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गुरुवार, 5 सितंबर 2019

Why Every one have doubt on Assam NRC

 घुसपैठियों का देश -निकाला: राह में कानून के कांटे


सुप्रीम कोर्ट के कड़े तेवर के बाद असम में तैयार हुए नागरिकता रजिस्टर अर्थात एनआरसी का अंतिम प्रारूप 31 अगस्त को सामने आया तो कई बातें  बहुत चौंकाने वाली सामने आईं - एक तो हर राजनीतिक दल अभी तक कोहराम काटे था कि असम में करोड़, दो करोड़ विदेशी  हैं, वह झूठी साबित हुई। महज 19 लाख 6 हजार 657 लोग बाहर हुए हैं। इनमें से भी कोई तीन लाख लोगों ने कोई दावा ही नहीं किया और वैसे भी इन लोगों को अभी अपील की गुन्जायिश  है।  इस बार  बाहर हुए नामों में हिंदू भी बड़ी संख्या में हैं, लगभग 25 फीसद, अर्थात बांग्लादेशी  घुसपैठियों के सांप्रदायिकरण के बयानात फर्जी रहे। गौरतलब है कि सन 1947 में पूर्वी बंगाल में हिंदू आबादी, 25.4 फीसदी थी जो आज घट कर बमुश्किल  10 प्रतिशत  रह गई है। जाहिर है कि इनकी बड़ी संख्या ने भारत का रूख किया होगा। तीसरा इस अंतिम सूची से कोई भी पक्ष संतुष्ट  नहीं है- मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने वाली संस्था को कंप्यूटर साफ्ज्वेयर पर संदेह है तो  सारे मामले को जन आंदोलन बनाने वाले अखिल असम छात्र संगठन  व अन्य संगठनों को इतने कम संख्या होने पर । स्वयं राज्य व केंद्र में सत्ताधारी भाजपा के नेाता भी इस आंकड़े से संतुश्ट नहीं हैं।  हालांकि अलग-अलग जिलों में जब व्यक्तिगत उदाहरण देखना षुरू करेंगे तो साफ हो जाएगा कि पूरी प्रक्रया में कहीं ना कहीं खामी तो है। पूरे परिवार को भारतीय माना लेकिन परिवार के मुख्यिा को नहीं, एक बहन भारतीय दूसरी का नाम गायब। ना जाने कितने राजनेता, सशत्र  बलों के अफसर, वकील, पत्रकार इसके शिकार हुए हैं। बहरहाल सालों से तनाव में जी रहे कई लोग चिंता मुक्त हुए।
मेघालय के राज्यपाल रहे रंजीत सिंह मुसाहारी  के बेटे भारतीय सेना में कर्नल स्तर के अधिकारी रहे। उनका बेटा यानी पूर्व राज्यपाल का पोता इस समय रिजर्व बैंक में वरिश्ठ अधिकारी है, उनके पास भारतीय पासपोर्ट भी है, उनके पास नागरिकता साबित करने का नेाटिस आया तो सारे कागज जमा करवा दिए गए, लेकिन अंतिम सूची में वे विदेषी घोशित हो गए। जबकि दादा व उनका परिवार भारतीय है। एआईयूडीएफ के मौजूदा विधायक अनंत कुमार मालो के साथ भी कुछ ऐसा हुआ, वे भी इस सूची में स्थाना न पा सके।  फौज से जेसीओ के रूप में रिटायर हुए मुहम्मद सनाउल्ला  या तारापुर, सिल्चर के वकील प्रदीप कुमार सिन्हा या फिर असम आंदोलन में षहीद हुए मदन मल्लिक के परिवार , काटीुगड़ा के पूर्व विधायक अताउर रहमान के परिवार में केवल बड़ी बेटी का नाम न होना दरंग घाटी के खारूपेटिया नगर समिति के अध्यक्ष आषीश नंदी के परिवार के सभी 20 लोगों का नाम सूची में होना लेकिन उन्ही का न होना जैसी कई अनियमितताएं धीरे-धीरे सामने आ रही हैं। ऐसे में सूची जारी होने के दो घंटे बाद ही जब डोलाबारी, सोनितपुर की सलिहा खातून को पता चला कि वह अब विदेषी बन गई है तो उसने कुंए में कूद कर जान दे दी।
असम आंदोलन और घुसपैठिये
असम समझौते के पूरे 38 साल बाद असम से अवैध बांग्लादेशियों को निकालने की जो कवायद शुरू हुई, उसमें आशंकाएं, भय और अविश्वास का माहौल विकसित हो रहा है। असम के मूल निवासियों की बीते कई दषकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वहां से वापिस भेजा जाए। इस मांग को ले कर आल असम स्टुडंेट यूनियन(आसू) की अगुवाई में सन 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था, जिसमें सत्याग्रह, बहिष्कार, धरना और गिरफ्तारियां दी गई थीं। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्यवाही के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया।  चुनाव के बाद जम कर हिंसा शुरू हो गई।  इस हिंसा का अंत केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार जनवरी-1966 से मार्च- 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि सन 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापिस अपने देश जाना होगा। इसके बाद आसू की सरकार भी बनीं। लेकिन इस समझौते को पूरे 38 साल बीत गए हैं और विदेषियों- बांग्लादेषी व म्यांमार से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं ये विदेषी बाकायदा अपनी भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं।
