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सोमवार, 9 सितंबर 2019

How ChandraYan-2 get partial sucsess



यह असफलता नहीं  बड़ी सफलता हैं 

चंद्रमा के दक्षिणी हिस्से तक पहुंचना हमारे वैज्ञानिकों की अद्भुद सफलता है . एक तो विज्ञानं प्रयोग सतत चलते रहते हैं और इनका किसी सरकार के आने और जाने से कोई सम्बन्ध नहीं होता- फिर दुनिया के अधिकांश देशों में इस तरह के स्पेस साइंस के प्रयोग बेहद गोपनीय होते हैं --- जब कार्य पूर्ण हो जाता है तब उसकी घोषणा होती हैं , विकसित देश अपनी तकनीक और प्रयोगों को यथासंभव गोपनीय रखते हैं . हालांकि चन्द्र यान जैसे प्रयोग पूरी तरह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गोपनीय रखना संभव नहीं होता लेकिन फिर भी इसे जनता के बीच बेवजह सस्ती लोकप्रियता से बचना चाहिए था .
यह भी जान लें कि भले ही हमारे उपकरण चाँद की सतह पर पहुँचने में अभी सफल होते प्रतीत नहीं हो रहे, लेकिन इस अभियान के नब्बे प्रतिशत परिणाम तो हमें मिलेंगे ही . भारत के चंद्रमा कि सतह को छूने वाले "विक्रम" के भविष्य और उसकी स्थिति के बारे में भले ही कोई जानकारी नहीं है कि यह दुर्घटनाग्रस्त हो गया या उसका संपर्क टूट गया, लेकिन 978 करोड़ रुपये लागत वाला चंद्रयान-2 मिशन का सबकुछ खत्म नहीं हुआ है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने के अनुरोध के साथ बताया, 'मिशन का सिर्फ पांच प्रतिशत -लैंडर विक्रम और प्रज्ञान रोवर- नुकसान हुआ है, जबकि बाकी 95 प्रतिशत -चंद्रयान-2 ऑर्बिटर- अभी भी चंद्रमा का सफलतापूर्वक चक्कर काट रहा है।'
अभी पूरी सम्भावना है कि ऑर्बिटर एक साल तक चंद्रमा की कई तस्वीरें लेकर इसरो को भेज सकता है। ये तस्वीरें भी हमारे अन्तरिक्ष विज्ञान के लिए बहुत बड़ी सीख व उपलब्धि होंगी .
यह तो आप जानते हीन हैं कि चंद्रयान-2 अंतरिक्ष यान में तीन खंड हैं -ऑर्बिटर (2,379 किलोग्राम, आठ पेलोड), विक्रम (1,471 किलोग्राम, चार पेलोट) और प्रज्ञान (27 किलोग्राम, दो पेलोड)। विक्रम दो सितंबर को आर्बिटर से अलग हो गया था। चंद्रयान-2 को इसके पहले 22 जुलाई को भारत के हेवी रॉकेट जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हिकल-मार्क 3 (जीएसएलवी एमके 3) के जरिए अंतरिक्ष में लांच किया गया था।
इसरो के टेलीमेट्री, ट्रैकिंग एंड कमांड नेटवर्क केंद्र के स्क्रीन पर देखा गया कि विक्रम अपने निर्धारित पथ से थोड़ा हट गया और उसके बाद संपर्क टूट गया। लैंडर बड़े ही आराम से नीचे उतर रहा था, और इसरो के अधिकारी नियमित अंतराल पर खुशी जाहिर कर रहे थे। लैंडर ने सफलतापूर्वक अपना रफ ब्रेकिंग चरण को पूरा किया और यह अच्छी गति से सतह की ओर बढ़ रहा था। आखिर अंतिम क्षण में ऐसा क्या हो गया? इसरो के एक वैज्ञानिक के अनुसार, लैंडर का नियंत्रण उस समय समाप्त हो गया होगा, जब नीचे उतरते समय उसके थ्रस्टर्स को बंद किया गया होगा और वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया होगा, जिसके कारण संपर्क टूट गया।
यह एक छोटी सी निराशा है लेकिन विज्ञान का सिद्धांत है कि हर असफलता भी अपने-आप में एक प्रयोग होती हैं बिजली बल्ब बनाने वाले थॉमस अल्वा एडिशन ने तीन सौ से ज्यादा बार असफल हो कर बल्ब बनाया, तब एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि मेरे शोध का परिणाम है कि इन तीन सौ तरीकों से बल्ब नहीं बनता .
