हिंडन-यमुना का एक उपेक्षित , नीरस संगम
पंकज चतुर्वेदी
देष की राजधानी दिल्ली के दरवाजे पर खड़े गाजियाबाद में गगनचुंबी इमारतों के नए ठिकाने राजनगर एक्सटेंषन को दूर से देखो तो एक समृद्ध, अत्याधुनिक उपनगरीय विकास का आधुनिक नमूना दिखता है, लेकिन जैसे-जैसे मोहन नगर से उस ओर बढ़ते हैं तो अहसास होने लगता है कि समूची सुंदर स्थापत्यता एक बदबूदार गंदे नाबदान के किनारे है। जरा और ध्यान से देखें तो साफ हो जाता है कि यह एक भरपूर जीवित नदी का बलात गला घोंट कर कब्जाई जमीन पर किया गया विकास है, जिसकी कीमत फिलहाल तो नदी चुका रही है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब नदी के असामयिक काल कवलित होने का खामियाजा समाज को भी भुगतना होगा। गांव करहेडा के लोगों से बात करें या फिर सिंहानी के, उन सभी ने कोई तीन दषक पहले तक इस नदी के जल से सालभर अपने घर-गांव की प्यास बुझाई है। यहां के खेत सोना उगलते थे और हाथ से खोदने पर जमीन से षीतल-निर्मल पानी निकल आता था। हिंडन की यह दुर्गति गाजियाबाद में आते ही षुरू हो जाती है और जैसे-जैसे यह अपने प्रयाण स्थल तक पहुंचती है, हर मीटर पर विकासोन्मुख समाज इसकी सांसें हरता जाता है।
हिंडन का पुराना नाम हरनदी या हरनंदी है। इसका उद्गम सहारनपुर जिले में हिमालय क्षेत्र के ऊपरी षिवालिक पहाड़ियों में पुर का टंका गांव से है। यह बारिष पर आधारित नदी है और इसका जल विस्तार क्षेत्र सात हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा है। यह गंगा और यमुना के बीच के देाआब क्षेत्र में मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर और ग्रेटर नोएडा का 280 किलोमीटर का सफर करते हुए दिल्ली से कुछ दूर तिलवाडा में यमुना में समाहित हो जाती है। रास्ते में इसमें कृश्णा, धमोला, नागदेवी, चेचही और काली नदी मिलती हैं। ये छोटी नदिया भीं अपने साथ ढेर सारी गंदगी व रसायन ले कर आती हैं और हिंडन को और जहरीला बनाती हैं। कभी पष्चिमी उत्तर प्रदेष की जीवन रेखा कहलाने वाली हिंडन का पानी इंसान तो क्या जानवरों के लायक भी नहीं बचा है। इसमें आक्सीजन की मात्रा बेहद कम है। लगातार कारखानों का कचरा, षहरीय नाले, पूजन सामग्री और मुर्दों का अवषेश मिलने से मोहन नगर के पास इसमें आक्सीजन की मात्र महज दो तीन मिलीग्राम प्रति लीटर ही रह गई है। करहेडा व छजारसी में इस नदी में कोई जीव-जंतु षेश नहीं हैं, हैं तो केवल काईरोनास लार्वा। सनद रहे दस साल पहले तक इसमें कछुए, मेंढक, मछलियां खूब थे। बीते सान आईआईटी दिल्ली के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के छात्रों ने यहां तीन महीने षोध किया था और अपनी रिपोर्ट में बताया था कि हिंडन का पानी इस हद तक विशैला होग या है कि अब इससे यहां का भूजल भी प्रभािवत हो रहा है।
कहते हैं कि शहर और उसमें भी ऊंची-ऊची इमारतों में आमतौर पर शिक्षित, जागरूक लेाग रहते हैं। लेकिन गाजियाबाद और नोएडा में पाठ्य पुस्तकों में दशकों से छपे उन शब्दों की प्रामाणिकता पर शक होने लगता है, जिसमें कहा जाता रहा है कि मानव सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ और नदियों के ंसगम स्थल को बेहद पवित्र माना जाता है। धार्मिक आख्यान कहते हैं कि हरनंदी या हिंडन नदी पांच हजार साल पुरानी है। मान्यता है कि इस नदी का अस्तित्व द्वापर युग में भी था और इसी नदी के पानी से पांडवों ने खांडवप्रस्थ को इंद्रप्रस्थ बना दिया था। जिस नदी का पानी कभी लोगों की जिंदगी को खुशहाल करता था, आज उसी नदी का पानी लोगों की जिंदगी के लिए खतरा बन गया है। बीते 20 साल में हिंडन इस कदर प्रदूषित हुई कि उसका वजूद