सन 2009 में मामला सुप्रीम केार्ट पहुचा। जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एनआरसी बनाने का काम शुरू हुआ तो जाहिर है कि अवैध घुसपैठियों में भय तो होगा ही। लेकिन असल तनाव शुरू होने जब राज्य शासन ने नागरिकता कानून संशोधन विधेयक को विधान सभा में पेश किया। इस कानून के तहत बांग्लादेश से अवैध तरीके से आए हिंदू शरर्णाथियों को नागरिकता दिए जाने का प्रावधान है। यही नहीं घुसपैठियों की पहचान का आधार वर्ष 1971 की जगह 2014 किया जा रहा है। जाहिर है कि इससे अवैध घुसपैठियों की पहचान करने का असल मकसद तो भटक ही जाएगा। हालांकि राज्य सरकार के सहयोगी दल असम गण परिषद ने इसे असम समर्झाते की मूल भावना के विपरीत बताते हुए सरकार से अलग होने की धमकी भी दे दी।
यह एक विडंबना है कि बांग्लादेष को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसी का फायदा उठा कर बांग्लादेष के लोग बेखौफ यहां आ रहे हैं, बस रहे हैं और अपराध भी कर रहे हैं। हमारा कानून इतना लचर है कि अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेषी घोशित कर देती है, लेकिन बांग्लादेष की सरकार यह कह कर उसे वापिस लेने से इंकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं हैं। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से पुरानी समस्या है।  सन 1901 से 1941 के बीच भारत(संयुक्त) की आबादी में बृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिषत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसदी दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेषी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, सिबसागर जिलो में म्यांमार व अन्य देषों से लोगों की भीड़ आना षुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी 30 सालों में असम में केवल सिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां असम मूल के लोगों की बहुसंख्यक आबादी होगी।
असम में विदेषियों के षरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है - 1971 की लड़ाई या बांग्लादेष बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 से 1971 के बीच 37 लाख सत्तावन हजार बांग्लादेषी , जिनमें अधिकांष मुसलमान हैं, अवैध रूप से अंसम में घुसे व यहीं बस गए। सन 70 के आसपास अवैध षरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के 33 मुस्लिम विधायाकें ने देवकांत बरूआ की अगवाई में मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। षुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत सी है, जिस पर ख्ेाती नहीं होती है और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देष का भला कर रहे हैं। लेकिन आज हालात इतने बदतर है कि कांजीरंगा नेषनल पार्क को छूती कई सौ किलोमीटर के नेषनल हाईवे पर दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। इनके कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि कोई आठ साल पहले राज्य के राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी रहे ले.ज. एस.के. सिन्हा ने राश्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेषियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसे तलाषना व फिर वापिस भेजने के लायक हमारे पास मषीनरी नहीं है।
एनआरसी के अंतिम मसौदे में 19 लाख 6 हजार 657 लोग बाहर हुए हैं। जबकि इसमें 3 करोड़ 11 लाख 21 हजार 4 लोगों को वैध बताया गया है। अब इस लिस्ट से बाहर हुए लोग फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में अपील कर सकते है। इससे पहले पिछले साल जुलाई में जारी हुई एनआरसी सूची में 3.29 करोड़ लोगों में से 40.37 लाख लोगों का नाम नहीं शामिल थे। अंतिम सूची में उन लोगों के नाम शामिल किए गए हैं, जो 25 मार्च 1971 से पहले असम के नागरिक हैं या उनके पूर्वज राज्य में रहते आए हैं।
भले ही राज्य सरकार संयम रखने व अपील  में नाम होने का वास्ता दे रही हो, लेकिन राज्य में बेहद तनाव, अनिश्तिता का माहौल है। ऐसे में कुछ लेाग अफवाहे फैला कर भी माहौल खराब कर रहे हैं।

