सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध, रास्ता दिखाता लाचेन
लाचेन से क्यों ना सीखें ‘ष्ूान्य-प्लास्टिक’ व्यवस्था
पंकज चतुर्वेदी
एक छोटा सा गांव, जिसकी पूरी आजीविका, समृद्धि और अर्थ व्यवस्था, पर्यटन के जरिये चलती हो, वहां के लेागों ने यह मान लिया कि यदि प्रकृति है तो उनका जीवन है और उसके लिए जरूरी है कि वैष्विक रूप से हो रहे मौसमी बदलाव के अनुसार अपनी जीन षैली में सुधार लाएं। ना तो कोई सरकारी आदेष और ना ही सजा का डर, एक साथ पूरा गांव खड़ा होग या कि उनके यहां ना तो बोतलबंद पानी की बोतल आएगी और ना ही डिस्पाजेबल थर्माकोल या प्लास्टिक के बर्तन। पूरा गांव कचरे को छोटने व निबटाने में एकजुट रहता है। यह कहानी है उत्तरी सिक्किम के लाचेन की । तिब्बत (चीन) से लगते उत्तरी सिक्किम जिले में समु्रद तल से 6600 फुट की ऊंचाई पर लाचेन व लाचुंग नदियों के संगम पर स्थित इस कस्बे का प्राकृतिक सौंदर्य किसी कल्पना की तरह अप्रतीम है। राजधानी गंगटोक से 125 किमी कि दूरी पर स्थित इस गांव को ब्रिटिश घुमक्कड़ जोसेफ डॉल्टन हुकर ने सन 1855 में द हिमालयन जर्नल लिखे अपने आलेख में दुनिया का सबसे सुंदर गांव घोशित किया था। कहा जाता है कि गुरूनानकदेव तिब्बत की यात्रा के दौरान इसी रास्ते से गुजते थे और लाचेन से कोई 68 किलोमीटर दूर अपनी प्यास बुझाने को बरफ में अपनी छड़ी घुसा कर पानी निकाला था। मान्यता है कि तभी से वहां एक झील बन गई जिसे गुरूडांेगमार कहते हैं। जब तापमान षून्य से बहुत नीचे हो, तब भी इस झील का पानी बरफ नहीं बनता। गुरूडोंगमार जाने वले यात्रियों को ठहरने के लिए लाचेन ही आना होता है।
इस गांव का मौसम हर समय ठंडा रहा करता था। लोग पूरे साल रजाई ले कर सोते थे। सिक्किम से कोई 125 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव तक पहुंचने में जीप से पांच घंटे लगते हैं। भारत-चीन के बीच सीमा व्यापार शुरू होने के बाद से इस क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही भी बढी है। इससे पहले 1950 में तिब्बत पर चीन के अधिकार से पहले भी लाचुंग सिक्किम व तिब्बत के बीच व्यापारिक चौकी का काम करता था। बाद में यह क्षेत्र लंबे समय तक आम लोगों के लिए बंद रहा। अब सीमा पर स्थिति सामान्य होने के साथ ही पर्यटक यहां फिर से जाने लगे हैं। राज्य सरकार ने इसे ‘‘हेरीटेज विलेज’’ घोशित किय व कुछ अफसरों ने घरों में ठहराने की येाजना बना दी। परिणामस्वरुप यहां कई होटल भी बने हैं। सस्ते व महंगे, दोनों प्रकार के होटल मिल जाएंगे। पहले पहल तो स्थानीय लेागों को बहुत अच्छा लगा कि इतने पर्यटक पहुंच रहे हैं। घरों में भी लोगों को ठहराने लगे। पैसे की गरमी के बीच लोगों को पता ही नहीं चला कि कब उनके बीच गरमी एक मौसम के रूप में आ कर बैठ गई। पूरे साल भयंकर मच्छर होने लगे। बरसात में पानी नहीं बरसता और बैमौसम ऐसी बारिष होती कि खेत- घर उजड़ जाते। पिछले साल तो वहां जंगल में आग लगने के बाद बढ़े तपमान से लेागों का जीना मुहाल हो गया। यह गांव ग्लेषियर के करीब बनी झील षाको-चो से निकलने वाली