लगभग समाप्त हो गया है। गाजियाबाद जिले के करहेडा गांव से आगे बढ़ते हुए इसमें केवल औद्योगिक उत्सर्जन और विशाल आबादी की गंदगी ही बहती दिखती है। छिजारसी से आगे पर्थला खंजरपुर के पुल के नीचे ही नदी महज नाला दिखती है। कुलेसरा व लखरावनी गांव पूरी तरह हिंडन के तट पर हैं। इन दो गांवों की आबादी दो लाख पहुंच गई है। अधिकांश सुदूर इलाकों से आए मेहनत-मजदूरी करने वाले। उनको हिंडन घाट की याद केवल दीपाचली के बाद छट पूजा के समय आती है। तब घाट की सफाई होती है, इसमें गंगा का पानी नहर से डाला जाता है। कुछ दिनेां बाद फिर यह नाला बन जाती है, पूरा गांव यहीं शौच जाता है, जिनके घर नाली या शौचालय है , उसका निस्तार भी इसी में है। अपने अंतिम 55 किलोमीटर में सघन आबादी के बीच से गुजरती इस नदी में कोई भी जीव , मछली नहीं है।ं इसकी आक्सीजन की मात्रा शून्य है और अब इसका प्रवाह इसके किनारों के लिए भी संकट बन गया हे।
हिंडन सहारनपुर, बागपत, शामली मेरठ, मुजफ्फरनगर से होते हुए गाजियाबाद के रास्ते नोएडा तक जाती है। कई गांव ऐसे हैं जो हिंडन के प्रदूषित पानी का प्रकोप झेल रहे हैं। कुछ गांव की पहचान तो कैंसर गांव के तौर पर होने लगी है। कोई डेढ सौ गांवों के हर घर में कैंसर और त्वचा के रोगी मौजूद हैं।
पिछले साल राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानि एनजीटी के आदेश पर हिंडन नदी के किनारे बसे गाजियाबाद, मेरठ, बागपत, शामली, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर जनपद के करीब 154 गांवों के 31 हजार हैंडपंपों को 21 अक्तूबर 2017 तक उखाड़ने के निर्देश दिए गए थे। एनजीटी ने अपने एक अध्ययन से पुख्ता किया था कि अधिकांश हैंडपंपों का पानी भारी धातुओं से दूषित है और संदेह है कि सहारनपुर, शामली और मेरठ जिले के लगभग 45 तरह के उद्योग नदी के जल में आर्सेनिक, पारा जैसे जानलेवा रसायन डाल रहे हैं। चूंकि गांवों में पानी का कोई विकल्प है नहीं सो, हैंडपंप उखाडे नहीं गए और ना ही भूजल को जहर बना रही हिंडन की सूरत बदलने का कोई जमीनी प्रयास हुआ।
यह विडंबना भी है कि हिंडन के तट पर बसा समाज इसके प्रति बेहद उपेक्षित रवैया रखता है। ये अधिकंश लेाग बाहरी है व इस नदी के अस्तित्व से खुद के जीवन को जोड़ कर देख नहीं पा रहे हैं। मोमनाथल, जहां यह यमुना से मिलती है, और जहां इसे नदी कहा ही नहीं जा सकता, गा्रमीणों ने पंप से इसके जहर को अपने खेतों में छोड़ रखा है। अंदाज लगा लें कि इससे उपजने वाला धान और सब्जियों इसका सेवन करने वाले की सेहत के लिए कितना नुकसानदेह होगा।
मई-2017 में दिल्ली में यमुना नदी को निर्मल बनाने के लिए 1969 करोड़ के एक्शन प्लान को मंजूरी दी गई थी, जिसमें यमुना में मिलने वाले सभी सीवरों व नालों पर एसटीपी प्लांट लगाने की बात थी मान भी लिया जाए कि दिल्ली में यह योजना कामयाब हो गई, लेकिन वहां से दो कदम दूर निकल कर ही इसका मिलन जैसे ही हिंडन से होगा, कई हजार करोड़ बर्बाद होते दिखेंगें।
आज जरूरत इस बात की है कि हिंडन के किनारों पर आ कर बस गए लेाग इस नदी को नदी के रूप में पहचानें, इसके जहर होने से उनकी जिंदगी पर होने वाले खतरों के प्रति गंभीर हों, इसके तटों की सफाई व सौंदर्यीकरण पर काम हो। सबसे बड़ी बात जिन दो महान नदियों का ंसंगम बिल्कुल गुमनाम है, वहां कम से कम घाट, पहुंचने का मार्ग,संगम स्थल के दोनेां ओर घने पेड़ जैसे तात्कालिक कार्य किए जाएं। हिंडन की मौत एक नदी या जल-धारा की नहीं, बल्कि एक प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और संस्कार का अवसान होगा।
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