले ही पूरी करते हों, लेकिन आम मध्यवर्गीय लोगों को वहां मनमाफिक पुस्तकें मिलती नहीं हैं। कई लोग उदाहरण देते हैं कि ईरान जैसे देश में स्थाई तौर पर पुस्तकों का मॉल है, लेकिन भारत में सरकार -समाज इस बारे में सोच नहीं रहा है।
भारत में पुस्तक व्यवसाय की सालाना प्रगति 20 फीसद से भी ज्यादा है, वह भी तब जबकि कागज के कोटे, पुस्तकों को डाक से भेजने पर छूट न मिलने, पुस्तकों के व्यवसाय में सरकारी सप्लाई की गिरोहबंदी से यह उद्योग हर कदम पर संघर्षरत है। यह कहने वाले प्रकाशक भी कम नहीं हैं जो इसे घाटे का सौदा बताते हैं, लेकिन जब प्रगति मैदान के पुस्तक मेला में छुट्टी के दिन किसी हॉल में घुसने पर वहां की गहमा-गहमी के बीच कड़ाके की सर्दी में आधे बांह का स्वेटर भी उतार फेंकने का मन हो तो जाहिर है कि लोग अभी भी पुस्तकों के पीछे दीवानगी रखते हैं। तो फिर इतना व्यय कर पुस्तक मेला का सालाना आयोजन क्यों? इसकी जगह गली-मुहल्लों में पुस्तकों की दुकानें क्यों नहीं, यह स्वाभाविक सवाल सभी के मन में आता है।
असल में नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला केवल किताब खरीदने-बेचने की जगह नहीं है, यह केवल पुस्तक प्रेमियों की जरूरत को एक स्थान पर पूरा करने का बाजार भी नहीं है। केवल किताब खरीदने के लिए तो दर्जनों वेबसाइट आज उपलब्ध हैं जिनके जरिये घर बैठे ऑर्डर दिया जा सकता है और घर पर ही उसे हासिल भी किया जा सकता है। असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह है जिससे जब तक बात न करो, हाथ से स्पर्श न करो, तब तक अपनत्व का अहसास नहीं देती है। फिर तुलनात्मकता के लिए एक ही स्थान पर एक साथ इतने सजीव उत्पाद मिलना एक बेहतर विपणन विकल्प व मनोवृत्ति भी है। फिर दिल्ली का पुस्तक मेला तो एक त्योहार है पाठकों, लेखकों, प्रकाशकों और छात्रों का।
पुस्तक मेले में रोजाना कई सौ पुस्तकों का लोकार्पण, कम से कम बीस गोष्ठियों-विमर्श, दस-पंद्रह लेखकों से बातचीत के सत्र, बच्चों की गतिविधियां आदि। खासतौर पर विशेष अतिथि देश चीन से आए 250 से ज्यादा लेखकों, चित्रकारों, प्रकाशकों से मिलने के कई फायदे हैं। उनके यहां के लेखन, पाठक और व्यापार से काफी कुछ सीखने को मिलता है। देश के आंचलिक क्षेत्रंे से दूर-दूर से आते पाठक-लेखक-आम लोग। दिन चढ़ते ही प्रगति मैदान के लंबे-चौड़े लॉन में लोगों के टिफिन खुल जाते हैं, खाने के स्टॉल खचाखच भरे होते हैं, लोग कंधे छीलती भीड़ में उचक-उचक कर लेखकों को पहचानने-देखने का प्रयास करते हैं। उसी के बीच कुछ मंत्री, कुछ वीआइपी, कुछ फिल्मी सितारे भी आ जाते हैं और भीड़ उनकी ओर निहारने लगती है। कहीं कविता पाठ चलता है तो कहीं व्यंग्य व कहानी पेश करने के आयोजन। अंधेरा होते ही हंसध्वनि थिएटर पर गीत-संगीत की महफिल सज जाती है। इस बार तो भारत की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाते देश के अलग-अलग हिस्सों के कई मशहूर कलाकार यहां अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। दूरदराज से आए और नए लेखक अपनी पांडुलिपियां ले कर प्रकाशकों को तलाशते दिखते हैं तो कुछ एक अपनी पुस्तकों को मित्रों को बांट कर सुख पाते हैं। खेमेबाजी, वैचारिक मतभेद के बीच 35 से ज्यादा भाषाओं की पुस्तकें, हजारों लेखक व प्रकाशक लाखों पाठकों को नौ दिन तक बांधे रखते हैं। जाहिर है कुछ चिंताएं भी हैं, कुछ सरोकार भी, कुछ भाषाओं को लेकर तो कुछ पुस्तक बिक्री को लेकर। देश भर के सरकारी प्रकाशन संस्थान भी यहां होते हैं तो जाहिर है कि यह भीड़ उन्हें कुछ सबक दे कर जाती है, अपने प्रकाशन की दशा-दिशा के बारे में। विदेशी मंडप में अधिकांश पुस्तकें केवल प्रदर्शन के लिए होती हैं और गंभीर किस्म के लेखक इनसे आइडिया का अंदाजा लगाते दिखते हैं।
केवल पढ़ने-लिखने वाले ही नहीं, मुद्रण व्यवसाय से जुड़े लोग- मुद्रक, टाइपसेटर, चित्रकार, बाईंडर से लेकर प्रगति मैदान में खाने-पीने की दुकान चलाने वालों के लिए यह मेला ‘दीवाली’ की तरह होता है। ट्रेड फेयर के बाद सबसे भीड़ भरा मेला होता है यह प्रगति मैदान में, जहां हर आयु-वर्ग, प्रत्येक सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सभी विचारधाराओं के लोगों की समान भागीदारी होती है। इतना सबकुछ महज व्यावसायिक नहीं होता, इसमें दिल व दिमाग दोनों पुस्तक के साथ धड़कते-मचलते हैं तभी यह मेला नहीं है, आनंदोत्सव है पुस्तकों का शिशिरोत्सव
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