कई सरिताओं का रास्ता रहा है। डीजल वाहनों के अंधाधुंध आगमन से उपजे भयंकर धुएं से सरिताओं पर असर होने लगा है। अभी पांच साल पहले यहां दो फुट बरफ पड़ती थी जो इस बार दो फुट रह गई। जाहिर है कि स्थानीय समाज को पानी के संकट का अंदेषा भी लगा। वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि किसी भी समय षाको चो फट सकती है। गांव की संरक्षक झील गुरूडोंगमर की धारा कब सिकुड़ गई लेागों को पता नहीं चला। वहां पहाड़ों से क्षरण भी बड़ी चेतावनी बन गई। यहां के कई परिवार आर्गेनिक खेती करते हैं और बढ़ते प्लास्टिक व अन्य कचरे से उनकी फसल पर विपरीत असर पड़ रहा था, कीट का असर, अन्न कम होना जैसी दिक्कतों ने खेती को घेर लिया।
जब हालात असहनीय हो गए तो समाज को ही अपनी गलतियां याद आईं। उन्होनंे महसूस किया कि यह वैष्विक जलवायु परिवर्तन का स्थानीय असर है और जिसके चलते उनके गांव व समाज पर अस्तित्व का संकट कभी भी खड़ा हो सकता हे। सन 2012 में सबसे पहले गांव में प्लास्टिक की पानी की बोतलों पर पाबंदी लगाई गई। समाज ने जिम्मा लिया कि लोगों को साफ पेय जल वे उपलब्ध कराएंगे। उसके बाद खाने की चीजें डिस्पोजेबल पर परोसने पर पाबंदी हुई। अब लोग बायाग्रिडेबल कचरा स्वयं अलग करते हैं व उसका निबटान भी खुद करने लगे। यह सब कुछ हुआ यहां के मूल निवासियों की पारंपरिक निर्वाचित पंचायत ‘जूमसा’ के नेतृत्व में । जूमसा यहां का अपना प्रषासनिक तंत्र है जिसके मुखिया को ‘पिपॉन’ कहते हैं और उसका निर्णय सभी को मानना ही होता है। गुरूडोंगमर झील सिक्किम का सबसे बड़ा ‘‘ग्लेषियर-वेटलैंड’’ है। यह दुनिया में एक दुर्लभ जैवविविधता का उदाहरण है। इस झील तक आने वाले सभी पर्यटक रात में लासेन में रूकते हैं व अगली सुबह इस मनोरम झील के लिए पैदल यात्रा करते हैं। गांव वालों ने पहले इस झील के चारों ओर सफाई की और अब वहां किसी भी तरह का कचरा फैंकना दंडनीय अपराध है। इसकी निगरानी, गांव वाले व प्रषासन करता है। गांव के प्रत्येक होटल व दुकनों को स्वच्छ आरओ वाला पानी उपलब्ध करवाया जा रहा है और पैक्ड पानी बेचने को अपराध घोशित किया गया हे। गांव में आने से पूर्व पर्यटकों को बैरियर पर ही इस बाबत सूचना के पर्चे दिए जाते हैं व उनके वाहनों पर स्टीकर लगा कर इस पाबंदी को मानने का अनुरोध होता हे। स्थानीय समाज पुलिस प्रत्येक वाहन की तलाषी लेती है,ताकि कोई प्लास्टिक बोतल यहां घुस न पाए। यह व्यवस्था चलते अब सात साल हो गए है।। यहां के बच्चे भी अब पर्यावरण के प्रति संवेदनषील हो गए हैं।
यह सभी जानते हैं किप् लास्टिक बोतलों का जो अंबार जमा हो रहा है उसका महज बीस फीसदी ही पुनर्चक्रित होता है, कीमतें तो ज्यादा हैं ही; इसके बावजूद जो जल परोसा जा रहा है, वह उतना सुरक्षित नहीं है, जिसकी अपेक्षा उपभोक्ता करता है। कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके संपर्क में आ कर सबकुछ पवित्र हो जाता हे। विडंबना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फंस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। ऐसे में लासेन गांव एक आषा और उम्मीद की किरण जगाता है।
