वह अन्न जिससे भरा जा सकता है करोड़ों का पेट
आज के "हिंदुस्तान" में लेख
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हम जितना खेतों में उगाते हैं, उसका 40 फीसदी उचित रख-रखाव के अभाव में नष्ट हो जाता है। यह आकलन स्वयं सरकार का है। यह व्यर्थ गया अनाज बिहार जैसे बड़े राज्य का पेट भरने के लिए काफी है। हर साल 92,600 करोड़ रुपये कीमत का 6.7 करोड़ टन खाद्य पदार्थ बर्बाद होता है। वह भी उस देश में, जहां बड़ी आबादी भूखे पेट सोती है। यह बेहद गंभीर मामला है। विकसित कहे जाने वाले ब्रिटेन जैसे देश साल भर में जितना भोजन पैदा नहीं करते, उतना हमारे यहां बेकार हो जाता है। कुछ दिनों पहले ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन की एक रपट में बताया गया कि भारत में करोड़ों लोग भूखे पेट सोते हैं, हालांकि विभिन्न सरकारों के प्रयासों से ऐसे लोगों की संख्या पहले से कम हुई है।
भारत में सालाना 10 लाख टन प्याज और 22 लाख टन टमाटर खेत से बाजार तक पहुंचने से पहले ही सड़ जाते हैं। वहीं 50 लाख अंडे उचित भंडारण के अभाव में टूट जाते हैं। हमारे यहां गन्ने के कुल उत्पादन का 26.6 प्रतिशत हर साल बेकार हो जाता है। हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना ऑस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नष्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ रुपये होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को साल भर भरपेट खाना दिया जा सकता है। 2़1 करोड़ टन अनाज केवल इसलिए बेकार हो जाता है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। सब्जी, फल का 40 फीसदी कोल्ड स्टोरेज व समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न व अन्य खाद्य पदार्थ बर्बाद करता है।
जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं, उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं। एक साल में जितना सरकारी खरीद का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छिपा नहीं है। बस जरूरत है, तो इस दिशा में एक प्रयास भर करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक क्विंटल अनाज के आकस्मिक भंडारण और उसे जरूरतमंदों को देने की नीति का पालन हो, तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा।
जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रखने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों और शादी-ब्याह जैसे पारिवारिक समारोहों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ाघर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं, जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते हैं। बंगाल के बंद हो गए चाय बगानों में आए दिन बेरोजगार मजूदरों के भूख के कारण दम तोड़ने की बात हो या फिर महाराष्ट्र के मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर, या मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चों के 80 फीसदी की उचित खुराक न मिल पाने के कारण होने वाली मौत की खबरें, हमारे लिए ये अब कोई नई बात नहीं है।
बुंदेलखंड के पिछड़े जिले महोबा के कुछ लोगों ने ‘रोटी बैंक’ बनाया है। बैंक से जुड़े लोग भोजन के समय घरों से ताजा बनी रोटियां एकत्र करते हैं और उन्हें अच्छे तरीके से पैक करके भूखे लोगों तक पहुंचाते हैं। बगैर किसी सरकारी सहायता के चल रहे इस अनुकरणीय और अनूठे प्रयास से हर दिन लगभग 400 लोगों को भोजन मिल रहा है। रोटी बैंक वाले घरों से बासी या ठंडी रोटी नहीं लेते, ताकि खाने वाले का आत्मसम्मान भी जिंदा रहे। यह एक बानगी है कि यदि इच्छाशक्ति हो, तो छोटे से प्रयास भी भूख पर भारी पड़ सकते हैं। ऐसे कुछ प्रयोग देश में कई जगह चल भी रहे हैं। मगर हर जरूरतमंद को अन्न मिले, इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोड़ा चुस्त-दुरुस्त होना ही होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनशील बनना होगा। देश में कहीं एक भी बच्चा कुपोषण का शिकार न हो और अन्न का एक भी दाना बर्बाद न हो- इन दोनों को दो अगल-अलग प्रयास बनाए रखने की बजाय अगर हम एक ही प्रयास बना लें, तो इस समस्या को ज्यादा अच्छी तरह से खत्म करने की ओर बढ़ सकते हैं।
भारत में सालाना 10 लाख टन प्याज और 22 लाख टन टमाटर खेत से बाजार तक पहुंचने से पहले ही सड़ जाते हैं। वहीं 50 लाख अंडे उचित भंडारण के अभाव में टूट जाते हैं। हमारे यहां गन्ने के कुल उत्पादन का 26.6 प्रतिशत हर साल बेकार हो जाता है। हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना ऑस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नष्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ रुपये होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को साल भर भरपेट खाना दिया जा सकता है। 2़1 करोड़ टन अनाज केवल इसलिए बेकार हो जाता है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। सब्जी, फल का 40 फीसदी कोल्ड स्टोरेज व समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न व अन्य खाद्य पदार्थ बर्बाद करता है।
जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं, उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं। एक साल में जितना सरकारी खरीद का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छिपा नहीं है। बस जरूरत है, तो इस दिशा में एक प्रयास भर करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक क्विंटल अनाज के आकस्मिक भंडारण और उसे जरूरतमंदों को देने की नीति का पालन हो, तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा।
जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रखने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों और शादी-ब्याह जैसे पारिवारिक समारोहों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ाघर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं, जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते हैं। बंगाल के बंद हो गए चाय बगानों में आए दिन बेरोजगार मजूदरों के भूख के कारण दम तोड़ने की बात हो या फिर महाराष्ट्र के मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर, या मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चों के 80 फीसदी की उचित खुराक न मिल पाने के कारण होने वाली मौत की खबरें, हमारे लिए ये अब कोई नई बात नहीं है।
बुंदेलखंड के पिछड़े जिले महोबा के कुछ लोगों ने ‘रोटी बैंक’ बनाया है। बैंक से जुड़े लोग भोजन के समय घरों से ताजा बनी रोटियां एकत्र करते हैं और उन्हें अच्छे तरीके से पैक करके भूखे लोगों तक पहुंचाते हैं। बगैर किसी सरकारी सहायता के चल रहे इस अनुकरणीय और अनूठे प्रयास से हर दिन लगभग 400 लोगों को भोजन मिल रहा है। रोटी बैंक वाले घरों से बासी या ठंडी रोटी नहीं लेते, ताकि खाने वाले का आत्मसम्मान भी जिंदा रहे। यह एक बानगी है कि यदि इच्छाशक्ति हो, तो छोटे से प्रयास भी भूख पर भारी पड़ सकते हैं। ऐसे कुछ प्रयोग देश में कई जगह चल भी रहे हैं। मगर हर जरूरतमंद को अन्न मिले, इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोड़ा चुस्त-दुरुस्त होना ही होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनशील बनना होगा। देश में कहीं एक भी बच्चा कुपोषण का शिकार न हो और अन्न का एक भी दाना बर्बाद न हो- इन दोनों को दो अगल-अलग प्रयास बनाए रखने की बजाय अगर हम एक ही प्रयास बना लें, तो इस समस्या को ज्यादा अच्छी तरह से खत्म करने की ओर बढ़ सकते हैं।
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