यह भी जानना जरुरी है कि जान लें कि भारत के अंतरिक्ष विज्ञान विभाग की यह उपलब्धि कोई एक-दो साल का काम नहीं है . इसका महत्वपूर्ण पहला पायदान कोई ग्यारह साल पहले सफलता से सम्पूर्ण हुआ था . भारत ने 22 अक्तूबर, 2008 को पहले चंद्र मिशन के तहत चंद्रयान-1 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया था। इस मिशन से पृथ्वी के एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह चंद्रमा के रहस्यों को जानने में न सिर्फ भारत को मदद मिली बल्कि दुनिया के वैज्ञानिकों के ज्ञान में भी विस्तार हुआ। प्रक्षेपण के सिर्फ आठ महीनों में ही चंद्रयान-1 ने मिशन के सभी लक्ष्यों और उद्देश्यों को हासिल कर लिया। आज भी इस मिशन से जुटाए आँकड़ों का अध्ययन दुनिया के वैज्ञानिक कर रहे हैं। इस मिशन से दुनिया भर में भारत की साख बढ़ीथी .
भारत सरकार ने नवंबर 2003 में पहली बार भारतीय मून मिशन के लिये इसरो के प्रस्ताव चंद्रयान -1 को मंज़ूरी दी।चन्द्र्रयान-1 को पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल, यानी PSLV-C 11 रॉकेट के ज़रिये सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र श्री हरिकोटा से लॉन्च किया गया था .पाँच दिन बाद 27 अक्तूबर, 2008 को चंद्रमा के पास पहुँचा था। वहाँ पहले तो उसने चंद्रमा से 1000 किलोमीटर दूर रहकर एक वृत्ताकार कक्षा में उसकी परिक्रमा की। उसके बाद वह चंद्रमा के और नज़दीक गया और 12 नवंबर, 2008 से सिर्फ 100 किलोमीटर की दूरी पर से हर 2 घंटे में चंद्रमा की परिक्रमा पूरी करने लगा।
हमारे वैज्ञानिक बधाई के पात्र हैं . काश इसे चुनाव किस्म की गतिविधि बनाने से बचा जाता . सफलता के बाद सारा देश जश्न मनाता ही . हमारा विज्ञानं और वैज्ञानिक विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं, हमें जल्द ही सफलता मिलेगी .
चित्र में जो संयत्र संभावित सफलता का दिखाया गया है उससे हम महज सवा दो किलोमीटर दूर रह गये
मीडिया और उससे प्रभावित-प्रेरित आम लोग चंद्रयान-२ को ले कर आमतौर पर विमर्श ऐसा करते हैं जैसे कि किसी महाबली ने चाँद को धरती पर लाने के लिए कुछ ऐसा किया हो जो-- न भूतो न भाविश्य्तो ." भक्त उन्मादी हैं और विरोधी छिद्रान्वेषण कर रहे हैं . सोचा क्यों न थोड़ा सा इस अभियान की जानकारी सरल शब्दों में दे दूँ -- विज्ञानं का विद्यार्थी होने और सात साल से ज्यादा एक डिग्री कालेज में गणित पढ़ने के दौरान मैंने कोशिश की कि विज्ञानं को सहज कर सकूँ .
यह तो पहले भी बताया था कि सन २००९ में चंद्रयान का सफल प्रयोग हुआ था , हालांकि वह अभियान भी कोई एक साल बाद समाप्त घोषित कर दिया गया था .
इस पोस्ट में मैंने चंद्रयान -२ में उपयुक्त संयंत्र और उनके बारे में केवल आम लोगों के काम की बातों को शामिल करने का प्रयास किया हैं . यह तो हम सभी जानते हैं कि चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक ऐसी लौकिक संरचना है जो समूचे सौर मंडल और अन्तरिक्ष के बारे में जानकारी के द्वार खोलती हैं .चन्द्रमा की दूरी धरती से तीन लाख चौरासी हज़ार चार सौ किलोमीटर है . इसका व्यास १७३७.१ वर्ग किलोमीटर है यानी धरती से कोई तीस गुना छोटा -- अर्थात30 चन्द्रमा समूची पृथ्वी में समा सकते है .
चन्द्रमा का दक्षिणी ध्रुव वैज्ञानिकों के लिए बेहद अछूता है यहाँ बहुत गहरे गड्ढे और पहाड़ हैं एवरेस्ट के आकार के , सं २००९ के चंद्रयान-१ ने चंद्रमा पर जल कि मौजूदगी की संभावना के कुछ प्रमाण तलाशे थे , यहाँ सौर मंडल के प्रारंभ के जीवाश्म यानी फॉसिल भी हैं .
अभी तक भारत ने चंद्रमा की साथ के स्थान पर उससे मिले चित्र व् एनी प्रयोगों से चंद्रमा को जाना था . चंद्रयान-२ का मकसद चंद्रमा के सतह पर उतर कर सीधे वहां के चित्र आदि भेजना था .
यह अभियान हमारे लिए इस लिए महत्वपूर्ण और अनूठा था क्योंकि यह पहले पूरी तरह स्वदेशी अभियान था . इसे अलावा दुनिया का ऐसा चौथा देश भारत बना जिसने दक्षिणी ध्रुव पर उतरने या सॉफ्ट लेंडिंग का प्रयोग किया . और भारत का ऐसा पहला प्रयोग तो था ही .