चार साल , 62 हजार कर्मचारी और 1,243.53  करोड़ रूपए
सुप्रीम कोर्ट के कड़े रूख के बाद आईएएस अधिकारी प्रतीक हजैला  के नेतृत्व में विदेषी लोगों को छांटने के लिए बने नागरिकता रजिस्टर को अंतिम रूप देने में चार साल लगे। इस काम में 62 हजार कर्मचारी  दिन-रात लगे रहे। असम में एनआरसी कार्यालय 2013 में बनाया गया था जिसके बाद पर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में 2015 से यह कार्य शुरू हुआ। इसका पहला रजिस्ट्रेशन 1915 में किया गया था। इसके बाद 2018 तक तीन साल में राज्य के 3.29 करोड़ लोगों ने अपनी नागरिकता साबित करने के लिए 6.5 करोड़ दस्तावेज सरकार के पास जमा करवाए थे। इन दस्तावेजों का वजन करीब 500 ट्रकों के वजन के बराबर था। इस पूरी प्रक्रिया को संपन्न कराने के लिए केन्द्र ने कुल 1,288.13 करोड़ रुपए रिलीज किए हैं इसमें से 1,243.53 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। इसकी पहली सूची  2017 और दूसरी सूची 2018 में प्रकाशित की गई थी। सनद रहे इस सूची में उन षरणार्थियो को भारत की नागरिकता नहीं दी गई है जो सन 1971 के पहले भारत में आए और उनके पास षरर्णाथी प्रमाण पत्र भी है।


नागरिकता रजिस्टर वाला एकमात्र राज्य असम
असम देश का अकेला राज्य है जहां  नागरिकता रजिस्टर बना है, वह भी दूसरी बार । याद होगा कि सन 1905 में तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने बंगाल का विभाजन किया थाा। तब दो नए प्रांत बने थे ऋ पूर्वी बंगाल(आज का बांग्लादेष)  और असम। विभाजन के समय डर था कि कही असम को पूर्वी बंगाल के साथ उस तरफ ना कर दिया जाए। उस पर लोकप्रिय गोपीनाथ बारदोलाई ने लंबा आंदोलन व संघर्श किया व सन 1950 में असम भारत का राज्य बना। उस समय भी बड़ी संख्या में षरणार्थी उधर से इधर आए जिनमें हिंदू बहुत थे। तब खड़े हुए विवाद के बाद सन 1951 में भी एक नागरिकता रजिस्टर अर्थात एनआरसी तैयार किया गया था।


अब आगे क्या ?
जिन लेागों के नाम अभी भी सूची में नहीं हैं, उनके पास अभी भी विकल्प मौजूद हैं:-
- 120 दिन के अंदर विदेशी प्राधिकरण में अपील कर सकते हैं ।
-ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए 1000 प्राधिकरण बनाए जाएंगे ।
- 100 प्राधिकरण तैयार, अन्य 200 सितंबर के पहले हफ्ते में तैयार होंगे।
- प्राधिकरण में असफल होने के बावजूद भी उच्च व उच्चतम न्यायालय में अपील का रास्ता खुला है।
- सुनवाई के दौरान किसी को कैंप में बंदी नहीं बनाया जाएगा।
- राज्य सरकार लोगों को कानूनी सहायता उपलब्ध करवाएगी।

