भीड़ का दबाव कम किए बगैर नहीं बचेंगे हमारे महानगर
पंकज चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार
बीते चार महीनों से दिल्ली की हवा बीमारियां और मौत बांट रही है, लेकिन जमीनी धरातल पर ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा, जिससे इस समस्या को थामा जा सके। गत पांच वर्षों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया, तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार बन असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। इन दिनों न पंजाब-हरियाणा में पराली जल रही है और न ही कोई दीपावली के पटाखे चला रहा है, फिर भी राजधानी दिल्ली का प्रदूषण दिन-दूना, रात चौगुना बढ़ ही रहा है।
समस्या यह भी है कि हम दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर को समग्रता में लेते ही नहीं हैं। दिल्ली की चर्चा तो सब जगह है, लेकिन दिल्ली से चिपके गाजियाबाद के बीते तीन महीनों से लगातार देश में सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में पहले या दूसरे नंबर पर बने रहने की चर्चा होती नहीं। अगर गाजियाबाद की हवा जहरीली होगी, तो सीमा पार के इलाके निरापद रह नहीं सकते। अब तो दिल्ली के भीतर ट्रक की आमद रोकने के लिए पेरीफेरल रोड भी चालू हो गया, इसके बावजूद एमसीडी के टोल बूथ गवाही देते हैं कि दिल्ली में घुसने वाले ट्रकों की संख्या कम नहीं हुई है। इस खतरे के मुख्य कारण 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाला धुएं में मौजूद पार्टिकल, वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड और धूल के कण हैं। कहने को तो पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के मानक तय हैं कि पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50 पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है, जहां यह मानक से कम से कम चार गुना ज्यादा न हो।
इसके ज्यादा होने का अर्थ है- आंखों में जलन, फेफडे़ खराब होना, अस्थमा, कैंसर और दिल के रोग। इसमें सबसे ज्यादा दोषी धूल और मिट्टी के कण हैं, जो एनसीआर की विभिन्न निर्माण परियोजनाओं के कारण दिल्ली में हरदम डेरा जमाए रहते हैं। जिस महानगर में बड़े पैमाने पर गृह-निर्माण चल रहा हो और ट्रैफिक जाम से बचने के लिए सड़कें लगातार चौड़ी की जा रही हों, फ्लाईओवर और अंडरपास बन रहे हों, वहां यह सब होना तो खैर तय ही है।
यहां एक बात समझने की जरूरत है कि यदि दिल्ली की सांस को थमने से बचाना है, तो न केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, बल्कि आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी शहरों-कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंगे, जो दिल्ली के लिए हों। करीबी शहरों की बात कौन करे, जब दिल्ली में ही जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड वाहन, मेट्रो स्टेशनों तक लोगों को ढोकर ले जाने वाले दस-दस सवारी लादे तिपहिए, जुगाड़ के जरिये रिक्शे के तौर पर दौड़ाए जा रहे हैं और कई प्रकार के पूरी तरह गैर-कानूनी वाहन हवा को जहरीला करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं? वाहन सीएजी से चले या फिर डीजल-पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा, तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही होगा।
इतनी बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही ऊर्जा का उत्पादन दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। यही नहीं, आज भी दिल्ली में जितने विकास कार्यों के कारण जाम लग रहा है, ध्ूाल उड़ रही है, वह यहां के लोगों की सेहत खराब कर रही है, भले ही इन कार्यों को भविष्य की सुविधा कहा जा रहा हो। उस अनजान भविष्य के लिए वर्तमान बड़ी भारी कीमत चुका रहा है। बेहतर कूड़ा प्रबंधन, सार्वजनिक वाहनों को एनसीआर के दूरस्थ अंचल तक पहुंचाने, राजधानी से भीड़ को कम करने के लिए यहां की गैर-जरूरी गतिविधियों और प्रतिष्ठानों को लगभग 200 किलोमीटर दूर शिफ्ट करने, कार्यालयों-स्कूलों के समय और उनकी बंदी के दिनों में बदलाव जैसे दूरगामी कदम ही दिल्ली को हांफता हुआ शहर बनने से बचा सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
समस्या यह भी है कि हम दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर को समग्रता में लेते ही नहीं हैं। दिल्ली की चर्चा तो सब जगह है, लेकिन दिल्ली से चिपके गाजियाबाद के बीते तीन महीनों से लगातार देश में सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में पहले या दूसरे नंबर पर बने रहने की चर्चा होती नहीं। अगर गाजियाबाद की हवा जहरीली होगी, तो सीमा पार के इलाके निरापद रह नहीं सकते। अब तो दिल्ली के भीतर ट्रक की आमद रोकने के लिए पेरीफेरल रोड भी चालू हो गया, इसके बावजूद एमसीडी के टोल बूथ गवाही देते हैं कि दिल्ली में घुसने वाले ट्रकों की संख्या कम नहीं हुई है। इस खतरे के मुख्य कारण 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाला धुएं में मौजूद पार्टिकल, वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड और धूल के कण हैं। कहने को तो पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के मानक तय हैं कि पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50 पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है, जहां यह मानक से कम से कम चार गुना ज्यादा न हो।
इसके ज्यादा होने का अर्थ है- आंखों में जलन, फेफडे़ खराब होना, अस्थमा, कैंसर और दिल के रोग। इसमें सबसे ज्यादा दोषी धूल और मिट्टी के कण हैं, जो एनसीआर की विभिन्न निर्माण परियोजनाओं के कारण दिल्ली में हरदम डेरा जमाए रहते हैं। जिस महानगर में बड़े पैमाने पर गृह-निर्माण चल रहा हो और ट्रैफिक जाम से बचने के लिए सड़कें लगातार चौड़ी की जा रही हों, फ्लाईओवर और अंडरपास बन रहे हों, वहां यह सब होना तो खैर तय ही है।
यहां एक बात समझने की जरूरत है कि यदि दिल्ली की सांस को थमने से बचाना है, तो न केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, बल्कि आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी शहरों-कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंगे, जो दिल्ली के लिए हों। करीबी शहरों की बात कौन करे, जब दिल्ली में ही जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड वाहन, मेट्रो स्टेशनों तक लोगों को ढोकर ले जाने वाले दस-दस सवारी लादे तिपहिए, जुगाड़ के जरिये रिक्शे के तौर पर दौड़ाए जा रहे हैं और कई प्रकार के पूरी तरह गैर-कानूनी वाहन हवा को जहरीला करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं? वाहन सीएजी से चले या फिर डीजल-पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा, तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही होगा।
इतनी बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही ऊर्जा का उत्पादन दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। यही नहीं, आज भी दिल्ली में जितने विकास कार्यों के कारण जाम लग रहा है, ध्ूाल उड़ रही है, वह यहां के लोगों की सेहत खराब कर रही है, भले ही इन कार्यों को भविष्य की सुविधा कहा जा रहा हो। उस अनजान भविष्य के लिए वर्तमान बड़ी भारी कीमत चुका रहा है। बेहतर कूड़ा प्रबंधन, सार्वजनिक वाहनों को एनसीआर के दूरस्थ अंचल तक पहुंचाने, राजधानी से भीड़ को कम करने के लिए यहां की गैर-जरूरी गतिविधियों और प्रतिष्ठानों को लगभग 200 किलोमीटर दूर शिफ्ट करने, कार्यालयों-स्कूलों के समय और उनकी बंदी के दिनों में बदलाव जैसे दूरगामी कदम ही दिल्ली को हांफता हुआ शहर बनने से बचा सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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