पंकज चतुर्वेदी
एक छोटा सा गांव, जिसकी पूरी आजीविका, समृद्धि और अर्थ व्यवस्था, पर्यटन के जरिये चलती हो, वहां के लेागों ने यह मान लिया कि यदि प्रकृति है तो उनका जीवन है और उसके लिए जरूरी है कि वैष्विक रूप से हो रहे मौसमी बदलाव के अनुसार अपनी जीन षैली में सुधार लाएं। ना तो कोई सरकारी आदेष और ना ही सजा का डर, एक साथ पूरा गांव खड़ा होग या कि उनके यहां ना तो बोतलबंद पानी की बोतल आएगी और ना ही डिस्पाजेबल थर्माकोल या प्लास्टिक के बर्तन। पूरा गांव कचरे को छोटने व निबटाने में एकजुट रहता है। यह कहानी है उत्तरी सिक्किम के लाचेन की । तिब्बत (चीन) से लगते उत्तरी सिक्किम जिले में समु्रद तल से 6600 फुट की ऊंचाई पर लाचेन व लाचुंग नदियों के संगम पर स्थित इस कस्बे का प्राकृतिक सौंदर्य किसी कल्पना की तरह अप्रतीम है। राजधानी गंगटोक से 125 किमी कि दूरी पर स्थित इस गांव को ब्रिटिश घुमक्कड़ जोसेफ डॉल्टन हुकर ने सन 1855 में द हिमालयन जर्नल लिखे अपने आलेख में दुनिया का सबसे सुंदर गांव घोशित किया था। कहा जाता है कि गुरूनानकदेव तिब्बत की यात्रा के दौरान इसी रास्ते से गुजते थे और लाचेन से कोई 68 किलोमीटर दूर अपनी प्यास बुझाने को बरफ में अपनी छड़ी घुसा कर पानी निकाला था। मान्यता है कि तभी से वहां एक झील बन गई जिसे गुरूडांेगमार कहते हैं। जब तापमान षून्य से बहुत नीचे हो, तब भी इस झील का पानी बरफ नहीं बनता। गुरूडोंगमार जाने वले यात्रियों को ठहरने के लिए लाचेन ही आना होता है।
इस गांव का मौसम हर समय ठंडा रहा करता था। लोग पूरे साल रजाई ले कर सोते थे। सिक्किम से कोई 125 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव तक पहुंचने में जीप से पांच घंटे लगते हैं। भारत-चीन के बीच सीमा व्यापार शुरू होने के बाद से इस क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही भी बढी है। इससे पहले 1950 में तिब्बत पर चीन के अधिकार से पहले भी लाचुंग सिक्किम व तिब्बत के बीच व्यापारिक चौकी का काम करता था। बाद में यह क्षेत्र लंबे समय तक आम लोगों के लिए बंद रहा। अब सीमा पर स्थिति सामान्य होने के साथ ही पर्यटक यहां फिर से जाने लगे हैं। राज्य सरकार ने इसे ‘‘हेरीटेज विलेज’’ घोशित किय व कुछ अफसरों ने घरों में ठहराने की येाजना बना दी। परिणामस्वरुप यहां कई होटल भी बने हैं। सस्ते व महंगे, दोनों प्रकार के होटल मिल जाएंगे। पहले पहल तो स्थानीय लेागों को बहुत अच्छा लगा कि इतने पर्यटक पहुंच रहे हैं। घरों में भी लोगों को ठहराने लगे। पैसे की गरमी के बीच लोगों को पता ही नहीं चला कि कब उनके बीच गरमी एक मौसम के रूप में आ कर बैठ गई। पूरे साल भयंकर मच्छर होने लगे। बरसात में पानी नहीं बरसता और बैमौसम ऐसी बारिष होती कि खेत- घर उजड़ जाते। पिछले साल तो वहां जंगल में आग लगने के बाद बढ़े तपमान से लेागों का जीना मुहाल हो गया। यह गांव ग्लेषियर के करीब बनी झील षाको-चो से निकलने वाली कई सरिताओं का रास्ता रहा है। डीजल वाहनों के अंधाधुंध आगमन से उपजे भयंकर धुएं से सरिताओं