याचिकाकर्ता ही असंतुश्ट
सुप्रीम केार्ट में यह मामला ले जाने वाली संस्था असम पब्लिक वर्क्स (एपीडब्ल्यू) खुद इस जारी सूची को ‘दोषपूर्ण दस्तावेज’ कह रही है। संस्था की मांग थी कि इस सूची को फिर से सत्यापित करने के लिए व्यक्तिगत रूप से लेागों को देखा जाए, जिसे कोर्ट ठुकरा चुकी है।
एपीडब्ल्यू के अध्यक्ष अभिजीत शर्मा ने एनआरसी अद्यतन करने की प्रक्रिया में इस्तेमाल सॉफ्टवेयर की दस्तावेजों के प्रबंधन की क्षमता पर भी सवाल उठाए और पूछा कि क्या इसका तीसरे पक्ष के प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ से निरीक्षण कराया गया था? श्री शर्मा ने कहा कि अंतिम एनआरसी से तय हो गया है कि असम में अवैध प्रवासियों के मुद्दे का कभी हल नहीं होगा। एनआरसी के राज्य समन्वयक प्रतीक हजेला की ओर से 27 प्रतिशत नामों का पुनरूसत्यापन रहस्य है। कोई नहीं जानता कि क्या यह शत प्रतिशत दोषरहित है या नहीं।
श्री शर्मा ने प्रक्रिया के लिए इस्तेमाल सॉफ्टवेयर पर सवाल उठाते हुए कहा, ‘क्या यह खामी वाले सॉफ्टवेयर की वजह से हुआ  है ? मोरीगांव जिले में 39 संदिग्ध परिवारों के नाम भी एनआरसी में शामिल हो गए जिनका जिक्र जिला आयुक्त ने किया है? गौरतलब है कि 2009 में एपीडब्ल्यू ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर 41 लाख विदेशियों के नाम मतदाता सूची से हटाने और एनआरसी को अद्यतन करने की मांग की थी।

क्या हैं विदेषी अधिकरण
असम समझौते के मुताबिक राज्य में स्थापित विदेषी अधिकरण या फॉरेन ट्राइब्यूनल्स अर्ध न्यायिक संस्थाएं है, जिसे सिर्फ नागरिकता से जुड़े मसलों की सुनवाई का अधिकार दिया गया है। यह संस्था अंतिम सूची में नाम ना पाए लोगों के दावों पर ही सुनवाई कर सकती है। शेड्यूल ऑफ सिटिजनशिप के सेक्शन 8 के मुताबिक लोग एनआरसी में नाम न होने पर अपील के लिए समय सीमा को अब 60 से बढ़ाकर 120 दिन कर दिया गया है यानी 31 दिसंबर, 2019 अपील के लिए अंतिम तिथि होगी। गृह मंत्रालय के आदेश के तहत 1,000 ट्राइब्यूनल्स का गठन एनआरसी के विवादों के निपटारे के लिए किया गया है। यदि कोई व्यक्ति ट्राइब्यूनल में केस हार जाता है तो फिर उसके पास हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाने का विकल्प होगा। सभी कानूनी विकल्प आजमाने से पहले किसी को भी हिरासत में नहीं लिया जाएगा।  यही नहीं उसके बाद भी विदेाी घोशित लोगों को हिंरासत में ले कर गांग्लादेष के सामने हमें यह सिद्ध करना होगा कि ये अवैध प्रवासी बांग्लादेष से ही हमारे यहां आए हैं। वरना उन लोगों की हालत रोहिंगिया समान - ‘‘ बगैर नागरिकता वाले इंसान’ की तरह हो जाएगी।
असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल का कहना है कि गलत ढंग के लिस्ट में शामिल हुए विदेशी लोगों और बाहर हुए भारतीयों को लेकर केंद्र सरकार कोई विधेयक भी ला सकती है। हालांकि सरकार की ओर से यह कदम एनआरसी के प्रकाशन के बाद ही उठाया जाएगा।




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