भारतीय अस्मिता की पहचान है रामलीला
बनारस के रामनगर की रामलीला को अपने तरह का विलक्षण नाट्य मंचन कहा जाता है। रामनगर में वर्ष 1783 में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने की थी। यहां पर बनाए गए स्टेज देखने योग्य होते हैं। रामनगर की रामलीला की खास बात यह है कि इसके प्रधान पात्र एक ही परिवार के होते हैं। उनके परिवार के सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी रामलीला में अपनी भूमिका अदा करते आ रहे हैं। यहां आज भी न तो चमचमाती रोशनी वाले लट्टू होते हैं, और न ही ध्वनिविस्तारक यंत्र, कोई सजा-धजा मंच या चमक-दमक वाली ड्रेस भी नहीं होती। खुला मंच और दूर-दूर तक फैले एक दर्जन कच्चे-पक्के मंच व झोपड़े। इनमें से कोई अयोध्या तो कोई लंका तो कोई अशोक वाटिका हो जाता है। परंपरानुसार काशी नरेश हाथी पर आते हैं और उसी के बाद रामलीला प्रारंभ होती है। इस मंचन का आधार रामचरितमानस है, सो दर्शक भी अपने साथ पाटी पर रख कर रामचरितमानस लाते हैं व साथ-साथ पाठ करते हैं।
प्रयागराज यानी इलाहाबाद में तो कई रामलीलाएं एक साथ होती हैं, और सभी का अपना इतिहास है। लेकिन वहां की रामलीला मंचन पर टीवी की रामलीलाओं का प्रभाव सर्वाधिक हुआ और अब चुटिले संवाद, चमकीले सेट और चटकीले वस्त्र आदि का दिखावा यहां बढ़ गया है। यहां सौ से अधिक स्थानों पर रामलीला होती है। कहीं रावण इलेक्ट्रॉनिक चेहरे से आवाज निकालता, आंखे दिखाता है तो कहीं हनुमान को लिफ्ट से ऊपर उठा कर हवा में उड़ाया जाता है। करोड़ों का बजट, फिर भी भीड़ जुटाने को नर्तकियों का सहारा लिया जाता है। यहां रामलीला शुरू होने से एक दिन पहले कर्ण-अश्व की आकर्षक शोभायात्र निकाली जाती है।
सरकारी रिकार्ड के मुताबिक 19वीं सदी की शुरुआत में प्रयागराज में चार स्थानों पर रामलीला का मंचन होता था। एक अंग्रेज अधिकारी फैनी पार्क्स ने अपने संस्मरण में वर्ष 1829 में फौजियों द्वारा चेथम लाइन्स में संचालित व अभिनीत रामलीला का उल्लेख किया है। मुगल बादशाह अकबर ने भगवत गोसाईं को कमोरिन नाथ महादेव के पास की भूमि रामलीला के लिए दान में दी थी जिस पर वर्षो रामलीला होती रही थी। पथरचट्टी यानी बेनीराम की रामलीला की शुरुआत वर्ष 1799 में कही जाती है जिसे अंग्रेज शासक खुल कर मदद करते थे। श्रीराम की जन्म स्थली अयोध्या की रामलीला बेहद विशिष्ट है जिसमें कत्थक नृत्य में पारंगत कलाकार एकल व सामूहिक नृत्य और पारंपरिक ताल, धुान, टप्पों के आधार पर संपूर्ण रामलीला को एक विशाल मंच पर प्रस्तुत करते हैं।
तुलसीदास से जुड़े स्थल चित्रकूट में रामलीला का मंचन फरवरी के अंतिम सप्ताह में सिर्फ पांच दिनों के लिए ही होता है। यहां गीत-संगीत-अभिनय को और सशक्त बनाने के लिए समय के साथ आए तकनीकी उपकरणों का खुल कर इस्तेमाल होता है।
जब देश-दुनिया की रामलीलाओं का विमर्श हो तो गढ़वाल व कुमाऊं की रामभक्ति के रंग को याद करना अनिवार्य है। अभी कुछ दशक पहले तक वहां सड़कें थी नहीं, बिजली व संचार के साधन भी नहीं, ऐसे में लोगों के आपस में मेल-जोल, मनोरंजन और अपनी कला-प्रतिभा के प्रदर्शन का सबसे प्रामाणिक मंच रामलीलाएं ही थी। यहां की रामलीला की खासियत है, संवादों में छंद और रागनियों का प्रयोग। इनमें चौपाई, दोहा, गजल, लावणी, सोरठा जैसी विधाओं के वैविध्य का प्रयोग होता है। कुमाऊं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर में हुई जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर और पिथौरागढ़ में क्रमश: वर्ष 1880, 1890 और 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारंभ हुआ। मध्य प्रदेश में होशंगाबाद, जबलपुर, इंदौर और छतरपुर में रामलीलाओं का इतिहास एक सदी पुराना है। इन सभी में स्थानीय बोलियों- बुंदेली, मालवी आदि का पुट स्पष्ट दिखता है।
एशिया के कई अन्य देशों- मलेशिया, इंडोनेशिया, नेपाल, थाईलैंड आदि में उनकी अपनी परंपराओं के अनुसार सदियों से रामलीला मंचन होता रहा है। फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और अब अमेरिका में भी रामलीला का मंचन होता है। इंडोनेशिया और मलेशिया में मुखौटा रामलीला का प्रचलन है। दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। जावा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने एक बार नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया। म्यांमार के राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदर्शन होने का उल्लेख मिलता है। कंबोडिया में रामलीला का अभिनय ‘ल्खोनखोल’ के माध्यम के होता है। ‘ल्खोन’ का इंडोनेशियाई भाषा में नाटक और कंबोडिया की भाषा में ‘ खोल’ का अर्थ बंदर होता है। कंबोडिया के राजभवन में रामायण के प्रमुख प्रसंगों का अभिनय होता था।
शेडो ड्रामा के जरिये मलेशिया के वेयांग का विशिष्ट स्थान है। वेयांग का अर्थ छाया है। इसके अंतर्गत सफेद पर्दे पर रोशनी डाली जाती है और बीच में चमड़े की विशाल पुतलियों को कौशलता के साथ नचाते हुए उसकी छाया से राम कथा को देखा जाता है।
भारत में रामकथा के रूप में रामलीला का मंचन सदियों से होता आ रहा है। भारतीय अस्मिता की एक बड़ी पहचान के रूप में इसकी महत्ता आज भी कायम है। एशिया के कई अन्य देशों में भी प्रत्येक वर्ष रामलीला का मंचन होता है
पंकज चतुर्वेदी
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