पर असर होने लगा है। अभी पांच साल पहले यहां दो फुट बरफ पड़ती थी जो इस बार दो फुट रह गई। जाहिर है कि स्थानीय समाज को पानी के संकट का अंदेषा भी लगा। वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि किसी भी समय षाको चो फट सकती है। गांव की संरक्षक झील गुरूडोंगमर की धारा कब सिकुड़ गई लेागों को पता नहीं चला। वहां पहाड़ों से क्षरण भी बड़ी चेतावनी बन गई। यहां के कई परिवार आर्गेनिक खेती करते हैं और बढ़ते प्लास्टिक व अन्य कचरे से उनकी फसल पर विपरीत असर पड़ रहा था, कीट का असर, अन्न कम होना जैसी दिक्कतों ने खेती को घेर लिया।
जब हालात असहनीय हो गए तो समाज को ही अपनी गलतियां याद आईं। उन्होनंे महसूस किया कि यह वैष्विक जलवायु परिवर्तन का स्थानीय असर है और जिसके चलते उनके गांव व समाज पर अस्तित्व का संकट कभी भी खड़ा हो सकता हे। सन 2012 में सबसे पहले गांव में प्लास्टिक की पानी की बोतलों पर पाबंदी लगाई गई। समाज ने जिम्मा लिया कि लोगों को साफ पेय जल वे उपलब्ध कराएंगे। उसके बाद खाने की चीजें डिस्पोजेबल पर परोसने पर पाबंदी हुई। अब लोग बायाग्रिडेबल कचरा स्वयं अलग करते हैं व उसका निबटान भी खुद करने लगे। यह सब कुछ हुआ यहां के मूल निवासियों की पारंपरिक निर्वाचित पंचायत ‘जूमसा’ के नेतृत्व में । जूमसा यहां का अपना प्रषासनिक तंत्र है जिसके मुखिया को ‘पिपॉन’ कहते हैं और उसका निर्णय सभी को मानना ही होता है। गुरूडोंगमर झील सिक्किम का सबसे बड़ा ‘‘ग्लेषियर-वेटलैंड’’ है। यह दुनिया में एक दुर्लभ जैवविविधता का उदाहरण है। इस झील तक आने वाले सभी पर्यटक रात में लासेन में रूकते हैं व अगली सुबह इस मनोरम झील के लिए पैदल यात्रा करते हैं। गांव वालों ने पहले इस झील के चारों ओर सफाई की और अब वहां किसी भी तरह का कचरा फैंकना दंडनीय अपराध है। इसकी निगरानी, गांव वाले व प्रषासन करता है। गांव के प्रत्येक होटल व दुकनों को स्वच्छ आरओ वाला पानी उपलब्ध करवाया जा रहा है और पैक्ड पानी बेचने को अपराध घोशित किया गया हे। गांव में आने से पूर्व पर्यटकों को बैरियर पर ही इस बाबत सूचना के पर्चे दिए जाते हैं व उनके वाहनों पर स्टीकर लगा कर इस पाबंदी को मानने का अनुरोध होता हे। स्थानीय समाज पुलिस प्रत्येक वाहन की तलाषी लेती है,ताकि कोई प्लास्टिक बोतल यहां घुस न पाए। यह व्यवस्था चलते अब सात साल हो गए है।। यहां के बच्चे भी अब पर्यावरण के प्रति संवेदनषील हो गए हैं।
यह सभी जानते हैं किप् लास्टिक बोतलों का जो अंबार जमा हो रहा है उसका महज बीस फीसदी ही पुनर्चक्रित होता है, कीमतें तो ज्यादा हैं ही; इसके बावजूद जो जल परोसा जा रहा है, वह उतना सुरक्षित नहीं है, जिसकी अपेक्षा उपभोक्ता करता है। कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके संपर्क में आ कर सबकुछ पवित्र हो जाता हे। विडंबना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फंस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। ऐसे में लासेन गांव एक आषा और उम्मीद की किरण जगाता है।
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