इसरो चंद्रयान-2 को पहले अक्टूबर 2018 में लॉन्च करने वाला था। बाद में इसकी तारीख बढ़ाकर 3 जनवरी और फिर 31 जनवरी कर दी गई। बाद में अन्य कारणों से इसे 15 जुलाई तक टाल दिया गया। इस दौरान बदलावों की वजह से चंद्रयान-2 का भार भी पहले से बढ़ गया। ऐसे में जीएसएलवी मार्क-3 में भी कुछ बदलाव किए गए थे।15 जुलाई की रात मिशन की शुरुआत से करीब 56 मिनट पहले इसरो ने ट्वीट कर लॉन्चिंग आगे बढ़ाने का ऐलान कर दिया गया था।चंद्रयान-2 की लॉन्चिंग 22 जुलाई को दोपहर 2.43 बजे हुई .
इस लांचिंग का माध्यम था जिओसिन्क्रोनस सेटेलाईट लांच व्हीकल -तीन Geosynchronous Satellite Launch Vehicle Mark-III (GSLV Mk-III). इसके तीन हिस्से थे . यह तीन टन तक वजन के उपग्रह या सेटेलाईट को अपनी कक्षा में स्थापित करने कि ताकत रखता था . इसके मुख्य तीन भाग थे - S-200सॉलिड रोकेट बूस्टर , L-110 लिक्विड स्टेज और C-25 उपरी हिस्सा .
उपरी हिस्से में सबसे महत्वपूर्ण है आर्बिटर - इसका वजन २३७९ किलो और इसकी खुद बिजली या उर्जा उत्पादन कि क्षमता १००० वाट है . इस यंत्र का मुख्य कम IDSN अर्थात इंडियन डीप स्पेस नेटवर्क से सम्पर्क रख कर अपने घूमने के मार्ग के चित्र व् सूचना धरती पर भेजना है, यह अभी बिलकुल ठीक काम कर अहा है और इसी ने चंद्रमा की सतह पर गिरे विक्रम के चित्र भी भेजे हैं , यह यंत्र चंद्रमा के ध्रुव की कक्षा में सौ गुना सौ किलोमीटर क्षेत्र में चक्कर लगा रहा हैं .
अब बात अक्र्ते हैं विक्रम लेंडर की- जिसके कारण हमारा चन्द्र अभियान अनूठा था और इसी के कारण हमें असफलता मिली- इस यंत्र का नाम भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान के जंक कहे जाने वाले विक्रम साराभाई के नाम पर रखा गया था इसका वजन १४७१ किली था और यह ६५० वाट उर्जा का स्वयम उत्पादन की क्षमता रखता था इसे एक चंद्रमा -दिवस अर्थात धरती के १४ दिन के बराबर काम करने के लिए बनाया गया था . इसका असल मकसद चंद्रमा की सतह पर धीरे से उतरना और वहां अपने भीतर रखे चलायमान घुमंतू रोबोट यंत्र को सतह पर उतार देना था
अब अगला हिस्सा है - रोवर प्रज्ञान - यानी घुमंतू प्रज्ञान .
चूँकि विक्रम का सहज उतराव या सॉफ्ट लेंडिंग हो नहीं पायी सो यह घुमंतू काम काम कर नहीं रहा हैं . इसका वजन २७ किलो मात्र है और यह छह पहियों वाली रोबोटिक गाडी है यह ५० वात उर्जा उत्पादन खुद करने में सक्षम है और यह महज आधा किलोमीटर ही चल एकता हैं . इससे मिली सूचनाएं लेंडर अर्थात विक्रम को आनी थी और विक्रम के जरिये आर्बिटर के माध्यम से धरती तक
ऐसा माना जा रहा है कि विक्रम के चंद्रमा की सतह पर उतरते समय उसकी या तो गति नियंत्रित नहीं हो पायी या फिर उतरने के स्थान पर किसी ऊँचे पहाड़ के कारण उसकी दिशा भ्रमित हुई और वह सीधा नहीं उतर पाया .
सनद रहे विक्रम को ७० डिग्री अक्षांश अर्थात latitude पर दो क्रेटर अर्थात गहरे खड्ड - मेनेजेनस -सी और सिंथेलीयस -एन के बीच उतरना था . ये क्रेटर एवरेस्ट जैसे गहरे हैं . यदि विक्रम सही तरीके से उतर जाता ओ हमारा घुमंतू प्रज्ञान भी काम करने लगता
अब आपको लांचर , आर्बिटर , विक्रम और घुमन्तु के वास्तविक चित्र भी दे रहा हूँ जो इसरो ने ही उपलब्ध करवाए हैं
यह पोस्ट हर उस इन्सान के लिए है जो अपने बच्चों को वैज्ञानिक उपक्रमों को सियासती नहीं वैज्ञानिक के रूप में बता कर वैज्ञानिक वृति के विकास की सोच रखता है वर्ना लोग केवल अन्तरिक्ष विज्ञानं के मुखिया को रोता देख महज भावनातम टिप्पणिया करेंगे .
कोई तकनीकी गलती हो तो सुझाव भी देना ,

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